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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

भारत के आधुनिकतम संग्रहालयों में से एक : पटना का बिहार संग्रहालय Bihar Museum, Patna

बिहार के साथ आधुनिक शब्द का इस्तेमाल थोड़ा अजीब लगा होगा आपको। भारत के पूर्वी राज्यों बिहार, झारखंड और ओड़ीसा का नाम अक्सर यहाँ के आर्थिक पिछड़ेपन के लिए लिया जाता रहा है पर बिहार के पटना  स्थित इस नव निर्मित संग्रहालय को आप देखेंगे तो निष्पक्ष भाव से ये कहना नहीं भूलेंगे कि ना केवल ये बिहार की ऐतिहासिक एवम सांस्कृतिक धरोहर को सँजोने वाला अनुपम संग्रह केंद्र है बल्कि इसकी रूपरेखा इसे वैश्विक स्तर के संग्रहालय कहलाने का हक़ दिलाती है।

बिहार के गौरवशाली ऍतिहासिक अतीत से तो मेरा नाता स्कूल के दिनों से ही जुड़ गया था जो बाद में नालंदा, राजगीर, वैशाली और पावापुरी जैसी जगहों पर जाने के बाद प्रगाढ़ हुआ पर पिछले महीने की अपनी पटना यात्रा मैं मैं जब इस संग्रहालय में गया तो बिहार की कुछ अनजानी सांस्कृतिक विरासत से भी रूबरू होने का मौका मिला।  

संग्रहालय परिसर में लगा सुबोध गुप्ता का शिल्प "यंत्र"
पाँच सौ करोड़ की लागत से पटना के बेली रोड पर बने इस संग्रहालय की नींव अक्टूबर 2013 में रखी गयी और चार साल में एक जापानी कंपनी की देख रेख में इसका निर्माण हुआ। दरअसल इस विश्व स्तरीय संग्रहालय का निर्माण बिहार के वर्तमान मुख्य सचिव अंजनी कुमार सिंह का सपना था। अंजनी जी ख़ुद एक संग्रहकर्ता हैं और आप जब संग्रहालय के विभिन्न कक्षों से गुजरते हैं तो लगता है कि किसी ने दिल लगाकर ही इस जगह को बनवाया होगा।

संग्रहालय का मानचित्र

संग्रहालय में प्रवेश के साथ ओरियेंटेशन गैलरी मिलती है जो संक्षेप में ये परिभाषित करती है कि संग्रहालय के विभिन्न हिस्सों में क्या है? साथ ही ये भी समझाने की कोशिश की गयी है कि एक इतिहासकार के पास इतिहास को जानने के लिए क्या क्या मानक प्रक्रियाएँ उपलब्ध हैं? अगर आपके पास समय हो तो यहाँ पर आप एक फिल्म के ज़रिए बिहार में हो रहे ऐतिहासिक अनुसंधान के बारे में भी जान सकते हैं। 

बिहार बौद्ध और जैन धर्म का उद्गम और इनके धर्मगुरुओं की कर्मभूमि रही है। इसलिए आप यहाँ अलग अलग जगहों पर खुदाई में निकली भगवान बुद्ध ,महावीर और तारा की मूर्तियों को देख पाएँगे। इनमें कुछ की कलात्मकता देखते ही बनती है। आडियो गाइड की सुविधा के साथ साथ यहाँ काफी जानकारी आलेखों में भी प्रदर्शित की गयी है।

संग्रहालय इतिहास की तारीखों के आधार पर तीन अलग अलग दीर्घाओं में बाँटा गया है।
ऐतिहासिक वस्तुओं को प्रदर्शित करते यूँ तो देश में कई नामी संग्रहालय हैं, फिर बिहार संग्रहालय में अलग क्या है? अलग है शिल्पों को दिखाने का तरीका। प्रकाश की अद्भुत व्यवस्था जो कलाकृतियों के रूप लावण्य को उभार देती हैं और इस बात की समझ की एक शिल्प भी अपने चारों ओर एक खाली स्थान चाहता है ताकि जो उसपे नज़रे गड़ाए उसकी कलात्मकता  में बिना ध्यान भटके डूब सके ।
बिहार तो बुद्ध की भूमि रही है। ये संग्रहालय उनकी कई ऐतिहासिक मूर्तियों को सँजोए हुए है।

रविवार, 6 नवंबर 2016

छठ के रंग मेरे संग : क्या अनूठा है इस पर्व में? Chhath Puja 2016

भारत के आंचलिक पर्व त्योहारों में देश के पूर्वी राज्यों बिहार, झारखंड ओर  पूर्वी उत्तरप्रदेश में मनाया जाने वाले त्योहार छठ का विशिष्ट स्थान है। भारत के आलावा नेपाल के तराई इलाकों में भी  ये पर्व बड़ी श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाता है। जिस तरह लोग पुष्कर मेले में शिरकत करने के लिए पुष्कर जाते हैं वहाँ की पवित्र झील में स्नान करते हैं, देव दीपावली में बनारस की जगमगाहट की ओर रुख करते हैं, बिहू के लिए गुवहाटी और ओनम के लिए एलेप्पी की राह पकड़ते हैं वैसे ही बिहारी संस्कृति के एक अद्भुत रूप को देखने के लिए छठ के समय पटना जरूर जाना चाहिए। 

छठ महापर्व पर आज ढलते सूर्य को पहला अर्घ्य देते भक्तगण

छठ एक सांस्कृतिक पर्व है जिसमें  घर परिवार की सुख समृद्धि के लिए व्रती सूर्य की उपासना करते हैं। एक सर्वव्यापी प्राकृतिक शक्ति होने के कारण सूर्य को आदि काल से पूजा जाता रहा है।   ॠगवेद में सूर्य की स्तुति में कई मंत्र हैं। दानवीर कर्ण सूर्य का कितना बड़ा उपासक था ये तो आप जानते ही हैं। किवंदतियाँ तो ये भी कहती हैं कि अज्ञातवास में द्रौपदी ने पांडवों की कुल परिवार की कुशलता के लिए वैसी ही पूजा अर्चना की थी जैसी अभी छठ में की जाती है।

छठ पर आम जन हर नदी पोखर पर उमड़ पड़ते हैं उल्लास के साथ

पर छठ में ऐसी निराली बात क्या है? पहली तो ये कि चार दिन के इस महापर्व में पंडित की कोई आवश्यकता नहीं। पूजा आपको ख़ुद करनी है और इस कठिन पूजा में सहायता के लिए नाते रिश्तेदारों से लेकर  पास पडोसी तक  शामिल हो जाते हैं।  यानि जो छठ नहीं करते वो भी व्रती की गतिविधियों में सहभागी बन कर उसका हिस्सा बन जाते हैं। छठ व्रत कोई भी कर सकता है। यही वज़ह है कि इस पर्व में महिलाओं के साथ पुरुष भी व्रती बने आपको नज़र आएँगे। भक्ति का आलम ये रहता है कि बिहार जैसे राज्य में इस पर्व के दौरान अपराध का स्तर सबसे कम हो जाता है। जिस रास्ते से व्रती घाट पर सूर्य को अर्घ्य देने जाते हैं वो रास्ता लोग मिल जुल कर साफ कर देते हैं और इस साफ सफाई में हर धर्म के लोग बराबर से हिस्सा लेते हैं।

महिलाओं के साथ कई पुरुष भी छठ का व्रत रखते हैं।
सूर्य की अराधना में चार दिन चलने वाले इस पर्व की शुरुआत दीपावली के ठीक चार दिन बाद से होती है। पर्व का पहला दिन नहाए खाए कहलाता है यानि इस दिन व्रती नहा धो और पूजा कर शुद्ध शाकाहारी भोजन करता है। पर्व के दौरान शुद्धता का विशेष ख्याल रखा जाता है। लहसुन प्याज का प्रयोग वर्जित है। चावल और लौकी मिश्रित चना दाल के इस भोजन में सेंधा नमक का प्रयोग होता है।  व्रती बाकी लोगों से अलग सोता है। अगली शाम तक उपवास फिर रोटी व गुड़ की खीर के भोजन से टूटता है और इसे खरना कहा जाता है। छठ की परंपराओं के अनुसार इस प्रसाद को लोगों को घर बुलाकर वितरित किया जाता है। इसे मिट्टी की चूल्हे और आम की लकड़ी में पकाया जाता है।

