बुधवार, 24 जून 2009

चित्र पहेली 4 का उत्तर : क्या आपने सही पहचाना था इस हिल स्टेशन को सुबह और रात की इन तसवीरों के ज़रिए...

हमारे देश में कितने ही खूबसूरत हिल स्टेशन हैं। कुछ तो पर्यटन और शहरीकरण की मार की वज़ह से अपना नैसर्गिक सौंदर्य खो चुके हैं तो कुछ खो जाने की प्रक्रिया में हैं। अब जिस हिल स्टेशन की बात मैं कर रहा हूँ वहाँ की हरियाली अब भी मन को मोहती है। अब यही देखिए सुबह की तेज़ धूप आ चुकी है पर ये शहर उमड़ती घुमड़ती धुंध के आलिंगन से अपने आप को मुक्त नहीं कर पाया है।



ऊपर का चित्र तो शहर की बाहरी परिधि से लिया गया है, पर रात में ये शहर एक अलग सी तसवीर प्रस्तुत करता है। इस चकाचौंध से ये तो समझ ही गए होंगे आप कि यहाँ भी शहरीकरण तेज़ी से पाँव पसार रहा है।


रात्रि चित्र के छायाकार हैं आर सी फनाई। वैसे तो अब तक आप बूझ ही गए होंगे कि आज का सवाल क्या है ? जी हाँ आपको बताना है कि ये खूबसूरत जगह कौन सी है ? पिछली पहेली की तरह ये कठिन ना हो जाए इसलिए चार संकेत हाज़िर हैं।




संकेत 1,4 : ये जगह एक राज्य की राजधानी है। १८९५ में ये राज्य ब्रिटिश भारत का पहली बार हिस्सा बना।
जी हाँ ऍजल (Aizwal) मिज़ोरम की राजधानी है। मिज़ो पहाड़ियाँ एक आधिकारिक आदेश के तहत १८९५ में ब्रिटिश भारत का हिस्सा बनीं। १८९८ में उत्तर और दक्षिण की पहाड़ियों को लुशामिला के साथ मिला ऍजल को मुख्यालय बनाया गया।

संकेत 2 : आदमखोर बाघ, खूनी तेंदुओं और मनचले हाथियों से गाँवों की तबाही के किस्से तो आपने पहले भी सुने होंगे, पर इस राज्य के लोगों को एक बार तबाह किया था चूहों ने !
मिजोरम में १९५९ में भीषण अकाल पड़ा। इस अकाल की वज़ह थी बाँस के पेड़ों में फूलों का आना। कहते हैं इन फूलों को खाने से चूहों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि होती है। और बढ़े हुए चूहों ने अपनी भूख शांत करने के लिए लहलहाते खेतों पर आक्रमण कर उनका सफाया कर दिया। इस त्रासदी से निपटने के लिए मिजो नेशनल फैमिन फ्रंट (MNFF) का गठन हुआ जो अकाल के समय के अपने कार्यों की वज़ह से काफी प्रचलित हुआ। बाद में सरकारी उपेक्षा की शिकायत की बिना पर इस संगठन ने अलगाववाद का रास्ता चुना और यहाँ के लोकप्रिय नेता लालडेंगा नेतृत्व में इसका नाम मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) पड़ा।

संकेत 3 : यहाँ की लोककथाओं पर अगर विश्वास करें तो आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि यहाँ के लोग इस संसार में पदार्पित हुए पहाड़ की चट्टानों के अंदर से।
इतिहास भले ही मिजो लोगों के पूर्वजों को बर्मा चीन सीमा के समीपवर्ती प्रांत से विस्थापित लोगों में शुमार करता है पर प्रचलित मिज़ो लोककथाओं में इस बड़ी चट्टान का नाम छिनलुंग बताते हैं।



मेरे ख्याल से इन संकेतों की सहायता से उत्तर तक शीघ्र ही पहुँच जाएँगे तो देर किस बात की जल्दी लिखिए अपना जवाब। आपके उत्तर हमेशा की तरह माडरेशन में रखे जाएँगे।

आइए देखें किसने दिया इकलौता सही जवाब:.

