शनिवार, 27 मई 2017

बिष्णुपुर की मंदिर परिक्रमा : आइए आज चलें खूबसूरत जोर बांग्ला व मदनमोहन मंदिर में Jor Bangla and Madanmohan Temple, Bishnupur

बिष्णुपुर की मंदिर परिक्रमा के पहले चरण में आपने दर्शन किए थे श्याम राय, राधा माधव, लालजी आदि मंदिरों के। आज इन ऐतिहासिक मंदिरों की परिक्रमा जारी रखते हुए जानेंगे बंगाल की वास्तुकला का अद्भुत परिचय देते जोर बांग्ला और मदन मोहन मंदिरों के बारे में। पर मंदिरों भ्रमण पर चलने से पहले बिष्णुपुर के भूगोल पर एक नज़र मार ली जाए तो कैसा रहेगा? 

जोर बांग्ला मंदिर

बिष्णुपुर में करीब छोटे बड़े तीस मंदिर हैं जो मल्ल राजाओं के शासन काल में सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में बनाए गए। पर मजे की बात ये है कि इन तीस मंदिरों का फैलाव चंद वर्ग किमी तक ही सीमित है इसलिए इन मंदिरों को आप बड़े आराम से एक दिन में ही देख सकते हैं। मल्ल शासकों ने मंदिरों के आलावा यहाँ पानी सिंचित करने के लिए कई बाँध भी बनवाए। अगर आप नीचे दिए हुए बिष्णुपुर के नक्शे पर गौर करें तो इन बाँधों  से इस कस्बे को घिरा पाएँगे। आज की तारीख़ में ये बाँध विशाल तालाब का प्रतिरूप दिखते हैं जिनमें बारिश के दिनों में तो खूब पानी रहता है पर बाकी समय जलकुंभियाँ ही अपना साम्राज्य पसारे दिखती हैं।

बिष्णुपुर का मानचित्र


शनिवार, 13 मई 2017

बिष्णुपुर मंदिर परिक्रमा : रास मंच और श्याम राय का अद्भुत शिल्प ! Terracotta temples of Bishnupur, West Bengal

अक़्सर ऐसा होता है कि जिस इलाके में हम पलते बढ़ते है उसकी ऐतिहासिक विरासत से सहज ही लगाव हो जाता है। स्कूल में जब भी इतिहास की किताबें पढ़ता तो पूर्वी भारत के किसी भी राजवंश का जिक्र आते ही पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती। प्राचीन मौर्य/मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र यानि आधुनिक पटना तब मेरा घर हुआ करता था। पर पाटलीपुत्र में कुम्हरार के अवशेषों के आलावा ऐसा कुछ भी नहीं था जो इस विशाल साम्राज्य की कहानी कहता। राजगृह, नालंदा, पावापुरी और बोधगया में भी बौद्ध विहारों व स्तूपों, जैन मंदिरों और विश्वविद्यालय के आलावा अशोक या उनके पूर्ववर्ती सम्राटों की कोई इमारत बच नहीं पायी। वैसे भी जिनके शासन काल की अवधि ही ईसा पूर्व में शुरु होती हो उस काल के भवनों के बचे होने की उम्मीद रखी भी कैसे जा सकती है? 

मौर्य शासको के बाद इस इलाके पर राज तो कई वंशों ने किया पर इतिहास के पन्नों पर नाम आया पाल वंश के राजाओं गोपाल, धर्मपाल और महिपाल का जिन्होंने बंगाल बिहार के आलावा उत्तर भारत के केंद्र कन्नौज पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए राष्ट्रकूट व प्रतिहार शासकों के साथ लोहा लिया। बारहवीं शताब्दी आते आते  पाल वंश का पराभव हो गया। भागलपुर के पास विक्रमशिला औेर बांग्लादेश में सोमपुरा के बौद्ध विहारों के अवशेष पाल शासन के दौरान बने विहारों की गवाही देते हैं।
बिष्णुपुर
पर इन सब के आलावा भी बंगाल के बांकुरा जिले से सटे छोटे से भू भाग पर एक अलग राजवंश ने शासन किया जिसके बारे में ज्यादा पुष्ट जानकारी नहीं है। ये राजवंश थाा मल्ल राजाओं का जो सातवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक इस छोटे से इलाके में काबिज़ रहे। मल्ल शासकों द्वारा 17 वीं और 18 वीं शताब्दी में बनाए गए टेराकोटा के मंदिरों ने इस कस्बे  को हमेशा हमेशा के लिए इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में जगह दिला दी। बिष्णुपुर के बारे मैं मैंने जबसे जाना तबसे वहाँ जाने की इच्छा मन में घर कर  गयी थी।

