भितरकनिका लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भितरकनिका लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

चित्र पहेली 9: क्या कभी देखी है आपने कछुओं की दौड़ ?

इस भागमभाग भरी जिंदगी में ऊपर निकलने की रैट रेस (Rat Race) से तो आप भली भांति परिचित हैं। इंसानों की इस दौड़ को छोड़ दें तो घोड़ों,बैलों,ऊँटों और यहाँ तक की हाथियों की दौड़ भी शायद आपने देखी या सुनी होगी । पर कछुओं की रेस के बारे में आपका क्या ख्याल है? क्या कहा कछुए भी कभी दौड़ सकते हैं? हाँ भाई हम सब का बचपन तो खरगोश और कछुए की कहानी सैकड़ों बार सुनते बीता जिसे कछुआ जीतता तो है पर रेस कर के नहीं वरन अपनी धीमी पर निर्बाध चाल की बदौलत।

पर आजकल ज़माना बदल गया है। कम से कम इस चित्र से तो यही लगता है जिसमें कछुए आपस में एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए दौड़ लगा रहे हैं।


आज की इस चित्र पहेली में आपको बताना बस इतना है कि ये माज़रा क्या है और ये दृश्य भारत के किस समुद्री तट पर देखा जा सकता है? हमेशा की तरह आपके कमेंट मॉडरेशन में रखे जाएँगे। सही जवाब नहीं आने की सूरत में इसी पोस्ट पर संकेत दिए जाएँगे।


तो आइए विस्तार से समझा जाए इस दौड़ के पीछे की कहानी को
भितरकनिका के अपने यात्रा विवरण के आखिरी भाग में मैंने जिक्र किया था इकाकुला (Ekakula) के समुद्र तट का और ये भी कहा था कि सुबह सुबह अगर आप इकाकुला के तट से चहलक़दमी करना शुरु करें तो करीब एक सवा घंटा के बाद वैसे ही एक सुंदर समुद्री तट तक पहुँच जाएँगे। ये समुद्र तट कोई और नहीं गाहिरमाथा का समुद्र तट है जो कि विलुप्तप्राय ओलाइव रिडले प्रजाति के कछुओं द्वारा अंडा देने की एक प्रमुख जगह है। कहते हैं कि इस प्रजाति के कछुए यहाँ हजारों वर्षों से अंडे देते आ रहे हैं पर कुछ दशकों पहले ही इसके संरक्षण में लगे लोगों की इस पर नज़र पड़ी। १९९७ में गाहिरमाथा के इस इलाके को मेरीन शरण स्थल का नाम दिया गया।

अचरज की बात ये है कि ये कछुए श्रीलंका के तटीय इलाकों से लगभग हजार किमी की दूरी उत्तर दिशा में तय कर, अपने पूरे समूह के साथ गाहिरमाथा पहुँचते हैं। इनके गाहिरमाथा में आगमन नवंबर से शुरु हो जाता है और तीन चार महिने चलता है। गाहिरमाथा समुद्री तट तक पहुँचने के कुछ पूर्व ही सहवास की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। तट पर पहुँचते ही मादा कछुओं द्वारा अंडे देने की इच्छा इतनी तीव्र होती है कि हजारों की संख्या में तट पर सही स्थान ढूँढने के लिए समु्द्र से निकलकर तेजी से बढ़ती हैं। अक्सर ये समय रात्रि का होता है जैसा कि आप इस पहेली में पूछे गए चित्र में देख सकते हैं..



एक बार में एक मादा कछुआ 100 से 180 अंडे तक देती हैं। समु्द्र तट के बालू में करीब 45 cm का गढ़्ढा बनाने और अंडा दे कर वापस समुद्र में जाने में ये एक घंटे से भी कम का समय लेती हैं। कभी कभी जगह के लिए इतनी मारामारी होती है की खुदाई में दूसरी मादा के अंडे बाहर निकल जाते हैं और बिना निषेचित हुए ही रह जाते हैं। अंग्रेजी में इन्हें Doomed Eggs कहा जाता है।


सूर्य की गर्मी से तपते इन अंडों को निषेचित होने में करीब दो महिनों का समय लगता है। अंडों के कवच से निकलते बच्चे तेजी से समुद्र की धाराओं की और रुख करते हैं। समुद्र की ओर जाने की तेजी का ये दृश्य भी भगदड़ वाला ही होता है। और तो और समुद्र में रहने वाले इनके शिकारी घात लगाकर इनका इंतजार करते हैं। नतीजन मात्र हजार बच्चों में एक ही बच्चा नई जिंदगी का सफ़र शुरु कर पाता है।



गाहिरमाथा के पास ही धामरा में उड़ीसा को दूसरा बंदरगाह बनाया जा रहा है। इन सभी चित्रों को आप तक मैं ला पाया हूँ धामरा पोर्ट कंपनी लिमिटेड (DPCL) के सौजन्य से। इनके जालपृष्ठ पर आप ओलाइव रिडले (Olive Ridley) कछुओं की गाहिरमाथा समुद्रतट पर खींची गई अन्य तसवीरें भी देख सकते हैं।


