यूँ तो पलाश का फैलाव भारत के हर कोने में है पर पूर्वी भारत में इनके पेड़ों का घनत्व अपेक्षाकृत ज्यादा है और इसका प्रमाण तब मिलता है जब आप रोड या रेल मार्ग से मार्च और अप्रैल के महीने में इन इलाकों से गुजरते हैं। झारखंड और उत्तरप्रदेश का तो ये राजकीय पुष्प भी है। टैगोर की रचनाओं में भी पलाश का कई बार जिक्र हुआ है। झारखंड तो ख़ैर वन आच्छादित प्रदेश है ही । यहाँ के पर्णपाती वन जब वसंत के आगमन के साथ पत्तियाँ झाड़कर पलाश की सिंदूरी आभा बिखेरते है तो जंगल की लालिमा देखते ही बनती है।
जंगल की आग पलाश को इस लाली को हर तरफ बिखेरने में साथ मिलता है अपने बड़े भ्राता सेमल का जो कि फरवरी महीने के आख़िर से ही अपने सुर्ख लाल फूलों के साथ खिलना शुरु कर देते हैं। पिछले हफ्ते जब झारखंड और बंगाल के कुछ इलाकों से गुजरने का मौका मिला तो पलाश और सेमल की ये जुगलबंदी किस रूप में नज़र आयी चलिए आपको भी दिखाते हैं।
गौरंगपुर, बर्धमान में एक झील के किनारे खड़ा मिला मुझे ये पूरी तरह खिला पलाश |
तो बात पहले बंगाल की। शांतिनिकेतन जो टैगोर की कर्मभूमि थी वहाँ पलाश के पेड़ों का अच्छा खासा जमावड़ा है। वसंत के समय ये पलाश के फूल टैगौर की मनोदशा पर क्या असर डालते होंगे ये उनकी लिखी इन पंक्तियों से पता चल जाता है
ओ रे गृहोबाशी, खोल दार, खोल लागलो जे दोल
स्थोले, जोले, बोनो तोले लागलो जे दोल
दार खोल दार खोल
रंग हाशी राशी राशी अशोके पोलाशे
रंग नेशा मेघे मेशा प्रोभातो आकाशे
नोबीन पाते लागे रंग हिलोल, दार खोल दार खोल
अर्थात ओ घर में रहने वालों, अपने घर के द्वारों को खोल दो ! देखो बाहर ज़मीं पर, जल और आकाश में वसंत की कैसी बयार छाई है। प्रकृति के रेशे रेशे में एक हँसी है जो पलाश और अशोक वृक्षों से बिखर रही है। सुबह के आसमान में बादलों की चाल में एक नशा सा है। पेड़ों पर आए नए पत्ते रंगों का नया संसार रच रहे हैं तो तुमने क्यों अपने द्वार बंद कर रखे हैं ?
शांतिनिकेतन तो नहीं पर उसी के पड़ोसी जिले बर्धमान के जंगलों से गुजरते हुए पिछले हफ्ते पलाश हमें अपने पूर्ण यौवन के साथ दिखाई दिया।
शांतिनिकेतन तो नहीं पर उसी के पड़ोसी जिले बर्धमान के जंगलों से गुजरते हुए पिछले हफ्ते पलाश हमें अपने पूर्ण यौवन के साथ दिखाई दिया।
पलाश तो अपना है तुम कहाँ से आए हो? यही प्रश्न था आँखों में उस बछड़े के :) |
पलाश देश के अलग अलग हिस्सों में कई नामों से जाना जाता रहा है। पलाश के आलावा पूर्वी भारत में इसे किंशुक, टेसू व ढाक के नाम से भी पुकारे जाते सुना है। ढाक से याद आया कि पलाश के पेड़ के पत्तों की खासियत है कि वो साथ में हमेशा तीन के तीन रहते हैं उससे कम ज़्यादा नहीं, इसलिए हिंदी का एक प्रचलित मुहावरा है ढाक के तीन पात यानी स्थिति हमेशा वही की वही रहना।
इसका वैज्ञानिक नाम Butea Monosperma है और अपने औषधीय गुणों और रंग रँगीले रूप की वज़ह से ये बड़ा उपयोगी पेड़ है । मैंने इन पेड़ों को 5 से 15 मीटर तक लंबा देखा है। झारखंड के जंगलों में इनकी ऊँचाई सेमल के पेड़ों की तुलना में काफी कम होती है। राँची से बोकारो, मूरी, जमशेदपुर जिस दिशा में आप बढ़ेंगे सड़क या रेलवे ट्रैक के दोनों ओर पलाश के पेड़ों को कतारबद्ध पाएँगे।
इसका वैज्ञानिक नाम Butea Monosperma है और अपने औषधीय गुणों और रंग रँगीले रूप की वज़ह से ये बड़ा उपयोगी पेड़ है । मैंने इन पेड़ों को 5 से 15 मीटर तक लंबा देखा है। झारखंड के जंगलों में इनकी ऊँचाई सेमल के पेड़ों की तुलना में काफी कम होती है। राँची से बोकारो, मूरी, जमशेदपुर जिस दिशा में आप बढ़ेंगे सड़क या रेलवे ट्रैक के दोनों ओर पलाश के पेड़ों को कतारबद्ध पाएँगे।
पलाश के पेड़ों को देखते हुए कई कवियों की रचनाएँ याद आ जाती हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख मैंने अपने इस आलेख में कुछ वर्षों पहले किया था। नरेंद्र शर्मा ने भी पलाश के खिलने से आए प्रकृति में परिवर्तनों को अपनी एक कविता में बखूबी चित्रित किया है। प्रकृति में पलाश की मची धूम पर उनकी लिखी ये पंक्तियाँ मुझे लाजवाब कर जाती हैं। गौर फरमाइएगा
लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश
नीचे के चित्रों के साथ नरेंद्र जी की पंक्तियाँ सटीक बैठ रही हैं या नहीं इसका निर्णय आप पर छोड़ देता हूँ ।
पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके |
चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई। जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई |