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रविवार, 5 मई 2019

कैसी थी अंतिम मुगल शासकों की जीवन शैली ? Book Review : City of my Heart !

अगर आप एक अच्छे यात्री या यात्रा लेखक बनना चाहते हैं तो आपको अपने इतिहास से भी लगाव होना चाहिए क्यूँकि तभी आप ऐतिहासिक इमारतों, संग्रहालयों और अपनी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के उद्गम से जुड़ी बहुत सी बातों को एक अलग नज़रिए से देख सकेंगे। यूँ तो किसी भी ऐतिहासिक इमारत में जाते वक़्त हमारा पुरातत्व विभाग उनके बारे में जरूरी जानकारी मुहैया कराता है पर जब वही बात  किसी किताब में आप एक प्रसंग या किस्से के तहत पढ़ते हैं तो वो हमेशा के लिए याद रह जाती है।

पुस्तक आवरण 

इसलिए मुझे जब कुछ महीने पहले राणा सफ़वी द्वारा आख़िरी मुगलों की जीवन शैली, किले के अंदर लोगों के रहन सहन और गदर के बाद शाही खानदान पर आई मुसीबतों पर लिखी किताबों के अंग्रेजी अनुवाद पर अपनी प्रतिक्रिया देने का अवसर मिला तो मैंने झट से अपनी हामी भर दी। 247 पन्नों की इस किताब को पढ़ने में मुझे करीब दो महीने का वक़्त लग गया। उसकी एक वज़ह ये भी रही किताब का अधिकांश हिस्सा किसी सफ़र के दौरान पढ़ा गया। 

City of my Heart चार पुस्तकों बज़्म ए आखिर, दिल्ली का आखिरी दीदार, किला ए मुआल्ला की झलकियाँ और बेगमात के आँसू का एक संग्रह है। इसमें पहली दो किताबें मुख्यतः उस दौरान किले में मनाए जाने वाले उत्सवों, रीति रिवाज़ और खान पान की बातें करती हैं जबकि तीसरी किताब में किले के अंदर की झलकियों के साथ सत्ता के लिए चलते संघर्ष का भी विवरण मिलता है। बेगमात के आँसू में शाही खानदान के उन चिरागों का जिक्र है जो अंग्रेजी हुकूमत के कत्ले आम से बच तो गए पर जिनके लिए शाही जीवन से आम व्यक्ति सा जीवन जीना बड़ा तकलीफ़देह रहा।

इन किताबों के कुछ लेखक इन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी रहे तो कुछ ने उस समय के किस्से कहानियाँ अपनी पिछली पीढ़ियों के हवाले से सुनी। अब किताब चूँकि दिल्ली के बारे में है इसलिए प्रस्तावना में राणा सफवी ने बड़े रोचक तरीके से दिल्ली के नामकरण और सम्राट अशोक के ज़माने सो होते हुए तोमर, खिलजी, तुगलक और मुगलों के समय में अलग अलग हिस्सों में बढ़ती और निखरती दिल्ली का खाका खींचा है। लाल किले के विभिन्न हिस्सों का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए होता रहा इसका उल्लेख भी किताब में है।

राणा सफ़वी 
इस पुस्तक में जिस दौर की बात की गयी है तब मुगल साम्राज्य का अस्ताचल काल था। बादशाह अंग्रेजों की बँधी बँधाई पेंशन का मोहताज था और उसका राज काज में दखल, किले के बाशिंदों से जुड़े मामलों व सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सवों के आयोजन तक ही सीमित था। इन हालातों के बावज़ूद जिस शान शौकत का वर्णन बज़्म ए आखिर और दिल्ली का आखिरी दीदार में मिलता है उससे सिर्फ अंदाज़ ही लगाया जा सकता है कि अकबर से औरंगजेब के शासन काल तक किले के अंदर क्या रईसी रही होगी। 

किले में मनाये जाने वाले हर त्योहार से जुड़ी कुछ रवायतें रहीं जो आज तक हमारी मान्यताओं में शामिल हैं। मसलन दशहरे के समय नीलकंठ का दिखना आज भी इतना ही शुभ माना जाता है। पुस्तक में इस बात का जिक्र है कि हर दशहरे में नीलकंठ को लाकर उड़ाने का दस्तूर था। ईद, बकरीद, फूलवालों की सैर व उर्स के मेलों के साथ तब होली दीवाली भी धूमधाम से मनती थी जो कि किले के अंदर के सामाजिक सौहार्द का परिचायक था।  ईद में खेले जाने वाले खेल का एक दिलचस्प विवरण किला ए मुआल्ला की झलकियाँ में कुछ यूँ बयान होता है....
"ईद ए नवरोज़ के दिन राजकुमारों व कुलीन जनों के बीच अंडों से लड़ाई होती थी। इसले लिए एक विशेष तरह की मुर्गियों का इस्तेमाल होता था जिन्हें सब्जवार कहते थे।  इसके छोटे नुकीले अंडों की ऊपरी परत कठोर हुआ करती थी। त्योहार के कुछ महीने पहले तीन सौ रुपए जोड़े में ये मुर्गियाँ खरीदी जाती थीं और इनसे पाँच से छः अंडे तैयार हो जाया करते थे। प्रतियोगिता के दिन लोग नुकीले सिरे को सामने रखते हुए एक दूसरे के अंडों पर निशाना लगाते थे। जिसका अंडा पहले टूटता था उसकी हार होती थी. हजारों रुपयों की बाजियाँ लगती थीं। आम जनता सामान्य अंडों से बाद में यही खेल खेला करती थी।"

मुगलयी खान पान में जिसकी रुचि है और जो उस वक़्त के पकवानों के बारे में शोध करने में दिलचस्पी रखते हैं उनके लिए शाही मेनू से गुजरना बेहद उपयोगी रहेगा। बज़्म ए आखिर में खानपान के पहले की गतिविधियों का जिक्र कुछ यूँ होता है

"परिचारिकाएँ अपने सर पर टोकरियों में भोजन बैठक में लाती हैं।  पंक्ति में खड़े होकर खाना एक दूसरे से होते हुए शाही मेज तक पहुँचता है। सात गज लंबे और तीन गज चौड़े दस्तरखान के ऊपर सफेद रंग का कपड़ा बिछता है। इसके बीच में दो गज लंबी और डेढ़ गज चौड़ी और छः उँगली ऊँची एक मेज लगायी जाती है जिस पर तरह सील किए हुए पकवान रखे जाते हैं। रसोई प्रबंधक बादशाह के सामने बैठता है और खाना परोसता है।"

अब खाने में रोज़ क्या क्या परोसा जाता था उसकी फेरहिस्त देखेंगे तो लगेगा कि बादशाह और शाही परिवार ऐसा भोजन रोज़ रोज़ खा कर अपना हाजमा कैसे दुरुस्त रखते होंगे? स्टार्टर से लेकर मीठे तक विविध पकवानों का मास्टर मेनू देख के आप सभी चकित रह जाएँगे। सिर्फ पुलाव की बात करूँ तो मोती पुलाव, नूर महली पुलाव. नुक्ती पुलाव, नरगिसी पुलाव, किशमिशी पुलाव, लाल पुलाव , मुजफ्फरी पुलाव, आबी पुलाव, सुनहरी पुलाव, रुपहली पुलाव, अनानास पुलाव, कोफ्ता पुलाव... अंतहीन सूची है कितनी लिखी जाए। मेनू के कुछ हिस्से की बानगी चित्र में आप ख़ुद ही देख लीजिए।

शाही व्यंजनों की फेरहिस्त का कुछ हिस्सा

खान पान के बाद बात कुछ मौसम की। किताब में अलग अलग मौसम में शाही परिवार के क्रियाकलापों का विस्तार से वर्णन किया गया है।  दिल्ली में रहने वाले तो आजकल थोड़ी देर की बारिश और उमस से परेशान रहा करते हैं। उस ज़माने में दिल्ली के मानसून का मिज़ाज देखिए
"जब बारिश आठ से दस दिनों तक होती थी और मानसूनी बादल टस से मस होने का नाम नहीं लेते। कभी पानी की फुहारें आतीं तो कभी  मूसलाधार बारिश होती। लोग खुले आसमान और सूखे दिन के लिए तरसते। कभी कभी सूरज अपनी झलक दिखला जाता। रात में बादलों के झुरमुट से तारे नीचे ताकते तो ऐसा लगता कि जुगनू चमक रहे हों।"

किले के अंदर सत्ता के संघर्ष की छोटी छोटी घटनाओं का ऊपरी जिक्र यदा कदा किताब में मिलता है पर ऐसे विवरणों में वो गहराई नहीं है जिससे इतिहास के छात्र लाभान्वित हो सकें। इतना तो साफ है कि मुगल साम्राज्य का नैतिक पतन औरंगजेब के बाद ही होना शुरु हो गया था। मुगल साम्राज्य के अंतिम पचास सालों में ज्यादातर बादशाह और शहजादे अय्याश और अकर्मण्य थे और मंत्रियों और सरदारों के इशारों पर खून के रिश्ते को दागदार बनाने का मौका नहीं चूकते थे। भाई भाई को, रानियाँ अपने सौतेले पुत्रों को और पुत्र पिता को अपने रास्ते से हटाने के लिए किसी भी हद जाने को तैयार हो जाते थे। बहादुर शाह जफर से जुड़ी ऐसी ही एक घटना का उल्लेख पुस्तक में कुछ इस तरह से आता है
"एक बार बहादुर शाह जफर के स्वागत के लिए जश्न के साथ किले में एक दावत का आयोजन था। दावत के बाद संगीत की महफिल जमी तो बहादुर शाह उसमें तल्लीन हो गए। उनको मारने के लिए उनके एक पुत्र की ओर से पान का बीड़ा भिजवाया गया जिसमें बाघ की मूँछों के बाल भी डाल दिए गए थे। पान खाने के तुरंत बाद ही बादशाह की तबियत खराब हो गयी। पान  में कुछ मिलावट की आशंका से हकीमों ने उनको उल्टियाँ कराने की दवा दी जिसमें खून के साथ वो बाल भी बाहर निकल आया। 
तफ्तीश के दौरान शहज़ादे की इस साजिश का पता लग गया। तबियत ठीक होने की खुशी में एक उत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उस शहज़ादे को भी बुलाया गया। बादशाह ने उसके लिए जहर भरा शर्बत भी तैयार कर रखा था। शहज़ादे को पता था कि अब उसके साथ क्या होने वाला है, फिर भी वो वहाँ सर झुकाए हाथ जोड़ते हुए पहुँच गया। बादशाह ने शर्बत का गिलास हाथ में लेकर कहा, बेटा तुमने जो मुझे बाघ के मूँछ का बाल दिया था उसके बदले में मैंने तुम्हारे लिए जहर भरा शर्बत बनवाया है। 
शहज़ादे ने कुछ कहना चाहा पर बादशाह उससे पहले ही बोल उठे मेरा बुरा चाहने वाले मनहूस तुम अब मेरे हुक्म ना मानने की भी गलती करना चाहते हो? 
शहज़ादे ने जहर मिला शर्बत पिया और वहीं तड़पते हुए जान दे दी।"

किताब को पढ़ने के बाद दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि किले के बाहर और नजदीकी क्षेत्रों में रह रही रियाया की हालत से शाही खानदान को शायद ही कोई लेना देना था। किले के अंदर रहने वाले उनके टुकड़ों पर पलते थे इसलिए उनके वफादार रहे। शाही खानदान को जिन नाज़ नखरों से पाला जाता रहा यही उनकी दुर्दशा का कारण बना। जब वे अंग्रेजों से डरकर भागे तो शहर से बाहर गाँवों में रहने वालों ने भी उन पर तरस नहीं खाया। आपको पढ़कर ताज्जुब होगा कि शाही युवा अपनी ज़िन्दगी में दौड़ना तो दूर कुछ दूर पैदल भी नहीं चले थे। उन्होंने जीवन भर हुक्म चलाना सीखा था, कुछ काम करना नहीं। इसलिए शाही खानदान से जुड़े कई लोगों को बाद में भीख माँगकर गुजर बसर करनी पड़ी। उनमें से जो थोड़े बहुत खुद्दार थे उन्होंने जरूर मेहनत मजदूरी कर अपना स्वाभिमान बचाए रखा।

शुरुआत की दो किताबों का मूल विषय एक ही है। हर रस्म की अदाएगी में होने वाले ताम झाम का विवरण पढ़कर पाठकों की किताब में रुचि बनाए रखना बेहद मुश्किल हो जाता है। यही इस पुस्तक का सबसे कमजोर पक्ष है। हालांकि किले से जुड़ी झलकियाँ और गदर के बाद शाही खानदान से जुड़ी कहानियाँ पहले भाग से अपेक्षाकृत अधिक रोचक हैं। 