किसने दिया सही जवाब ?
इस बार की पहेली का सबसे पहले सही जवाब दिया संजय व्यास ने। पर जगह का सही नाम बताने में सिर्फ अरविंद मिश्रा जी ही सफल रहे। संजय और अरविंद मिश्रा जी को हार्दिक बधाइयाँ । बाकी लोगों का अनुमान लगाने और अपनी प्रतिक्रियाएँ देने के लिए हार्दिक आभार।

सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

भितरकनिका का हमारा आखिरी पड़ाव: इकाकुला का खूबसूरत समुद्र तट

भितरकनिका में हमारा आखिरी पड़ाव था इकाकुला (Ekakula Sea Beach) का समुद्र तट। सुबह करीब साढ़े दस बजे हम डांगमाल से मोटरबोट के ज़रिए इकाकुला की ओर बढ़ गए। धूप तेज थी इसलिए नौका के ऊपरी सिरे पर बैठना उतना प्रीतिकर नहीं रह गया था। आकाश में हल्के हल्के बादल थे उनमें से कोई बड़ा बादल जब हमारी नौका के पास आता तो हम ऊपर चले जाते और बादल की छाँव के नीचे मंद मंद बहती बयार का आनंद लेते। पर ऍसे सुखद अंतराल प्रायः कुछ मिनटों में खत्म हो जाते और हमें वापस नौका के अंदर लौट आना पड़ता।

करीब डेढ़ घंटे सफ़र तय करने के बाद हम समुद्र के बिल्कुल सामने चुके थे। पर इकाकुला के तट तक पहुँचने के लिए छोटी नौका की जरूरत होती है क्यूँकि कम गहरे पानी में मोटरबोट तो चलने से रही। इकाकुला तट से डेढ किमी दूर आकर हमारी मोटरबोट रुक गई। पर छोटी नौका के आने में एक घंटे का विलंब हो गया वैसे छोटी नौका से की गई यात्रा कम रोमांचकारी नहीं रही। वैसे भी पानी के बहाव को हाथ से छूते हुए महसूस करना हो तो इससे बढ़िया विकल्प दूसरा नहीं। फिर हम सब तो पूरे पानी में ही गोता लगा लेते। बड़ी नौका से छोटी नौका में उतरते समय ध्यान नहीं रहा और भारी लोग एक किनारे जा बैठे। नौका को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने बाँयी ओर बीस डिग्री का टिल्ट क्या लिया हम लोगों को लगा कि गए पानी मेंपर नाव खेने वालों ने तत्परता से अपना स्थान बदलकर नाव को संतुलित किया और हमारी जान में जान आईइकाकुला के समुद्र तट के दूसरी तरफ मैनग्रोव के जंगल हैं। पर डांगमाल के विपरीत यहाँ इनकी सघनता कम है और ये अपेक्षाकृत और हरे भरे दिखते हैं। किनारे तक तो पहुँच गए पर अगली मुश्किल लकड़ी के बने पुल तक पहुँचने की थी। लो टाईड (low tide) होने की वज़ह से पुल और पानी के स्तर में काफी अंतर गया था। ख़ैर वो बाधा भी नाविकों की मदद से पार की गई. पुल पार करते ही इकाकुला का फॉरेस्ट गेस्ट हाउस दिखता है। पर्यटक या तो इसकी डारमेट्री में रुक सकते हैं या बाहर बनाए गए टेंट में। हम एक टेंट में अंदर घुसे तो देखा कि अंदर दो सिंगल बेड और शौच की व्यवस्था है। सामने इकाकुला का साफ सु्थरा और बेहद खूबसूरत समुद्र तट हमारा स्वागत कर रहा था। रेत की विशाल चादर को पहले भिगोने की होड़ में लहरें लगी हुई थी। हम पहले तो समुद्र तट के समानांतर झोपड़ीनुमा शेड में जा बैठे और कुछ देर तक शांत मन से समुद्र की लीलाओं को निहारते रहे।

नहाने का मन तो बहुत हो रहा था पर दिन के दो बजे की धूप और वापस तुरंत लौटने की बंदिश की वजह से हम समुद्री लहरों में ज्यादा दूर आगे नहीं बढ़े। कहते हैं शाम के समय नदी के मुहाने से सूर्यास्त देखने का आनंद ही कुछ और है। इकाकुला के समुद्र तट का फैलाव दूर दूर तक दिखता है। पहले यहाँ समुद्र के किनारे काफी जंगल थे जो समुद्री कटाव के कारण अब कम हो गए हैं। वैसे अगर आप यहाँ एक दिन रुका जाए तो सुबह उठकर घंटे भर पैदल चलने के बाद एक और समुद्र तट मिलता है। पर उसकी बातें फिर कभी...

दिन का भोजन करने के बाद हम लोग वापस चल पड़े। दिन की कड़ी धूप गायब हो चुकी थी और रिमझिम रिमझिम बारिश होने लगी थी। हल्की फुहारें और ठंडी हवा के बीच भीगने का आनंद भी हमने उठाया। आधे घंटे बाद आकाश से बादल छँट चुके थे और गगन इंद्रधनुषी आभा से उद्दीप्त हो उठा था। ऐसा लग रहा था कि ये नज़ारा भगवन ने मानो भितरकनिका के विदाई उपहारस्वरूप दिखाया हो। आप भी देखिए ना...

