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शनिवार, 15 अगस्त 2020

केरल जहाँ की सुंदर प्रकृति के साथ लोग भी हैं इंसानियत भरे ...Kerala : Human By Nature

भारत के दक्षिणी पश्चिमी कोने पर बसा एक दुबला पतला सा राज्य है केरल पर ये राज्य अपनी कृशकाया में ना जाने कितनी विविध संस्कृतियों को सैकड़ों सालों से समेटता आया है। इतिहास गवाह है कि इसकी दहलीज़ पर जब जब व्यापारियों और धर्म प्रचारकों ने कदम रखे उन्हें यहाँ के राजाओं ने ना केवल पनाह दी बल्कि उनकी रहन सहन और संस्कृति के भी कई पहलुओं को स्थानीय जीवन शैली में समाहित किया।



क्या अरब, क्या पुर्तगाली, क्या डच, क्या यहूदी, सब इस मिट्टी का हिस्सा बने। वे अपने साथ अपना धर्म तो लाए पर उन्होंने यहाँ रहते रहते स्थानीय परंपराओं को अपने रहन सहन का हिस्सा बना लिया। जब आप केरल जाएँगे तो यहाँ की साझा संस्कृति और मानवीय मूल्यों के कई उदाहरण आपको बस यूँ ही घूमते फिरते दिख जाएँगे।

जब मैं पहली बार कोच्चि गया था तो मात्तनचेरी की गलियों से गुजरते हम एक यहूदी सिनगॉग पहुँचे तो सबसे पहले इसका अज़ीब सा नाम ध्यान आकर्षित कर गया। यहूदियों का ये प्रार्थना स्थल परदेशी सिनगॉग (Pardeshi Synagogue) कहलाता है। इसका कारण ये है कि इसे यहाँ रह रहे स्पेनिश, डच और बाकी यूरोपीय यहूदियों के वंशजों ने मिलकर 1568 में बनाया था। इसलिए परदेशियों का बनाया परदेशी प्रार्थना स्थल हो गया। मज़े की बात ये है कि किसी यहूदी प्रार्थना स्थल में चप्पल उतार कर जाना अनिवार्य नहीं रहता । पर परदेशी सिनागॉग में आप बिना चप्पल उतारे प्रवेश नहीं कर सकते। साफ है कि समय के साथ हिंदू रीति रिवाज का यहाँ रहने बाले यहूदियों पर भी असर पड़ा और उन्होंने उसे अपना लिया।


 

केरल में राह चलते आप किसी भोजनालय में चले जाएँ। आपको कई बार दीवारों पर यहाँ के तीन धार्मिक समुदाय के प्रतीक चिन्ह इकट्ठे दिख जाएँगे। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की अद्भुत मिसाल है ये प्रदेश। यहाँ के लोग भले ही अलग अलग धर्म के अनुयायी हों पर विपत्ति आने पर समाज एक सूत्र में बँधकर एक दूसरे की मदद करता है। अभी हाल ही में कोज़ीकोड में एक विमान दुर्घटना हुई और मिनटों में आसपास के लोग मलबे से लोगों को बाहर निकालने और फिर घायलों को खून देने की ज़द्दोज़हद में जुट गए।

ऍसा ही एक किस्सा याद आता है मुझे जो मेरे एक केरलवासी मित्र ने वहाँ की यात्रा के दौरान सुनाया था। भारतीय मानसून की प्रचंडता को सबसे पहले केरल ही सहन करता है। ऐसे ही एक मानसून के दौरान हुई अत्याधिक वर्षा से मेरे मित्र का गाँव बारिश से पूरी तरह घिर गया था। वे इसी असमंजस में थे कि किस तरह अचानक आई बाढ़ से सुरक्षित निकल पाएँगे कि अगले ही दिन वहाँ से दस बीस किमी दूर मछुआरों की बस्ती से लोग स्वेच्छा से अपनी नाव ले कर उनकी मदद के लिए आ पहुँचे थे। केरल में एक दूसरे को मदद करने की ये परंपरा हर त्रासदी के बीच उभर कर सामने आती है।


लोगों की मदद करने की ये प्रवृति हमें कोच्चि  में भी दिखी थी। एलेप्पी के बैकवाटर्स में नौका यात्रा कर मैं लौटते हुए कोच्चि पहुँचा था। हमें वहाँ रहने के लिए रिहाइशी इलाके में गेस्ट हाउस मिला था। इलाके में ज्यादा दुकानें नहीं थीं। ले दे एक छोटा सा रेस्ट्राँ था। शाम को खाने के लिए जब वहाँ पहुँचे तो लगा कि ये जान लें कि कोच्चि में कहाँ कहाँ जाना श्रेयस्कर रहेगा ? रेस्ट्राँ के मालिक से पूछा तो भाषा की अड़चन सामने आ गयी। हमारी मदद के लिए वो अपने कई ग्राहकों को बारी बारी से बुलाता रहा जो कि अंग्रेजी में बात कर सकें और उसकी ये कोशिश तब तक ज़ारी रही जब तक हमें अपने प्रश्न का यथोचित जवाब मिल नहीं गया।

केरल जैव विविधता लिए एक बड़ा ही खूबसूरत राज्य है जिसके पश्चिमी किनारे के समानांतर बहता अरब सागर कई नयनाभिराम तटों और बैकवाटर्स के अद्भुत जाल को समेटे है तो दूसरी ओर पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ हैं जिनकी ढलानों पर लगाए गए चाय के साथ मसालों और रबर के बागानों की सुंदरता देखते ही बनती है।  इस खूबसूरती में चार चाँद लगाती है यहाँ की मिश्रित संस्कृति और इंसानियत का जज़्बा रखने वाले यहाँ के लोग। इसलिए जब भी केरल जाएँ यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेने के साथ साथ कुछ वक़्त यहाँ की संस्कृति, पर्व त्योहार को समझने और यहाँ के मिलनसार लोगों से मिलने जुलने में भी बिताएँ। यकीनन ऐसा करने से आपके सफ़र का मजा दोगुना हो जाएगा।  

Sponsored by Kerala Tourism

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..

मलयालम में केरा (Kera) का मतलब होता है नारियल का वृक्ष और अलयम (Alayam) मतलब जमीन या देश। ऍसा कहा जाता है कि केरलयम ही समय के साथ केरल में बदल गया। यूँ तो नारियल के पेड़ पूरी यात्रा में हमेशा दिखाई देते रहे पर कोट्टायम (Kottayam) के बैकवाटर्स में ये जिस रूप में हमारे सामने आए वो बेहद खूबसूरत था।

 
जैसा कि मैंने आपको बताया था कि लोग केरल के बैकवाटर्स का आनंद लेने कुमारकोम जाते हैं जो कि कोट्टायम शहर से करीब १६ किमी है। पर यही काम आप काफी कम कीमत में कोट्टायम शहर में रहकर भी कर सकते हैं। पूरे कोट्टायम जिले में नदियों और नहरों का जाल है जो आपस में मिलकर वेम्बनाड झील (Vembanad lake) में मिलती हैं।


