शनिवार, 31 दिसंबर 2016

यादें यूरोप की : कैसी थी वो जलपरी जिसने हमें पहुँचाया नीदरलैंड ? England to Netherlands on Stena Line

लंदन से हमारा काफिला तेजी से इंग्लेंड के हार्विच बंदरगाह की ओर बढ़ रहा था। सरसों के जिन पौधों की खूबसूरत झलक आपने पिछली पोस्ट में देखी थी वो अब कई किलोमीटर तक फैली हुई दिख रही थी। इन हरे भरे नज़ारों के बीच हार्विच से लंदन की 85 मील की दूरी दो घंटों में  कैसे बीत गयी ये पता ही नहीं चला। दरअसल हार्विच से हमें पानी के जहाज से हालैंड का रुख करना था। 

मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि ये जहाज किस तरह का होगा। बंदरगाह के बाहर हमारी बस एक बहुमंजिली इमारत के पास रुकी। सामने एक बड़ी सी लिफ्ट दिखाई दे रही थी जिससे सामान सहित ऊपर की ओर जाना था। एयरपोर्ट जैसी ट्रालियाँ यहाँ भी थीं पर उनका आकार बड़ा था। लंदन से चली अपनी बस और उसके अक्खड़ ड्राइवर को हमें यहीं अलविदा कह देना था। हमारा सामान दो या तीन तल्ले ऊपर गया। अंदर एयरपोर्ट जैसी चमक दमक तो नहीं थी  पर सारे क़ायदे कानून वैसे ही थे।
हालैंड की हरियाली की बात ही कुछ और है
एक बात और ! अब तक हमारा समूह यूके के वीज़ा पर लंदन घूम रहा था। इंग्लैंड के बाहर यूरोप में शेंगेन वीज़ा लागू हो जाता है। शेंगेन वीज़ा यूरोप के 26 देशों में लागू होता है। यूरोपियन यूनियन के देशों में सिर्फ ब्रिटेन और नार्थन आयरलैंड ही ऐसे हैं जो इसकी परिधि से बाहर हैं। घुमक्कड़ों के लिए ये वीज़ा वरदान की तरह हैं। एक बार ये वीज़ा आपके हाथ आ गया तो इन देशों के अंदर कहीं से कहीं चले जाएँ कोई पूछताछ करने वाला नहीं है। मैं शेंगन वीज़ा के साथ यूरोप के करीब छः सात देशों से गुजरा पर दो हफ्तों में कहीं भी हमारे कागजात जाँचने कोई नहीं आया। पर इतनी आसानी से जब आप एक देश से दूसरे देश में विचर रहे होते हैं तो ये फील ही नहीं आती कि अपन एक देश आज पार कर आए हैं।

स्टेना लाइन विश्व की बड़ी फेरी कंपनियों में से एक
चूंकि हम ब्रिटेन से शेंगेन वीज़ा वाले देश हालैंड में प्रवेश कर रहे थे हमें बंदरगाह पर सबसे पहले अप्रवासन जाँच से गुजरना पड़ा। जहाज का टिकट लेने की प्रक्रिया फिर हू-बहू हवाई अड्डे वाली थी। यानि सुरक्षा जाँच, बैगेज चेक और फिर बोर्डिंग पास के साथ सिर्फ हैंड बेगेज कमरे तक ले जाने का प्रावधान। । 

जब हम बोर्डिंग पास लेकर अंदर अंदर जहाज तक पहुँचे तब समझ आया कि हम जहाज क्या पूरी सुख सुविधाओं से लैस एक बहुमंजिला इमारत में  एक दिन के किरायेदार बनने वाले हैं। हमारे इस विशाल जहाज की कंपनी का नाम स्टेना लाइन था। स्टेना लाइन विश्व की सबसे बड़ी फेरी कंपनियों में एक है। स्कैंडेनेविया से लेकर उत्तर और बाल्टिक सागर तक ये कंपनी अपने चौंतीस जहाजों के साथ बाइस मार्गों पर चलती है। गर पहले से टिकट करा लें आप इसमें सौ पौंड से भी कम कीमत में इंग्लैंड से हालैंड पहुँच सकते हैं।