आप में से बहुत लोग ऍजल (Aizwal) के रात्रि चित्र को देख कर भ्रमित हो गए। दरअसल सभी हिल स्टेशन पर ऊँचाई से लिए गए चित्र बहुत हद तक एक जैसे लगते हैं। जिस तरह के संकेत थे उससे उत्तरपूर्वी राज्यों की ओर ध्यान जाना चाहिए था और गया भी बहुत लोगों जैसे मनीषा, समीर लाल और विवेक रस्तोगी का। पर चूहे वाले संकेत से अभिषेक ओझा सही उत्तर देने में सफल हो गए क्योंकि उन्होंने पिछले साल बाँस के फूलों की वज़ह से मिजोरम में आए अकाल के बारे में लिखा थाअभिषेक ओझा को हार्दिक बधाई और साथ ही आप सब का बेहद शुक्रिया इतनी जोर शोर के साथ इस पहेली में भाग लेने का। आशा है इस पहेली के उत्तर तक पहुंचने में आपके मनोरंजन के साथ कुछ ज्ञानवर्धन भी हुआ होगा जो कि इस श्रृंखला का उद्देश्य है।

बुधवार, 17 जून 2009

रंग बदलते आसमान में लिपटी मुन्नार की वो नयनाभिराम प्रातःकालीन बेला

सूर्योदय बेला की इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में ले चलते हैं आपको केरल के सबसे सुंदर पर्वतीय स्थल मुन्नार (Munnar) की ओर। हमारा समूह मुन्नार थेक्कड़ी मार्ग (Munnar Thekkadi Highway) पर स्थित चांसलर रिसार्ट में ठहरा था। दिसंबर का महिना था। क्रिसमस एक दिन पहले ही बीती थी। सुबह सवा छः जब हम अपने रिसार्ट के कमरे से बाहर निकले तो बाहर अभी भी घुप्प अँधेरा था । मुन्नार छोटे पर गोल से चंदा मामा की चमक अभी तक फीकी नहीं पड़ी थी।


आँखें बंद कर अनुभव कीजिए..

प्रातःकालीन बेला में पर्वत के शिखर के पास आप खड़े हों...

दिन में हरे भरे दिखते चाय के बागान गहरी कालिमा लपेटे हों..

घाटी के नीचे सूर्य के आगमन से बेखबर सोती झील को अपलक देखता हुआ बादलों का सफेद झुंड दिखाई पड़ रहा हो ....

और इतने में दस्तक देती पहुँच जाए आसमानी महल पर सूर्य किरणों की सेना !

फिर तो आकाश में समय के साथ साथ बदलती नीले लाल नारंगी रंगों की मिश्रित आभा अपना जो रूप हमें दिखाया हम सब नतमस्तक और मुग्ध हो गए प्रकृति की इस मनोहारी लीला पर..
आप भी देखिए और आनंद लीजिए आसमान के बदलते रंगों की इस छटा का.....






(सभी चित्र मेरे और सहयात्री पी. एस. खेतवाल के कैमरे से)

बुधवार, 10 जून 2009

पहाड़ों पर सूर्योदय : आइए आनंद लें लाचुंग की इस सुबह का..

पोखरा के सूर्योदय के बारे में लिखते समय मैंने कहा था कि इस श्रृंखला की अगली पोस्ट में चर्चा एक ऍसे सूर्योदय की होगी जिस अपनी आँखों के सामने हमेशा हमेशा के लिए क़ैद करने के लिए मेरा क़ैमरा मेरे पास था। ये एक ऐसा सूर्योदय था जिस में मुझे सूर्य तो नहीं दिखा पर सूर्य किरणों की पर्वत चोटियों के साथ अठखेलियों को नजदीक से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

बात उत्तरी सिक्किम की है। राजधानी गंगटोक से करीब १२९ किमी दूर एक जगह है लाचुंग (Lachung) जहाँ लोग यूमथांग घाटी (Yumthang Valley) की ओर जाने के लिए रात्रि पड़ाव करते हैं। इसी लाचुंग में हम एक बारिश भरी शाम को पहुँचे थे। रात भर गरजते बादलों का शोर पौ फटने के कुछ पहले ही थम चुका था। सुबह का नज़ारा लेने के लिए करीब सुबह के सवा पाँच बजे मैं होटल की छत पर पहुँच गया। बारिश में भीगी सड़क और आस पास के घरों में सन्नाटा अभी तक पसरा हुआ था।