जिस होटल में हम ठहरे थे वहीं से हमने दिन भर की मोटरबोट यात्रा के टिकट ले लिए। ये प्रति व्यक्ति टिकट मात्र 200 रुपये का था जिसमें दिन का शाकाहारी भोजन और शाम की चाय शामिल थी। कोट्टायम जेट्टी में उस दिन यानि 28दिसंबर को कोई भीड़ नहीं थी। दस बजे तक धूप पूरी निखर चुकी थी और हम अपनी दुमंजिला मोटरबोट में आसन जमा चुके थे। ऊपर डेक पर नारंगी रंग का त्रिपाल तान दिया गया था जिससे धूप का असर खत्म हो गया था। बच्चे कूदफाँद करते हुए सबसे पहले मोटरबोट के डेक के सबसे आगे वाले हिस्से पर जा पहुँचे। वो जगह चित्र खींचने और मनमोहक दृश्यों को आत्मसात करने के लिए आदर्श थी।

 
थोड़ी दूर आगे बढ़ते ही नहर के दोनों किनारों पर नारियल के पेड़ों की श्रृंखला नज़र आने लगी। बीच बीच में नहर को पार करने के लिए पुल बने थे जिन्हें मोटरबोट के आने से उठा लिया जाता था। पहले आधे घंटे तक नहर की चौड़ाई संकरी ही रही। पानी की सतह के ऊपर जलकुंभी के फैल जाने की वजह से मोटरबोट को बीच-बीच में रुक-रुक के चलना पड़ रहा था। नहर के दोनों ओर ग्रामीणों के पक्के साफ-सुथरे घर नज़र आ रहे थे। बस्तियाँ खत्म हुईं तो ऍसा लगा कि हम वाकई धान के देश में आ गए हैं। दूर दूर तक फैले धान के खेत अपनी हरियाली से मन को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। किनारे-किनारे प्रहरी के रूप में खड़े हुए नारियल के पेड़ और खेतों में मँडराते सफेद बगुलों और अन्य पक्षियों के झुंड ऐसा दृश्य उपस्थित करते हें कि बस आपके पास टकटकी लगा कर देखने के आलावा कुछ नहीं बचता।

हालैंड के आलावा यही ऍसा इलाका है जहाँ समुद्रतल के नीचे धान की खेती होती है। खेतों के चारों ओर इतनी ऊँचाई की मेड़ बनाई जाती है जिससे खारा पानी अंदर ना आ सके। समुद्र के पार्श्व जल से भरे ये इलाके यहाँ के ग्रामीण जीवन की झलक दिखाते हैं। यहाँ के लोगों का जीवन कठिन है। मुख्य व्यवसाय नाव निर्माण, नारियल रेशे का काम, मछली -बत्तख पालन और धान की खेती है। सामने बहती नदियाँ और नहरें इनके जीवन की सभी मुख्य गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं। हर छोटे बड़े घर के सामने एक छोटी सी नाव आप जरूर पाएँगे। घर से किसी काम के लिए निकलना हो तो यही नाव काम आती है। यहाँ तक की फेरीवाले तमाम जरूरत की चीजों को नाव पर डालकर एक गाँव से दूसरे गाँव में बेचते देखे जा सकते हैं।
केरल के ग्राम्य जीवन के विविध रंगों की झलक देखने के लिए यहाँ क्लिक करें।


बुधवार, 17 मार्च 2010

यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

तीस दिसंबर केरल में बिताया हमारा आखिरी दिन था। नए साल का स्वागत हम सब ट्रेन में ही करने वाले थे। हमारी वापसी की ट्रेन ३१ की सुबह एलेप्पी (Alleppy) से थी। पद्मनवा स्वामी मंदिर का बाहर से ही दर्शन के बाद हमारे पास तीन घंटे का समय और था। पता चला कि तिरुअनंतपुरम का चिड़ियाघर, संग्रहालय और चित्रालय सब एक ही जगह पर है। यानि उस इलाके में पहुँचने के बाद दो तीन घंटों का समय यूँ निकल जाना था। बच्चे साथ थे तो संग्रहालय से पहले चिड़ियाघर में घुसना पड़ा। बाकी जीव जंतु तो वही दिखे जो किसी भी चिड़ियाघर में दिखते हैं पर अब तक 'डिस्कवरी' और 'नेशनल ज्योग्राफिक चैनल ' में दिखते आए जिराफ को साक्षात देख कर खुशी हुई। चिड़ियाघर से निकलते-निकलते दो घंटे बीत चुके थे।

चित्रालय या संग्रहालय में से किसी एक में जाने के लिए सिर्फ एक घंटे का समय हमारे पास था। लंबे चौड़े संग्रहालय को देखने के लिए ये समय सर्वथा अपर्याप्त था तो हम वहाँ के चित्रालय की ओर चले गए। यहाँ का चित्रालय केरल के महान चित्रकार राजा रवि वर्मा को समर्पित है।

चित्रालय की पहली कला दीर्घा में राजा महाराजाओं के जीवंत चित्र देख कर आँखें ठगी की ठगी रह गईं। चित्रों में उकेरी भाव भंगिमा कुछ ऍसी थीं मानो वो कभी बोल या मुस्कुरा पड़ेंगी। दरअसल १८४८ में केरल के किलिमनूर (Kilimanoor) में जन्मे राजा रवि वर्मा बचपन से ही कूचियाँ चलाने में माहिर थे। कहा जाता है कि लड़कपन में ही उन्होंने घर की दीवारें जानवरों और रोजमर्रा की दिनचर्या से जुड़ी तसवीरें बना कर रंग दीं थी। ये वो समय था जब चित्रकारों के पास सिर्फ प्राकृतिक रंग होते थे। तैल चित्र बनाने की कला उन्होंने तिरुअनंतपुरम में आ कर सीखी। वहाँ से पोट्रेट बनाने में उन्होंने ऐसी महारत हासिल की कि उनकी प्रसिद्धि देश विदेश में फैलने लगी। १८७३ में उनके बनाए चित्र को विएना की कला दीर्घा में प्रदर्शित और पुरस्कृत किया गया। हालत ये हो गई उनके गाँव किलिमनूर में पोट्रेट्स बनाने के आग्रह के लिए इतनी चिट्ठियाँ आने लगीं कि वहाँ एक डाकखाना खोलना पड़ा।

चित्रालयम मैं मौजूद कला दीर्घाओं में पोट्रेट्स के आलावा राजा रवि वर्मा के चित्रों को मुख्यतः दो कोटियों में बाँटा जा सकता है। एक तो वो तसवीरें हैं जो उस समय के समाज के चित्र को दर्शाती है और दूसरे हमारी पौराणिक कथाओं के विभिन्न प्रसंगों की कहानी कहती तसवीरें। हमारी प्राचीन कथाओं में राजा रवि वर्मा ने उन प्रसंगों को चुन कर अपनी कूची के रंगों में भरा जिसमें एक तरह का मेलोड्रामा है। प्रसंग में उपस्थित किरदारों का भाव निरूपण इस तरह से किया गया है कि प्रसंग का सार चित्र से सहज ही समझ आ जाता है।

राजा रवि वर्मा ने पहली बार देवी देवताओं के चित्र हमारे आस-पास के परिदृश्य के साथ बनाने का चलन शुरु किया। देवी देवताओं की जो तसवीरें हम ज्यादातर अपने घर के कैलेंडरों में देखते हैं उसकी उत्पत्ति का श्रेय इस महान चित्रकार को जाता है। मैं करीब एक घंटे इस कला दीर्घा में रहा और त्रिवेंद्रम-कोवलम में बिताए गए समय में ये एक घंटा शायद मेरी स्मृतियों में सबसे ज्यादा दिनों तक बना रहेगा।

चित्रालय में तसवीर खींचने की इज़ाजत नहीं थी पर आप गूगल देव की सहायता से अंतरजाल पर राजा रवि वर्मा की बनाई हुई कई तसवीरें देख सकते हैं। यहाँ अपनी पसंद की कुछ तसवीरों को पेश कर रहा हूँ..