स्टेना लाइन का डाइनिंग हॉल
जहाज के अंदर कदम रखने के बाद तो ये लगा कि हम पानी के जहाज पर नहीं बल्कि होटल में हैं। कहीं रेस्ट्राँ, कहीं स्वीमिंग पूल, कहीं खेल कूद के कक्ष। पर दिन भर की थकान के बाद हमारे क़दम सिर्फ एक दिशा में बढ़ना चाह रहे थे और वो थे पेट पूजा के। अब अगर हालैंड के रास्ते में चावल और पकौड़े मिलें तो अपना देशी उदर कब पीछे हटने वाला था।

लगती है ना होटल की लॉबी !
जहाज़ पर रहने के लिए कई तलों में कमरे बने हुए थे। गलियारा तो इतना लंबा कि उसका दूसरा छोर दिखाई ना दे। कमरा ट्रेन के एसी वन के कोच की तरह जिसमें एक व्यक्ति को सीढ़ी से चढ़ कर ऊपरी बर्थ पर पहुँचना पड़े। ख़ैर अब शरीर में जहाज़की और ज्यादा खोज बीन की ताकत नहीं बची थी सो सीधे चादर तान ली़ ।

मुझे तो ये जहाज़ की ये सीढियाँ इतनी पसंद आयीं कि यहीं आसन जमा लिया

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

क्या दिखता है लंदन आई से ? What you can see from London Eye ?

पिछली पोस्ट में आपने मेरे साथ लंदन शहर की परिक्रमा की और मिले मैडम तुसाद के पुतलों से । चलिए आज आपको दिखाते हैं लंदन की एक और पहचान से और ले चलते हैं आपको लंदन की आँख यानि London Eye पर।
लंदन आई के प्रतीक के सामने बैठे स्कूली बच्चे
लंदन के शहर की पहचान के तौर पर अब तक मैंने आपसे यहाँ के लाल रंग के टेलीफोन बूथ और डबल डेकर बसों का जिक्र किया। अब इनका ये लाल रंग दशकों तक रहे ना रहे पर लंदन की एक और पहचान है जो शायद सबसे दीर्घकालिक रहे और जिसे आप लंदन की सड़कों से गुजरते हुए हर समय देखेंगे़। ये पहचान हैं यहाँ की लंदन प्लेन ट्री। आपको बता दूँ कि शहरी लंदन के आधे से ज्यादा पेड़ लंदन प्लेन के ही हैं। 


वैसे लंदन प्लेन के इतिहास को देखें तो पाएँगे कि ये पेड़ लंदन के लिए बहुत पुराना भी नहीं सत्रहवीं शताब्दी में ये पेड़ पहली बार इस शहर में देखा गया। विशेषज्ञ इस पेड़ को अमेरिकी सिकामोर और यूरोप के ओरियंटल प्लेन का संकर मानते हैं। पर इतनी बड़ी तादाद में लंदन में ये पेड़ आए कैसे? औद्योगिक क्रांति से  लंदन में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए बड़ी संख्या में इन पेड़ों को लगाया गया। इन पेड़ों की खासियत है कि ये वातावरण की गंदगी को अपने में समा लेते है और फिर अपनी गिरती छाल से वो गंदगी पेड़ के बाहर भी चली जाती है।

लंदन प्लेन London Plane tree

इस पेड़ की पत्तियों को देखकर आप सहज ही मेपल की पत्तियों से धोखा खा जाएँ। पर दोनों में क्या अंतर है ये नियाग्रा आन दि लेक के सफ़र में मैंने आपको बताया था। लंदन प्लेन की पत्तियाँ मेपल की तरह पतझड़ में लाल ना होकर पीली भूरी ही रहती हैं। तीस मीटर तक की लंबाई हासिल करने वाला ये पेड़ हर तरह की मिट्टी में उग आता है और इसकी जड़ें ज्यादा फैलती भी नहीं।

लंदन प्लेन ट्री आज के लंदन की एक और पहचान Leaves of London Plane
तकरीबन आधे घंटे के सफ़र के बाद हम लंदन आई के सामने थे। अब आपको दूर से ते ये अपने मेलों में लगने वाला एक साधारण सा झूला नज़र आएगा। दरअसल ये है भी वही 😄। पश्चिमी जगत में ये फेरीज़ व्हील के नाम से मशहूर है। जापान और कनाडा में इसके नमूने मैं पहले भी देख  चुका था। हमारे झूलों और विदेशों की इन फेरीज़ में दो मुख्य अंतर हैं। हमारे यहाँ इस तरह के झूले रोमांच पैदा करने के लिए गति से घुमाए जाए जाते हैं जबकि विदेशों में इनका मूल उद्देश्य ऊँचाई से शहर के दृश्यों का अवलोकन करना होता है। इसलिए इन्हें बिल्कुल मंथर गति से घुमाया जाता है।

लंदन आई फेरीज़ व्हील
अगर लंदन आई की बात करूँ तो ये एक सेकेंड में मात्र 26 सेमी का सफ़र तय करती है। 120 मीटर व्यास वाला इसका चक्र बनने के समय विश्व में  सबसे ऊँचा था । अब भी इसे यूरोप की सबसे ऊँची व्हील का सम्मान प्राप्त है। वैसे अंग्रेजों को लंदन आई बनाने का ख्याल कहाँ से आया? अब करते भी क्या ? चिरकालिक प्रतिद्वन्दी फ्रांस मे उन्नीसवी शताब्दी के अंत में एफिल टॉवर बनाकर मैदान पहले ही मार लिया था । लंदन ने जवाब में एक फेरीज़ व्हील बनाई जिसे Giant Wheel का नाम दिया गया था। 94 मीटर ऊँचे इस घूमते पहिये की उम्र जब बीस साल की थी तो इसे हटा लिया गया। पर लंदनवासियों को कोई तो बिंदु चाहिए था जिसकी ऊँचाइयों से वो शहर के केंद्र को देख सकें। लिहाज़ा एक नई फेरीज़ व्हील बनाई गई सत्रह साल पहले जो आजकल कोका कोला लंदन आई के नाम से जानी जाती है।

लंदन आई के बैठने का कक्ष London Eye's Capsule

हमारे झूलों की तरह इन फेरीज़ में बैठने का हिस्सा खुला नहीं रहता। आप शीशे के खाँचे में बंद रहते हैं। लंदन आई में ये खाँचा वातानुकूलित है। इसमें एक साथ दो दर्जन लोग बैठ और घूम भी सकते हैं।

हंगरफोर्ड ब्रिज Hungerford Bridge
लंदन आई थेम्स के दक्षिणी किनारे पर बनी  है। ऊपर उठते हुए इसके दक्षिण पूर्व  में सबसे पहले हमें हंगरफोर्ड ब्रिज नज़र आया जो कि एक रेलवे ब्रिज है। स्टील ट्रस संरचना पर आधारित ये पुल दूर से दिखने में बेहतरीन लगता है। इसके और आगे वाटरलू सड़क ब्रिज है। थेम्स नदी यहाँ से टॉवर ब्रिज की तरफ़ घुमाव लेती है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस पुल की नींव वाटरलू के युद्ध की जीत की खुशी में पड़ी थी।

वाटरलू पुल के पास घुमाव लेती थेम्स Waterloo Bridge

लंदन आई से सबसे खूबसूरत नज़ारा जुबली गार्डन का मिलता है। रानी एलिजाबेथ द्वितीय के शासन की सिलवर जुबली के उपलक्ष्य में इस पार्क को बनाया गया था। दो हजार बारह में लंदन ओलंपिक के ठीक पहले इस पार्क को इसकी गोल्डन जुबली के अवसर पर और खूबसूरत बनाने की क़वायद शुरु हुई और नतीजा आपके सामने है।

जुबली पार्क Jubilee Gardens

रविवार, 11 दिसंबर 2016

मोम के जीवंत पुतलों की दुनिया : मैडम तुसाद, लंदन Madame Tussauds, London

लंदन शहर का एक छोटा सा चक्कर तो आपको पिछले हफ्ते ही लगवा दिया था पर साथ में ये वादा भी था कि अगली सैर लंदन के विश्व प्रसिद्ध संग्रहालय मैडम तुसाद की होगी। यूँ तो मैडम तुसाद के संग्रहालय अब विश्व के कोने कोने में खुल रहे हैं और अगले साल तो अपनी दिल्ली भी इस सूची में शामिल हो रही है पर लंदन का संग्रहालय इनका जनक रहा है इसलिए इसे देखने के लिए हमारे समूह के सहयात्रियों में खासा उत्साह था। बस में सवार बच्चे व युवा  तो अपने चहेते कलाकार व खिलाड़ी के साथ तस्वीर खिंचाने की जैसे बाट ही जोह रहे थे।
क्रिकेट के शहंशाह सचिन तेंदुलकर

इतनी मशहूर जगह हो और वहाँ पहुँचने के लिए लंबी कतार ना हो ऐसा कैसे हो सकता है? वैसे भी मैडम तुसाद का गुंबदनुमा संग्रहालय रिहाइशी इलाके के बीचो बीच स्थित है। लंदन के अन्य दर्शनीय स्थानों के मुकाबले इसके आस पास कोई खाली जगह नहीं हैं। लिहाज़ा कांउटर पर लगने वाली पंक्ति सड़कों तक बिखर जाती है। टिकट पहले से लेने पर भी कतार में इसलिए खड़ा होना पड़ रहा था क्यूँकि अंदर पहले से ही काफी लोग थे। अपनी बारी की प्रतीक्षा करता हुआ मैं सोच रहा था आख़िर ये कौन सी मैडम होंगी जिनके नाम से मोम के ये पुतले अपनी ये पहचान बना पाए हैं? तो इससे पहले की संग्रहालय के अंदर कदम रखा जाए कुछ बातें इसके रचयिता के बारे में भी जान लीजिए।

मैडम तुसाद, लंदन  Madame Tussauds, London

ये  संग्रहालय मेरी ग्रोज़ होल्ट की देन है। मेरी ब्रिटेन में नहीं बल्कि फ्रांस में पैदा हुई थीं। उनकी माँ स्विटज़रलैंड के  एक डा. फिलिप के यहाँ काम करती थीं। डा. फिलिप को मोम के प्रारूप बनाने में महारत हासिल थी। उन्होंने ही मेरी को मोम के इन पुतलों पर काम करना सिखाया। जानते हैं मेरी ने अपने हाथों से पहला पुतला आज से करीब तीन सौ चालीस साल पहले बनाया था। पर लोगों तक अपने और डा. फिलिप के संग्रह को पहुँचाने का काम उन्होंने अठारहवीं शताब्दी की आख़िर से शुरु किया। 

 

तुसाद का उपनाम उन्हें शादी के बाद मिला। मेरी  ने उस दौरान पूरे यूरोप में घूम घूम कर अपने शो किए और तबसे इस प्रदर्शनी का नाम मैडम तुसाद पड़ गया। मेरी जब अपने शो के सिलसिले में 1830 में लंदन आयी तो फिर वापस युद्ध की वज़ह से फ्रांस नहीं लौट पायीं। लंदन में पहले उन्होंने बेकर स्ट्रीट पर  ये संग्रहालय बनाया और बाद में  वहाँ जगह की कमी की वज़ह से उनके पोते द्वारा इसे मालबो स्ट्रीट में ले आया गया जहाँ ये आज भी स्थित है।

 मैडम तुसाद में भारतीय फिल्मी सितारे

भारत से आनेवालों के मैडम तुसाद से प्रेम का ही ये नतीज़ा है कि संग्रहालय में घुसते ही आप अपने को बॉलीवुड के फिल्मी सितारों से भरी दीर्घा में पाते हैं।  जितने वास्तविक यूरोपीय शख़्सियत के पुतले लगते है् वो बात भारतीय अदाकारों के इन पुतलों में नज़र नहीं आती।  अमिताभ, शाहरुख, सलमान, माधुरी, ऐश्वर्या , कैटरीना...लंबी फेरहिस्त है यहाँ भारतीय फिल्मी हस्तियों की पर सब के सब चेहरे की भाव भंगिमाओं के निरूपण में बाकी विदेशी जनों से उन्नीस ही नज़र आए। हमारे राजनेताओं में महात्मा गाँधी और इंदिरा गाँधी के पुतले भी हैं यहाँ पर और अब तो हमारे प्रधानमंत्री मोदी का पुतला भी यहाँ की शोभा बढ़ रहा है ।

