अपना शहर या कस्बा किसे अच्छा नहीं लगता। पर कभी यूँ भी होता है कि आप किसी ऐसी जगह से आते हैं जिसका नाम अटपटा सा हो। अक्सर ऐसे कस्बे से आने वाले लोग अपने कस्बों का नाम लेने से झिझकते हैं।
अब उदहारण के लिए अपने यहाँ काम करने वाली से एक बार जब मैंने ये पूछा कि तुम्हारे गाँव का नाम क्या है तो कई दिनों तक उसने ये प्रश्न टाल दिया। बाद में मुझे पता चला कि असल में उसके गाँव का नाम 'कुरकुरा' है इसलिए वो मुझे बताने में शर्मा रही है। वैसे एक बात ये भी है कि भारत में नामों की इतनी विविधता है कि एक प्रदेश वालों को अक्सर दूसरे प्रदेशों में जाने पर अधिकांश नाम अटपटे लगते हैं।
पर जनाब क्या आप जानते हैं कि भारत में एक स्टेशन ऐसा भी है जो अपने बाशिंदों को यूँ ही 'गुंडा' बना देता है। चौंक गए, जाड़े की उस सुबह को मैं भी चौंक गया था जब बाहर की हवा खाने डिब्बे के दरवाजे तक पहुँचा था और सामने स्टेशन के नाम की जगह ये लिखा दिखाई दे गया था। अब आप ही बताइए क्या यहाँ के बाशिंदे कभी अपने कस्बे का नाम बताने की ज़ुर्रत कर सकेंगे ?
(चित्र को बड़ा करने के लिए उसके ऊपर क्लिक करें।)
तो आज की चित्र पहेली में आपको बताना ये है कि ये स्टेशन भारत के किस रेलमार्ग पर स्थित है या सिर्फ इतना ही बता दीजिए कि इसके आस पास का शहर कौन सा है?
मुझे भी आज तक इस नाम के पीछे के रहस्य का पता नहीं चल सका है। तो जब तक आप इस प्रश्न का जवाब तालाशें मैं आपको इसी मार्ग से अपने अगले यात्रा वृत्तांत के गन्तव्य तक ले चलने की तैयारी करता हूँ। हमेशा की तरह आपके जवाब माडरेशन में रहेंगे।
अपडेट 31.7.10
इस चित्र पहेली के जवाब के सबसे पहले नज़दीक जाने का श्रेय जाता है शाह नवाज़ जी को। पर ये स्टेशन किस रेलवेलाइन और किस स्टेशन के पास है ये बताने में सफ़ल रहे इस पहेली के विजेता नीरज जाट। नीरज को बहुत बहुत बधाई। बहुत लोगों ने डुमराँव के पास की जिस जगह का उल्लेख किया है उसका नाम है गुंडा चौक और वो जगह सड़क मार्ग में पड़ती है। आप सभी का अनुमान लगाने के लिए आभार !
हिंदी का एक यात्रा चिट्ठा (An Indian Travel Blog in Hindi)
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
चित्र पहेली 15 : क्या आपने पहले कभी देखा है इतना ख़तरनाक रेलवे स्टेशन ?
बुधवार, 7 जुलाई 2010
दिल्ली डॉयरी : सूखे दिन... रंगीन शामें
पिछले दो महिनों में दिल्ली के ऊपर से तीन बार गुजरना हुआ और दो बार रहना। इन यात्राओं में कभी गर्मी से निचुड़ती कभी दौड़ती भागती तो कभी रात के अँधेरों में जगमगाती दिल्ली के बदले बदले नज़ारे दिखे। इन्हीं का सार है दिल्ली की ये डॉयरी।
दिल्लीवासियों को बारिश से इतना प्यार क्यूँ है ये माज़रा ऊपर से देख कर ही समझ आ गया। पिछली पोस्ट में जब पुणे की हरियाली से आपको रूबरू कराया था तो ये भी कहा था कि घंटे भर में नीचे का दृश्य यूँ बदलता है कि आँखों पर विश्वास नहीं होता।
राजस्थान के उत्तरी इलाकों से दिल्ली ज्यूँ ज्यूँ पास आने लगती है हरियाली तो दूर पानी का इक कतरा भी नहीं दिखाई देता है। दिखती हैं तो बस सूखी नदियाँ, बिंदी के समान यदा कदा दिखते पेड़ ...