हाथों में लैंप लिए एक स्त्री ( Lady with a lamp)


जटायु का वध करता रावण

 
एक बंजारा परिवार (Gypsy Family)



उत्तर भारत की एक ग्वालिन (North Indian Milkmaid)


चित्रालय से निकलते हमें चार बज गए थे और रास्ते में खाते पीते हम करीब साढ़े आठ तक एलेप्पी पहुँच गए थे। हमारी ट्रेन सुबह पाँच बजे की थी इसलिए हमारी पहली कोशिश थी रेलवे के रिटायरिंग रूम में रात गुजारने की। पर आशा के विपरीत एलेप्पी स्टेशन बड़ा छोटा दिखाई दिया। एकमात्र रिटायरिंग रूम भरा हुआ था। स्टेशन के आस पास होटल क्या, ढंग के भोजनालय भी नहीं दिखे। स्टेशन के बिल्कुल करीब एलेप्पी या एलपुज्हा का समुद्र तट है और उसके किनारे कुछ गेस्ट हाउस भी हैं पर अब हमारे समूह को समुद्र तट देखने से ज्यादा होटल ढूँढने और सुबह सही समय स्टेशन पहुँचने की चिंता सता रही थी। होटल तो हमें मिल गया पर भोजन की तालाश में जब हम निकले तो साढ़े नौ बजे से ही एलेप्पी शहर सोता दिखाई दिया। पूर्व का वेनस (Venice of the East) कहे जाने वाले शहर में दुकाने साढ़े आठ नौ बजें ही बंद होने लगती हैं। तीस चालिस मिनट चक्कर काटने के बाद एक दुकान खुली दिखी तो वहाँ मेनू में डोसे के आलावा कुछ भी उपलब्ध नहीं था। थोड़ा बहुत खा कर हम वापस चल दिये केरल में अपनी अंतिम रात गुजारने के लिए।

कुल मिलाकर केरल के इस दस दिनी प्रवास में हमने मुन्नार के हरे भरे बागानों और बैकवाटर में केरल के गाँवों की यात्रा सबसे अधिक भाई। मुन्नार से थेक्कड़ी का हरियाली से भरपूर रास्ता अभूतपूर्व सुंदरता लिए हुए था। कोचीन और कोवलम हमारी अपेक्षाओं से थोड़े कमतर निकले। अपने तेरह भागों के इस यात्रा वृत्तांत में मैं जो देख और महसूस कर पाया उसे आप तक पहुँचाने की कोशिश की है। जैसा कि आपसे वादा था केरल मे रहने, खाने पीने और घूमने के खर्चों की जानकारी मैं इस पोस्ट में दे चुका हूँ। अब ये आप ही बता सकते हैं कि ये प्रयास कितना सफल रहा।

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ
  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

बुधवार, 10 मार्च 2010

यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की

कोवलम का समुद्री तट धनुष के आकार है। वैसे तो कहने को ये तीन छोटे-छोटे समुदी तटों में बँटा हुआ है पर इसके दक्षिणी सिरे पर जो 'लाइट हाउस बीच' (Lighthouse Beach) है वही यहाँ का मुख्य समुदी तट है। सारी दुकानें, कुछ होटल और भोजनालय इसी तट पर स्थित हैं। पर कोवलम जैसे समुद्री तट पर जो कि विश्व विख्यात है, पीक सीजन में आप इन होटलों में रहने या भोजनालय में खाने का जोखिम नहीं ले सकते। आपने कई बार मेलों में बच्चों के लिए डोरी घुमा कर पलास्टिक की छोटी बॉल में प्रकाश पैदा करते देखा होगा। हमारी आँखों के सामने ये खिलौना १०० से २०० रुपये में बिकता पाया और जब हमने उसका दाम पूछा तो वो सीधे दस रुपये पर आ गया।

इसी की बगल के मध्य सिरे में एक और तट है जहाँ हम अपने होटल से उतर कर सीधे पहुँचे थे, इसे हव्वा बीच (Eves Beach) के नाम से जाना जाता है।
ऍसा क्यूँ हैं ये जानने के लिए यहाँ देखें..



लाइटहाउस बीच पर विदेशी सैलानी बहुतायत में देखे जा सकते हैं। पर उसके बगल वाली बीच में भी लोग नहाते दिखते हैं हालांकि वहाँ हमें समुद तट में ढलाव ज्यादा महसूस हुआ। लाइटहाउस दिन में दो से चार बजे ही खुलता है पर अगर आपको इस पूरे धनुषाकार समुद्री तट का नज़ारा देखना हो तो आपको समय निकालकर वहाँ जाना चाहिए। ये बात हमें वहाँ से वापस लौटकर पता चली जब हमारे कार्यालय के सहयोगी, जो वहाँ हमसे दो तीन दिन पहले पहुँचे थे ने लाइटहाउस के ऊपर से क़ैद किए कुछ अद्भुत दृश्य हमें दिखाए। लाइटहाउस के ऊपर से लिए हुए पूरे इलाके के कुछ और हसीन नज़ारे आप यहाँ देख सकते हैं। जैसा कि मैंने आपको पिछली पोस्ट में बताया कि समुद्र में नहाने का सुख तो हम २९ की शाम को ही ले चुके थे। इसलिए तीस दिसंबर की सुबह हम समुद्र के साथ सुबह की ताज़गी का आनंद लेने निकल लिए।



समुद्र की ऊँची उठती लहरें तट से टकरा कर गर्जना कर रही थीं कि ज्यादा करीब आकर हमारी ताकत से लोहा लेने की कोशिश मत करो। उत्तरी समुद्री तट के पास ही मछुआरों की बस्ती है। मछुआरे सुबह सुबह अपनी नौका में सवार होकर समुद्र में अपना जाल बिछाने में लगे हुए थे। जाल को चारों तरफ फैला लेने के बाद अंतिम क़वायद पंक्तिबद्ध होकर जोर लगा के हइजा.. करने की थी जिस में हमारे सहयात्री भी शामिल हुए।


यूँ तो कोवलम सुंदर है पर जब मैं इसकी तुलना अंडमान के हैवलॉक या गोवा के कलंगूट समुद्री तट से करूँ तो ये इन दोनों के सामने नहीं ठहरता। हैवलॉक समुद्री तट के आस-पास की प्राकृतिक सुंदरता और स्वच्छता के सामने कोवलम नहीं टिकता, वहीं इसके पास कलंगूट जैसी विशालता भी नहीं। समुद्री तट से लौटकर हमें अपना चार बजे तक का समय त्रिवेंद्रम में बिताना था। अबकि हम जहाँ ठहरे थे वहाँ एक तरणताल भी था सो समुद्र तट से वापस आकर बच्चों के साथ सीधे ताल में घुस लिया।

त्रिवेंद्रम शहर कोवलम से करीब २५ किमी की दूरी पर है। यहाँ का पद्मनवा स्वामी मंदिर आस्था की दृष्टि से बेहद पवित्र माना जाता है। हमारे कार्यालय के सहयोगियों ने बता रखा था कि यहाँ महिलाओं को सिर्फ साड़ी पहनकर ही मंदिर में आने दिया जाता है। सो वहाँ जाते वक़्त हमारी तैयारी वैसी ही थी पर जब वहाँ पहुँचे तो पता चला कि महिलाओं के आलावा पुरुषों के लिए भी वस्त्र निर्धारित थे। हमें सिर्फ धोती पहननी थी जो कि शायद वहाँ 25 से 30 रुपये में उपलब्ध थी। अब हमने तो अपनी जिद में शादी के समय भी धोती नहीं पहनी थी तो वहाँ क्या पहनते। सो हम बाहर ही रह गए। वैसे मुझे इस तरह के ड्रेस कोड का औचित्य समझ नहीं आया कि धोती के आलावा बाकी के वस्त्रों में क्या खराबी है जिसे पहन कर जाने से मंदिर की पवित्रता नष्ट हो जाएगी?