इसके बाद का निर्जला व्रत 36 घंटे का होता है। दीपावली के छठे दिन यानि इस त्योहार के तीसरे दिन डूबते हुए सूरज को अर्घ्य दिया जाता है और फिर अगली सुबह उगते हुए सूर्य को। अर्घ्य देने के पहले स्त्रियाँ और पुरुष पानी में सूर्य की आराधना करते हैं।  इस अर्घ्य के बाद ही व्रती अपना व्रत तोड़ पाता है और एक बार फिर प्रसाद वितरण से पर्व संपन्न हो जाता है । पर्व की प्रकृति ऐसी है कि घर के सारे सदस्य पर्व मनाने घर पर एक साथ इकठ्ठे हो जाते हैं।

सोमवार, 4 मई 2015

यादें नेपाल की : बेतिया से काठमांडू तक की वो जीप यात्रा !

काठमांडू गए करीब पच्चीस वर्ष बीत चुके हैं। पिछले हफ्ते आए भूकंप ने मीडिया के माध्यम से इस भयावह त्रासदी की जो तसवीरें दिखायीं वो दिल को दहला गयीं। कई साथी जो हाल ही में वहाँ गए थे उन्हें वहाँ की हालत देखकर गहरा आघात लगा। दरअसल जब हम किसी जगह जाते हैं तो वहाँ बितायी सुखद स्मृतियाँ हमें वहाँ की प्रकृति, धरोहरों और लोगों से जोड़ देती हैं। उस जगह बिताए उन प्यारे लमहों को जब हम  टूटते और बिखरते देखते हैं तब हमारा हृदय व्यथित हो जाता है। ठीक ऐसा ही अनुभव मुझे उत्तर सिक्किम में चार साल पहले आए भूकंप के पहले भी हुआ था क्यूँकि उसके ठीक कुछ साल पहले मैं मंगन बाजार, लाचेन और लाचुंग की गलियों से गुजरा था, वहाँ के प्यारे, कर्मठ लोगों से मिला था।



आज पता नहीं लोग नेपाल जाने को विदेश यात्रा मानते भी हैं या नहीं पर बिहार में रहने वालों के लिए तब नेपाल जाना भाग्य की उस रेखा की आधारशिला रख देना हुआ करता था जो परदेश जाने के मार्ग खोलती है। पटना का हवाई अड्डा तब भी इसी वज़ह से अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा कहलाने का दम भरता था। वैसे आज भी एयर इंडिया और जेट की विमानसेवाएँ पटना से काठमांडू की उड़ान भरती हैं पर मुझे अच्छी तरह याद है कि हवाई अड्डे की छत पर जाकर रॉयल नेपाल एयरलाइंस के रंग बिरंगे वायुयान को उड़ता देखने के लिए मैंने कई बार पिताजी की जेब ढीली की थी।

अस्सी के दशक में जो भी नाते रिश्तेदार नेपाल जाते उनसे दो तीन सामान लाने का अनुरोध करना बिहार में रहने वालों के रिवाज़ में ही शामिल हो गया था। जानते हैं ना वो कौन सी वस्तुएँ थी? चलिए मैं ही बता देता हूँ टेपरिकार्डर, कैमरा और इमरजेंसी लाइट। उत्तर पूर्वी बिहार से नेपाल का शहर फॉरबिसगंज और उत्तर पश्चिमी बिहार से नेपाल के वीरगंज में तब हमेशा ऐसी खरीददारी आम हुआ करती थी। मुझे सबसे पहले नेपाल जाने का मौका तब मिला जब पिताजी की पोस्टिंग बेतिया में हुई और हम ऐसी ही एक खरीददारी के लिए वीरगंज तक गए। सीमा पर ज्यादा रोक टोक ना होना और सरहद के दूसरी ओर हिंदी भाषियों के प्रचुर मात्रा में होने की वज़ह से तब ये भान ही नहीं हो पाता था कि हम किसी दूसरे देश में हैं।

