काठमांडू गए करीब पच्चीस वर्ष बीत चुके हैं। पिछले हफ्ते आए भूकंप ने मीडिया के माध्यम से इस भयावह त्रासदी की जो तसवीरें दिखायीं वो दिल को दहला गयीं। कई साथी जो हाल ही में वहाँ गए थे उन्हें वहाँ की हालत देखकर गहरा आघात लगा। दरअसल जब हम किसी जगह जाते हैं तो वहाँ बितायी सुखद स्मृतियाँ हमें वहाँ की प्रकृति, धरोहरों और लोगों से जोड़ देती हैं। उस जगह बिताए उन प्यारे लमहों को जब हम टूटते और बिखरते देखते हैं तब हमारा हृदय व्यथित हो जाता है। ठीक ऐसा ही अनुभव मुझे
उत्तर सिक्किम में चार साल पहले आए भूकंप के पहले भी हुआ था क्यूँकि उसके ठीक कुछ साल पहले मैं मंगन बाजार, लाचेन और लाचुंग की गलियों से गुजरा था, वहाँ के प्यारे, कर्मठ लोगों से मिला था।
आज पता नहीं लोग नेपाल जाने को विदेश यात्रा मानते भी हैं या नहीं पर बिहार में रहने वालों के लिए तब नेपाल जाना भाग्य की उस रेखा की आधारशिला रख देना हुआ करता था जो परदेश जाने के मार्ग खोलती है। पटना का हवाई अड्डा तब भी इसी वज़ह से अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा कहलाने का दम भरता था। वैसे आज भी एयर इंडिया और जेट की विमानसेवाएँ पटना से काठमांडू की उड़ान भरती हैं पर मुझे अच्छी तरह याद है कि हवाई अड्डे की छत पर जाकर रॉयल नेपाल एयरलाइंस के रंग बिरंगे वायुयान को उड़ता देखने के लिए मैंने कई बार पिताजी की जेब ढीली की थी।
अस्सी के दशक में जो भी नाते रिश्तेदार नेपाल जाते उनसे दो तीन सामान लाने का अनुरोध करना बिहार में रहने वालों के रिवाज़ में ही शामिल हो गया था। जानते हैं ना वो कौन सी वस्तुएँ थी? चलिए मैं ही बता देता हूँ टेपरिकार्डर, कैमरा और इमरजेंसी लाइट। उत्तर पूर्वी बिहार से नेपाल का शहर फॉरबिसगंज और उत्तर पश्चिमी बिहार से नेपाल के वीरगंज में तब हमेशा ऐसी खरीददारी आम हुआ करती थी। मुझे सबसे पहले नेपाल जाने का मौका तब मिला जब पिताजी की पोस्टिंग बेतिया में हुई और हम ऐसी ही एक खरीददारी के लिए वीरगंज तक गए। सीमा पर ज्यादा रोक टोक ना होना और सरहद के दूसरी ओर हिंदी भाषियों के प्रचुर मात्रा में होने की वज़ह से तब ये भान ही नहीं हो पाता था कि हम किसी दूसरे देश में हैं।
पर 1991 में बेतिया से सड़क मार्ग से काठमांडू जाने का कार्यक्रम बना था। अभी का तो पता नहीं पर तब बीरगंज से काठमांडू जाने के दो रास्ते हुआ करते थे । एक जो नदी के किनारे किनारे घाटी से होकर जाता था और दूसरा घुमावदार पहाड़ी मार्ग से। जब हम उस दोराहे पर पहुँचे तो हमने देखा कि जहाँ पहाड़ी मार्ग से काठमांडू की दूरी सौ से कुछ ही ज्यादा किमी दिख रही हैं वहीं दूसरी ओर घाटी वाला रास्ता उससे करीब दुगना लंबा है। हमारे समूह ने सोचा कि छोटे रास्ते से जाने से समय कम लगेगा और ऊँचाई से नयनाभिराम दृश्य दिखेंगे सो अलग। माउंट एवरेस्ट को देख पाने की ललक भी अंदर ही अंदर स्कूली मन में कुलाँचे मार रही थी।। ख़ैर एवरेस्ट तो उस रास्ते से नहीं दिखा पर तीखी चढ़ाई चढ़ने की वज़ह से हमारी महिंद्रा की जीप का बाजा बज गया । थोड़ी थोड़ी दूर में इतनी गर्म हो जाती कि उसे अगल बगल से खोज कर पानी पिलाने की आवश्यकता पड़ जाती।
नतीजा ये हुआ कि सौ किमी से थोड़ी ज्यादा दूरी तय करने में हमें छः घंटे से ज्यादा वक़्त लग गया। पहाड़ की ऊँचाइयों से हम अक्टूबर के महीने में जब काठमांडू घाटी में उतरने लगे तो अँधेरा हो चला था। रात जिस होटल में बितानी थी वहाँ रूम की कमी हो गई। पिताजी के साथ मुझे भी तब ज़मीन पर बेड बिछाकर सोना पड़ा। रात में माँ ने कहा कि पलंग हिला रहे हो क्या? पर हम लोग माँ की बात को अनसुना कर चुपचाप सोते रहे। सुबह उठे तो पता चला कि भारत में उत्तरकाशी में उसी रात जबरदस्त भूकंप आया था जिसके हल्के झटके नेपाल में भी महसूस किए गए थे। सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त वो केंद्र नेपाल होता तो शायद हम भी वहीं कहीं समा गए होते।
दरबार स्कवायर तो मैं तब नहीं गया था पर पशुपतिनाथ मंदिर और बौद्ध स्तूप की रील वाले कैमरे से खींची तसवीरें आज भी घर में पड़े पुराने एलबम की शोभा बढ़ा रही हैं। एक मज़ेदार वाक़या ये जरूर हुआ था कि जब हम काठमाडू की चौड़ी सड़कों पर रास्ता ढूँढ रहे थे तब गोरखा ने रास्ता तो राइट बताया पर हाथ बाँया वाला दिखाया था। हम लोग अंदाज से आगे बढ़ते हुए इस बात पर काफी हँसे थे। तब की उस नेपाल यात्रा में मेरा सबसे यादगार क्षण काठमांडू में नहीं बल्कि
पोखरा में बीता था जहाँ हमें सारंगकोट से माउंट फिशटेल के अद्भुत दर्शन हुए थे।
नेपाल के लोगों के लिए ये कठिन समय है। वहाँ के लोगों की ज़िंदगी में जो भूचाल आया है उससे उबरने में उन्हें वक़्त लगेगा। भारत और विश्व के अन्य देश आज तन मन धन से नेपाल के साथ खड़े हैं और उनकी ये एकजुटता हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश को जल्द ही अपने पैरों पर फिर से खड़ा कर देगी ऐसी उम्मीद है।