पद्मनवा स्वामी मंदिर भगवान विष्णु का मंदिर हैं। यहाँ पर रखी हुई विष्णु की प्रतिमा विश्व में विष्णु की सबसे बड़ी प्रतिमा कही जाती है। अंदर विष्णु अनंतनाग के फन की शैया पर चिरनिद्रा में लीन दिखाई देते हैं। ये मंदिर कब बना इसके बारे में पुष्ट जानकारी नहीं है। पर ऍसा वहाँ के लोग कहते हैं कि इसकी आधारशिला ईसा पूर्व 3000 में रखी गई थी और इसे बनाने में 4000 मजदूरों को मिलकर छः महिने का समय लगा था।
मंदिर परिसर से हमें तिरुअनंतपुरम के संग्रहालय, चित्रालय और चिड़ियाघर देखते हुए वापस एलेप्पी की ओर कूच करना था। कैसा खत्म हुई हमारी केरल यात्रा ये जानते हैं इस श्रृंखला की समापन किश्त में....

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

शनिवार, 6 मार्च 2010

यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..

केरल यात्रा विवरण के पिछले भाग में मैंने आपको कोट्टायम से अलेप्पी तक की बैकवाटर की सैर कराई थी। अगले दिन हमें कोवलम के लिए निकलना था। अब तक केरल में ज्यादातर हमने शाकाहारी व्यंजन ही लिया था। इसकी एक वजह मेरा शाकाहारी होना था। पर शाम को ये निर्णय लिया गया कि आज कोट्टायम में खाना अलग अलग टोलियों में खाया जाए। मजे की बात ये रही दो लोगों का वेज भोजन का बिल तीन लोगों के नॉन वेज मछली के बिल से अधिक आया।

सुबह सुबह हम कोट्टायम से त्रिवेंद्रम जाने वाले रास्ते की ओर चल पड़े। केरल के शहरों और कस्बों को पार करने में एक बात बड़ी अच्छी लगती है और वो है अलग अलग धर्मों के लोगों का शांतिपूर्ण सहअस्तित्व। केरल की आबादी पर गौर करें तो २००१ की जनगणना के हिसाब से केरल में ५६ प्रतिशत हिन्दू, २५ प्रतिशत मुसलमान और १९ प्रतिशत ईसाई निवास करते हैं। पूरे रास्ते में एक से एक भव्य चर्च, मंदिर और मस्जिद दिखते रहे। दिन में जब हम कोल्लम में एक भोजनालय में गए तो कैश काउंटर के ठीक ऊपर ईसा मसीह, गणेश और मस्जिद की एक ही फोटो फ्रेम में ये तसवीर दिखी। देख कर मन खुश हुआ और दिल में ये भाव आया कि काश ये जज़्बा सारे देश में बना रहता!


कोट्टायम से कायामकुलम (Kayamkulam) होते हुए हम राष्ट्रीय राजमार्ग NH47 से जा मिले। हमें उम्मीद थी की भारत के दक्षिणी पश्चिमी समुद्र तट के किनारे किनारे चलने वाले इस रास्ते में सड़क के एक ओर हमें समुद्र के दर्शन जरूर होते रहेंगे। पर कोल्लम पहले का (Quilon) को छोड़कर समुद्र बिना दिखे करीब करीब चलता रहा। रास्ता काफी व्यस्त था। अपने इस सफर पर अलसायी आँखों से झपकी
लेनी शुरु ही की थी कि रंगों की इस छटा ने मेरी तंद्रा तोड़ दी। दक्षिण भारत में चटक पीला रंग खूब चलता है। हाल में धोनी के धुरंधरों को चेन्नई वाली टीम में तो आपने देखा ही होगा। पर हमने धर्मावलंबियों की लंबी कतारें भी इसी रंग से रँगी देखीं।

केरल का तटीय इलाका बाकी हिस्सों से अपेक्षाकृत धनी है। और इस धनाढ़यता का असर किसी एक वर्ग विशेष पर ना होकर पूरे समाज में फैला दिखता है। पलक्कड़ से एरनाकुलम की ट्रेन यात्रा और कोट्टायम से त्रिवेंद्रन की सड़क यात्रा में एक बात स्पष्ट दिखती है वो ये कि कोई बाहरी व्यक्ति ये नहीं बता सकेगा कि कब कोई गाँव खत्म होता है और शहर शुरु। उत्तर भारत के हिदी हर्टलैंड की तरह ना तो गाँवों में बिजली की अनुपलब्धता नज़र आती है और ना ही कच्चे पक्के मकानों में विभेद।
त्रिवेंद्रम या अभी के तिरुअनंतपुरम में बिना घुसे हम कोवलम के रास्ते निकल गए।

हमारा रहने का अड्डा मुख्य बीच के पास ही था। यहाँ की बुकिंग पहले की। धूप बेहद कड़ी थी पर समुद्र को पास से देखने की उत्कंठा भी थी। करीब साढ़े तीन बजे हम सब बीच की ओर चल पड़े। हमारे होटल से बीच तक पहुँचने के लिए करीब ५०‍ मीटर नीचे की ओर उतरना पड़ा और ये बात वापसी में बेहद खली। बीच पर डेढ़ दो घंटे तक मस्ती की गई। लहरों के साथ कूदते फाँदते समय कैसे बीता पता ही नहीं चला। कोवलम के इस समुद्री तट के बारे में अगली पोस्ट पर चर्चा होती रहेगी।



शाम को हम फिर दुबारा रात्रि भोज के लिए समुद्री तट की ओर बढ़े । समुद्र के किनारे भोजनालय तो कई थे पर उनमें किसी में कोई भारतीय बैठा नहीं दिखाई दिया। दूसरी अचरज की बात ये दिखी कि विदेशियों की भीड़ तो पूरी थी पर उनमें से इक्का दुक्का को छोड़ शायद ही कोई खाता दिखाई दिया।

इस बात का मर्म तब हमें समझ आया जब हम खाने के लिए एक अच्छे खासे सो कॉल्ड पंजाबी ढ़ाबे में घुसे। आर्डर लेने के बीस पचीस मिनट बाद भी जब कोई पानी तक देने नहीं आया तो हमने पूछा कि भाई ये माज़रा क्या है।

"..उत्तर मिला कि आप क्यू (Queue) में हैं। यहाँ हम लोग एक समय में एक ही टेबुल के दिए गए आर्डर को बनाते हैं. एक बनाना खत्म होगा फिर दूसरा शुरु करेंगे। अभी चौथे का नंबर चल रहा है और आपका नंबर सातवाँ है.... "


हम अपने आप को मन ही मन कोसते हुए वहाँ से बिना खाए निकल गए पर दूसरी जगह भी हालत वैसी ही निकली। नतीजा ये रहा कि नौ बजे के निकले हमें सवा ग्यारह बजे भोजन का स्वाद चखने को मिला। चलते-चलते कम से कम आप को ये तो दिखा ही दें कि क्या क्या था मेनू में :)



>इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..