ये पुस्तक उन लोगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो मुगलकालीन धार्मिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों, उस समय के पहनावे व खान पान में विशेष रुचि रखते हों या उन पर शोध करने के अभिलाषी हों । किताब में जिन व्यंजनों और पहनावों का जिक्र हुआ है उस पर जहाँ तक संभव हो सका है अनुवादिका ने पुस्तक के परिशिष्ट में उनके बारे में अतिरिक्त जानकारी देने की कोशिश की है जो कि काबिलेतारीफ़ है।

आमेजन पर ये किताब यहाँ उपलब्ध है

शुक्रवार, 3 जून 2016

उत्तर कोरिया में कोई भगवान नहीं है ... There are no Gods in North Korea!

घूमने के लिहाज़ से उत्तर कोरिया कैसी जगह है ? आप ये प्रश्न सुनकर यही कहेंगे कि मज़ाक कर रहे हैं क्या! पर आपसे यात्रा से जुड़ी जिस किताब का आज जिक्र छेड़ना चाह रहा हूँ उसका शीर्षक ही है There are no gods in North Korea. पुस्तक का मुखड़ा देख कर तो यही लगता है कि ये किताब उत्तर कोरिया के बारे में होगी। पर ऐसा है नहीं। पेशे से एक समय वकील व फिर पत्रकार रह चुकी अंजली थॉमस  ने इस किताब में उत्तर कोरिया के साथ मंगोलिया, चीन, यूगांडा, केनिया और तुर्की जैसे देशों के अपने संस्मरणों को भी जगह दी है। 



कम्युनिस्ट उत्तर कोरिया अपने आप में हम सबके लिए अबूझ पहेली रहा है। इसलिए जब लेखिका ने इस पुस्तक को समीक्षा के लिए मेरे पास भेजा तो लगा कि मुझे अब इस देश को एक नए सिरे से जानने का मौका मिलेगा। पर उत्तर कोरिया की सरकार ने ये पहले से ही सुनिश्चित कर रखा है कि वहाँ आने वाला क्या देखे, क्या सुने और क्या खाए। अंजली को ये दुखद सच वहाँ जाकर मालूम हुआ। पर इतनी रोक टोक के बीच वो ये जानने में सफल रहीं कि उत्तर कोरिया में भगवान आसमान की तहों में नहीं पर ज़मीन पर अपनी निरंकुश  सत्ता से राज करते हैं।

हर एक यात्रा लेखक का यात्रा का अपना नज़रिया होता है। अंजली का भी है। वो लोगों से घुलती मिलती हैं। स्थानीय स्वाद का ज़ायका लेना नहीं भूलती  और इन सब के बीच वो अपने मन में चल रही उधेड़बुन के बारे में इतना जरूर बता देती हैं कि आप उनके व्यक्तित्व का खाका खींच सकें।

पर वो अपने गन्तव्य के बारे में हल्की सी भूमिका देकर उसे अपनी आँखों से रूबरू नहीं करातीं।  मसलन आप ये नहीं जान पाते कि पहली बार जब उत्तर कोरिया में सरकारी निगाहों से दूर एक छुक छुक चलती गाड़ी में  वो बैठीं तो उन्हें वो देश अपने वास्तविक रूप में कैसा नज़र आया? केनिया  के घने जंगलों की सरसराहट और उनमें रहने वाले बाशिंदों का खौफ़ आप तक पहुँच नहीं पाता। यूगांडा में नील नदी का मुहाने या फिर उसमें स्थित Murchison Falls या तुर्की के बालों के संग्रहालय तक तक पहुँचने का रोमांच तो होता है पर मंजिल पर पहुँचने के बाद बिना किसी विवरण के वो रोमांच कुछ क्षणों में काफूर हो जाता है।