पर 1991 में बेतिया से सड़क मार्ग से काठमांडू जाने का कार्यक्रम बना था। अभी का तो पता नहीं पर तब बीरगंज से काठमांडू जाने के दो रास्ते हुआ करते थे । एक जो नदी के किनारे किनारे घाटी से होकर जाता था और दूसरा घुमावदार पहाड़ी मार्ग से। जब हम उस दोराहे पर पहुँचे तो हमने देखा कि जहाँ पहाड़ी मार्ग से काठमांडू की दूरी सौ से कुछ ही ज्यादा किमी दिख रही हैं वहीं दूसरी ओर घाटी वाला रास्ता उससे करीब दुगना लंबा है। हमारे समूह ने सोचा कि छोटे रास्ते से जाने से समय कम लगेगा और ऊँचाई से नयनाभिराम दृश्य दिखेंगे सो अलग। माउंट एवरेस्ट को देख पाने की ललक भी अंदर ही अंदर स्कूली मन में कुलाँचे मार रही थी।। ख़ैर एवरेस्ट तो उस रास्ते से नहीं दिखा पर तीखी चढ़ाई चढ़ने की वज़ह से हमारी महिंद्रा की जीप का बाजा बज गया । थोड़ी थोड़ी दूर में इतनी गर्म हो जाती कि उसे अगल बगल से खोज कर पानी पिलाने की आवश्यकता पड़ जाती।

नतीजा ये हुआ कि सौ किमी से थोड़ी ज्यादा दूरी तय करने में हमें छः घंटे से ज्यादा वक़्त लग गया। पहाड़ की ऊँचाइयों से हम अक्टूबर के महीने में जब काठमांडू घाटी में उतरने लगे तो अँधेरा हो चला था। रात जिस होटल में बितानी थी वहाँ रूम की कमी हो गई। पिताजी के साथ मुझे भी तब ज़मीन पर बेड बिछाकर सोना पड़ा। रात में माँ ने कहा कि पलंग हिला रहे हो क्या? पर हम लोग माँ की बात को अनसुना कर चुपचाप सोते रहे। सुबह उठे तो पता चला कि भारत में उत्तरकाशी में उसी रात जबरदस्त भूकंप आया था जिसके हल्के झटके नेपाल में भी महसूस किए गए थे। सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त वो केंद्र नेपाल होता तो शायद हम भी वहीं कहीं समा गए होते।

दरबार स्कवायर तो मैं तब नहीं गया था पर पशुपतिनाथ मंदिर और बौद्ध स्तूप की  रील वाले कैमरे से खींची तसवीरें आज भी घर में पड़े पुराने एलबम की शोभा बढ़ा रही हैं। एक मज़ेदार वाक़या ये जरूर हुआ था कि जब हम काठमाडू की चौड़ी सड़कों पर रास्ता ढूँढ रहे थे तब गोरखा ने रास्ता तो राइट बताया पर हाथ बाँया वाला दिखाया था। हम लोग अंदाज से आगे बढ़ते हुए इस बात पर काफी हँसे थे। तब की उस नेपाल यात्रा में मेरा सबसे यादगार क्षण काठमांडू में नहीं बल्कि पोखरा में बीता था जहाँ हमें सारंगकोट से माउंट फिशटेल के अद्भुत दर्शन हुए थे

नेपाल के लोगों के लिए ये कठिन समय है। वहाँ के लोगों की ज़िंदगी में जो भूचाल आया है उससे उबरने में उन्हें वक़्त लगेगा। भारत और विश्व के अन्य देश आज तन मन धन से नेपाल के साथ खड़े हैं और उनकी ये एकजुटता हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश को जल्द ही अपने पैरों पर फिर से खड़ा कर देगी ऐसी उम्मीद है।