भारत सरकार ने भितरकनिका को यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शुमार करने का आग्रह किया है जिसकी स्वीकृत होने की पूरी उम्मीद है। अगर आप भीड़ भाड़ से दूर मैनग्रोव के जंगलों के बीच अपना समय बिताना चाहते हैं तो ये जगह आपके लिए उपयुक्त है.. पुनःश्च राज भाटिया साहब ने कुछ प्रश्न पूछे हैं । इनमें कुछ का उत्तर तो पिछली किश्तों में दिया है फिर भी चूंकि ये जानकारी यात्रा विवरण के विभिन्न भागों में बिखरी हुई है इसलिए इसे यहाँ संकलित कर रहा हूँ
  • भितरकनिका में विदेश से पहुँचने के लिए सबसे नजदीकी विमान अड्डा भुवनेश्वर है जो भारत के पूर्वी राज्य उड़ीसा की राजधानी है और भितरकनिका के गुप्ती चेक पोस्ट से मात्र १२० किमी दूरी पर है। दिल्ली और कलकत्ता से नियमित उड़ानें भुवनेश्वर के लिए हैं। सड़क मार्ग से भुवनेश्वर से भितरकनिका पहुँचने का रास्ता विस्तार से मैं यहाँ बता चुका हूँ। वैसे देशी पर्यटक भुवनेश्वर के आलावा इस जगह भद्रक के रास्ते भी आते हैं।
  • इस पूरे इलाके को देखने के लिए दो रातें, तीन दिन का समय पर्याप्त है। इसमें से पहली रात डाँगमाल और दूसरी रात आप इकाकुला में बने वन विभाग के गेस्ट हाउस में बिता सकते हैं। अगर आप उड़ीसा पहली बार आ रहे हैं तो आप अपनी इस यात्रा में भुवनेश्वर, कोणार्क, पुरी और चिलका को शामिल कर सकते हैं। निजी टूर आपरेटरों द्वारा संचालित कार्यक्रम का विवरण आप यहाँ देख सकते हैं । इनके पैकेज में एयरपोर्ट से आपको रिसीव कर आपके घूमने, खाने और रहने और राष्ट्रीय उद्यान में घुसने का परमिट की सारी सुविधाएँ रहती हैं। इनकी दरों के लिए आप इनके जाल पृष्ठ पर इनसे संपर्क कर सकते हैं।
  • सरकारी वन विभाग के गेस्ट हाउस के रेट यहाँ उपलब्ध हैं और इसके लिए राजनगर के वन विभाग के डिविजनल फॉरेस्ट आफिसर से संपर्क किया जा सकता है।
  • यहाँ के स्थानीय लोग आम भारतीयों की तरह ही हैं। हिंदी व अंग्रेजी बोल भले ना पाएँ पर आसानी से समझ लेते हैं।
इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ
  1. भुवनेश्वर से भितरकनिका की सड़क यात्रा
  2. मैनग्रोव के जंगल, पक्षियों की बस्ती और वो अद्भुत दृश्य
  3. भितरकनिका की चित्रात्मक झाँकी : हरियाली और वो रास्ता ...
  4. डाँगमाल के मैनग्रोव जंगलों के विचरण में बीती वो सुबह.....
  5. डाँगमाल मगरमच्छ प्रजनन केंद्र और कथा गौरी की...
  6. इकाकुला का खूबसूरत समुद्र तट

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

डाँगमाल मगरमच्छ प्रजनन केंद्र और कथा गौरी की...

सुबह की सैर के बाद ज़ाहिर है पेट में चूहे कूदने लगे थे। सो जम कर नाश्ता करने के बाद हम डाँगमाल के मगरमच्छ प्रजनन केंद्र (Salt Crocodile Breeding Centre) और संग्रहालय की ओर चल दिये। डाँगमाल में वन विभाग के गेस्ट हाउस के आलावा भी निजी कंपनी सैंड पेबल्स टूर एवम ट्रैवेल्स के कॉटेज उपलब्ध हैं। इन गोलाकार झोपड़ीनुमा कॉटेज को देख कर बचपन की वो ड्राइंग क्लास याद आ जाती है जब झोपड़ी का चित्र बनाने के लिए कहने के लिए हम तुरत इसी तरह की रेखाकृति खींचते थे।



इस काँटेज के पास ही एक छोटा सा संग्रहालय है जहाँ मैनग्रोव में पाए जाने वाले जीवों के अस्थि पंजर को सुरक्षित रखा गया है। संग्रहालय का मुख्य आकर्षण नमकीन पानी में पाए जाने वाले मगरमच्छ का अस्थि पिंजर है।


समुद्र से सटे इन डेल्टाई इलाकों में पाए जाने वाले ज्यातर जीव जंतु अपना आधा जीवन पानी और आधा जमीन पर बिताते हैं। मैनग्रोव के जंगल यहाँ के प्राणियों की भोजन श्रृंखला का अहम हिस्सा हैं।



ये जंगल बड़ी मात्रा में जैविक सामग्री का निर्माण करते हैं जो सैकड़ों छोटे जीवों का आहार बनते हैं। ये खाद्य श्रृंखला छोटी और बड़ी मछलियों से होती हुई कछुए और मगरमच्छ जैसे बड़े जीवों तक पहुंच जाती है। मगरमच्छ की भयानक दंतपंक्तियों को देखने के बाद हमने सोचा कि क्यूँ ना अब साक्षात एक मगरमच्छ का दर्शन किया जाए।

