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शनिवार, 11 अगस्त 2018

लेह लद्दाख यात्रा : मैग्नेटिक हिल का तिलिस्म और कथा पत्थर साहिब की Road trip from Alchi to Leh

अलची से लेह की दूरी करीब 66 किमी की है पर इस छोटी सी दूरी के बीच लिकिर मठ, सिन्धु ज़ांस्कर संगम, मैग्नेटिक हिल, और गुरुद्वारा पत्थर साहिब जैसे आकर्षण हैं। पर इन सब आकर्षणों पर भारी पड़ता है इस हिस्से के समतल पठारी हिस्सों के बीच से जाने वाला रास्ता। ये रास्ते देखने में भले भले खाली लगें पर गाड़ी से उतरते ही आपको समझ आ जाएगा कि इन इलाकों में यहाँ बहने वाली सनसनाती हवाएँ राज करती हैं। मजाल है कि इनके सामने आप बाहर बिना टोपी लगाए निकल सकें। अगर गलती से ऍसी जुर्रत कर भी ली तो कुछ ही क्षणों में आपके बाल इन्हें सलाम बजाते हुए कुतुब मीनार की तरह खड़े हो जाएँगे।


इतने बड़े निर्जन ठंडे मरुस्थल को जब आपकी गाड़ी हवा को चीरते हुए निकलती है तो ऐसा लगता है कायनात की सारी खूबसूरती आपके कदमों में बिछ गयी है। मन यूँ खुशी से भर उठता है मानो ज़िदगी के सारे ग़म उस पल में गायब हो गए हों। इसी सीधी जाती सड़क के बीचो बीच मैंने ऐसे ही उल्लासित तीन पीढ़ियों के एक भरे पूरे परिवार को इकठ्ठा सेल्फी लेते देखा।

इन रेशमी राहों में, इक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुँचती हो... 
सरपट भागती गाड़ी अचानक ही लिकिर मठ की ओर जाने वाले रास्ते को छोड़ती हुई आगे बढ़ गयी। अलची में समय बिता लेने के बाद लेह पहुँचने में ज्यादा देर ना हो इसलिए मैंने भी लिकिर में अब और समय बिताना उचित नहीं समझा। वैसे भी रास्ता इतना रमणीक हो चला था कि आँखें इनोवा की खिड़कियों पर टँग सी गयी थीं। सफ़र मैं ऍसे दृश्य मिलते हैं तो बस होठों पर नए नए तराने आते ही रहते हैं। पथरीले मैदान अब सड़क के दोनों ओर थे। बादल यूँ तो अपनी हल्की चादर हर ओर बिछाए थे पर कहीं कहीं चमकते बादलों द्वारा बनाए झरोखों से गहरा नीला आकाश दिखता तो तीन रंगों का ये  समावेश आँखों को सुकून से भर देता था।

कि संग तेरे बादलों सा, बादलों सा, बादलों सा उड़ता रहूँ
तेरे एक इशारे पे तेरी ओर मुड़ता रहूँ

सेना की छावनी के बीच से निकलता एक खूबसूरत मोड़

पीछे के रास्तों की तरह अलची से लेह के बीच के हिस्से में यहाँ नदी साथ साथ नहीं चलती। अलची के पास जो सिंधु नदी मिली थी वो वापस निम्मू के पास फिर से दिखाई देती है। यहीं इसकी मुलाकात जांस्कर नदी से होती है। जैसा कि मैंने आपको बताया था कि जांस्कर घाटी की ओर जाने के लिए एक रास्ता कारगिल से कटता है जो इसके मुख्यालय पदुम तक जाता है। वैसे एक सड़क निम्मू से भी जांस्कर नदी के समानांतर दिखती है पर वो अभी तक पदुम तक नहीं पहुँची है। संगम पर गर्मी के दिनों में आप यहाँ रिवर राफ्टिंग का आनंद उठा सकते हैं जबकी सर्दी के दिनों में जब जांस्कर जम जाती है तो जमी हुई नदी ही जांस्कर और लेह के बीच आवागमन का माध्यम बनती है। जमी हुई जांस्कर नदी पर सौ किमी से ऊपर की हफ्ते भार की ट्रेकिंग चादर ट्रेक के नाम से मशहूर है।

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

इंटरनेट पर होटल का आरक्षण मीठे कड़वे अनुभव ! Online Hotel Booking : The Palm Retreat Phuket vs. Hotel Ashutosh Inn Shillong, India


यूँ तो राँची में दुर्गा पूजा अच्छी होती है पर हमारे यहाँ यानि पूर्वी भारत में दशहरे की छुट्टियाँ कुछ इस तरह की होती है कि दो तीन दिन का अवकाश लेकर आप हफ्ते दस दिन के लिए बाहर निकल सकते हो। पिछले साल यानि 2013 में मैंने इन छुट्टियों का इस्तेमाल थाइलैंड जाने के लिए किया था और इस साल कोलकाता, शिलाँग और चेरापूंजी जाने के लिए। आज के दौर में जब भी आप छुट्टियों के दौरान अपनी यात्रा की योजना बनाते हैं तो सबसे बड़ी मुश्किल आती है वाजिब कीमत में होटल की उपलब्धता की। इंटरनेट के तेजी से प्रसार की वज़ह से महीनों पहले ही लोग बुकिंग करवाना चालू कर देते हैं। नतीजा ये कि अगर सैर सपाटे के लिए आपके दिमाग की घंटी देर से बजी तो ना रेल का आरक्षण मिलेगा ना होटल का।

बहरहाल आज मैं आपको थाइलैंड और भारत में अपने इंटरनेट से होटल बुकिंग का लगभग विपरीत अनुभव बाँटना चाहूँगा। थाइलैंड जाने के करीब दो तीन महीने पहले से ही मैंने अंतरजाल पर होटल खँगालने का काम शुरु कर दिया था। इंटरनेट पर होटल बुकिंग के लिए तमाम कंपनियाँ हैं मसलन Booking.com, Expedia, Make My Trip, Go Ibibo, Clear Trip वैगेरह वैगेरह। थाइलैंड चूँकि अंतरराष्ट्रीय रूप से लोकप्रिय पर्यटन स्थल है इसलिए मैंने अपनी खोज Booking.com से शुरू की और साथ ही Trip Adviser पर वहाँ की दरों की दूसरे पोर्टल्स से तुलना की।  हम दो परिवार साथ जा रहे थे और कुल मिलाकर हमारे समूह में छः सदस्य थे। या तो हम दो कमरे एक अतिरिक्त बिस्तर ले सकते थे या तीन कमरे का आरक्षण कर सकते थे। हमें देख के आश्चर्य हुआ कि तीन कमरों का विकल्प ज्यादा सस्ता है। सो हमने थाइलैंड के फुकेत (Phuket) जैसे तथाकथित मँहगे शहर में चार रातों के लिए तीन कमरे बीस हजार रुपये में आरक्षित कर लिए। 


Hotel Palm Retreat, Kathu, Phuket, Thailand

यानि एक कमरे का किराया लगभग सोलह सौ रुपये। ज़ाहिर सी बात है हमने बजट होटल चुना था The Palm Retreat Kathu। पर मैं अगर भारतीय होटलों से तुलना करूँ तो वो आसानी से दो स्टार होटलों से बेहतर ही होगा। होटल चुनने के पहले मैंने Google Street View से फुकेत समुद्र तट से होटल की दूरी और शाकाहारी भारतीय भोजन की उपलब्धता देख ली थी। होटल मुख्य सड़क से ही लगा हुआ था। बाहर से तो कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ रहा था पर जब हम अपने कमरे में पहुँचे तो उसे ठीक वैसा ही पाया जैसी तसवीर इंटरनेट पर उपलब्ध थी। साफ सुथरा कमरा, फ्लैट टीवी, फ्री Wi Fi. 