..और अरावली की नंगी पहाड़ियाँ।ऊपर से धूल से लिपटी चादर अलग से जिसमें सब धुँधला सा दिखता है
आखिरकार दिल्ली आ ही जाती है। मंज़र वैसा ही है। बस सूखी धरती की जगह कंक्रीट के जंगल दिखते हैं।
हरियाली दिल्ली वालों की नसीब में नहीं है ऐसा भी नहीं है। पर भगवान की दी हुई हरी भरी प्रकृति सिर्फ नई दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली के हिस्से में आई लगती है। अचानक से ये कुछ अलग सा पार्क दिखता है। मैं पहचान नहीं पाता।
पर इस बहाई मंदिर यानि लोटस टेंपल को तो एक ही झलक में पहचाना जा सकता है। कितने सुकूनदेह था यहाँ की शांति में अपने आप को डुबा लेना जब दस बारह साल पहले मैं यहाँ गया था। ऊपर से ये मंदिर भी उतना ही सलोना दिखता है।
यूँ तो पिछली दफ़े करोलबाग की गहमागहमी में रहना हुआ था। सोमवार के पटरी बाजार में खरीददारी करने में आनंद भी बहुत आया था।
पर इस बार कौसाबी की बहुमंजिला इमारत के सबसे ऊपरी तल्ले पर हूँ। मौसम अपेक्षाकृत ठंडा है। लोग बता रहे हैं कि आज दिन में बारिश हुई है। बालकोनी पर जाते ही हवा के ठंडे रेले से टकराता हूँ और सफ़र की सारी थकान काफ़ूर हो जाती है। बहुत देर तक तेज हवा के बीच छत पर टहलता रहता हूँ। वापस कमरे में जाने का दिल नहीं करता। छत पर घूमते घूमते आँखें ठिठक जाती हैं। सामने के पैसिफिक माल की जगमगाहट सहज ही आकर्षित करती है।
अंदर जाता हूँ तो चमक दमक अपेक्षाकृत ज्यादा ही मालूम पड़ती है। इन बड़े ब्रांडों कि दुकानों से लेना देना तो कुछ है नहीं हाँ चक्कर जरूर लगाया जा सकता है। सो उसी में अपना वक़्त ज़ाया करता हूँ।
सुबह आँखे मलते बाहर निकलता हूँ तो बाहर ये मेट्रो खड़ी दिखाई देती है। मेट्रो आने से दिल्ली सचमुच एक महानगर जैसी दिखने लगी है। दौड़ कर कैमरा लाने जाता हूँ और ये दृश्य हमेशा के लिए मेरे पास क़ैद हो जाता है।
माल के पास अभी सन्नाटा पसरा है। पर रात में वही रौनक लौटेगी यही भरोसा है।
रात फिर सैर सपाटे में बीतती है। ज़िंदगी मे पहली बार रात के दो बजे सिनेमा के शो को देख कर निकल रहा हूँ। सप्ताहांत नहीं है फिर भी शो में सौ के करीब लोग आए दिख रहे हैं। आखिर दिन में वक़्त कहाँ है लोगों के पास।
अगला दिन वापसी का है । गर्मी उफान पर है। पारा 45 डिग्री छू रहा है। जल्द से जल्द मन कर रहा है कि वापस राँची की आबो हवा में लौट जाऊँ। राँची उतरते ही ज़िंदगी की सुई वापस अपनी सुकूनदेह चाल पर आ जाती है। यहाँ वक़्त आदमी को नहीं, आदमी वक़्त को दौड़ाता नज़र आता है।
दिल्लीवासियों को बारिश से इतना प्यार क्यूँ है ये माज़रा ऊपर से देख कर ही समझ आ गया। पिछली पोस्ट में जब पुणे की हरियाली से आपको रूबरू कराया था तो ये भी कहा था कि घंटे भर में नीचे का दृश्य यूँ बदलता है कि आँखों पर विश्वास नहीं होता।
राजस्थान के उत्तरी इलाकों से दिल्ली ज्यूँ ज्यूँ पास आने लगती है हरियाली तो दूर पानी का इक कतरा भी नहीं दिखाई देता है। दिखती हैं तो बस सूखी नदियाँ, बिंदी के समान यदा कदा दिखते पेड़ ...