सड़क के पीछे निगाह दौड़ाई तो अपनी पतली धार के साथ लाचुंग चू अलसायी सी चाल में बह रहा था। लाचुंग की यही जलधारा चूंगथांग में लाचेन चू से मिलकर तीस्ता नदी (River Teesta) का निर्माण करती है।वहीं दूर पहाड़ की ढलान पर बसे छोटे छोटे घरों से निकलता धुँआ घाटी में फैल रहा था।


पर ये तो था सिर्फ एक ओर का नज़ारा। जैसे ही दूसरी तरफ मैंने नज़र घुमाई मन एकदम से सहम गया। लाचुंग का एक प्रचंड पहाड़ अपना सीना ताने खड़ा था । पहाड़ के बीचों बीच पतले झरने की सफेद लकीर, चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी।

इस पहाड़ के दाँयी ओर की पर्वत श्रृंखला अभी भी अंधकार में डूबी थी। दूर दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में अपनी बाहें फैलाये खड़ा था।

उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं।

थोड़ी ही देर में ये किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यूं प्रकाशमान करने लगीं मानो भगवन ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी हो। शायद वर्षों तक ये दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे।


तो कैसा लगा आपको ये नज़ारा? भारत के उत्तर पूर्वी हिस्से की एक सुबह तो आपने मेरे साथ बिता ली। अब चलियेगा मेरे साथ ऍसी ही एक सुबह का आनंद लेने भारत के दक्षिणी कोने में...

(सभी चित्र मेरे कैमरे सोनी W5 से)

और हाँ पिछली पहेली जब हाथी भूल जाएँ जंगल का रास्ता का उत्तर आप यहाँ देख सकते हैं।

सोमवार, 8 जून 2009

चित्र पहेली 3 का उत्तर और कहानी समुद्र में तैरने वाले हाथी 'राजन' की

आपको याद होगा कि छोटी कक्षाओं में पढ़ते वक्त जब हम जानवारों से पहला परिचय प्राप्त करते थे तो साथ ही ये भी पढ़ाया जाता था कि इन जानवरों के रहने का स्वाभाविक स्थान क्या है? जैसे शेर माँद में रहता है, घोड़ा अस्तबल में और हाथी जंगल में..। पर जब भारत के किसी भाग में घूमते घामते आप ये पाएँ कि हाथी समुद्र में चल रहे हैं तो क्या आप अचानक ही विस्मित नहीं होंगे। ज़रा नीचे देखिए तो..



अब ये चित्र तो आपने देख लिया। अब ये बताइए कि ये दृश्य भारत के किस समुद्री तट का है ? और आखिर हाथी जंगल छोड़कर समुद्र में क्या करने आ गए? आशा है जिस तरह पिछली बार काले ऊँटों का रहस्य आपने पता लगाया था ये गुत्थी भी आप सहजता से सुलझा लेंगे। हमेशा की तरह आपके जवाब और टिप्पणियाँ माडरेशन में रखे जाएँगे ताकि आप बिना किसी पूर्वाग्रह के अपना मत व्यक्त कर सकें। पहेली का सही उत्तर 8 जून की सुबह इसी पोस्ट में बताया जाएगा।


8.06.09

इस बार की पहेली बिना किसी संकेत के दी गई थी, इसलिए आप सब के लिए थोड़ी जटिल हो गई। दरअसल ये जगह है हैवलॉक द्वीप की एलिफैंट बीच (Havelock's Elephent Beach)हैवलॉक द्वीप की सुंदरता के बारे में तो विस्तार से आप सब को पहले भी बता चुका हूँ। जैसा कि राज भाटिया जी ने कहा कि कई जगहें ऍसी होती हैं जहाँ जंगल से सटे समुद्र तट हो सकते है और अंडमान में ऍसा कई इलाकों में अभी भी संभव है क्योंकि आदिम जनजातियों की सुरक्षा के लिए उनके प्राकृतिक परिवेश को नष्ट नहीं किया गया है।