Hotel Palm Retreat, Kathu, Phuket, Thailand

यही क़वायद इस साल अगस्त में शुरु की। चेरापूंजी में भारतीय पोर्टल्स ने जिस भी होटल का लिंक दिया वो सारे अक्टूबर के दो हफ्तों के लिए पहले ही आरक्षित हो चुके थे या अगर खाली थे तो हमारे 1500-2000 प्रति कमरे के अधिकतम बजट से बेहद मँहगे थे। लिहाज़ा शिलांग में ही रहकर घूमना हमारे लिए जरूरी हो गया। पर भारतीय यात्रा पोर्टलों का डाटाबेस मुझे बेहद सीमित दिखा। फिर हमने मेघालय पर्यटन के जाल पृष्ठ को खंगाला। यात्रा पोर्टलों में इन सबका नाम तो था पर सीधे रिजर्वेशन करने की सुविधा नहीं थी। ऐसे ही होटलों में आशुतोष इन्न ( Ashutosh Inn, Shillong ) भी था। ट्रिप एडवाइसर पर होटल की रेटिंग औसत से अच्छी थी। 

सो हमने होटल बुक करने के लिए वहाँ फोन किया। मेघालय पर्यटन में जो कमरे की दर दिख रही थी वो फोन पर कुछ और निकली। कमरे का रेट पूछा गया तो बताया गया कि Rs 1050 है। पूछा गया कि क्या कमरे में अतिरिक्त बिस्तर लग जाएगा? जवाब मिला लग जाएगा। कहा गया कि आप मेल से ये रेट भेजिए। जब मेल आई तो रेट चौदह सौ चालीस बताया गया। दोबारा फोन पर जिरह करने पर परिचारिका का सीधा सा जवाब था कि आपके सुनने में भूल हुई होगी। बहरहाल प्रति कमरा  चौदह सौ चालीस रुपये तत्काल ट्रांसफर किए गए। दो दिन बीतने पर भी कनफर्मेशन नहीं आया। जब बी फोन कीजिए जवाब मिलता था आज आ जाएगा। ऐसा करते करते पाँच छः दिन बीत गए। बातचीत के रुख को कड़ा किया गया तो हफ्ते भर बाद जाकर कनफर्मेशन मिला। पहले हमारी योजना इसी होटल में चार दिन बिताने की थी पर उसके रंग ढंग देखकर कर हमने विकल्प ढूँढना शुरु किया। मुख्य बाजार से थोड़ी दूर पर एक गेस्ट हाऊस मिल गया तो हमने अपना संशोधित योजना होटल वाले को जाने के तीन दिन पहले बता दी। उधर से कहा गया कि तब आप से एक दिन रहने पर भी दो दिन का शुल्क लिया जाएगा। ख़ैर हमने भी सोच रखा था कि अब जितने पैसे फँसा दिया उतना तो रुकना ही पड़ेगा। 

होटल मुख्य बाजार के करीब है पर अगर आपको पहले से उसके आस पास की जगहों को ना बताया जाए तो शायद आप उसे देख ही ना पाएँ। बहरहाल हमें जो दो कमरे आबंटित किए गए उसमें बस इतनी ही जगह थी कि या तो आप खड़े हो सकते थे या फिर लेट सकते थे। अतिरिक्त बिस्तर की तो ख़ैर बात ही हास्यास्पद थी।  साथ वाला कमरा दस प्रतिशत बड़ा था पर उसकी बाथरूम की खिड़कियाँ ऐसी थीं कि रोड के सामने वाले चाहे तो निहार लें। लबेलुबाब ये कि इन होटलों का काम करने का सलीका बड़ा सीधा साधा है। पोर्टल पर रजिस्टर तो करवा लिया है पर रूम कैसा है कितना बड़ा होगा ये सब जानकारी नदारद। फोटो में लॉबी ऐसी दिखाएँगे जैसे आप साक्षात तीन सितारा होटल में हों। 

Hotel Ashutosh Inn (pic from net )

एक ऐसे कमरे का चित्र दिखाएँगे जो उनके अच्छे कमरे में से हो या फिर ऐसे कोण से कि आपका पलंग के आलावा बाकी की जगह है भी या नहीं पता ना चल सके। आनलाइन बुकिंग एक बार कर के आपने पैसे ट्रांसफर कर दिए तो आप एक दिन के लिए ही सही उनकी मुट्ठी में हैं। अब जो चाहे रूम पकड़ा दो मरता क्या ना करता बंदा तो वो कमरा लेगा ही। इतना गैर पेशेवर अंदाज़ रखते हुए भी ग्राहक से ज्यादा से ज्यादा पैसे वसूलने का माद्दा भारत जैसे देश में ही देखा जा सकता है।

मेघालय में हमारे बाकी के सारे दिन शानदार गुजरे। शिलांग के बाहरी इलाकों, एशिया के सबसे स्वच्छ गाँव, भारत के सबसे ऊँचाई से गिरनेवाले जलप्रपातों में से एक और एक शानदार कैन्यन देखने का मौका मुझे अपनी इस यात्रा के दौरान मिला। मेघालय के आलावा कोलकाता की ना भूलने वाली दुर्गा पूजा भी देखी और ब्रह्मपुत्र नदी को करीब से देख पाने का बचपन का ख़्वाब भी पूरा हुआ। और तो और कामख्या जी के दर्शन भी हुए। पर इन सब के बारे में तो आपको बाद में बताऊँगा। अभी तो अगले कुछ महीने यात्रा कराऊँगा थाइलैंड की। शुरुआत होगी इसके दक्षिणी शहर फुकेत से। विश्वास दिलाता हूँ कि जापान की तरह थाईलैंड की भी यात्रा आपके लिए उतनी ही रोचक रहेगी। बस साथ बने रहिएगा।

अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

कैसे करें तोक्यो में रेल की सवारी ? (Mastering train travel in Tokyo.)

ढाई दिनों के तोक्यो प्रवास में मैंने तोक्यो महानगर का जितना हिस्सा देखा वो तो आपको भी दिखा दिया। वैसे तो तोक्यो जैसे विशाल शहर को देखने के लिए महिनों और समझने के लिए वर्षों लगेंगे पर एक बात तो तोक्यो में पाँव रखने के कुछ घंटों में ही मेरे पल्ले पड़ गई कि अगर इस शहर में घूमना है तो सबसे पहले आपको इसके जबरदस्त रेल नेटवर्क को समझना होगा। वैसे तो तोक्यो आने से पहले मैं Kitakyushu के रेल नेटवर्क पर कई बार सफ़र कर चुका था पर तोक्यो आने के कुछ घंटों में पहली बार जब इस नेटवर्क की वृहदता का सामना हुआ तो पहले का सँजोया आत्मविश्वास जाता रहा । 



जैसा कि मैंने आपको पहले बताया था कि Kitakyushu से तोक्यो पहुँचते पहुँचते शाम हो गई थी। अगले दो दिनों का कार्यक्रम इतना कसा हुआ था कि अगर किसी से मिलना हो तो यहीं समय इस्तेमाल किया जा सकता था। मुनीश भाई से फोन नंबर तो लिया था पर ऐन वक़्त पर संपर्क ना हो सका। तोक्यो में एक करीबी रिश्तेदार के यहाँ जाना भी अनिवार्य था तो उन्हें आफिस से सीधे अपने हॉस्टल बुला लिया। अपने पास के स्टेशन से उनके स्टेशन तक पहुँचने के लिए हमने चार बार ट्रेनें बदलीं और वो भी बिना विराम के। यानि एक ट्रेन से उतरे, दूसरी  का टिकट लिया और लो ट्रेन आ भी गई। यात्रा कै दौरान वो मुझे समझाते रहे ताकि मैं  उसी मार्ग से अकेले वापस आ सकूँ। पर तीसरी ट्रेन बदलने के बाद मेरे चेहरे के भावों से उन्होंने समझ लिया कि ये इनके बस का नहीं है। सो कुछ घंटों के बाद जब मैं वापस लौटा तो उन्हें मेरे स्टेशन तक साथ ही आना पड़ा।

वैसे तो तोक्यो के रेल नेटवर्क में विभिन्न स्टेशनों पर अंग्रेजी जानने वाले लोगों को ध्यान में रखकर सारे चिन्ह जापानी के आलावा अंग्रेजी में भी प्रदर्शित किए गए हैं पर मुख्य मुद्दा भाषा का नहीं पर उस वृहद स्तर का है जिसको देख भारत जैसे देश से आया कोई यात्री सकपका जाता है। मिसाल के तौर पर नीचे का दिया गया मानचित्र देखिए। जापान से संबंधित हर यात्रा पुस्तक में आपको सबसे पहले इसके दर्शन होते हैं और इसकी सघनता  देख मानचित्रों में खास रुचि रखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के भी पसीने छूट गए थे।।

झटका तब और लगता है जब ये पता चलता है कि कुछ निजी कंपनियों के स्टेशन तो इसमें दिखाए ही नहीं गए हैं। दुर्भाग्य से मेरे हॉस्टल के पास का स्टेशन भी उसी श्रेणी में था।

भारतीय रेल की समय सारणी से माथा पच्ची के दौरान कभी ना कभी आप भी परेशान हुए होंगे। मेरे लिए पहली ताज्जुब की बात ये थी कि तोक्यो में लगभग दर्जन भर निजी कंपनियाँ अपनी अलग अलग ट्रेन चलाती हैं। और तो और अगर आप शिंजुकु और शिबूया जैसे बड़े स्टेशनों पर पहुँच गए तो आपको पता चलेगा कि एक ही जगह पर चार अलग अलग स्टेशन हैं। जापानियों ने जमीन को कितना खोदा है ये इसी से समझिए कि एक बार जिस स्टेशन पर मैं उतरा उसके दो निचले तल्लों पर दो दूसरे और एक स्टेशन उसके ऊपरी तल्लों पर था। अगर आपको कहीं जाना हो तो पहले स्टेशन पर दिए हुए चार्ट या मानचित्र से अपना रास्ता पता कीजिए। फिर ये देखिए कि आप जिस स्टेशन पर हैं उसे चलाने वाली रेल कंपनी की ट्रेन सीधे उस स्टेशन तक जाती है या नहीं और अगर नहीं तो किस स्टेशन पर उतरकर आपको दूसरी रेल कंपनी की गाड़ी पकड़नी है? तोक्यो में हम जितने दिन रहे ऊपर के प्रश्न का जवाब अपने हॉस्टल के सहायता कक्ष से ले लेते थे। एक बार आपकी ये समस्या दूर हो जाए तो समझिए पचास प्रतिशत काम हो गया।

स्टेशन पर टिकट खरीदने की प्रक्रिया शायद विदेशों में कमोबेश एक जैसी ही है। ऍसा मुझे तोक्यो के बाद पिछले हफ्ते बैंकाक की Sky Train पर यात्रा करने के बाद महसूस हुआ। एक बार गन्तव्य स्टेशन का किराया पता लग जाए तो आप वहाँ की मुद्रा टिकट मशीन में डालिए। तोक्यो आने से पहले तक हम अधिकतर टिकट आफिस में जाकर ही टिकट खरीद लेते थे। मशीन का प्रयोग करने से कतराने का कारण भारतीय मानसिकता थी। हम लोगों के दिमाग में होता कि अगर ज्यादा पैसे डाले और बाकी के बचे पैसे बाहर नहीं आए तब क्या होगा? पर तोक्यो में वो विकल्प ही नहीं था। मशीन में पहले किराया निश्चित करना होता था और फिर एक एक कर के पैसे डालने होते थे जैसे ही किराये से डाले गए पैसे बढ़ जाते छनाक की आवाज़ के साथ बाकी पैसों के साथ टिकट निकल आता और मजाल है कि आपका पैसा कभी मशीन में फँसा रह जाए।