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

कैसे होते हैं कस्बाई मेले ? : आइए देखें एक झलक सोनपुर यानि हरिहर क्षेत्र के मेले की! (Sonepur Fair, Bihar)

एक ज़माना था जब शहर या कस्बे में मेले का आना किसी पारंपरिक त्योहार से कम खुशियाँ देने वाला नहीं होता था। हम बच्चों में छोटे बड़े झूले देखने और नए खिलौने खरीदने की जिद होती। छोटे मोटे सामानों को कम दामों पर खरीद कर गृहणियाँ गर्व का अनुभव करतीं। साथ ही रोज़ रोज़ के चौका बर्तन से अलग चाट पकौड़े खाने का मज़ा कुछ और होता। तब इतने फोटो स्टूडियो भी नहीं हुआ करते थे और कैमरा रखना अपने आप में धनाढ़य होने का सबूत हुआ करता था। ऐसे में मेले के स्टूडियो में सस्ते में पूरे परिवार की फोटुएँ निकल जाया करती थीं। और तो और पूरा परिवार फोटो के पीछे की बैकग्राउंड की बदौलत अपने शहर बैठे बैठे कश्मीर की वादियों, आगरे के ताजमहल या ऐसी ही खूबसूरत जगहों का आनंद लेते दिखाई पड़ सकता था। 

वक़्त का पहिया घूमा , महानगरों व बड़े शहरों में एम्यूजमेंट पार्क, शापिंग मॉल्स, मल्टीप्लेक्स, फूड कोर्ट के आगमन से वहाँ रहने वाले मध्यम वर्गीय समाज में इन मेलों का आकर्षण कम हो गया। गाँवों और कस्बों से युवाओं के पलायन से मेले की रौनक घटी। पर क्या इस वज़ह से कस्बों और गाँवों में भी मेलों के प्रति उदासीनता बढ़ी है? आइए इस प्रश्न का जवाब देने के लिए आज आपको ले चलते हैं उत्तर बिहार में नवंबर के महिने में लगने वाले ऐसे ही एक मेले में जिसकी ख्याति एक समय पूरे एशिया में थी। 

मेला गए और महाकाल बाबू का खेला नहीं देखा तो क्या देखा !

बिहार की राजधानी पटना से मात्र पच्चीस किमी दूर लगने वाले सोनपुर के इस मेले को हरिहर क्षेत्र का मेला भी कहा जाता है और एशिया में इसकी ख्याति मवेशियों के सबसे बड़े मेले के रूप में की जाती है। मेले में मेरा जाना अकस्मात ही हुआ था। नवंबर के महिने में उत्तर बिहार में एक शादी के समारोह में शिरक़त कर वापस पटना लौट रहा था कि रास्ते में याद आया कि हमलोग जिस मार्ग से जा रहे हैं उसमें सोनपुर भी पड़ेगा। पर मैं जिस समय मेले में पहुँचा  उस वक़्त एक महिने चलने वाला मेला अपने अंतिम चरण में था और इसी वज़ह से हाथियों, घोड़ों, पक्षियों और अन्य मवेशियों के क्रय विक्रय के लिए मशहूर इस मेले का मुख्य आकर्षण देखने से वंचित रह गया। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि विगत कुछ सालों से मवेशियों के व्यापार में यहाँ कमी आती गई है और अभी तो सारे मवेशी मेला स्थल से जा चुके हैं।

 मेले में भीड़ ना हो तो वो पुरानी फिल्मों में भाई भाई के बिछड़ने की कहानियाँ झूठी ना पड़ जाएँ :)

ये सुनकर मन में मायूसी तो छाई पर मेले में जा रही भीड़ को देख के ये भी लगा कि चलो सजे धजे मवेशियों को नहीं देखा पर यहाँ आ गए हैं तो हरिहर नाथ के मंदिर और इस कस्बाई मेले की रंगत तो देख लें।

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

राजधानी वाटिका, पटना : धर्म और प्रकृति का अद्भुत गठजोड़ !

राजधानी वाटिका से जुड़ी पिछली प्रविष्टि में मैंने  आपको वहाँ पर स्थापित शिल्पों की झांकी दिखलाई थी । आज आपको लिए चलते हैं उद्यान के उस हिस्से में जिसकी हरियाली तो नयनों को भाती ही है पर साथ साथ जहाँ धर्म, ज्योतिष और प्रकृति का गठजोड़ एक अलग रूप में ही दृष्टिगोचर होता है।


पिछली चित्र पहेली में आपको जो  धार्मिक प्रतीक नज़र आ रहे थे वे राजधानी वाटिका के इसी हिस्से के हैं। आपको भी उत्सुकता से इंतज़ार होगा पहेली के सही उत्तर के बारे में जानने का। जैसा कि मैंने आपको बताया था पहला चित्र सिख धर्मावलंबियों की विचारधारा का चित्रात्मक प्रस्तुतिकरण था । इस चिन्ह को सिख खंडा (Khanda) के नाम से जानते हैं।


अगर आप इस धार्मिक चिन्ह और ऊपर बनी आकृति का मिलान करें तो दोनों को एक जैसा पाएँगे। 'खंडा' सिख विचारधारा का मुख्य प्रतीक चिन्ह है। ये उन चार शस्त्रों का संयुक्त निरूपण है जो गुरु गोविंद सिंह जी के समय प्रयोग में लाए जाते थे ।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

पटना की नई पहचान बन रही है राजधानी वाटिका ! (Rajdhani Vatika, Patna)

पिछले हफ्ते दीपावली में पटना जाना हुआ। यूँ तो पटना में अक्सर ज्यादा वक़्त नाते रिश्तेदारों से मिलने में ही निकल जाता है पर इस बार दीपों के इस उल्लासमय पर्व को मनाने के बाद एक दिन का समय खाली मिला। पता चला कि विगत दो सालों से पटना के आकर्षण में राजधानी वाटिका और बुद्ध स्मृति उद्यान भी जुड़ गए हैं तो लगा क्यूँ ना इन तीन चार घंटों का इस्तेमाल इन्हें देखने में किया जाए। 

स्ट्रैंड रोड पर पुराने सचिवालय के पास बनी राजधानी वाटिका में पहुँचने में मुझे घर से आधे घंटे का वक़्त लगा। दिन के तीन बजे के हिसाब से वहाँ अच्छी खासी चहल पहल थी। दीपावली के बाद की गुनगुनी धूप भी इसका कारण थी। वैसे भी इस चहल पहल का खासा हिस्सा भारत के अमूमन हर शहर की तरह वैसे प्रेमी युगलों का रहता है जिन्हें शहर की भीड़ भाड़ में एकांत नसीब नहीं हो पाता। वैसे तो यहाँ टिकट की दर पाँच रुपये प्रति व्यक्ति है पर कैमरा ले जाओ तो पचास रुपये की चपत लग जाती है। वैसे जब मैंने टिकट घर में कैमरे का टिकट माँगा तो अंदर से सवाल आया कि कैसे फोटो खींचिएगा शौकिया या..। अब अपने आप को प्रोफेशनल फोटोग्राफर की श्रेणी में मैंने कभी नहीं रखा पर मुझे लगा कि उसके इस प्रश्न का मतलब मोबाइल कैमराधारियों से होगा । सो मैंने टिकट ले लिया वो अलग बात थी कि कैमरे की बैटरी पार्क में घुसते ही जवाब दे गई और मुझे सारे चित्र मोबाइल से ही लेने पड़े।

दो साल पहले यानि 2011 में जब इस वाटिका का निर्माण हुआ तो उसका उद्देश्य 'पटना का फेफड़ा' कहे जाने वाले संजय गाँधी जैविक उद्यान पर पड़ रहे आंगुतकों के भारी बोझ को ध्यान में रखते हुए एक खूबसूरत विकल्प देना था। इस जगह की पहचान सिर्फ एक वाटिका की ना रहे इसलिए पार्क के साथ साथ इसके एक हिस्से में बिहार से जुड़े नामी शिल्पियों के खूबसूरत शिल्प रखे गए। वहीं इसके दूसरे भाग में वैसे पेड़ो को तरज़ीह दी गई जिनका जुड़ाव हमारे राशि चिन्हों या धार्मिक संकेतों के रूप में होता है। तो आज की इस सैर में सबसे पहले आपको लिए चलते हैं इस वाटिका के सबसे लोकप्रिय शिल्प कैक्टस स्मृति के पास।


कैक्टस जैसे दिखने वाले इस शिल्प की खास बात ये है कि इसे रोजमर्रा काम में आने वाले स्टेनलेस स्टील के बर्तनों जैसे कटोरी,चम्मच, गिलास, टिफिन आदि से जोड़ कर बनाया गया है। इसे बनाने वाले शिल्पी हैं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शिल्पकार सुबोध गुप्ता जिनका ताल्लुक पटना के खगौल इलाके से रहा है। 26 फीट ऊँचे और 2 टन भारी इस कैक्टस में गुप्ता बिहार के जीवट लोगों का प्रतिबिंब देखते हैं जो बिहार के काले दिनों में भी अपने अस्तित्व को बचाने में सफलतापूर्वक संघर्षरत रहे।



गुरुवार, 22 जनवरी 2009

बिहार : तसवीरो से निकलती यादें जो उन शहरों को छोड़ने से दब सी गई थीं...

अंतरजाल पर यूँ ही भटक रहा था तो कुछ चित्र दिखाई दिए, उन जगहों के जो सामान्यतः भारत के पर्यटन मानचित्र में नहीं दिखते। ये चित्र बेहद जाने पहचाने थे। ऍसी जगहों के जहाँ मैं किसी यात्रा के दौरान नहीं गया। क्योंकि ये जगहें मैंने एक मुसाफ़िर की तरह नहीं देखीं। इन सब से कहीं न कहीं एक रिश्ता रहा है मेरा और उन्हीं रिश्तों से निकली यादों में से कुछ को बाँटने का प्रयास है मेरी ये पोस्ट...


वैसे किसी आम जन से बिहार की ऍतिहासिक विरासतों के बारे में पूछा जाए तो उसे बोधगया. राजगीर और नालंदा के सिवाए शायद ही किसी और शहर का नाम याद पड़े। पर एक शहर और ऍसा है जिसकी मिट्टी के एक सुपूत ने मुगलकालीन राजवंश की नींव को बनने से पहले ही उखाड़ फेंकने की हिमाकत की थी। मैं बात कर रहा हूँ गैंड ट्रंक रोड (Grand Trunk Road) के रास्ते में आने बाले शहर सासाराम की जिसे शायद लोग शेरशाह सूरी के मकबरे (Shershah' s Tomb) से ज्यादा बाबू जगजीवन राम की वजह से जानते होंगे।



पर इस मकबरे से भला मेरा क्या रिश्ता हो सकता है ? था ना हुजूर ! मेरा पहला स्कूल बाल विकास विद्यालय इसी मकबरे के आस पास हुआ करता था। अक्सर हमारी कक्षा के बच्चों को इस ऐतिहासिक इमारत की सैर पर ले जाया जाता था। रास्ते के दोनों ओर पानी होता और हम उस पतले से रास्ते पर कतार बाँधकर सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर के विशाल गुंबद को निहारा करते। बाल मन में बाकी तो कितना अंकित हुआ ये तो पता नहीं पर शेर शाह सूरी की छवि एक बहादुर शासक के रूप में जरूर मन में चढ़ गई। और जब सातवीं या आठवीं में हुमायूँ को शेरशाह सूरी के हाथों मिली शिकस्त का विवरण पढ़ने को मिला तो मन ऍसा प्रफुल्लित हुआ कि जैसे मेरी सेनाओं ने ही मुगल सम्राट को बाहर खदेड़ दिया हो।