हाथियों का प्रयोग अंडमान में काफी अर्से से लकड़ी के बड़े बड़े लठ्ठों को जंगल से कस्बों तक लाने में किया जाता था। समय के साथ कई द्वीपों में जंगल काटने की मनाही कर दी गई जिसके फलस्वरूप जो हाथी इस कार्यविशेष के लिए उन द्वीपों में लाए गए थे वे बेरोजगार हो गए।

इसी हालत में हैवलॉक पर दूसरे द्वीप से एक ऍसा ही हाथी को लाया गया जिसका नाम था राजन। इस द्वीप पर आने के पहले ही राजन की संगिनी की मौत कोबरा के काटने से हो गई थी। अपनी सहचरी के इस तरह चले जाने का ग़म राजन को कुछ दिन सालता रहा। पिछले आठ सालों से राजन इस द्वीप के जंगलों में घूमता रहा है पर दो नई बातें जो उसकी जिंदगी में हुई हैं वो ये कि वो समुद्र मैं तैरने की कला सीखने और उसे सबके सामने प्रदर्शित करने की वज़ह से से विदेशी पर्यटकों में खासा प्रसिद्ध हो गया है और अब उसके समूह में दो हथनियाँ भी शामिल हो गई हैं जिन्हें वो अपने साथ रखता है। सामान्यतः इस तट पर पर्यटकों को स्नॉरकलिंग (snorkelling)। के लिए लाया जाता है ताकि यहाँ समुद्र के नीचे के अद्भुत कोरल को वे देख सकें।



तो ये तो थी कथा राजन की। अब आते हैं जवाबों की ओर। आप सबने अनुमान केरल और तामिलनाडु के तटों का लगाया। खैर सही उत्तर के पास तो आप नहीं पहुँच सके पर कुछ मज़ेदार जवाब जरूर मिले मसलन ज़ाकिर अली रजनीश को ये समुद्र के पानी में गर्मियों की छुटिटयॉं मनाते हाथी युगल नज़र आए वहीं अजय कुमार झा ने लिखा ...हाथी तो पक्का बसपा के ही हैं......हाँ समुद्र तट अनाद्रमुक का ..या इनके ही किसी भाई बंधु का हो सकता है।

आप सभी का अनुमान लगाने के लिए हार्दिक धन्यवाद !

सोमवार, 1 जून 2009

पोखरा, नेपाल का सूर्योदय और कथा मछली के पूँछ के आकार की अनोखी चोटी माउंट फिशटेल की...

प्रकृति की मनोरम छवियों को देख पाने के लिए एक आम पर्यटक का सिर्फ गन्तव्य तक पहुँचना काफी नहीं होता। उसे तो भाग्य के सहारे की भी नितांत आवश्यकता होती है, खासकर तब जब प्रसंग पर्वतीय भ्रमण स्थलों पर सूर्योदय देखने का हो।

कितनी बार ही ऍसा होता है कि इधर आप सैकड़ौं किमी की यात्रा कर इच्छित स्थान पर पहुँचे नहीं कि काले मेघों ने आपका ऍसा स्वागत किया कि आपके घूमने घामने वाले समय में बारिश ही होती रह जाए। या फिर अगर आप इतने दुर्भाग्यशाली ना भी हों तो इस दृश्य की कल्पना कीजिए। सर्दी की ठिठुरती ठंड में आपसे साढ़े चार तक तैयार रहने को कहा जाता है। अब रात की नींद को तो गोली मारिए सुबह आप किसी तरह सूर्योदय स्थल तक पहुँच भी गए हों तो सूर्योदय बेला के ठीक पहले ठुमकता हुआ बादलों का झुंड आपकी सारी तैयारियों पर पानी फेर देता है।