हाँ ये जरूर है कि मँहगी जगह होने के कारण उस वक्त तोक्यो में किसी भी स्टेशन का न्यूनतम भाड़ा चाहे वो पाँच किमी की दूरी पर ही क्यूँ ना हो सौ रुपये से कम नहीं था। बैकांक में ये दर पचास साठ रुपये के पास थी। वैसे तोक्यो में अन्य महानगरों की तरह विदेशी नागरिक हजार येन का टिकट ले कर मेट्रों से शहर के भीतर कहीं आ जा सकते हैं। एक बार टिकट लेने के बाद इंगित चिन्हों और सूचना पट्ट पर आती जानकारी से अपने प्लेटफार्म पर पहुँचना कोई मुश्किल बात नहीं थी। तोक्यो में प्लेटफार्म पर पहँचने के बाद ट्रेन के लिए कभी पाँच मिनटों से ज्यादा की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। पर हाँ प्लेटफार्म पर ये नहीं कि आप जहाँ मर्जी खड़े रहें। चाहे भीड़ हो या नहीं आपको दरवाजा खुलने की जगह पर पंक्ति बना कर खड़ा रहना है। उतरने वालों की प्रतीक्षा करनी है और फिर पंक्ति के साथ अंदर घुसना है। अगर आपको ये लग रहा हो कि जापान की मेट्रो में हमारे मुंबई महानगर में दौड़ने वाली मेट्रो से कम भीड़ होती होगी तो आप का भ्रम अभी दूर किए देते हैं। कार्यालय के समय में इन डिब्बों में तिल धरने की भी जगह नहीं होती पर फिर भी हर स्टेशन पर बिना किसी हल्ले गुल्ले के लोगों का चढ़ना उतरना ज़ारी रहता है।



तोक्यो का सरकारी पर्यटन  केंद्र शिंजुकु इलाके में हैं जहाँ से तोक्यो के विभिन्न हिस्सों के लिए टूर कराए जाते हैं। ट्रेन से पहले आपको आपके गन्तव्य स्टेशन के पास ले जाया जाता है और फिर वहाँ से एक या दो गाइड आपको उसके आस पास के इलाके पैदल घुमाते हैं। बस भी यहीं काम करती हैं पर वे अपेक्षाकृत मँहगी है। अब दो से तीन हजार रुपये का चूना लगवाने के बजाए अगर आप ट्रेन टिकट खरीदकर और फिर लोगों से पूछते हुए अपने गन्तव्य तक पहुँच जाएँ तो जेब भी हल्की नहीं होगी और अपने समय का अपनी इच्छा से उपयोग करने की भी सुविधा रहेगी। हमारे समूह ने तो यही किया । तोक्यो में बिताए साठ घंटों में अलग अलग कंपनियों की ट्रेनों में सवार होकर मैं आपको Shinjuku, Roppongi Hills, Akihabara, Asakusa, Sky Tree और Tokyo Tower जैसी जगहें दिखा सका। वैसे तोक्यो के रेल मानचित्र में ये जगहें कितनी दूर हैं वो यहाँ देखिए।


वेसे इन स्टेशनों से निकलकर बाहर सड़क पर आने के लिए कभी कभी आपको दो सौ से चार सौ मीटर दूरी तय करनी पड़ सकती है। पर घबराइए नहीं रास्ते के दोनों ओर सजी दुकानें आपको ये अहसास ही नहीं होने देंगी कि आप स्टेशन से निकल रहे हैं। तोक्यो के रेल नेटवर्क की इतनी बात हो और शिनकानसेन (Shinkansen) यानि बुलेट ट्रेन का जिक्र नहीं आए ये कैसे हो सकता है? तोक्यो से अपने अगले गन्तव्य क्योटो तक पहुँचने के लिए हमें इसकी ही मदद लेनी पड़ी और इसी वज़ह से हमें तोक्यो के मुख्य स्टेशन के दर्शन हो गए जहाँ से ये ट्रेन चलती है।




जापान की यात्रा को कुछ दिनों के लिए यहीं विराम देते हुए मैं आपको अगली कुछ प्रविष्टियों में ले चलूँगा राजस्थान के जैसलमेर और बीकानेर की यात्रा पर। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

तोक्यो दर्शन (Sights of Tokyo) की सारी कड़ियाँ

शनिवार, 18 मई 2013

इन गर्मियों में कहाँ जाएँ ? (Where to go this Summer ?)

