रविवार, 17 मार्च 2019

दहकते पलाश और खिलते सेमल के देश में In the land of Palash & Semal

यूँ तो पलाश का फैलाव भारत के हर कोने में है पर पूर्वी भारत में इनके पेड़ों का घनत्व अपेक्षाकृत ज्यादा है और इसका प्रमाण तब मिलता है जब आप रोड या रेल मार्ग से मार्च और अप्रैल के महीने में इन इलाकों से गुजरते हैं। झारखंड और उत्तरप्रदेश का तो ये राजकीय पुष्प भी है। टैगोर की रचनाओं में भी पलाश का कई बार जिक्र हुआ है। झारखंड तो ख़ैर वन आच्छादित प्रदेश है ही । यहाँ के पर्णपाती वन जब वसंत के आगमन के साथ पत्तियाँ झाड़कर पलाश की सिंदूरी आभा बिखेरते है तो जंगल की लालिमा देखते ही बनती है। 


जंगल की आग पलाश को इस लाली को हर तरफ बिखेरने में साथ मिलता है अपने बड़े भ्राता सेमल का जो कि फरवरी महीने के आख़िर से ही अपने सुर्ख लाल फूलों के साथ खिलना शुरु कर देते हैं। पिछले हफ्ते जब झारखंड और बंगाल के कुछ इलाकों से गुजरने का मौका मिला तो पलाश और सेमल की ये जुगलबंदी किस रूप में नज़र आयी चलिए आपको भी दिखाते हैं। 

गौरंगपुर, बर्धमान में एक झील के किनारे खड़ा मिला मुझे ये पूरी तरह खिला पलाश
तो बात पहले बंगाल की। शांतिनिकेतन जो टैगोर की कर्मभूमि थी  वहाँ पलाश के पेड़ों का अच्छा खासा जमावड़ा है। वसंत के समय ये पलाश के फूल टैगौर की मनोदशा पर क्या असर डालते होंगे ये उनकी लिखी इन पंक्तियों से पता चल जाता है

ओ रे गृहोबाशी, खोल दार, खोल लागलो जे दोल
स्थोले, जोले, बोनो तोले लागलो जे दोल
दार खोल दार खोल
रंग हाशी राशी राशी अशोके पोलाशे
रंग नेशा मेघे मेशा प्रोभातो आकाशे
नोबीन पाते लागे रंग हिलोल, दार खोल दार खोल

अर्थात ओ घर में रहने वालों, अपने घर के द्वारों को खोल दो ! देखो बाहर ज़मीं पर, जल और आकाश में वसंत की कैसी बयार छाई है। प्रकृति के रेशे रेशे में एक हँसी है जो पलाश और अशोक वृक्षों से बिखर रही है। सुबह के आसमान में बादलों की चाल में एक नशा सा है। पेड़ों पर आए नए पत्ते रंगों का नया संसार रच रहे हैं तो तुमने  क्यों अपने द्वार बंद कर रखे हैं ?

शांतिनिकेतन तो नहीं पर उसी के पड़ोसी जिले बर्धमान के जंगलों से गुजरते हुए पिछले हफ्ते पलाश हमें अपने पूर्ण यौवन के साथ दिखाई दिया।

पलाश तो अपना है तुम कहाँ से आए हो?  यही प्रश्न था आँखों में उस बछड़े के :)
पलाश देश के अलग अलग हिस्सों में कई नामों से जाना जाता रहा है। पलाश के आलावा पूर्वी भारत में इसे किंशुक, टेसू व ढाक के नाम से भी पुकारे जाते सुना है। ढाक  से याद आया कि पलाश के पेड़ के पत्तों की खासियत है कि वो साथ में हमेशा तीन के तीन रहते हैं उससे कम ज़्यादा नहीं, इसलिए हिंदी का एक प्रचलित मुहावरा है ढाक के तीन पात यानी स्थिति हमेशा वही की वही रहना।