संग्रहालय से सौ दो सौ कदमों की दूरी पर हमें ये मौका मिल गया। तार की जाली के पीछे का घर गौरी का था। गौरी इस प्रजनन केंद्र की पहली पीढ़ी से ताल्लुक रखती है। १९७५ में इस प्रजनन केंद्र में लाए गए अंडों को कृत्रिम ढंग से निषेचित कर इसका जन्म हुआ था। दरअसल १९७५ में यूएनडीपी के विशेषज्ञ डॉ एच आर बस्टर्ड (Dr. H.R.Bustard) ने यहाँ नमकीन पाने वाले मगरमच्छ की लुप्त होती प्रजाति को पालो और छोड़ो (Rear & Release) कार्यक्रम के तहत बचाने का प्रयास किया। करीब बारह साल की अवधि तक चले इस कार्यक्रम के दौरान मगरमच्छों की संख्या यहाँ 96 से बढ़कर 1300 के ऊपर हो गई। तो बात हो रही थी गौरी की। गौरी का ये नामाकरण उसके हल्के रंग की वज़ह से हुआ है। गौरी को परिवार शुरु के लिए दो बार उसके बाड़े में नर मगरमच्छों को छोड़ा गया। पर गौरी को उनका साथ कभी नहीं रास आया। साथियों के साथ कई बार उसकी जम कर लड़ाई हुई। ऍसे ही एक युद्ध में उसे अपनी दायीं आँख गँवानी पड़ी। तब से वो अपने इस बाड़े में अकेली रहती है।

स्वभाव से मगरमच्छ सुस्त जीव होते हैं। गौरी को नजदीक से देखने के लिए हम उसके बाड़े के अंदर गए। गौरी को पानी से बाहर निकालने के लिए एक जीवित केकड़ा पानी के बाहर फेंका गया। कुछ ही देर में गौरी ने हमारी आँखों के सामने उस केकड़े का काम तमाम कर दिया और फिर एक गहरी शांति उसके चेहरे पर छा गई।



गौरी को उसी हालत में छोड़कर हम मगरमच्छ के शावकों को देखने आगे बढ़ गए। कीचड़ में लोटते ये शावक किसी भी तरह से भोले नहीं लग रहे थे इसलिए जब हमारे गाइड ने इन्हें हाथ से उठा कर देखने की पेशकश की तो हम सब एकबारगी सकपका गए। हमारी झिझक को देखते हुए वहाँ के एक कर्मचारी ने एक शावक को हाथ से उठाया और हम सब ने बारी बारी उसे छू भर लिया।




मगरमच्छों की दुनिया से बाहर निकलने के बाद हमें भितरकनिका के अपने आखिरी पड़ाव इकाकुला (Ekakula) के समुद्री तट पर जाना था। इस श्रृंखला की समापन किश्त में इकाकुला तक की यात्रा आप तक पहुँचाई जाएगी। पर उससे पहले मुसाफ़िर हूँ यारों के पाठकों को दीपावली की अग्रिम शुभकामनाएँ !

इस श्रृंखला में अब तक
  1. भुवनेश्वर से भितरकनिका की सड़क यात्रा
  2. मैनग्रोव के जंगल, पक्षियों की बस्ती और वो अद्भुत दृश्य
  3. भितरकनिका की चित्रात्मक झाँकी : हरियाली और वो रास्ता ...
  4. डाँगमाल के मैनग्रोव जंगलों के विचरण में बीती वो सुबह.....

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009

भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान : डाँगमाल के मैनग्रोव जंगलों के विचरण में बीती वो सुबह.....

पिछले दस दिन अंतरजाल से दूर बीते। पहले कार्यक्रम राजस्थान जाने का था पर वो किन्हीं कारणों से फलीभूत नहीं हो पाया। पर मूड बन चुका था इसलिए यात्रा पर तो निकलना ही था। दूर का नहीं तो आस पास का ही सही। तो अपनी कुछ शामें समुद्र की लहरों से खेलते बीतीं। इस सफ़र की कहानी तो फिर कभी, अभी तो भितरकनिका वाली यात्रा के आगे का हाल पढ़िए। जैसा कि आपको बताया था बाघा गाहन में पक्षियों के बड़े बसेरे को देखने के बाद जब हम डाँगमाल पहुँचे तब शाम के छः बज चुके थे।

डाँगमाल में वन विभाग का एक गेस्ट हाउस है जहाँ पर्यटकों के लिए कमरे और डारमेट्री की व्यवस्था है। गेस्ट हाउस जेटी से मात्र सौ दो सौ कदमों की दूरी पर है। पानी से इस घिरे इस गेस्ट हाउस की खास बात ये है कि यहाँ बिजली नहीं है। पर घबराइए मत हुजूर, वो वाली बिजली ना सही पर सौर उर्जा से जलने वाले लैंप आपके कमरे को प्रकाशमान रखेंगे।