मई में गर्मी और उमस जब हद से ज्यादा होने लगती है तो मन पहाड़ों की ओर जाने का करने लगता है। पर आज की तारीख़ में आप बिना पहले से योजना बनाकर कहीं निकल भी नहीं सकते, खासकर वो लोग जिनसे पहाड़ कोसों दूर हैं। अगर स्टेट बैंक के होम लोन के विज्ञापन की तरह (सच पूछिए तो मैं तो इस  विज्ञापन को देख कर बुरी तरह पक गया हूँ) आपके बच्चों ने भी गर्मी की छुट्टियों में घुमाने की जिद बाँध ली है तब तो आपको कुछ ना कुछ तो तैयारी करनी ही होगी। सबसे पहला सवाल आता है जगह के चुनाव का? अपने अनुभवों के आधार पर अगर मुझे भारत के  इन प्रमुख हिल स्टेशनो का मूल्यांकन करना पड़े तो मेरी राय कुछ यूँ होगी..

नैनीताल **



उत्तराखंड बनने के बाद नैनीताल का भी रूप बदला है पर यहाँ हालात मसूरी से बेहतर हैं। यहाँ की मुख्य झील नैनी झील की भीड़ भाड़ को छोड़ दें तो सातताल, नौकुचिया ताल और कुछ हद तक भीमताल की प्राकृतिक सुंदरता मन को बेहद सुकून देती है।

दार्जीलिंग   **

खूबसूरत चाय बागान, मदमस्त चाल से चलती टॉय ट्रेन , टाइगर हिल के सूर्योदय और कंचनजंघा दर्शन की वज़ह से ये कभी पूर्वी भारत का सबसे लोकप्रिय पर्वतीय स्थल हुआ करता था। पर आज स्थिति बिल्कुल उलट है। पटरियों के नीचे भू स्खलन की वज़ह से ट्रेन का रास्ता पहले से छोटा हो गया है। बदलते प्रशासन और राजनीतिक अस्थिरता का असर शहर के रखरखाव पर पड़ा है। आज दार्जीलिंग से लौटने वाले हर पर्यटक वहाँ की गंदगी की शिकायत करता है।

गंगतोक  ****



एक बार सिलीगुड़ी से पश्चिम बंगाल की सीमा पार कीजिए। फर्क साफ नज़र आएगा। गंगतोक एक साफ सुथरा और अनुशासन प्रिय शहर है। सुबह उठते ही कंचनजंघा की चोटियाँ आपका स्वागत करती दिखेंगी। बर्फ का आनंद उठाना हो तो नाथू ला की ओर निकल लीजिए। यही समय यहाँ के फूलों रोडोडेन्ड्रोन्स (Rhodendrons) के खिलने का है। बौद्ध मठों के साथ रोप वे का आकर्षण तो अलग है ही।

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

क्या खास है अंडमान में ? क्यूँ जाएँ अंडमान (Andaman) ?

सुनामी के ठीक एक महीने पहले मैं अंडमान (Andaman) गया था। इतने साल बीतने के बाद भी अंडमान  की यादें मन में हूबहू अंकित हैं।  कुछ ही दिनों पहले अंडमान जाने के सिलसिले में  एक साथी ब्लॉगर ने प्रश्न किया था कि अंडमान जाने में कितना खर्च लग सकता है ? मैंने सोचा क्यूँ ना इसके जवाब के साथ साथ आपको ये भी बता दें कि इस खर्चे के बदले में आप अंडमान से क्या उम्मीद रख सकते हैं? आखिर ऍसा क्या खास है अंडमान में ?

क्यूँ जाएँ अंडमान ?