...............१९७७ में पटना आ गया और अगले दस बारह साल यहीं गुजरे। यूँ तो हर शहर की एक खास इमारत होती है जो वक्त के साथ उसकी पहचान बन जाती है पर जब पटना के बारे में सोचता हूँ तो गोल घर (Golghar) के आलावा कोई दूसरी छवि दिमाग में नहीं उभरती। अँग्रेजों ने ये गोदाम बिहार में 1770 के भीषण आकाल के बाद ब्रिटिश फौजों के लिए खाद्यान्न जमा करने के लिए 1786 में बनाया था। २९ मीटर ऊँची इस इमारत में अवलंब के लिए कोई खंभा नहीं है। कहा जाता है कि तब मजदूर पीठ पर बोरी ले एक सीढ़ी से ऊपर चढ़ते और सबसे ऊपर से एक खुले हिस्से से बोरी नीचे गिरा कर दूसरी ओर की सीढ़ियों से उतर जाते।
उस ज़माने में ये ग्रेनरी गंगा नदी से कुछ यूँ दिखाई पड़ती थी।
(चित्र सौजन्य विकीपीडिया)
बचपन में जब भी गोलघर जाने का कार्यक्रम बनता हम सब बड़ी खुशी खुशी तैयार हो जाते। गोलघर की सर्पीलाकार सीढ़ियाँ चढ़ कर, पचास पैसे की लाल आइस्क्रीम चूसते, बाँकीपुर गर्ल्स हाईस्कूल के समानांतर बहती गंगा को हम अपलक निहारते थे। और सच तो ये है कि आज भी गोलघर के पास पहुँचते ही तीव्रता से उन १४५ सीढ़ियाँ चढ़ने की चाह मरी नहीं है। देखिए आज का गोलघर .................



.............हाईस्कूल में गए कि पापा का तबादला पटना से पूर्णिया हो गया। उत्तर
पूर्वी बिहार की सीमा से लगा ये जिला बिहार के जाने माने आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की कर्मभूमि रहा है। पता नहीं पटना से पूर्णिया जाने में आज क्या हालात हैं। पर उन दिनों बस ७ बजे कि पकड़ी जाए या रात १० बजे की सारी बसें एक साथ ही पहुँचती थीं। सारी बसों को दरअसल एक साथ इकठ्ठा कर पुलिस एस्कार्ट के साथ रवाना किया जाता। और रास्ते की हालत ये कि जब सुबह नींद खुलती तो अपनी बस को तमाम गाड़ियों की कतार में खड़ा पाते। बस सुकून रहता तो इन हरे लहलहाते धान के खेतों के दिलकश मंज़र का। ......



...........इंजीनियरिंग कॉलेज से छुट्टियाँ होती तो अब बेतिया जाना होता। बेतिया बिहार के उत्तर पश्चिमी किनारे में स्थित पश्चिमी चंपारण का मुख्यालय है। ये वही चंपारण है जहाँ कभी गाँधीजी ने निलहे गोरों के खिलाफ अपना पहला सत्याग्रह शुरु किया था। पटना से बेतिया जाना मुझे उन दिनों देश निकाले की तरह लगता था। उमसती गर्मी में जैसे तैसे दिन निकलता और शाम होते होते मच्छरों की फौज ऍसा धावा बोलती कि फ्लिट के छिड़काव के बाद भी हम शाम से ही मच्छरदानी के दुर्भेद्य किले के अंदर चले जाते। ऍसे में एक सुबह ही होती थी जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार होता। ..........

हलकी धुंध , ताड़ के पेड़ों की कतार के बीच, टहलते-टहलते हम शहर से काफी दूर निकल जाते। सुबह का जो नज़ारा मेरी आँखों के सामने होता उसकी कहानी बहुत कुछ वहीं का लिया ये चित्र कह रहा है..