पर वहीं जब वो हर एक देश के अलग अलग लोगों से मिलती हैं। उन्हें अपना दोस्त बनाती हैं तो उस मेलजोल से बहुत सारी ऐसी बातें निकल कर आती हैं जो वहाँ के लोगों की सोच,रहन सहन और मान्यताओं को दर्शाती हैं और यही इस किताब का सबसे मजबूत पक्ष भी है। जैसे उत्तर कोरिया में हर कोई अमेरिका नहीं बल्कि चीन में जाने के सपने देखता है। चीन में लड़कियाँ ऊपर से कितनी चिकनी सुंदर दिखें पर अपनी आर्मपिट पर रेज़र नहीं चलातीं। यूगांडा में  वहाँ के शाही स्मारक में शुक्रवार को जाना आपको काबका के शाही हरम में दाखिला करा सकता है। तुर्की में एक नए आंगुतक का स्वागत लोग थालियाँ तोड़ कर करते हैं। मंगोलिया विश्व के नज़रिए की परवाह किए बगैर आज भी अपनी पहचान लड़ाके चंगेज़ खाँ में खोजता है।

शाकाहारियों को इस किताब को पढ़कर ये आसानी से समझ आ सकता है कि मंगोलिया, उत्तर कोरिया और चीन जैसी जगहें उनका वज़न घटाने के लिए कितनी माकूल साबित हो सकती हैं। अंजली के अनुभव ये बताते हैं कि अकेले घूमते हुए  हॉस्टल और डारमेट्रियाँ में रहना न केवल आपकी जेब को हल्का नहीं होने देता बल्कि आपकी ज़िन्दगी में नयी पहचानों का भी सबब बनता है। 

बहरहाल अगर आप कॉफी और बियर के शौकीन हों, किसी जगह के इतिहास, भूगोल व प्रकृति से ज्यादा वहाँ के लोगों और खान पान में डूबना आपको  पसंद हो, किसी यात्रा वृत का  लेखक की निजता से जुड़ना आपको असहज नहीं करता और सहज कथ्य शैली आपको रुचती हो तो ये किताब आपको जरूर पसंद आएगी अन्यथा उत्तर कोरिया की तरह ही इसे आप अपनी पुस्तकों की आलमारी से दूर रख सकते हैं।

पुस्तक के बारे में
प्रकाशक : नियोगी बुक्स, पृष्ठ संख्या : 235, मू्ल्य : 350 रुपये

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गुरुवार, 31 जनवरी 2013

'Postcards from Ladakh' एक पुस्तक जो दिखाती है लद्दाख का आईना !

मुसाफ़िर हूँ यारों पर आज आपको एक ऐसी जगह ले चल रहा हूँ जहाँ आज तक मैं नहीं जा सका हूँ पर जहाँ जाने की बड़ी इच्छा है। पर क्या बिना किसी स्थान पर गए हुए उसको महसूस करना संभव हैं? जरूर है जनाब अगर आप को किताबें पढ़ने का शौक़ हो। अब तो आप समझ ही गए होगें कि आज की ये यात्रा होगी एक पुस्तक के माध्यम से जिसे लिखा है अजय जैन ने और वो इलाका है लद्दाख का।  इससे पहले कि मैं आपको लद्दाख के सफ़र पर ले चलूँ कुछ बातें लेखक के बारे में।

मेकेनिकल इंजीनियरिंग, MBA व पत्रकारिता की डिग्री हासिल करने वाले अजय ने प्रबंधन से जुड़ी अपनी पहली किताब 2001 में लिखी। घुमक्कड़ी, फोटोग्राफी  और यात्रा लेखन का शौक़ रखने वाले अजय एक कुशल व्यवसायी भी हैं। Postcards from Ladakh अजय की तीसरी किताब है जो 2009 में प्रकाशित हुई।


अजय ने इसी साल लद्दाख के आस पास के इलाकों में अपने चौपहिया वाहन से दस हजार किमी तक की दूरी भी तय की। सच पूछिए तो Postcards from Ladakh कोई विस्तृत यात्रा वृत्तांत नहीं है। 182 पृष्ठों की इस किताब को एक यात्रा डॉयरी कहना ज्यादा उचित होगा क्यूँकि पूरी किताब अजय के छोटे छोटे उन संस्मरणों से अटी पड़ी है जिन्हें लेखक ने अपनी यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर महसूस किया। ख़ुद अजय अपनी किताब को कुछ यूँ परिभाषित करते हैं
"मैंने इस किताब को इस तरह लिखा है जैसे मैं उस स्थान से आपको कोई पोस्टकार्ड लिख रहा हूँ। इनमें ना सिर्फ मेरी अनुपम यादें हैं बल्कि वहाँ रहकर जो मैंने जाना समझा उसका सार भी है।"