मुझे नहीं लगता कि भारत में इस पर्यटन स्थल सरीखी कोई दूसरी जगह है। अंडमान के पास अगर मन मोहने वाले समुद्र तट हैं तो साथ ही घंटों रास्ते के साथ-साथ चलने वाले हरे-भरे घने जंगल। स्वाधीनता की लड़ाई से जुड़ी धरोहरें हैं तो साथ ही प्राक-ऐतिहासिक काल जीवनशैली की झलक दिखाती यहाँ की अद्भुत जन जातियाँ।



एक ओर समुद्र तल में कोरल के अद्भुत आकारों की विविध झांकियाँ हैं तो साथ ही वर्षा वन आच्छादित खूबसूरत पहाड़ियाँ। कुल मिलाकर ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अंडमान अपने आप में कई पर्यटन स्थलों की विविधता को समेटे हुए है। तो हुजूर, अगर अब तक नहीं गए हों देर मत कीजिए..भारत की धरती का ये हिस्सा आपको बुला रहा है।

शनिवार, 30 मार्च 2013

रंगीलो राजस्थान मारवाड़ शासकों की पुरानी राजधानी : मण्डोर

मेहरानगढ़ व जसवंत थड़ा देखने व और उमैद भवन पैलेस से बेरंग लौटने के बाद कुछ आराम लाज़िमी था। सो कुछ घंटे निद्रा देवी की शरण में बिताए। चार बजे जब धूप मलिन होती दिखाई पड़ी तो हमारा समूह चल पड़ा जोधपुर से नौ किमी दूर स्थित मारवाड़ शासकों की पुरानी राजधानी मण्डोर (Mandore) की तरफ़। पर मण्डोर का इतिहास राठौड़् शासनकाल से कहीं अधिक प्राचीन है। पाँचवी से बारहवीं शताब्दी के बीच ये गुर्जर प्रतिहारों के विशाल साम्राज्य का हिस्सा था। कुछ समय बाद  नाडोल के चौहानों ने इस पर अपना आधिपत्य जमाया। इस दौरान दिल्ली से गुलाम वंश और तुगलक शासकों के हमले मण्डोर पर होते रहे। चौहानों से होता हुआ ये इन्द्रा पीड़िहारों और फिर उनसे दहेज में ये राठौड़ नरेश राव चूण्डा के स्वामित्व में आ गया। तबसे लेकर राव जोधा के मेहरानगढ़ को बनाने तक ये राठौड़ राजाओं की राजधानी रहा।

पर मेहरानगढ़ के बनने के बाद राठौड़ शासकों ने मण्डोर को पूरी तरह छोड़ दिया ऐसा भी नहीं है। राठौड़ शासकों के मरने पर उनकी स्मृति में छतरियाँ मण्डोर में ही बनाई जाती रहीं। आज की तारीख़ में मण्डोर में सबसे बड़ी छाप महाराणा अजित सिंह की दिखाई देती है। मण्डोर के खंडहर हो चुके किले तक पहुँचने के लिए सबसे पहले जो द्वार दिखाई देता है वो राणा का बनाया अजित पोल ही है।



जोधपुर पर सत्रह साल (1707-1724) के अपने शासनकाल में महाराणा ने मण्डोर में एक जनाना महल का निर्माण किया। राठौड़ शासनकाल में लाल बलुआ पत्थर से बनाए जाने वाले खूबसूरत झरोखों का दीदार आप इस महल में कर सकते हैं। कहा जाता है कि राजघराने की महिलाओं को गर्मी से निज़ात देने के लिए इस महल का निर्माण किया गया।

आज ये महल राजकीय संग्रहालय बन चुका है। तेज कदमों से चलते हुए जब हम शाम करीब चार पच्चीस पर इसके मुख्य द्वार पर पहुँचे, इसके कर्मचारियों द्वारा इसे बंद करनी की क़वायद पूरी हो चुकी थी। चूँकि ये संग्रहालय मुख्य द्वार से दस पन्द्रह मिनटों के पैदल रास्ते की दूरी पर है, इसलिए इसे देखने के लिए मण्डोर साढ़े तीन बजे तक पहुँचना जरूरी है। वैसे ये संग्रहालय दस से साढ़ चार तक खुला रहता है।