झारखंड की मानसूनी यात्रा में मैं आपको पतरातू घाटी, हजारीबाग वन्य प्राणी अभ्यारण्य और तिलैया बाँध तक ले गया था। तिलैया से पारसनाथ के सफ़र की कहानी पिछले दो हफ्तों की लाहौल स्पीति यात्रा की वज़ह से आगे नहीं बढ़ पाई थी। तो चलिए आज सुनाते हैं इस मानसूनी सफ़र के सबसे रोमांचक हिस्से का लेखा जोखा।
चूँकि मेरा बचपन बिहार में बीता इसलिए बौद्ध और जैनियों के श्रद्धेय स्थलों नालंदा, राजगीर और पावापुरी में कई बार आना जाना होता रहा। जैसा कि सिखाया गया था जब भी इनकी मूर्तियों के सामने से गुजरता तुरंत दोनों हाथ प्रणाम में जुट जाते थे पर पावापुरी में भगवान महावीर को प्रणाम करने की बात आई तो मन में नमन के साथ संकोच सा उभर आया। बालमन में प्रश्न जागा आख़िर भगवान होकर भी इन्होंने कपड़े क्यूँ नहीं पहन रखे? हम घर में यही करें तो सब शेम शेम कह कर चिढ़ाते हैं। यहाँ ये हैं की अपने इतने विशाल रूप में भी बड़े मज़े में नंगू फंगू बने खड़े हैं। मुझे याद है कि मन में चल रहे इसी उहापोह से मुक्ति पाने के लिए मैंने सबके सामने माँ से ये प्रश्न पूछ लिया था और काफी देर तक सब लोगों की हँसी का पात्र बना था।
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पारसनाथ की पहाड़ियों पर बिखरे जैन मंदिर और समाधि स्थल |
जैन मंदिरों को नजदीक से देखने का पहला अवसर मुझे फिर राजस्थान में मिला।
रणकपुर और
दिलवाड़ा मंदिरों के अद्भुत स्थापत्य पर अचंभित हुए बिना मैं नहीं रह पाया था। इसीलिए वहाँ के शिल्पों के बारे में विस्तार से लिखने की कोशिश की थी। जैसलमेर के निकट
लोद्रवा के मंदिर की खूबसूरती भी आज तक भुलाए नहीं भूली है पर पारसनाथ घर के बगल में होकर भी मेरा ध्यान आकर्षित नहीं कर पाया था। वैसे तो पटना और राँची के बीच ट्रेन से आते जाते पारसनाथ स्टेशन हर बार आता था। पर वहाँ से दूर पहाड़ियों के आलावा मंदिर सदृश कुछ नज़र के सामने नहीं होता था। राँची से पारसनाथ की यात्रा की बात सिर्फ जैनियों के मुँह से सुनता आया था। सोशल मीडिया के इस ज़माने में एक मित्र का फेसबुक पर एक यात्रा संस्मरण पढ़ा कि पारसनाथ की यात्रा प्रकृति को पास से महसूस करने का बेहतरीन ज़रिया है। तभी से मानसून या जाड़े में इस पहाड़ी की चढ़ाई करने की इच्छा मन में घर कर गयी।
दरअसल पारसनाथ की प्राकृतिक ख़ूबसूरती आज भी गैर जैनियों के लिए अनगढ़ पहेली रही हैऔर इसकी वज़ह है शिखर तक पहुँचने की दुर्गमता।। चोटी तक पहुंचने और उतरने की मेहनत हम तीनों मित्रों के लिए भी एक चुनौती पेश कर रही थी। मैं जानता था कि मानसून के मौसम में ये चुनौती और खूबसूरत होने वाली है। इस मानसून के लिए जब मित्रों ने जगह का चुनाव करने का ज़िम्मा मुझे सौंपा तो मैंने झट से पारसनाथ का नाम आगे कर दिया जिसे सबने आसानी से लपक लिया।
तिलैया से जब हम पारसनाथ के मधुवन में पहुँचे तो रात के नौ बज रहे थे। हम बिना किसी आरक्षण के मधुवन पहुंचे थे। आफ सीजन होने की वजह से विश्वास था कि किसी ना किसी धर्मशाला में रहने का ठिकाना मिल ही जाएगा। मधुबन के जिस बिंदु से ऊपर की चढ़ाई शुरु होती है उसके सबसे नजदीक बीस पंथी धर्मशाला नज़र आई। अंदर गाड़ी लगाने की जगह भी थी। वहाँ कमरा भी आसानी से मिल गया। वैसे मधुवन में दो सौ से लेकर प्रतिदिन पन्द्रह सौ रु के हिसाब से कमरे उपलब्ध हैं। आप जब भी यहाँ आएँ बस ये जरूर देख लें कि उस वक़्त जैन मतावलंबियों का कोई वार्षिक अनुष्ठान तो नहीं है। ऐसा जनवरी में मकर संक्रांति और सावन के महीने में एक बार जरूर होता है। रही भोजन की बात तो सारी धर्मशालाओं में बड़े सस्ते दरों पर शाकाहारी जलपान की व्यवस्था है। एक नमूना नीचे हाज़िर है ।