शाम में गपशप करने, मोबाइल पर गीत सुनने और ताश की पत्तियों से मन बहलाने के आलावा कोई विकल्प नहीं था। गेस्ट हाउस की चारदीवारी के बाहर घना अंधकार था। बस झींगुर सदृश कीड़ों की आवाज का कोरस लगातार सुनाई देता रहता था। सुबह जल्दी उठ कर जंगल की तफ़रीह करने का कार्यक्रम बना, हम सब ग्यारह बजते बजते सोने चले गए। सुबह नींद छः बजे खुली और सुबह की चाय का आनंद लेकर हम बाहर चहलकदमी के लिए चल पड़े। गेस्ट हाउस से जेटी की तरफ जाते हुए रास्ते के दोनों ओर नारियल के वृक्षों की मोहक कतार है ।


जेटी तक पहुँचने के पहले जंगल के अंदर एक पगडंडी जाती हुई दिखती है। दरअसल ये पगडंडी यहाँ का ट्रेंकिग मार्ग है। ये मार्ग करीब चार किमी लंबा है और एक गोलाई में आते हुए फिर वहीं मिल जाता है जहाँ से शुरु हुआ था। मार्ग शुरु होते ही आप दोनों ओर मैनग्रोव के जंगलों से घिर जाते हैं।


मैनग्रोव के जंगल दलदली और नमकीन पानी वाले दुष्कर इलाके में अपने आपको किस तरह पोषित पल्लवित करते हैं ये तथ्य भी बेहद दिलचस्प है। अपना भोजन बनाने के लिए मैनग्रोव को भी फ्री आक्सीजन एवम् खनिज लवणों की आवश्यकता होती है। चूंकि ये पानी में हमेशा डूबी दलदली जमीन में पलते हैं इसलिए इन्हें भूमि से ना तो आक्सीजन मिल पाती है और ना ही खनिज लवण। पर प्रकृति की लीला देखिए जो जड़े अन्य पौधों में जमीन की गहराइयों में भोजन बनाने के लिए फैल जाती हैं वही मैनग्रोव में ऊपर की ओर बरछी के आकार में बढ़ती हैं। इनकी ऊंचाई ३० सेमी से लेकर ३ मीटर तक हो सकती है। जड़ की बाहरी सतह में अनेक छिद्र बने होते हैं जो हवा से आक्सीजन लेते हैं और नमकीन जल में घुले सोडियम लवणों से मैनग्रोव को छुटकारा दिलाते हैं। मैनग्रोव की पत्तियों की संरचना भी ऍसी होती है जो सोडियम लवण रहित जल को जल्द ही वाष्पीकृत नहीं होने देती।


मैनग्रोव के जंगलों में हम दो सौ मीटर ही बढ़े होंगे कि हमें जंगल के अंदर से पत्तियों में सरसराहट सी सुनाई पड़ी। सूर्य की रोशनी अभी भी जंगलों के बीच नहीं थी इसलिए कुछ अंदाज लगा पाना कठिन था। पर कुछ ही देर में मामला साफ हो गया। वो आवाजें हिरणों के झुंड के भागने से आ रही थीं। थोड़ी देर में ही हम जिस रास्ते में जा रहे थे, उसे ही पार करता हुआ हिरण दल हमें देख कर ठिठक गया। हमने अपनी चाल धीमी कर दी ताकि हिरणों को अपने कैमरे में क़ैद कर सके। ऍसा करते हम उनसे करीब २० मीटर की दूरी तक जा पहुँचे। हिरणों का समूह अपनी निश्चल भोली आँखों से हमें टकटकी लगाता देखता रहा और हमारे और पास आने की कोशिश पर कुछ क्षणों में ही जंगल में कुलाँचे भरता हुआ अदृश्य हो गया।


दो किमी की दूरी तक चलने के बाद हमें फिर छोटे बड़े पौधों के बीच से कुछ हलचल सी दिखाई पड़ी। साँप के भय से हमारे कदम जहाँ के तहाँ रुक गए। वहाँ से साँप तो नहीं निकला पर कुछ देर में नेवले से तिगुने आकार का जीव वहाँ से भागता जंगल में छिप गया। हम इसे ठीक से देख भी नहीं पाए और सोचते ही रह गए कि वो क्या हो सकता है। जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे जंगल घना होता जा रहा था और हमारे साथ में कोई वन प्रहरी भी नहीं था। इसलिए हम लोग उसी रास्ते से वापस लौट पड़े। अगर रास्ता पूरा किया होता तो हमें शायद कुछ और देखने को भी मिल सकता था। खैर,उस जानवर के बारे में हमारी गुत्थी तीन घंटे बाद सुलझी जब हमने उसे अपने गेस्ट हाउस के पिछवाड़े में देखा। पता चला कि ये यहाँ का वॉटर मॉनीटर (Water Monitor) है। ये सामने आने पर अपने आकार की वजह से थोड़ा डरावना अवश्य लगता है। इसकी लंबाई करीब डेढ़ से ढाई मीटर तक होती है। जितना दिखता है उतना आक्रमक नहीं होता। इसका भोजन साँप,मेढ़क और मगरमच्छ के अंडे हैं। हम सब ने पास जाकर इसकी तसवीर ली



भितरकनिका के जंगलों में हिरण, सांभर और वॉटर मॉनिटर लिजार्ड के आलावा तेंदुआ ,जंगली सुअर भी हैं। बगुला प्रजाति के पक्षियों के आलावा आठ विभिन्न प्रजातियों के किंगफिशर (Kingfisher) का भी ये निवास स्थल है। इन किंगफिशर के बारे में विस्तृत विवरण आप नीचे के चित्र पर क्लिक कर देख सकते हैं। पर सुबह की हमारी छोटी सी ट्रेकिंग में इस प्रकार के पक्षी कम ही दिखे।


नाश्ता करने के बाद हमें मगरमच्छों से मुलाकात भी करनी थी और और साथ ही वहाँ जीवाश्म संग्रहालय को
भी देखना था। इस श्रृंखला की अगली कड़ी में आपको बताएँगे मगरमच्छ गौरी की कहानी और सैर करेंगे उनके एक प्रजनन केंद्र में..