..और अरावली की नंगी पहाड़ियाँ।ऊपर से धूल से लिपटी चादर अलग से जिसमें सब धुँधला सा दिखता है
आखिरकार दिल्ली आ ही जाती है। मंज़र वैसा ही है। बस सूखी धरती की जगह कंक्रीट के जंगल दिखते हैं।
हरियाली दिल्ली वालों की नसीब में नहीं है ऐसा भी नहीं है। पर भगवान की दी हुई हरी भरी प्रकृति सिर्फ नई दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली के हिस्से में आई लगती है। अचानक से ये कुछ अलग सा पार्क दिखता है। मैं पहचान नहीं पाता।
पर इस बहाई मंदिर यानि लोटस टेंपल को तो एक ही झलक में पहचाना जा सकता है। कितने सुकूनदेह था यहाँ की शांति में अपने आप को डुबा लेना जब दस बारह साल पहले मैं यहाँ गया था। ऊपर से ये मंदिर भी उतना ही सलोना दिखता है।
यूँ तो पिछली दफ़े करोलबाग की गहमागहमी में रहना हुआ था। सोमवार के पटरी बाजार में खरीददारी करने में आनंद भी बहुत आया था।
पर इस बार कौसाबी की बहुमंजिला इमारत के सबसे ऊपरी तल्ले पर हूँ। मौसम अपेक्षाकृत ठंडा है। लोग बता रहे हैं कि आज दिन में बारिश हुई है। बालकोनी पर जाते ही हवा के ठंडे रेले से टकराता हूँ और सफ़र की सारी थकान काफ़ूर हो जाती है। बहुत देर तक तेज हवा के बीच छत पर टहलता रहता हूँ। वापस कमरे में जाने का दिल नहीं करता। छत पर घूमते घूमते आँखें ठिठक जाती हैं। सामने के पैसिफिक माल की जगमगाहट सहज ही आकर्षित करती है।
अंदर जाता हूँ तो चमक दमक अपेक्षाकृत ज्यादा ही मालूम पड़ती है। इन बड़े ब्रांडों कि दुकानों से लेना देना तो कुछ है नहीं हाँ चक्कर जरूर लगाया जा सकता है। सो उसी में अपना वक़्त ज़ाया करता हूँ।
वैसे भी छोटे शहर में आने वाले जब ऐसे दृश्य देखते हैं तो उन्हें लगता है ये है असल ज़िंदगी। घूमो फिरो ऐश करो। पर दो तीन दिनों में ही उन्हें इस ऍश की असलियत मालूम हो जाती है। सुबह छः बजे से आफिस की तैयारी, ट्राफिक जाम और इस निष्ठुर गर्मी से निबटते आफिस पहुँचना और फिर छः सात से वापसी की वही प्रक्रिया दोहराते दोहराते रात के नौ बज जाते हैं। फिर क्या मल्टीप्लेक्स क्या मॉल ! दिखता है तो बस टीवी और उसके सामने का बिछौना।
सुबह आँखे मलते बाहर निकलता हूँ तो बाहर ये मेट्रो खड़ी दिखाई देती है। मेट्रो आने से दिल्ली सचमुच एक महानगर जैसी दिखने लगी है। दौड़ कर कैमरा लाने जाता हूँ और ये दृश्य हमेशा के लिए मेरे पास क़ैद हो जाता है।
माल के पास अभी सन्नाटा पसरा है। पर रात में वही रौनक लौटेगी यही भरोसा है।
रात फिर सैर सपाटे में बीतती है। ज़िंदगी मे पहली बार रात के दो बजे सिनेमा के शो को देख कर निकल रहा हूँ। सप्ताहांत नहीं है फिर भी शो में सौ के करीब लोग आए दिख रहे हैं। आखिर दिन में वक़्त कहाँ है लोगों के पास।
अगला दिन वापसी का है । गर्मी उफान पर है। पारा 45 डिग्री छू रहा है। जल्द से जल्द मन कर रहा है कि वापस राँची की आबो हवा में लौट जाऊँ। राँची उतरते ही ज़िंदगी की सुई वापस अपनी सुकूनदेह चाल पर आ जाती है। यहाँ वक़्त आदमी को नहीं, आदमी वक़्त को दौड़ाता नज़र आता है।
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