राँची से कोलकाता के रेल मार्ग पर बांकुरा स्टेशन तो पड़ता है पर शताब्दी जैसी ट्रेन वहाँ रुकती नहीं। धनबाद से बिष्णुपुर की दूरी करीब 160 किमी है जिसे सड़क मार्ग से चार पाँच घंटे में तय किया जा सकता है। पर बाहर से आने वालों के लिए विष्णुपुर पहुँचने का सबसे आसान तरीका है कोलकाता आकर वहाँ से सीधे बिष्णुपुर के लिए ट्रेन पकड़ने का। कोलकाता से विष्णुपुर की 142 किमी की दूरी एक्सप्रेस ट्रेन चार घंटे में पूरी कर लेती है। दिसंबर के महीने में जब मैं कोलकाता गया तो वहीं से बिष्णुपुर जाने का कार्यक्रम बन गया। सुबह सुबह कोलकाता से निकला और साढ़े दस बजे तक मैं बिष्णुपुर स्टेशन पर था।
राधा माधव मंदिर में सहयात्री के साथ
बिष्णुपुर स्टेशन से निकल कर आपको बिल्कुल नहीं लगेगा कि आप किसी ऐतिहासिक शहर में आ गए हैं। ये आम सा एक कस्बा है जहाँ ज़िदगी घोंघे की रफ्तार से खिसकती है । कस्बे की दुबली पतली धूल धूसरित सड़कों पर आटोरिक्शे से ले कर रिक्शे व ठेला गाड़ी दौड़ती दिखेंगी।पर चंद किमी के फासले को तय करने के बाद आपको ऐसा प्रतीत होगा कि आप एक दूसरी ही दुनिया में आ गए हैं।   ये दुनिया है बिष्णुपुर के वैष्णव राजाओं द्वारा बनाए दर्जनों छोटे बड़े टेराकोटा के मंदिरों की जिन्हें ASI ने बेहद करीने से रखा और सहेजा है। काश इन तक पहुँचने वाली सड़कें भी इस इलाके के गौरवशाली अतीत का प्रतिबिम्ब बन पातीं । स्टेशन से निकल कर शहर के मंदिरों को घूमने का सबसे अच्छा ज़रिया आटोरिक्शा है जो सीजन के हिसाब से तीन चार सौ रुपये में शहर का कोना कोना घुमा देता है। बिष्णुपुर का हमारा सबसे पहला पड़ाव था रासमंच

सोमवार, 1 मई 2017

हरी भरी इस धरती पर चलने को मचलते पाँव हैं , ओ साथ चलते पथिक बता क्या इसी डगर तेरा गाँव है? In pictures : The countryside of Belgium

बेल्जियम से हमारी डगर जाती थी फ्रांस की ओर। यूरोप के खेत खलिहानों को पास से निहारने का पहला मौका तो क्यूकेनहॉफ से एमस्टर्डम आते वक़्त मिला था पर ब्रसल्स से पेरिस जाते वक्त यूरोप के भीतरी इलाकों से गुजरना आँखों के साथ मन को भी सुकून दे गया। जैसे जैसे फ्रांस की धरती पास आने लगी वैसे वैसे मौसम भी करवट लेने लगा। नीले आसमान को स्याह बादलों ने ढक लिया। हवा का शोर एकदम से बढ़ गया और तापमान तेजी से कम होने लगा। हमारी सरपट भागती बस ने इस बदलती फ़िज़ा में जो अनूठे रंग दिखाए वही सँजों के लाया हूँ मैं आपके लिए आज की इस पोस्ट में.. 

मिट्टी है ये या सोना है, इक दिन इसमें ख़ुद खोना है...
सकल वन फूल रही सरसों, आवन कह गए आशिक रंग..और बीत गए बरसों।
हरी भरी इस धरती पर चलने को मचलते पाँव हैं , ओ साथ चलते पथिक बता क्या इसी डगर तेरा गाँव है?
वृक्ष की कतार में, मौसमी बयार में..दिल मेरा खो गया किसके इंतज़ार में