ऍसे ही एक प्रसंग की याद आती है जो आज से करीब १८ वर्ष पहले मेरे साथ घटित हुआ था। तब मेरे पिता बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के मुख्यालय बेतिया में पदस्थापित थे। पश्चिम चंपारण बिहार के उत्तर पूर्वी किनारे का अंतिम जिला है। इसके उत्तर में नेपाल और पूर्व में पूर्वी उत्तरप्रदेश का देवरिया जिला आता है। दशहरे की छुट्टियो के बीच कार्यक्रम बना कि क्यूँ ना गाड़ी से ही मोतिहारी और विराटनगर होते हुए काठमांडू और पोखरा जाया जाए। यूँ तो नेपाल के उत्तर मध्य में बसा शहर पोखरा पर्यटकों में काठमांडू के बाद सबसे ज्यादा लोकप्रिय है पर जहाँ तक मुझे याद पड़ता है पोखरा मुझे उस वक़्त बहुत ज्यादा सुंदर और विकसित शहर नहीं लगा था। आसमान छूते पर्वतों के बीच फैली फेवा झील (Feva Lake) में बोटिंग का आनंद हम सब ने अवश्य उठाया था पर फेवा झील से ज्यादा रोमांचक अगली सुबह की अपनी यात्रा रही थी।

हमारा चालक पहली बार गाड़ी लेकर नेपाल आया था। इसलिए उसे वहाँ के रास्तों के बारे में हर किसी से पूछना पड़ता था। कई बार तो ऍसा होता था कि राहगीर हाथ तो दाहिना दिखाता था पर बोलता बाएँ था। दिन में या शाम को तो काम चल जाता था पर रात में दिक्कत होती थी। झील में नौका विहार के बाद घूमते घामते होटल पहुँचे तो वहाँ पता चला कि यहाँ सारंगकोट (Sarangkot) से सूर्योदय का दृश्य अद्भुत होता है। अब जाने की इच्छा तो सभी की थी पर अनजान जगह में रास्ता भटकने का भय भी था। सारे पर्यटक बुलेटन छान मारे गए। पर उनमें वहाँ जाने की अलग अलग जानकारी मिली। शायद सारंगकोट पहुँचने के एक से ज्यादा रास्ते थे। ड्राइवर को रास्ते के लिए स्थानीय लोगों से बात कराई गयी। पर सुबह पौने पाँच बजे के करीब जब हम निकले तो काली स्याह रात में सड़क पर दौड़ते कुत्तों के आलावा कुछ ना था।

बताए गए निर्धारित रास्ते पर हम बढ़ते रहे। अचानक ही रास्ते के बाँयी ओर सारंगकोट जाने के लिए रास्ता दिखा तो सहमे मन को कुछ सुकून मिला पर जैसे ही गाड़ी उस रास्ते पर आगे बढ़ी, चालक सहित हम सभी की जान साँसत में आ गई। जीप की हेडलाइट के आलावा रास्ते पर किसी तरह की रोशनी नहीं थी। उस वक़्त वो रास्ता भी बेहद संकीर्ण और कच्चा था। थोड़ी दूर के घुमावों को पार करते समय जब गहरी घाटी दृष्टिगोचर हुई तो बस राम नाम जपने के आलावा कोई चारा भी नहीं था। हमें सबसे अधिक डर इस बात का लग रहा था कि वहाँ जाने के लिए हमने कोई गलत रास्ता तो नहीं पकड़ लिया क्योंकि इतने उबड़ खाबड़ और संकरे रास्ते की उम्मीद नहीं थी। दस मिनट तक हम इसी मनोदशा में रहे कि हमें दूर ऊँचाई पर एक तिरछी रेखा में उठती हुई रौशनी दिखाई दी। हमने पहले तो सोचा कि कोई घर है पर रोशनी को हिलते देख हमारा विस्मय और बढ़ गया। दरअसल वो रोशनी वहाँ चलने चाली टोयोटा कार की थी जो उस वक्त हमसे काफी ऊँचाई पर एक बेहद स्टीप उठान पर आगे बढ़ रही थी।