केरल के इस यात्रा विवरण में पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह मोटरबोट यात्रा का विचार त्याग कर हमने जंगल में दो-ढाई घंटों की ट्रेकिंग का निश्चय किया। पेरियार वाले, वन के अंदर इस भ्रमण को नेचर वॉक (Nature Walk) की संज्ञा देते हैं।


इसके लिए आपको पाँच सौ का पत्ता खर्च करना पड़ता है। एक समूह में पाँच सदस्य हो सकते हैं। जंगल में साथ चलने के लिए एक गाइड रहता है जो आपका जंगल में मार्गदर्शन करता है। आप उसे किसी भी प्रकार से नाराज़ नहीं कर सकते क्योंकि एक बार वन में घुस जाने के बाद, यात्रा शुरुआत करने वाली जगह पर सिर्फ वही आपको पहुँचा सकता है।

आप सोच रहे होंगे के पेरियार के इन घने जंगलों में हम लोगों ने रात भर डेरा डालने या फिर जीप सफॉरी का मन क्यूँ नहीं बनाया? तो हुजूर जवाब सीधा है मन तो तब बने जब जेब साथ दे। अब Thekkady Tourism Devlopment Council (TTDC) की इन दरों पर ज़रा गौर कीजिए

  • जंगल जीप सफॉरी (Forest Jeep Safari) : 2000 रुपये मात्र प्रति व्यक्ति
  • पेरियार टॉइगर ट्रेल (Periyar Tiger Trail) : एक रात दो दिन 3000 रुपये मात्र प्रति व्यक्ति
  • बैम्बू रैफ्टिंग (Bamboo Rafting) :2000 रुपये मात्र प्रति व्यक्ति

अब अगर आप पाँच छः लोग हों तो सारा बजट तो एक दिन ही में बिगड़ जाएगा :) !

ठीक सवा ग्यारह बजे हमारा मलयाली गाइड हमारे सामने था। जंगल में घुसने की पहली हिदायत ये थी कि मोजे के ऊपर से जोंक प्रतिरोधक वस्त्र पहन लें। इस कपड़े को मोजे के ऊपर पहन कर घुटनों तक बाँध लेते हैं (ऊपर पहले चित्र में देखें)। इस तैयारी के साथ हमारा काफ़िला बढ़ चला।


पेरियार के जंगलों में प्रवेश करने के लिए आपको पेरियार झील (Periyar Lake) को पार करना होता है। और झील पार की जाती है बाँस की नौका से। इस नौका को देख कर बच्चों के चेहर खिल उठे। इसे चलाने के लिए चप्पू की नहीं बल्कि रस्से की जरूरत होती है। रस्से के दोनों सिरे अलग अलग दिशाओं में मजबूत पेड़ों से बाँध दिये जाते हैं। बस हाथ से रस्से पर जोर लगाया नहीं कि चल पड़ी हमारी नौका...

कुछ ही मिनटों में हम झील की दूसरी तरफ थे। जंगल के अंदर हमने क्या क्या देखा उसकी झांकी तो आप इस पोस्ट में देख सकते हैं।

जंगल सघन था। थोड़ी दूर चलने के बाद झील दिखनी बंद हो गई। पेड़ अपनी लताओं के साथ हमारे चलने में रुकावट पैदा कर रहे थे।

कुछ पेड़ तो इतने ऊँचे थे कि उनका ऊपरी सिरा दिखता ही नहीं था। कुछ पर परजीवी लताएँ भी अपना आसन जमाए बैठीं थीं। हम चुपचाप बिना आवाज़ किए चलते रहे क्योंकि ऍसा गाइड महोदय का आदेश था।

पेरियार के जंगलों में ३५ प्रजातियों के जानवर और २६५ प्रजातियों के पक्षी मौजूद हैं। पर जानवरों को देखने के लिए जंगल के बहुत अंदर तक घुसना होता है।

एक घंटे चलते-चलते हमें पेड़ों की झुरमुट के नीचे छायादार जगह दिखाई दी। जमीन पर गीली और सूखी पत्तियों का जमाव था। वहाँ दो तीन दिन पहले अच्छी बारिश हुई थी। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद सब चित्र खींचने लगे।

तभी मुझे लगा कि हम इतनी देर एक जगह खड़े रहे तो अपने जूते जाँच लेने चाहिए। मेरा इतना कहना था कि हमारी एक सहयात्री को अपने जूते पर दो जोंकें चलती नज़र आईं। बस फिर क्या था आनन फानन में सब लोग अपने जूते झटकने लगे। उन दो जोकों को तो ठिकाने लगा दिया गया। पूरी यात्रा के बाद जब उन्होंने अपने जूते निकाले तो दो और जोकें जूत के अंदर प्रतिरोधक वस्त्र पर घूमती टहलती नजर आईं।



दो घंटे चलने के बाद हम थकने लगे थे। थकान के पीछे दिन की चढ़ती गर्मी का भी हाथ था। करीब दो बजे हम उन जंगलों से निकल आए थे। दिन का भोजन कुमली में करने के बाद हमें अपने अगले पड़ाव कोट्टायम की ओर कूच करना था जो वहाँ से करीब ११० किमी था। कुमली (Kumli) के बाहर सड़क के दोनों ओर मसालों के बागान हैं। अगर कोई पर्यटक चाहे तो टूरिस्ट गॉइड के साथ इन बागानो की सैर कर सकता है। चाय के बागान अब भी दिख रहे थे पर फर्क ये था कि इन बागानों में सिल्वर ओक (Silver Oak) के पेड़ के साथ काली मिर्च के पौधे भी लगे थे जिन्होंने सिल्वर ओक को अपने बाहुपाश में जकड़ा हुआ था।

रास्ते के चाय बागानों में पहली बार मजदूरों को पत्तियाँ चुनते भी देखने का अवसर मिला। अब हम पूर्व से पश्चिमी दिशा की ओर जा रहे थे, और पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ धीरे धीरे एक एक कर हमारा साथ छोड़ती जा रहीं थीं। कोट्टायम जिले में प्रवेश करते ही रबर के बागानों ने हमें घेर लिया था। कोट्टायम भारत में प्राकृतिक रबर के उत्पादन में प्रमुख स्थान रखता है। भारतीय रबर बोर्ड का मुख्य कार्यालय भी यहीं है। कोट्टायम केरल में शिक्षा और मलयालम साहित्य के विकास का प्रमुख केंद्र रहा है। यहाँ सीरियन क्रिश्चन (Syrian Christan) की अच्छी खासी आबादी निवास करती है। शाम सात बजे के लगभग हम कोट्टायम शहर की चमक दमक के बीच थे।

पैकेज टूर वाले अक्सर थेक्कड़ी से पर्यटकों को कुमारकोम (Kymarakom) ले जाते हैं जो कोट्टायम से मात्र १८ किमी दूर है और पर दिसंबर में वहाँ के बैकवॉटर रिसार्टों (Backwater Resorts) की कीमत आसमान छूती हैं। २८ दिसंबर का दिन हमने केरल के बैकवॉटर को देखने के लिए मुकर्रर किया था। केरल का अगले दिन का रूप बिल्कुल भिन्न प्रकृति का था। पहाड़ों , जंगलों की सैर करने के बाद क्या पृथक था इस रूप में ये जानते हैं इस यात्रा की अगली कड़ी में...


इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातफरी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !

26 दिसंबर की शाम कुमली के बाजारों में बीती। कुमली में मसालों के ढ़ेर सारे बगीचे (Spice Garden) हैं जहाँ इलायची, काली मिर्च, लौंग, दालचीनी, जायफल की खेती की जाती है। इसलिए हमारी खरीदारी का मुख्य सामान मसाले ही थे। अब भला ७० रुपये में सौ ग्राम इलायची मिले तो कौन नहीं लेना चाहेगा। इसके आलावा तरह-तरह के आयुर्वेदिक तेल और हाथों से बनाए चॉकलेट भी पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र थे। यहाँ केरल के प्रसिद्ध आयुर्वेदिक तेल मसॉज (Herbal Oil Massage) का आनंद भी आप ले सकते हैं पर हममें से कोई उसके लिए विशेष उत्साहित नहीं था।

होटल के बगल में रात को केरल के शास्त्रीय नृत्य कत्थकली (Kathakali) का आयोजन था। पर एक एक टिकट का मूल्य दो सौ रुपये था और उसे देखने के लिए पर्याप्त संख्या में विदेशी पर्यटक मौजूद थे। दरअसल केरल में जाने पर एक बात स्पष्ट लगती है कि सरकार मुख्य रूप से विदेशी सैलानियों और अमीर भारतीयों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है और ये बात थेक्कड़ी में सबसे ज्यादा खटकती है। कोचीन में जब हम सरकारी पर्यटन कार्यालय में विभाग द्वारा चलाए गए होटलों के बारे में पूछने गए थे तो वहाँ के कर्मचारी ने हँसते हुए जवाब दिया था कि वो आप लोग नहीं कर पाएँगे क्योंकि वे सारे सितारा होटल हैं। बाद में इस बात की सत्यता जानने के लिए जब इंटरनेट पर के.टी.डी.सी. (KTDC) का जाल पृष्ठ खोला तो पाया कि एक दो को छोड़ दें तो अधिकांश के किराये ही तीन हजार प्रतिदिन से ऊपर हैं।

जिस होटल में ठहरे थे वहाँ हमसे ये कहा गया था कि सुबह झील यात्रा के टिकट की चिंता ना करें वो बड़ी आसानी से मिल जाएगा। पर रात होते होते भारी भीड़ की वजह से हर टिकट पर प्रीमियम की बात होने लगी। सुबह सात बजे निकते तो थे कि आठ बजे फॉरेस्ट गेट पार कर साढ़े आठ बजे वाली नौका को पकड़ लेंगे पर गेट के बाहर ही जंगल में अंदर घुसने के लिए एक डेढ़ किमी लंबी गाड़ियों की पंक्ति लगी थी। गाड़ी को वहीं छोड़ हम गेट पर टिकट लेने पहुँचे। वहाँ भी वही हालत थी। देने वाला एक था और पंक्तियाँ दो थीं। एक विदेशियों के लिए और दूसरी देशियों के लिए। लाइन इतनी मंथर गति से बढ़ी कि हमें गेट पार करने में ही डेढ़ घंटे लग गए। लिहाजा साढ़े आठ की मोटरबोट छूट गई।

पूरी पेरियार झील उस समय सफेद घनी धु्ध में डूबी हुई थी। धु्ध इतनी गहरी थी कि ना तो जंगल दिख रहे थे ना झील। मन ही मन सोचा कि ऐसे में हमें मोटरबोट से शायद ही कुछ दिखाई देता। पेरियार जंगल के अंदर से ही वन विभाग और पर्यटन विभाग की नौकाएँ छूटती हैं। पर बदइंतजामी का आलम ये था कि घंटों पंक्ति में खड़े होकर भी टिकट नहीं मिल रहे थे। टिकट के दलाल पहले ही टिकट खरीद कर 'बोट फुल' की घोषणा कर देते। इस अफरातफरी की वजह से तनाव इस हद तक बढ़ गया कि बात मारा मारी तक पहुँच गई।
(काउंटर पर हंगामे का दृश्य बगल के चित्र में देखें)


घंटों लाइन में खड़े रह कर नौका यात्रा करने का विचार हमने त्याग दिया। हमें लगा कि चार घंटे पंक्ति में खड़े रहने के बजाए अगर हम वो समय जंगल में विचरण करने में लगाएँ तो वो ज्यादा बेहतर रहेगा। बाद में हमारे सहकर्मी (जो वहाँ दो दिन पहले पहुँचे थे) से पता चला कि मोटरबोट से उन्हें एक हिरण के आलावा कोई वन्य प्राणी नहीं दिखा। वास्तव में पेरियार की झील के भ्रमण का पूरा आनंद लेना हो तो कभी सप्ताहांत और पीक सीजन में ना जाएँ। वन्य जीव सामान्यतः सुबह या शाम के वक़्त ही पानी पीने के लिए झील की तरफ आते हैं इसलिए कोशिश करें कि इसी समय की बोट मिले।

पेरियार झील एक मानव निर्मित झील है जो पेरियार नदी पर मुल्लापेरियार बाँध (Mullaperiyar Dam) की वजह से बनी है। पेरियार एक टाइगर रिजर्व है और इसका विस्तार करीब ७७७ वर्ग किमी तक फैला हुआ है। बाघों के आलावा हाथी, हिरण और कई तरह के पशु पक्षी भी इस जंगल के भीतरी भागों में निवास करते हैं। जो भाग डैम के बनने से डूब गया था उसके मृत पेड़ों के सूखे तनों को आप अब भी झील के बीचों बीच निकला देख सकते हैं। बगल के चित्र में देखें..

झील के चारों ओर जिधर भी चहलकदमी करें पेड़ों का जाल दिखाई देता रहता है। साढ़े दस बज रहे थे और हमने एक बजे के नेचर वॉक (Nature Walk) के टिकट ले लिए थे। थोड़ा जलपान कर हम चहलकदमी करते हुए आस पास की हरियाली का आनंद लेते रहे। पास ही कछुआनुमा आकार की एक दुकान दिखी जिसमें पेरियार के अभ्यारण्य और वन्य जीवन से जुड़ी कुछ पुस्तकें मिल रही थीं।

ठीक एक बजे हम अपने जंगल अभियान यानि नेचर वॉक (Nature Walk) के लिए तैयार हो गए। जंगल के अंदर का तीन चार किमी का ये सफ़र करीब तीन घंटों का रहा। कैसा रहा हमारा ये संक्षिप्त जंगल प्रवास ये जानते हैं यात्रा की अगली किश्त में....

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
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  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..