इसका वैज्ञानिक नाम Butea Monosperma है और अपने औषधीय गुणों और रंग  रँगीले रूप की वज़ह से ये बड़ा उपयोगी पेड़ है । मैंने इन पेड़ों को 5 से 15 मीटर तक लंबा देखा है। झारखंड के जंगलों में इनकी ऊँचाई सेमल के पेड़ों की तुलना में काफी कम होती है। राँची से बोकारो, मूरी, जमशेदपुर जिस दिशा में आप बढ़ेंगे सड़क या रेलवे ट्रैक के दोनों ओर पलाश के पेड़ों को कतारबद्ध पाएँगे।

पलाश के पेड़ों को देखते हुए कई कवियों की रचनाएँ याद आ जाती हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख मैंने अपने इस आलेख में कुछ वर्षों पहले किया थानरेंद्र शर्मा ने भी पलाश के खिलने से आए प्रकृति में परिवर्तनों को अपनी एक कविता में बखूबी चित्रित किया है। प्रकृति में पलाश की मची धूम पर उनकी लिखी ये पंक्तियाँ मुझे लाजवाब कर जाती हैं। गौर फरमाइएगा

लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश

नीचे के चित्रों के साथ नरेंद्र जी की पंक्तियाँ  सटीक बैठ रही हैं या नहीं  इसका निर्णय आप पर छोड़ देता हूँ ।
पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके
चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके 
मार्च में कभी गोमो या धनबाद से रेल मार्ग से बोकारो आना हो तो बीच रास्ते में दिखता ये दृश्य आपका जरूर मन मोहेगा।
चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई।
जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई

गुरुवार, 7 मार्च 2019

एक शाम गेतलसूद के नाम Getalsud Dam, Ormanjhi

राँची यूँ तो झरनों का शहर कहा जाता है पर झरनों के आलावा आप अगर किसी भी दिशा में तीस से चालीस किमी चलेंगें तो आपकी मुलाकात चौड़े पत्तों वाले पर्णपाती वनों से हो जाएगी। अगर मौसम अच्छा हो तो यूँ ही सप्ताहांत में इन हरी भरी वादियों के सानिध्य में बिताने की उत्कंठा बढ़ं जाती है। पिछते हफ्ते मन किया कि क्यूँ ना आज की शाम जंगलों से घिरे किसी जलाशय के आस पास बिताई जाए। धुर्वा और काँके तो शहर के अंदर के ही दो जलाशय हैं तो ऊपर वाले पैमाने को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने एक मित्र के साथ घर से करीब चालीस किमी दूर स्वर्णरेखा नदी पर बने गेतलसूद बाँध की ओर निकलने का निश्चय किया ।


मैं इससे पहले गेतलसूद नहीं गया था। हाँ इसके जुड़वा भाई रुक्का से कई बार मुलाकात हुई थी। दरअसल रूक्का और गेतलसूद एक ही जलाशय के दो अलग अलग सिरो पर बनाए गए बाँध है । रुक्का वाला सिरा  राँची से ज्यादा करीब है। राँची के पक्षी प्रेमियों में ये इलाका खासा लोकप्रिय है। पतरातू के आलावा यहाँ भी जलीय व प्रवासी पक्षी दिखाई दे जाते हैं। ये दोनो बाँध ओरमांझी कस्बे से लगभग बराबर की दूरी पर हैं। जिन लोगों को इस कस्बे का नाम पहली बार सुना हो उनके लिए बता दूँ कि ये कस्बा पटना राँची राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। ओेरमांझी की एक खासियत ये भी है कि यहाँ से भी कर्क रेखा गुजरती है।


ओेरमांझी से गुजरती कर्क रेखा
दिन के ढाई बजे निकलने का सोचा जरूर था पर निकलते निकलते तीन बज ही गए। हमने ओरमाझी जाने के लिए टैगोर हिल वाली राह पकड़ी पर गूगल मैप ने कर्क रेखा पार करते हुए  आगे बढ़कर जब बाँए मुड़ने को कहा तो वहाँ कोई मोड़ ही नज़र नहीं आया। लोगों से पूछने पर पता चला कि आप लोग अपना मोड़ पहले छोड़ आए हैं। दरअसल हमें राँची से गोला होते हुए बोकारो की ओर जाने वाली सड़क पकड़नी थी। करीब आठ दस किमी उस सड़क पर चलने के बाद हमें अपनी दायीं ओर गेतलसूद जाने का रास्ता नज़र आया।