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घबराइए नहीं ये मेरे अकेला का नहीं बल्कि दो लोगों का नाश्ता है। 😆 |
वैसे पारसनाथ सिर्फ धार्मिक कारणों से ही प्रसिद्ध नहीं है। पारसनाथ अविभाजित बिहार की सबसे ऊँची पहाड़ी थी। विभाजन के बाद ये झारखंड की सर्वोच्च पहाड़ी बन गयी है। इसकी ऊँचाई 4480 फीट है। जैनों के चौबीस धर्मगुरुओं जिन्हें जैन शब्दावली में तीर्थंकर कहा जाता है में से बीस को पारसनाथ में ही निर्वाण प्राप्त हुआ था। ये समाधियां आस पास की हर छोटी बड़ी पहाड़ियों पर फैली हुयी हैं। हर पूज्य स्थल तक पहुंचने के लिए सीमेंट से रास्ता भी बना है। यहाँ की पहाड़ियों पर दो मुख्य मंदिर और चौबीस समाधि स्थल हैं।
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जैन तीर्थंकर समाधि स्थल |
पर पारसनाथ की ये यात्रा आसान नहीं है। मधुवन से पारसनाथ के सम्मेद शिखर तीर्थ यानि मुख्य मंदिर करीब नौ किमी की तीखी चढ़ाई पर है। ऊपर आम जन के रुकने की कोई सुविधा नहीं है यानि आपको उसी दिन वापस भी उतरना होगा। इसका मतलब ये है कि एक दिन में कम से कम अठारह किमी की यात्रा करनी पड़ेगी। कम से कम इसलिए कि अलग अलग पहाड़ों पर बसे सारे समाधि स्थलों और मंदिरों का भ्रमण करने पर आप इसमें आसानी से नौ किमी और जोड़ सकते हैं। हमें तो रात तक वापस आ कर राँची लौटना था तो हमने रात में ही निर्णय ले लिया कि चढ़ाई हम यहाँ मौजूद मोटरसाइकल चालकों की सहायता से करेंगे पर वापसी में जल मंदिर जाते हुए करीब दस से बारह किमी उतरने का काम पैदल करेंगे।
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ऊपर जाता हुआ जंगल का रास्ता |
सुबह साढ़े आठ बजे तक हमारा चार सदस्यों वाला समूह ऊपर जाने के लिए तैयार हो गया। दिन रक्षा बंधन का था तो हमारे हाथों में राखियाँ चमक रही थीं। मोटरसाइकिल से ऊपर जाने के लिए जंगल के रास्ते में नौ की बजाए करीब अठारह किमी लगते हैं।
घने जंगलों के बीच वन विभाग दवारा बनाया गया ये रास्ता बेहद रमणीक हैं। एक तो ये धीरे धीरे ऊपर उठता है और दूसरे कि आप जंगल के बाहरी किनारे से होते हुए पहाड़ का चक्कर लगाते हैं। इसकी वज़ह से आप जंगल के साथ पहाड़ों और बादलों की चहलकदमी को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। वहीँ पैदल मार्ग घने जंगल और कलकल बहते नालों के बीच से गुज़रता है और तीखी चढ़ाई वाला है ।
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सुबह धुंध में डूबा पार्श्वनाथ मंदिर |
जैसे जैसे हम ऊपर चलते गए हवा में नमी और ठंडक बढ़ती गयी। कुछ देर बाद हमारी मोटरसाइकिल बादलों के बीच अपना रास्ता बना कर आगे बढ़ रही थी। पारसनाथ का मंदिर बेहद पास आ गया था पर बादलों ने उसके चारों ओर ऐसा शिकंजा कस रखा था कि पचास सौ मीटर की दूरी से भी मंदिर के आकार के बारे में अनुमान लगा पाना कठिन था। मोटरसाइकिल चालकों ने हमें मुख्य मंदिर से थोड़ा नीचे लाकर छोड़ दिया और फ़िर हमारी पैदल यात्रा शुरु हुई।
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पारसनाथ मंदिर से जल मंदिर की ओर जाता रास्ता |
पारसनाथ मंदिर में सम्मेद शिखर जी के दर्शन के बाद कुछ देर वहीं धुंध छटने का इंतजार करने लगे। जब धुंध नहीं छटी तो आस पास के समाधि स्थलों की राह ली गई। लगभग सारे समाधि स्थल छोटी बड़ी पहाड़ियों के शीर्ष पर हैं। यानि उन तक पहुँचने के लिए आपको चढ़ाई और ढलान दोनों का सामना करना पड़ता है। इसी रास्ते में आगे जाकर यहाँ के मशहूर जल मंदिर की भी राह निकलती थी ।