२६ दिसंबर की सुबह अपने एक रात के ठिकाने कानन देवन हिल्स क्लब से निकल हम इरवीकुलम राष्ट्रीय उद्यान (Ervikulam National Park) की ओर चल पड़े।


करीब दस बजे मुन्नार शहर से तीस चालिस मिनट की यात्रा कर जब हम वहाँ के फॉरेस्ट चेक प्वाइंट पर पहुँचे तो वहाँ पर्यटकों की २०० मीटर लंबी पंक्ति हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। चेक प्वाइंट से तीन चार बसें यात्रियों को अंदर पहुँचाती और दो घंटे बाद वापस ले आती हैं। करीब सवा घंटे प्रतीक्षा करने के बाद हमारा क्रम आया। जंगल के अंदर लेडीज पर्स के आलावा वन कर्मी कुछ भी ले जाने नहीं देते जो पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से उचित कदम है।

मिनी बस में खिड़की से हम इस राष्ट्रीय उद्यान की सैर पर निकले। एक ओर पहाड़ियाँ तो दूसरी ओर चाय बागानों से पटी हरी भरी राजमलई (Rajamalai Hills) की पहाड़ियाँ। ये राष्ट्रीय उद्यान करीब ९७ वर्ग किमी में फैला है और इस उद्यान से आप दक्षिण भारत की सबसे ऊँची पहाड़ी अनामुदी (Anamudi) ऊँचाई २६९५ मीटर को देख सकते हैं। बस की यात्रा २० मिनट में खत्म हो जाती है और फिर आगे का सफ़र पैदल तय करना पड़ता है। पर इस सफ़र की खास बात है सड़क के नीचे की और दिखते घाटी के दृश्य। चाय बागानों को एक ऊँचाई से देखना एक अद्भुत मंजर पेश करता है। ऐसा लगता है मानो भगवन ने विशाल हरे कैनवस पर पगडंडियों की आड़ी तिरछें लकीरें खींच दी हों। कहते हैं कि हर बारह सालों पर यहाँ नीलाकुरिंजी (Neelakurinji) के फूल खिल कर पूरी पहाड़ी को नीला कर देते हैं। अगली बार ये फूल २०१८ में खिलेंगे तब के लिए तैयार हैं ना आप ?

अब अगर आप राष्ट्रीय उद्यान में बहुतेरे पशु पक्षियों को देखने की तमन्ना लगाए बैठे हों तो आपको निराशा हाथ लगेगी क्योंकि पूरे रास्ते में सुंदर दृश्यों के साथ-साथ बस एक जानवर आपको दिखाई देगा और वो है यहाँ का मशहूर नीलगिरि त्हार (Neelgiri Tahr)। नीलगिरि त्हार पहाड़ी बकरियों की एक लुप्तप्राय प्रजाति है जिसे इस उद्यान में आप बहुतायत पाएँगे। इनके खतरनाक सींगों की तरफ न जाइएगा, ये स्वभाव से आक्रामक नहीं हैं। पहाड़ी के शिखर के पास पहुँचने के बाद आगे का रास्ता पर्यटकों के लिए बंद है इसलिए ट्रेकिंग का शौक रखने वालों को अपना मन मार कर लौटना पड़ता है।


दिन का भोजन करते समय मुन्नार शहर में रुके तो एक धार्मिक जुलूस दिखाई दिया। ढोल नगाड़ों के बीच स्थानीय निवासी तरह तरह के करतब दिखा रहे थे। लोहे की छड़ों को गाल के पास दोनों ओर छेद कर श्रृद्धालु चल रहे थे जिसे देख कर मन हैरत में पड़ गया। भगवान को प्रसन्न करने के लिए भक्त कितनी कठिन चुनौतियों को स्वीकार कर लेते हैं ये भी उसका ही एक नमूना लगा। वैसे सवाल ये भी उठता है कि ऍसा करने से क्या ऊपरवाला वाकई गदगद हो पाता है ?



करीब दो बजे हम मुन्नार से थेक्कड़ी(Thekkady) की ओर चल पड़े। कुछ देर तो पहले ही की तरह सड़क के दोनों ओर चाय बागानों वाला अति मनोरम दृश्य दिखता रहा। इसके बाद शुरु हुआ घुमावदार रास्तों का जाल। चाय बागानों की जगह अब हमें इलायची के जंगल नज़र आने लगे। मन हुआ कि अब केरल आए हैं तो इनके पौधों को जरा करीब से देखा जाए और लगे हाथ इलायची के हरे दानों पर भी हाथ साफ किया जाए। बगल के चित्र में आप हरी इलायची को जड़ के पास फला देख सकते हैं।

जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गए जंगलों की सघनता बढ़ती गई। यहाँ तक की साफ आकाश में धूप भी पेड़ों के बीच से छनकर थोड़ी बहुत आ पा रही थी। एक नई बात और हुई। जैसे ही हम मदुरई राष्ट्रीय मार्ग छोड़ दक्षिण की ओर थेक्कड़ी जाने वाले रास्ते में मुड़े, पहली बार गढ्ढेदार रास्तों से पाला पड़ा। रास्तों के झटकों से ध्यान तब हटा जब हमने पहली बार कॉफी के पौधों को देखा। इन पौधों को छाया की ज्यादा आवश्यकता होती है, इसलिए ये बड़े बड़े पेड़ो के बीच में अपनी जगह बना लेते हैं।

शाम पाँच बजे तक हम 'मसालों के शहर' कुमली पहुँच गए थे। कुमली तमिलनाडु और केरल की सीमा पर स्थित एक कस्बा है जहाँ से थेक्कड़ी का पेरियार राष्ट्रीय उद्यान पाँच किमी की दूरी पर है।

होटल खोजने में तो दिक्कत नहीं हुई पर असली समस्या थी अगली सुबह पेरियार झील में सैर करने के लिए टिकटों का जुगाड़ करने की। क्या हम अपनी इस मुहिम में सफल हो पाए ये ब्योरा इस वृत्तांत की अगली किश्त में।


अरे ये देखकर आपका मन ये नहीं कहने को हुआ कि सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं...
देखो देखो ये है मेरा जलवा...:)

पौधा इलायची का जिसके नीचे डंठल से निकलती है इलायची..


इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !

26 दिसंबर को ग्यारह बजे हम चांसलर रिसार्ट से मुन्नार शहर को कूच कर गए। कहते हैं मुन्नार शब्द मुनु (तीन) और आरू (नदी) के मिलने से बना है। ये तीन नदियाँ हैं मुद्रापुज्हा (Mudrapuzha), नल्लाथन्नी (Nallathanni) और कुंडला (Kundala)। इन तीनों नदियों के संगम पर कुंडला बाँध का निर्माण हुआ है जो शहर से करीब १३ किमी दूर है।

बाँध के कुछ किमी पहले मट्टुपेट्टी झील (Mattupetty Lake) है। अगर नीचे का मानचित्र देखें तो मुन्नार शहर पहुँच कर हमें पूर्व की तरफ जाने वाली सड़क पर मुड़ना था।

मुन्नार शहर एक सामान्य कस्बे की तरह दिखता है जिसे हर मोड़ पर बने छोटे बड़े होटल और सैलानियों की भीड़ बड़ा अनाकर्षक रूप दे देती है। पर इस कस्बे से एक किमी दूर आप जिधर भी बढ़ें न भीड़ भाड़ दिखती है और ना तो कंक्रीट के जंगल......।

दिखती है तो बस चारों और पहाड़ियों के बीच चाय बागानों की निर्मल स्वच्छ हरियाली।. केरल सरकार की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उन्होंने मुन्नार की नैसर्गिक सुंदरता को बचाए रखने के लिए इसके व्यापक शहरीकरण पर रोक लगाई हुई है।

(और हाँ ये बताना तो भूल ही गया कि इस ब्लॉग का हेडर में मैंने मुन्नार में खींची गई इस तसवीर का उपयोग किया है।)