गेतलसूद बाँध की ओर जाती सड़क

रविवार, 3 मार्च 2019

लवासा सिटी एक रंग बिरंगा सुंदर पर सुनसान शहर Lavasa, Maharashtra

पुणे महाराष्ट्र का एक ऐसा शहर है जहाँ दो तीन साल में एक बार जाना होता रहा है। दो दशक पहले जब पहली बार यहाँ की हरी भरी ज़मीं पर क़दम रखा था तो यहाँ से लोनावला और खंडाला जाने का अवसर मिला था। वैसे भी खंडाला उन दिनों आमिर खान की फिल्म गुलाम के बहुचर्चित गीत आती क्या खंडाला से.... और मशहूर हो चुका था। पश्चिमी घाटों की वो मेरी पहली यात्रा थी जो आज तक मेरे मन में अंकित है।


डेढ़ साल पहले जब महाबलेश्वर और पंचगनी जाने का कार्यक्रम बना तो कुछ दिन पुणे में एक बार फिर ठहरने का मौका मिला। शहर की कुछ मशहूर इमारतों और मंदिरों को देखने के बाद पश्चिमी घाट के आस पास विचरने की इच्छा ने पर पसारने शुरु कर दिए। मुंबई के मित्रों से झील और हरे भरे पहाड़ों के किनारे बसाए गए इस शहर की खूबसूरती का कई बार जिक्र सुना था।

फिर ये भी सुना कि किस तरह ये शहर पूरी तरह विकसित होने के पहले ही ढेर सारे विवादों में घिरता चला गया पर इस शहर को एक बार देखने की इच्छा हमेशा मन में रही। 

टेमघर बाँध की दीवार से रिसता पानी
अक्टूबर के तीसरे हफ्ते के एक सुनहरे चमकते हुए दिन हमारा काफिला दो कारों में सवार होकर खड़की  से लवासा की ओर चल पड़ा। पुणे में ज्यादा ठंड तो पड़ती नहीं। महीना अक्टूबर का था तो मौसम में हल्की गर्मी थी। वैसे तो पुणे से लवासा की दूरी साठ किमी से थोड़ी कम है पर आधा पौन घंटे तो पुणे महानगर और उसके आसपास के उपनगरीय इलाकों से निकलने में ही लग जाते हैं। फिर तो आप पश्चिमी घाट की छोटी बड़ी पहाड़ियों की गोद में होते हैं। 

मुठा नदी पर बनाया गया टेमघर जलाशय

सफर की तीन चौथाई दूरी तय करने के बाद मुठा नदी पर बना टेमघर बाँध आ जाता है वैसे इस बाँध की खूबसूरती इसके थोड़ा आगे बढ़ने पर तब दिखाई देती है जब इससे लगा जलाशय सड़क के बिल्कुल आपसे हाथ मिलाने चला आता है। लाल मिट्टी के किनारे बहता नीला आसमानी जल अपने पीछे की हरी भरी पहाड़ियों का सानिध्य पाकर और खूबसूरत लगने लगता है। ऍसी जगहों में वक़्त बिताने का आनंद तब और बढ़ जाता है जब वहाँ शांति हो। हमारे आलावा वहाँ बस पाँच छः लोग और थे। 

ढाल से नीचे उतरकर कुछ देर हम सभी टेमघर की सुंदरता में खोए रहे। सड़क के किनारे भुट्टे सिंक रहे थे। फेरीवालों की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा तो लगा कि अब यहाँ रुके हैं तो भुट्टों का स्वाद भी ले ही लेना चाहिए।भुट्टों की बात से याद आया कि पुणे की तरफ उपजने वाले भुट्टे उत्तर भारत के भुट्टों की अपेक्षा बेहद मीठे होते हैं।