जब हमने अगस्त के महीने में झारखंड की रानी कहे जाने वाले झारखंड के पर्वतीय स्थल नेतरहाट जाने का कार्यक्रम बनाया तो लोगों का पहला सवाल था बारिश के मौसम में नेतरहाट? प्रश्न कुछ हद तक सही था। नेतरहाट को लोग वहाँ पहाड़ियों के बीच होने वाले सूर्योदय व सूर्यास्त के लिए जानते हैं। अब जिस मौसम में बादलों का राज हो वहाँ सूर्य देव तो लुकते छिपते ही फिरेंगे ना।
जंगल में मंगल |
दूसरा पहलू सुरक्षा को ले कर था। भारी बारिश में कब रास्ते की पुल पुलिया बह जाए और हम बीच जंगल में जा फँसे, ये डर हमें भी मथ रहा था। संयोग ये रहा कि नेतरहाट के आस पास बारिश से जो सड़कें क्षतिग्रस्त हुई थीं वो हमारे जाते जाते दुरुस्त हो गयीं।
पर ना तो हमें सूर्य की परवाह थी और ना ही पानी में भींगने की अनिच्छा, हम तो बस बारिश में धुले हरे भरे झारखंड
की वादियों में भटकना चाहते थे। सच यो ये है कि इस यात्रा के बाद हमें विश्वास हो गया कि
प्रकृति का हर मौसम आपसे कुछ कहता है और Off Season की बातें कभी कभी कितनी बेमानी
होती हैं ये सफ़र तय कर के ही पता लगता है।
नेतरहाट घाटी का अविस्मरणीय दृश्य |
चौदह अगस्त को अपनी कार ले कर हम तीन मित्र राँची से रवाना हो गए। राँची से नेतरहाट की दूरी करीब 160 किमी है। इस सफ़र को रुकते चलते आप चार से पाँच घंटे में पूरा कर सकते हैं। राँची से तीस किमी बाहर निकलने के बाद ज्यों ज्यों आबादी कम होती गयी वैसे वैसे धरती पर फैली हरीतिमा का विस्तार होता गया। हरियाली का वो हसीन मंज़र तो मैं आपको यहाँ दिखा ही चुका हूँ।
राँची, नगड़ी, बेड़ो होते हुए हम सिसई पहुँचे। सिसई से घाघरा जाने के लिए दो रास्ते हैं। प्रचलित रास्ता गुमला होकर जाता है तो दूसरा सिसई के ग्रामीण अंचल के बीच से गुजरता हुआ घाघरा पहुँचता है। छोटा होने के कारण हमने इस रास्ते का पहले रुख किया पर कुछ दूर उस पर चल कर समझ आ गया कि जितना समय हम इस पर चल कर बचाएँगे उससे ज्यादा इस के गढ्ढों से बचने बचाने में निकल जाएगा।
राँची, नगड़ी, बेड़ो होते हुए हम सिसई पहुँचे। सिसई से घाघरा जाने के लिए दो रास्ते हैं। प्रचलित रास्ता गुमला होकर जाता है तो दूसरा सिसई के ग्रामीण अंचल के बीच से गुजरता हुआ घाघरा पहुँचता है। छोटा होने के कारण हमने इस रास्ते का पहले रुख किया पर कुछ दूर उस पर चल कर समझ आ गया कि जितना समय हम इस पर चल कर बचाएँगे उससे ज्यादा इस के गढ्ढों से बचने बचाने में निकल जाएगा।
नेतरहाट का नाम सार्थक करता बाँसों का ये झुरमुट |
दोपहर बारह बजे हम गुमला होते हुए घाघरा पहुँचे। सड़क से सटे छोटे से ढाबे में साथ लाया भोजन किया। स्पेशल चाय की माँग करने पर खालिस दूध वाली चाय मिली। पानी भी ऐसी मिठास लिए कि तन मन प्रफुल्लित हो जाए । थोड़ा आगे बढ़ने पर उत्तरी कोयल नदी मिली और फिर सफ़र शुरु हुआ नेतरहाट घाटी का।
नेतरहाट घाटी में प्रवेश करते ही तापमान दो तीन डिग्री कम हो गया। घने जंगल की शांति को या तो पहाड़ की ढलान पर बहती पानी की पतली दुबली धाराएँ तोड़ पा रही थी या बॉक्साइट की खानों से अयस्क लाते ट्रक। जंगल के बीच पहुँचते ही हमें नेतरहाट के नाम का रहस्य विदित होने लगा। दरअसल स्थानीय भाषा में बाँस के बाजार को नेतूर हाट के नाम से जाना जाता रहा है जो समय के साथ नेतरहाट में बदल गया। नेतरहाट पहुँचने के पहले पहाड़ की ढलानों पर बाँस के इतने घने जंगल हैं कि नीचे की घाटी की झलक पाने के लिए अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ती है।
नेतरहाट के ठीक पहले मिले हमें साल व सखुआ के जंगल |
घाटी समाप्त होने के पहले एक रास्ता महुआडांड़ के लिए कटता है जबकि दूसरा नेतरहाट के जंगलों में फिर से ले जाता है। बाँस के जंगलों को पार करने के बाद हमारा सामना चीड़ के आलावा, सखुआ और साल के जंगलों से हुआ। आसमान में बदली छायी हुई थी पर हम सबका मन इन जंगलों में थोड़ा समय बिताने का हुआ और हम गाड़ी खड़ी कर बाहर निकल पड़े।
नेतरहाट स्कूल के ठीक सामने चीड़ वृक्षों की मनमोहक क़तार |
नेतरहाट में रहने के लिए डाक बँगला, वन्य विश्रामागार के आलावा झारखंड
पर्यटन का अपना होटल भी है जिसका नाम प्रभात विहार है। यहाँ इंटरनेट से भी बुकिंग होती है। वन विश्रामागार में जगह ना मिलने की वजह से हमने इस
सुविधा का लाभ उठाया। वैसे इसके आलावा भी आजकल वहाँ छोटे छोटे लॉज बन गए हैं। होटल तक पहुँचते पहुँचते बारिश शुरु हो गयी थी। थोड़ी
देर हाथ पैर सीधे करने के बाद बारिश का चाय के साथ आनंद लिया गया और फिर
हमने राह पकड़ी कभी बिहार के सबसे नामी रहे नेतरहाट स्कूल की।
नेतरहाट स्कूल का खूबसूरत परिसर |
मैदानों में स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियाँ होती हैं पर नेतरहाट में छुट्टी का मौसम मानसून में आता है। अविभाजित बिहार में 1954 में इस स्कूल की स्थापना की गयी। आज यहाँ छठी से बारहवीं तक की पढ़ाई होती है। जब मैं स्कूल में था तो नेतरहाट को पूरे बिहार का सर्वोत्तम स्कूल का दर्जा प्राप्त था। बिहार बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में प्रथम दस में इक्का दुक्का ही स्थान किसी और स्कूल के छात्रों को मिलते थे। हिंदी मीडियम की पताका आज तक फहराने वाले इस विद्यालय के नतीजे बिहार के विभाजन के बाद वैसे नहीं रहे।