रास्ते में जगह-जगह स्थानीय महिलाएँ हरी पत्तियों के साथ ताजे गाजर बेच रही थीं जो खाने के साथ देखने में भी बेहद खूबसूरत लग रहे थे। कुछ ही देर में हमारी गाड़ी मट्टुपेट्टी झील को पार कर रही थी। हमारा इरादा पहले सबसे दूर वाले स्थल इको प्वायंट पर पहुँच कर वापसी में मट्टुपेट्टी झील के किनारे चहलकदमी करने का था। इको प्वायंट पर निराशा हाथ लगी। पर्यटकों की भारी भीड़ वहाँ पर मौजूद थी। सामने नीचे झील का जल मंद-मंद बह रहा था। झील के पार पहाड़ियों थीं। 'शायद' आवाज़ वहीं से लौटकर आती होगी। शायद इसलिए कह रहा हूँ कि हमारे वहाँ घंटे भर बिताने के बावजूद भी किसी भी पर्यटक के चिल्लाने से कोई Echo सुनाई नहीं दी।

मट्टुपेट्टी झील और चेक डैम के आधा किमी आगे झील में स्पीडबोट की व्यवस्था है। पर वहाँ लाइन इतनी लंबी थी कि हमने बाकी लोगों को उसकी सवारी का आनंद उठाते हुए देखकर ही संतोष कर लिया। वैसे आप अगर जाएँ तो इस सफ़र का आनंद अवश्य लें। इको प्वायंट पर पैडल बोट पर बच्चे चले गए और मैं इधर उधर चहलकदमी करने लगा। सामने ही एक छोटी दुकान पर गरम गरम पकौड़ियाँ तली जा रहीं थीं। आलू, प्याज के आलावा मिर्चे की पकौड़ी भी मेनू में थी। पर मिर्चों का आकार देख कर पहले तो खाने की हिम्मत नहीं हुई। पर बाद में खाने पर पता चला की ये मिर्चें, हमारी तरफ की मिर्चों की तरह तीखी नहीं हैं।

इस हल्की पेट पूजा के बाद अपने चालक को मट्टुपेट्टी डैम पर इंतजार करने को कह, हमने तीन किमी का सफर पैदल ही तय करने का निश्चय किया। इको प्वायंट से मट्टुपेट्टी झील का रास्ता बेहद मनमोहक है। एक तरफ हरे भरे विरल जंगल और दूसरी ओर पहाड़ी ढलानों पर फैली हरी धानि घास के खूबसूरत कालीन।
पर सुरक्षा गार्ड इन हरी कालीनों पर आपको घूमने नहीं देते। ये जगह फिल्म की शूटिंग में भी काम में आती है। पर कुछ दूर आगे जाकर एक जगह दिखाई दी जहाँ सुरक्षा गार्ड नहीं थे। बच्चों की मौज हो गई वो घास की ढ़लान पर दौड़ते और फिसलते नीचे पहुँच गए। ऊपर आकाश की गहरी नीलिमा, सामने हरे भरे पेड़ों और चाय बागानों से लदीं पहाड़ियाँ और नीचे झील का बहता जल और बीच की ये हरी दूब..मैं तो ये देखकर बस आनंदविभोर होकर वहीं बैठ गया।


आधे घंटे बिताने के बाद हम वहाँ से आगे बढ़े। कुछ ही दूर पर सड़क की बाँयी तरफ इंडो स्विस डेयरी फार्म दिखा जो आम पर्यटकों के लिए खुला नहीं था। यहाँ पर स्विस प्रजाति की कई किस्मों की गायों का पालन पोषण होता है। रास्ते में बच्चे और बड़े हाथी की सवारी का आनंद ले रहे थे। स्पीड बोट वाली लाइन अब भी वैसी ही थी। झील का मोहक दृश्य पूरे रास्ते भर दिखाई देता रहा जो हमें निरंतर चलने को प्रेरित करता रहा। लौटते वक्त हम मुन्नार के फ्लोरिकल्चर सेन्टर में रुके जिसकी सचित्र रिपोर्ट आपको इस पोस्ट में दी जा चुकी है

शाम को हम मुन्नार के सरवन भवन में खाने पहुँचे। सरवन भवन मुन्नार के शाकाहारी भोजनालयों में सबसे ज्यादा चर्चित है और इसका प्रमाण मुझे खाने के लिए लगी लंबी लाइन को देखकर मिला। यहाँ की एक नवीनता ये भी है कि भोजन, केले के बड़े=बड़े पत्तों पर खिलाते हैं।
शाम होने वाली थी और हम अपने नए ठिकाने पर चल पड़े। अब यहाँ मात्र एक कमरे में दो परिवारों को रात गुजारनी थी। लिहाज़ा हमने जमीन पर ही अपना गद्दा बिछाया। रात को जब-जब हम सोने को उद्यत होते बगल के किसी समारोह से लाउडस्पीकर पर रह रह कर आती मलयालम लोक गीत की बहार हमारी निद्रा में खलल डाल देती और अटपटे से शब्दों को सुनकर सब को हँसी के दौरे पड़ जाते।
ग्यारह के बाद ये शोर तो कम हुआ पर ठंड बढ़ने लगी। आते वक़्त जब ट्रेन में कोई बता रहा था कि मुन्नार का तापमान दिसंबर में शून्य से भी नीचे चला जाता है तो हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मात्र 1500 मीटर ऊँचाई पर स्थित हिल स्टेशन में ऍसा हो सकता है। अब अतिरक्त कंबल के नाम पर होटल वाले ने पतली सी कंबल दी थी जो उस ठंड के लिए अपर्याप्त निकली। नतीजन सारी रात करवट बदलते और ठिठुरते बीती। मन ही मन सोचा, भगवन तूने दो रातों में जीवन के दोनों रंगों से साक्षात्कार करा दिया।..
अगली सुबह हमारा इराविकुलम राष्ट्रीय उद्यान देख कर थेक्कड़ी निकलने का कार्यक्रम था। कैसी रही ये यात्रा ये जानते हैं इस यात्रा वृत्तांत की अगली किश्त में..

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

  1. यादें केरल की : भाग 1 - कैसा रहा राँची से कोचीन का 2300 किमी लंबा रेल का सफ़र
  2. यादें केरल की : भाग 2 - कोचीन का अप्पम, मेरीन ड्राइव और भाषायी उलटफेर...
  3. यादें केरल की : भाग 3 - आइए सैर करें बहुदेशीय ऍतिहासिक विरासतों के शहर कोच्चि यानी कोचीन की...
  4. यादें केरल की : भाग 4 कोच्चि से मुन्नार - टेढ़े मेढ़े रास्ते और मन मोहते चाय बागान
  5. यादें केरल की : भाग 5- मुन्नार में बिताई केरल की सबसे खूबसूरत रात और सुबह
  6. यादें केरल की : भाग 6 - मुन्नार की मट्टुपेट्टी झील, मखमली हरी दूब के कालीन और किस्सा ठिठुराती रात का !
  7. यादें केरल की : भाग 7 - अलविदा मुन्नार ! चलो चलें थेक्कड़ी की ओर..
  8. यादें केरल की भाग 8 : थेक्कड़ी - अफरातरफी, बदइंतजामी से जब हुए हम जैसे आम पर्यटक बेहाल !
  9. यादें केरल की भाग 9 : पेरियार का जंगल भ्रमण, लिपटती जोंकें और सफ़र कोट्टायम तक का..
  10. यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..
  11. यादें केरल की भाग 11 :कोट्टायम से कोवलम सफ़र NH 47 का..
  12. यादें केरल की भाग 12 : कोवलम का समुद्र तट, मछुआरे और अनिवार्यता धोती की
  13. यादें केरल की समापन किश्त : केरल में बीता अंतिम दिन राजा रवि वर्मा की अद्भुत चित्रकला के साथ !