इस श्रृंखला में अब तक
  1. भुवनेश्वर से भितरकनिका की सड़क यात्रा
  2. मैनग्रोव के जंगल, पक्षियों की बस्ती और वो अद्भुत दृश्य
  3. भितरकनिका की चित्रात्मक झाँकी : हरियाली और वो रास्ता ...

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

आइए देखें भितरकनिका की चित्रात्मक झाँकी : हरियाली और वो रास्ता ...

भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान से डाँगमाल पहुँचने का अपना यात्रा वृत्तांत इस श्रृंखला की पिछली दो प्रविष्टियों में समेट चुका हूँ पर इससे पहले डाँगमाल द्वीप (Dangmal Island) और फिर इकाकुला के समुद्री तट की ओर आपको ले चलूँ मैनग्रोव के जंगलों के बीच से की गई नौका यात्रा की चित्रात्मक झाँकी..

नीला आकाश, हरे भरे मैनग्रोव और डेल्टाई इलाके का मटमैला जल तीनों समानांतर पट्टियों में चलते हैं इस राष्ट्रीय उद्यान में।


नदी की बहती धारा पर वृक्ष की ये झुकती शाखाएँ उसके सौंदर्य से इस कदर मंत्रमुग्ध हैं मानो कह रही हों..छू लेने दे नाज़ुक होठों को कुछ और नहीं हैं जाम हैं ये...


क्या इस चित्र को देख कर भारत का आर्थिक सामाजिक परिदृश्य नहीं कौंध जाता यानि ऊपर ऊपर हरियाली और पर पेड़ के इस ऊपरी हिस्से को अपने हृदय से सींचती उसके नीचे की शाखाएँ सूखी।



और जब ये शाखाएँ ही दम तोड़ दें तब....


तब तो पंक्षियों को यही संदेश देना होगा 'चल उड़ जा पंक्षी कि अब तो देश हुआ बेगाना...'

फिर वही शाम, वही ग़म वही तन्हाई है...

इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम राहें, कुछ तेज कदम रस्ते


जंगल की शून्यता को तोड़ता बगुलों का समेवत कलरव कुछ ऍसा ही कहता प्रतीत हो रहा था..
तनहा ना अपने आप को अब पाइए जनाब
मेरे इस घर की यादें लिये जाइए जनाब :)



इस श्रृंखला में अब तक

  1. भुवनेश्वर से भितरकनिका की सड़क यात्रा
  2. मैनग्रोव के जंगल, पक्षियों की बस्ती और वो अद्भुत दृश्य

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

नज़ारे भितरकनिका के : मैनग्रोव के जंगल, नौका विहार और पक्षियों की दुनिया !

पिछली पोस्ट में आपको मैं ले गया था भुवनेश्वर से भितरकनिका के मैनग्रोव जंगलों के प्रवेश द्वार यानि गुप्ती चेक पोस्ट तक। करीब ६५० वर्ग किमी में फैले इन मैनग्रोव वनों का निर्माण ब्राहाम्णी, वैतरणी और धर्मा नदियों की लाई और जमा की गई जलोढ़ मिट्टी के बनने से हुआ है। ये पूरा इलाका समुद को जल्दी से छू लेने की कोशिश में बँटी नदियों की पतली पतली धाराओं और उनके बीच बने छोटे द्वीपों से अटा पड़ा है।

मैनग्रोव जंगलों के बीच से इस डेल्टाई क्षेत्र से गुजरना मेरे लिए कोई पहला अनुभव नहीं था। इससे पहले मैं अंडमान के बाराटाँग की यात्रा में इन जंगलों को करीब से देख चुका था। पर भितरकनिका के इन जंगलों में मैनग्रोवों के सिवा किस किस की झलक और देखने को मिलेगी इसका अंदाजा यात्रा शुरु करने के वक़्त तो नहीं था।

करीब सवा चार बजे हमारी लकड़ी की मोटरबोट अपने गन्तव्य डाँगमाल (Dangmal) की ओर चल पड़ी थी। सूरज अभी भी मद्धम नहीं पड़ा था पर अक्टूबर के महिने में उसकी तपिश इतनी भी नहीं थी कि हमें उस नौका की छत पर जाने से रोक सके। कुछ ही दूर बढ़ने के बाद हमें तट के किनारे छोटे छोटे गाँव दिखने शुरु हुए। अगल बगल दिखते छोटे मोटे गाँवों में असीम शांति छाई थी। पानी में हिलोले लेती नौका के आलावा जलराशि में भी कोई हलचल नहीं थी।


पर धीरे धीरे गाँवों की झलक मिलनी बंद हो गई और रह गए सिर्फ जंगल..