इस दृश्य को समझकर हमारे मन में मिश्रित भावनाएं जागीं। पहली संतोष की कि हमने रास्ता गलत नहीं चुना और दूसरी भय की उस चढ़ाई की कल्पना कर जिस तक हमारे चालक को आगे अभी सँभालना बाकी था। कुछ देर के बाद हम उस स्थान पर थे जहाँ से आगे की चढ़ाई खुद चढ़नी थी। सारंगकोट की पहाड़ी समुद्रतल से लगभग १६०० मीटर ऊँचाई पर है। पहाड़ी की अंतिम सीधी चढ़ाई पैदल ही तय की जा सकती है। हम जब ऊपर पहुँचे तो वहाँ तीन चार विदेशी पर्यटक पहले से मौजूद थे। पिताजी ने एक इटालवी पर्यटक से बात चीत शुरु कर दी। पता चला कि वो एक हफ्ते से इस सूर्योदय को देखने सारंगकोट पर डेरा जमाए हुए है। रहने के लिए एक पहाड़ी का मकान और उन्हीं के साथ खाना पीना। हम सब मन ही मन उसकी कथा सुनकर दंग हो रहे थे और आशा कर रहे थे कि प्रभु आज तो खुल के दर्शन दो। पर सूर्य देव कहाँ मानने वाले थे। आए पर साथ में बादलों का छोटा सा झुंड ले के। करीब सात बजे के बाद से आसमान साफ होना शुरु हुआ और अन्नपूर्णा की बर्फ से लदी चोटियों पर सूर्य की किरणें जगमग कर उठीं। उस वक़्त मेरे पास कैमरा तो था नहीं पर अगर उस दिन मैं भाग्यशाली होता तो पोखरा का सूर्योदय कुछ इस तरह का दिखता।


सारंगकोट (Sarangkot) से नेपाल के पश्चिम में फैली अन्नपूर्णा पर्वत श्रृंखला (Annapurna Himal) तो दिखती ही है साथ ही दिखती है एक अलग से आकार की चोटी जिसे माछपूछरे (Macchapuchre) मछली की पूँछ यानि फिश टेल पीक के नाम से जाना जाता है। वैसे तो अन्नपूर्णा करीब ८००० मीटर ऊँची चोटी है पर उससे १००० मीटर नीची फिश टेल उससे ज्यादा मशहूर है। एक तो इसका मछली की पूँछ सा आकार और दूसरे अंत की इसकी तीखी चढ़ाई इसे सम्मोहक बना देती है। नेपाल सरकार ने इस चोटी पर चढ़ाई को गैरकानूनी घोषित किया है क्योंकि ये वहाँ के गुरुंग समुदाय के लिए श्रद्धेय है।
पर कुछ पर्वतारोहियों ने गैरकानूनी तरीके से इस चोटी पर चढ़ने का प्रयास किया । १९५७ में विल्फ्रेड नॉयस का पर्वतारोही दल इस चोटी के डेढ़ सौ फीट नीचे से लौट आया। उसने इस घटना का जिक्र अपनी किताब क्लाइमबिंग दि फिश टेल (Climbing the Fish Tail) में किया है। कहा तो ये भी जाता है कि अस्सी के दशक के प्रारंभ में न्यूजीलैंड के पर्वतारोही बिल डेन्ज़ ने इस चोटी पर चुपके चुपके फतह पाई पर बिल अपने दुस्साहस को दुनिया के सामने जगज़ाहिर करने के पहले ही १९८३ में एक पर्वतारोही अभियान में चल बसे।

तो वापस लौटें उस सुबह के नज़ारे पर... जैसे जैसे धूप फैलती जाती वैसे वैसे अन्नपूर्णा और फिशटेल की चोटियों का रंग बदलता जाता। सफेद बर्फ से लदी ये चोटियाँ इतनी ऊँचाई लिए होतीं कि हमें कई बार बड़ी देर से विश्वास होता कि आखिर हम चोटी देख रहे हैं या बादलों का कोना। सारंगकोट पर लगभग ढाई घंटे बिताने के बाद हम इन दृश्यों को मन में संजोए वापस लौट पड़े।

अगली पोस्ट में जिक्र एक ऍसे सूर्योदय का जिसे देखने के साथ मैंने कैमरे में क़ैद करने में भी सफलता पाई थी....