इसे कहते हैं पोज़ देना 😀
मुझे इन आभासी पुतलों में अल्बर्ट आइंस्टीन और राजकुमारी डॉयना का पुतला सबसे बेहतरीन लगा। अल्बर्ट आइंस्टीन के उड़ते सफेद बालों के साथ चेहरे की झुर्रियों को इतनी स्पष्टता से उतारा है शिल्पियों ने कि लगता है कि वो सामने खड़े होकर पढ़ा रहे हों। सबसे बड़ी बात है कि जो लोग यहाँ आते हैं वो इस अदा के साथ इन पुतलों के साथ फोटो खिंचाते हैं कि पुतले सजीव हो उठते हैं। अब इन बाला को देखिए आइंस्टीन के गले में यूँ हाथ डाले हैं मानो वो बचपन के लंगोटिया यार रहे हों।

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

यादें यूरोप की: इ है लंदन नगरिया तू देख बबुआ ! City of London

लंदन की अगली सुबह का दृश्य थोड़ा मायूस करने वाला था। पिछले दिन के खुले आकाश के उलट आज बाहर सूरज का नामोनिशान तक नहीं था। बादलों के झुंड के साथ चलती हवा सिरहन अलग उत्पन्न कर दे रही थी । बारिश का भी खतरा था। पर हमारा समूह इंतज़ार कर रहा था अपनी यात्री बस का, जिस पर सवार होकर हमें लंदन के गली कूचों का चक्कर लगाना था।
लंदन  की पहचान यहाँ का टॉवर ब्रिज Tower Bridge
निकलना सुबह साढ़े सात तक था पर जब तक हमारी मर्सीडीज़ बेंज़ की बस आती, साढ़े आठ बज चुके थे। हीथ्रो से निकलते ही बस एक लंबे से ट्राफिक जाम में फँस गई।

ट्राफिक जॉम लंदन में  भी Traffic Jam in London
समय से नहीं आने पर टूर मैनेजर और ड्राइवर में नोकझोंक शुरु हो गयी थी। मैनेजर ने जहाँ punctuality का मसला उठाया ड्राइवर का अंग्रेज अहम जाग उठा और वो भड़क कर बस लौटाने की बात करने लगा। मैं आगे की सीट पर बैठा था। चालक की बातों से समझ गया कि आज हमलोगों का पाला एक अक्खड़ और अशिष्ट इंसान से पड़ा है। सुबह की देरी व  जॉम की वज़ह से समय वैसे ही निकला जा रहा था। रही सही कसर बारिश ने पूरी कर दी। लंदन की बारिश के चर्चे पहले भी सुन रखे थे और इसी वज़ह से ये उम्मीद भी थी कि बदलते मौसम वाले इस शहर में कब बारिश और कब रोशनी के साथ मुलाकात हो जाए कोई कह नहीं सकता।

बारिश में भीगा  लंदन
रॉयल एल्बर्ट हॉल के सामने जब हमारी बस रुकी तो बारिश बंद हो चुकी थी पर बाहर निकलते ही ऐसा महसूस हुआ कि तापमान एकदम से पाँच सात डिग्री नीचे चला आया हो। ठिठुरते हुए हम इस इमारत का बाहर से मुआयना करने लगे। हॉल को देखते हुए  बचपन के वो दिन याद आने लगे जब पहली बार इस जगह का नाम सुना था। 

बाजार में तब पैनासोनिक का आयताकार टेपरिकार्डर पहली बार आया था। घर में संगीत सुनने का माहौल था तो वैसा ही टेपरिकार्डर हमारे यहाँ भी खरीदा गया था। टेप तो आ गया पर खरीदने के लिए कैसेट्स ही नहीं थे। तब बाजार में कैसेट्स का चलन शुरु ही हुआ था। बाद में नेपाल के एक परिचित से कैसट्स मँगाए गए़। उनमें से जो कैसेट सबसे ज्यादा हम भाई बहनों ने सुना था वो था लता मंगेशकर का रॉयल अल्बर्ट हॉल में किया गया कन्सर्ट। तब भारत का हर नामी कलाकार यहाँ आया करता था।