अंडमान में जब हैवलॉक के डॉल्फिन रिसार्ट में रहने का अवसर मिला था तो वहीं पहली बार पेड़ों को उर्ध्वाकार यानि सीधी ऊँचाई में बढ़ते ना देखकर समानांतर बढ़ते देखा था। कुछ ही देर में वही नज़ारा भितरकनिका में भी देखने को मिल गया। अंतर बस इतना था कि ये पेड़ अंडमान की अपेक्षा अधिक घने थे। पेड़ की हर ऊँची शाख पर पक्षी यूँ बैठे थे मानों बाहरी आंगुतकों से जंगलवासियों को सचेत कर रहे हों।

पाँच बजने को थे पर हमें भितरकनिका के नमकीन पानी में रहने वाले मगरमच्छों (Salt Water Crocodiles) के दर्शन नहीं हुए थे। यहाँ के वन विभाग के अनुमान के हिसाब से भितरकनिका में करीब १५०० मगरमच्छ निवास करते हैं और उनमें से कुछ की लंबाई २० फुट तक होती है यानि विश्व के सबसे लंबे मगरमच्छों का दर्शन करना हो तो आप भितरकनिका के चक्कर लगा सकते हैं। हमारी आँखे पानी में इधर उधर भटक ही रही थीं कि दूर पानी की ऊपरी सतह आँखे बाहर निकाले एक छोटा सा घड़ियाल दिखाई पड़ा। उसके कुछ देर बाद तो दूर से ही ये मगरमच्छ महाशय क्रीक की दलदली भूमि पर आराम करते दिखे। फिर दिखी भागते कूदते हिरणों की टोली। खैर हिरणों से तो अगले दिन भी सामना होता रहा।

डाँगमाल पहुँचने के पहले ही हमें देखनी थी भितरकनिका के बीच बसी पक्षियों की दुनिया। क़ायदे से हमें यहाँ चार बजे तक पहुँच जाना था। पर केन्द्रापाड़ा से देर से सफ़र शुरु करने की वज़ह से हम यहाँ पहुँचे सवा पाँच पर। भितरकनिका की पक्षियों की इस दुनिया को यहाँ बागा गाहन (Baga Gahan) या हेरनरी (Heronry) कहा जाता है। यहाँ पाए जाने वाले पक्षी मूलतः बगुला प्रजाति के हैं। जून से नवंबर के बीच विश्व की ग्यारह बगुला प्रजातियों के पक्षी ३०००० तक की तादाद में यहाँ आकर घोसला बनाते हैं और नवंबर दिसंबर तक अपने छोटे छोटे बच्चों जिनकी तादाद भी लगभग ३५००० होती है लेकर उड़ चलते हैं। हमारी नौका जब सवा पाँच बजे पक्षियों के इस मोहल्ले पर रुकी तो पक्षियों का कर्णभेदी कलरव दूर से ही सुनाई दे रहा था।


अँधेरा तेजी से फैल रहा था इसलिए नौका से उतरकर जंगल की पगडंडियों पर हम तेज़ कदमों से लगभग भागते हुए वाच टॉवर की ओर बढ़ गए। जंगल के बीचो बीच बने इस वॉच टॉवर की ऊँचाई २० से ३० मीटर तक की जरूर रही होगी क्यूँकि ऊपर पहुँचते पहुँचते हम सब का दम निकल चुका था। पर वॉच टावर के ऊपर चढ़कर जैसे ही मैंने चारों ओर नज़रें घुमाई मैं एकदम से अचंभित रह गया।

दूर दूर तक उँचे पेड़ों का घना जाल सा था। और उन पेड़ों के ऊपर थे हजारों हजार की संख्या में बगुले सरीखे काले सफेद रंग के पक्षी। जिंदगी में पक्षियों के इतने बड़े कुनबे को एक साथ देखना मेरे लिए अविस्मरणीय अनुभव था। ढलती रौशनी में इस दृश्य को सही तरीके से क़ैद करने के लिए बढ़िया जूम वाले क़ैमरे की जरूरत थी जो हमारे पास नहीं था। फिर भी कई तसवीरें ली गई और उनमें से एक ये रही....(चित्र को बड़ा करने के लिए उस पर क्लिक करें)


साँझ ढल रही थी सो हमें ना चाहते हुए भी बाघा गाहन से विदा लेनी पड़ी। आधे घंटे बाद शाम छः बजे हम डाँगमाल के वन विभाग के गेस्ट हाउस में पहुँचे। आगे क्या हुआ ये जानने के लिए इंतज़ार कीजिए इस श्रृंखला की अगली पोस्ट का ।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

आइए चलें भुवनेश्वर से भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान के सफ़र पर...