रॉयल अल्बर्ट हॉल का एक हिस्सा Royal Albert Hall
रायल अल्बर्ट हॉल से बस में हमारी गाइड एलेक्सेन्ड्रिया भी शामिल हो गयी थीं। कॉलेज में पढाई कर रही एलेक्सेन्ड्रिया के लिए गाइड का काम पार्ट टाइम नौकरी वाला था। उसके माता पिता रूस से आकर यहीं बस गए थे और उसकी परवरिश ब्रिटेन में हुई। स्वभाव से विनम्र, हमारे सवालों का धैर्य से जवाब देने वाली एलेक्सेन्ड्रिया एक ही दिन हमारे साथ रही पर इतने कम समय में उसने हम सभी के हृदय में जगह बना ली।


रायल एल्बर्ट हॉल के ठीक सामने केनसिंग्टन पार्क में राजकुमार एल्बर्ट का मेमोरियल बना हुआ है। रॉयल एल्बर्ट हॉल के बनने के एक साल बाद रानी विक्टोरिया ने 1872 में ये  मेमोरियल बनवाया था। एल्बर्ट 42 वर्ष की आयु में ही टॉयफाएड का शिकार बन गए थे।

अल्बर्ट मेमोरियल Albert Memorial
गोथिक स्थापत्य शैली में बना हुए इस मेमोरियल को देखते हुए मौसम ने करवट ले ली थी और हमारी उम्मीदों के मुताबिक आसमान अपनी नीलिमा यूँ बिखेरने लगा था मानो सुबह से वो ऐसा ही हो।

बकिंघम  पैलेस Buckingham Palace

रॉयल एल्बर्ट हॉल से हम बकिंघम  पैलेस पहुँचे। यहाँ तो दुनिया के कोने कोने से आए लोगों का ताँता लगा हुआ था। बकिंघम पैलेस के अंदर रानी हैं या नहीं इसका पता आप इसके ऊपर लगे झंडे से कर सकते हें। सन 1997 तक परंपरा थी कि जब रानी महल में हों तब झंडा फहराया जाएगा। जब राजकुमारी डायना की मौत हुई तो रानी महल के बाहर थीं तो झंडा नहीं फहराया गया। डायना के प्रति लोगों के प्रेम ने इसे उसका अपमान माना। उनका कहना था कि उनके सम्मान में झंडा आधी ऊँचाई से फहरना चाहिए। तबसे महल की परंपरा बदली गयी। अब रानी जब महल में नहीं रहती तो झंडा फहराया जाता है और राजपरिवार के सदस्य के निधन पर झंडा आधी ऊँचाई से फहराया जाता है। हम जब महल के पास पहुँचे तो झंडा खंभे से बँधा हुआ था यानि रानी महल में थीं।

विक्टोरिया मेमोरियल Victoria Memorial
बकिंघम पैलेस के सामने ही क्वीन विक्टोरिया मेमोरियल है।  इसे बनाने के लिए उस वक़्त पैसा ब्रिटिश उपनिवेशों और आम जनता से दान के रूप में लिया गया था। इस तरह करीब डेढ़ लाख पौंड की राशि इकठ्ठा की गयी थी। 1924 में आर्किटेक्ट थॉमस ब्रोक के सोचे प्रारूप पर ये बनकर तैयार हुआ था। मेमोरियल के ऊपर पर लगी कांसे की प्रतिमा विजय की देवी का प्रतीक है। मेमोरियल के नीचे रानी को दो रूपों में दिखाया गया है। महल की ओर बनी प्रतिमा में रानी  माँ के स्वरूप में हैं जो बच्चे को दूध पिला रही हैंं। यहाँ देश की जनता को बच्चे का प्रतीतात्मक रूप दिया गया है जो माँ की छत्र छाया में पल रहा है, वहीं दूसरी ओर (जो हिस्सा चित्र में नहीं दिख रहा) रानी अपने सिंहासन पर बैठी दिखती हैं। बाकी दो दिशाओं में मूर्तियों को सत्य और न्याय का प्रतीक बनाया गया है। मेमोरियल की बगल वाली सड़क पर सैनिक परेड करते दिखे। कुल मिलाकर वहाँ की चहल पहल देख कर लगा कि ये इलाका पर्यटकों से हमेशा आबाद रहता है।

संत पॉल कैथेड्रल