मुसाफ़िर हूँ यारों पर आपने पिछले महिने मेरे साथ चाँदीपुर और दीघा के समुद्र तटों की सैर की । इस महिने आपको ले चलते हैं एक ऍसी जगह जो उड़ीसा के पर्यटन मानचित्र में तो नज़र आती है पर देश के अन्य भाग के लोग शायद ही इसके बारे में जानते हों। ये जगह है उड़ीसा के उत्तर पूर्वी तटीय इलाके के करीब स्थित भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान (Bhiterkanika National Park)



भितरकनिका उड़िया के दो शब्दों से मिलकर बना है। भितर यानि अंदरुनी और कनिका यानि बेहद रमणीक। केन्द्रपाड़ा (Kendrapada) जिले में अवस्थित ये राष्ट्रीय उद्यान अपनी दो विशेषताओं के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। एक तो सुंदरवन के बाद ये देश के सबसे बड़े मैनग्रोव के जंगलों को समेटे हुए है और दूसरी ये कि भारत में नमकीन पानी में रहने वाले मगरमच्छों की सबसे बड़ी आबादी यहीं निवास करती है।

मेरी ये यात्रा पिछली दुर्गा पूजा और दशहरा की छुट्टियों की है। मैं तब उस वक्त भुवनेश्वर गया था। वहीं से भितरकनिका जाने का कार्यक्रम बना। हमारा कुनबा करीब सवा दस बजे भुवनेश्वर से निकला। हमें भुवनेश्वर से कटक होते हुए केन्द्रपाड़ा की ओर निकलना था। भुवनेश्वर और फिर कटक की सड़्कों पर दुर्गापूजा की गहमागहमी थी पर कंधमाल की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं और हाल ही में आई बाढ़ ने माहौल अपेक्षाकृत फीका अवश्य कर दिया था।


भुवनेश्वर से केन्द्रपाड़ा करीब ७५ किमी दूरी पर है अगर आप कटक से जगतपुर वाले राज्य राजमार्ग से जाएँ। पर हमने केन्द्रपाड़ा जाने का थोड़ा लंबा रास्ता लिया।
कटक से चंडीखोल होते हुए हमने पारादीप (Paradip) की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग ५ (NH- 5) की राह पकड़ ली। चार लेनों की चौड़ाई वाले इस राजमार्ग पर आप अपनी गाड़ी बिना किसी तनाव के सरपट भगा सकते हैं।


राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर के दृश्य बिल्कुल विपरीत प्रकृति के थे। एक ओर तो धान की लहलहाती फसल दिखाई दे रही थी...


तो दूसरी ओर दो महिने पहले आई बाढ़ की वज़ह से उजड़ी फसलों का मंज़र दिख रहा था।


हम लोग तो बारह बजे के करीब केन्द्रपाड़ा पहुँच गए पर हमारे समूह के ही एक और सदस्य जो दूसरे रास्ते से हमें केन्द्रपाड़ा में मिलने वाले थे, सिंगल लेन रोड और भीड़ भाड़ की वज़ह से जल्दी पहुँचने की बजाए देर से पहुँचे। लिहाज़ा दिन का भोजन और थोड़ा विश्राम करने के बाद हमें केन्द्रपाड़ा से निकलते निकलते सवा दो बज गए।

हमारा अगला पड़ाव राजनगर (Rajnagar) था जो कि भितरकनिका जाने का प्रवेशद्वार है। केन्द्रपाड़ा और राजनगर के बीच की दूरी करीब ७० किमी है। इन दोनों के बीच
पतामुन्दई (Patamundai)
का छोटा सा कस्बा आता है। ये पूरी सड़क एक लेन वाली है और फिर त्योहार की गहमागहमी अलग से थी इसलिए चाहकर भी अपने गंतव्य तक जल्दी नहीं पहुँचा जा सकता था। हर पाँच छः गाँवों को पार करते ही एक मेला नज़र आ जाता था। गाँव के मेलों की रौनक कुछ और ही होती है... थोड़ी सी जगह में तरह तरह की वस्तुएँ बेचते फुटकर विक्रेता और रंग बिरंगी पोशाकों में उमड़ा जन समुदाय जो शायद एक साल से इन मेलों की प्रतीक्षा में हो।

राँची और कटक की दुर्गापूजा से अलग जगह जगह दुर्गा के आलावा शिव पार्वती, लक्ष्मी और हनुमान जी की भी मूर्तियाँ मंडप में सजी दिखाई पड़ीं। बाद में पता चला कि इस इलाके का ये सबसे बड़ा त्योहार है और इसे यहाँ गजलक्ष्मी पूजा (Gajlakshmi Puja) कहा जाता है।

राजनगर से आगे हमें गुप्ती तक जाना था जहाँ से रोड का रास्ता खत्म होता है और पानी का सफ़र शुरु होता है। हरे भरे धान के खेत अब भी दिखाई दे रहे थे। गुप्ती के ठीक पहले कुछ किमी मछुआरों के गाँव के बीच से गुजरना पड़ा। वहीं एक झोपड़ी में सौर उर्जा का प्रयोग करती ये झोपड़ी भी दिखाई दी तो देख कर सुखद संतोष हुआ कि इन भीतरी इलाकों पर भी सरकार की नज़र है।




ठीक वार बजे हम गुप्ती के चेक पोस्ट पर थे। और ये साइनबोर्ड हमारा चेक पोस्ट पर स्वागत कर रहा था


अगले दो घंटे का सफ़र डेल्टाई क्षेत्र की कभी संकरी तो कभी चौड़ी जलधाराओं के बीच बीता। अगली पोस्ट पर आपको मिलवाएँगे पानी और जंगल में रहने वाले कुछ बाशिंदों से और साथ ही देखना ना भूलिएगा एक दृश्य जो हमारे इस सफ़र का सबसे बेहतरीन स्मृतिचिन्ह रहा।