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रविवार, 23 फ़रवरी 2020

आइए चलें पक्षियों की दुनिया में अंबाझरी जैवविविधता उद्यान, नागपुर Ambazari Biodiversity Park, Nagpur

नागपुर यूँ तो अपने चारों ओर तरह तरह के अभ्यारण्यों को समेटे है बस शहर के बीचो बीच भी एक इलाका है जो जानवरों के लिए तो नहीं पर प्रकृति प्रेमियों और स्वास्थ के प्रति सजग रहने वालों में खासा लोकप्रिय है। इस इलाके का नाम है अंबाझरी जैवविविधता उद्यान जो करीब साढ़े सात सौ एकड़ में फैला हुआ है और अपने अंदर दो सौ से भी अधिक प्रजातियों के पक्षियों को समेटे है।  


पिछले नवंबर में जब मैं पेंच राष्ट्रीय उद्यान में गया था तो उससे पहले अपनी दो सुबहें मैंने यहीं व्यतीत की थीं और सच पूछिए बड़ा आनंद आया था मुझे अंबाझरी झील के किनारे बसे इस इलाके में अकेले विचरण करते हुए। ये पूरा क्षेत्र घास के मैदानों और झाड़ियों से भरा है। यही वज़ह है कि यहाँ आपको वो पक्षी दिखते हैं जिन्हें पानी के पास या झाड़ियों में रहना पसंद है। 


घास के मैदान जो आश्रयस्थल है ढेर सारे पक्षियों के
 घर से चलने के पहले ही अंबाझरी में काले और नारंगी रंग के थिरथिरे से मेरी मुलाकात हो गयी। बताइए क्या रंगों का मिश्रण दिया इन्हें भगवान ने! शरीर का ऊपरी हिस्सा काला रखा तो निचले सिरे को खूबसूरत नारंगी बना दिया। अब इन दोनों रंगों का मेल ऐसा कि एक बार देखते ही नज़रें ठिठक जाएँ। इन जनाब से मेरी पहली मुलाकात दो साल पहले सितंबर के महीने में तब हुई थी जब में स्पीति के गांव लंग्ज़ा की ओर बढ़ रहा था और ये उस पथरीले रेगिस्तान में ज़मीन पर अपने भोजन को ढूँढ रहे थे। जाड़ों में ये हिमालय की ऊँचाई त्याग कर मैदानी इलाकों की राह तय करते हैं।
अंबाझरी जैवविविधता उद्यान, नागपुर

साढ़े सात बजे तक मैं पार्क में दाखिल हो चुका था। यूँ तो वहाँ साइकिल की व्यवस्था है पर पक्षियों को ढूँढने और साथ ही साथ कैमरा सँभालने के लिए पैदल चलने से बेहतर कुछ भी नहीं। शुरुआत में तो मुझे पक्षियों की आवाज़ों के आलावा वहाँ कोई शख़्स नज़र नहीं आया। पर इतने एकांत में प्रकृति को यूँ निहारना अपने आप में एक अलग तरह का अनुभव था। जानते हैं सबसे पहले मुझे वहाँ कौन सा पक्षी दिखाई दिया? एक ऐसा पक्षी जिसकी साहित्य में तो महिमा अपरमपार है पर जिसके दर्शन मुझे इससे पहले कभी सुलभ नहीं हो पाए थे।

वो पक्षी था चातक ! वही चातक जिसके बारे में कहा जाता है कि चाहे वो कितना भी प्यासा हो मगर नदी या झील के पानी के बजाय वर्षा की गिरती बूँदों से ही अपना गला तर करता है। कालिदास के प्रसिद्ध महाकाव्य में भी इसका जिक्र है। बहरहाल ये तो बस कहानियों की बाते हैं जो बेचारे चातक पर यूँ ही लाद दी गयी हैं। काले और सफेद रंग के पंखों वाले इस पक्षी का सबसे आकर्षित करने वाला हिस्सा इसकी बड़ी बड़ी आँखें और कलगी है। बहरहाल मैं इसे देख ही रहा था कि एक विचित्र गूँज से मेरा ध्यान दूसरी ओर पलटा।

चातक (Pied Cuckoo, Jacobin Cuckoo)
रौशनी अभी धीरे धीरे अपने पैर पसार रही थी। इसलिए एक सूखे पेड़ के ऊपर उस आवाज़ करती काली सी आकृति को पहचानना मुश्किल था। कैमरे से ज़ूम कर इतना समझ जरूर आया कि हो न हो ये तीतर के दो आगे तीतर , तीतर के दो पीछे तीतर ,बोलो कितने तीतर वाले प्रश्न का ही तीतर है। जनाब की हुंकार मीठी तो कहीं से नहीं थी पर ये जरूर था कि उनकी हर हूक का जवाब करीब आधे किमी दूर बैठे पक्षी से लगातार मिल रहा था। नतीजा ये था कि उनकी वाणी पूरे उत्साह से वातावरण को गुंजायमान किए थी। बाद में मुझे पता चला कि प्रजनन काल में सुबह सुबह ही अपनी प्रेयसी की तलाश में ही भोर होते ही ये अपने रियाज़ पर लग जाते हैं और उसके लिए कोई ऊँचा स्थान ढूँढ लेते हैं।  कम रौशनी और दूरी की वज़ह से उनकी तस्वीर बहुत साफ नहीं आई। इसकी आवाज़ का वीडियो बनाना उस वक़्त सूझा नहीं पर आप सुनना चाहें तो यहाँ सुन सकते हैं

तीतरों की कई प्रजातियाँ होती है और इस तीतर को चित्रित तीतर के नाम से जाना जाता है। चित्रित तीतर पश्चिमी और मध्य भारत के इलाकों में ज्यादा देखा जाता है।

चित्रित तीतर (Painted Francolin)
उजाला हो रहा था और अब कई युवा भाड़े की साइकिलों के साथ नज़र आने लगते थे। कहीं रास्ते में मैं किसी पक्षी की तस्वीर खींच रहा होता तो सब बिना आवाज़ किए पहले ही रुक जाते और मेरे से इशारा पाकर ही आगे बढ़ते। बच्चों को ऐसा करते देख अच्छा लगा। कई माता पिता अपने बच्चों को पक्षियों के बारे में बताने भी लाए थे पर बिना किसी दूरबीन के। इसीलिए उनहें वहाँ लगे पक्षियों के साइनबोर्ड पर दी गयी जानकारी से ही संतोष करना पड़ रहा था।

राबिन, महोख, फुटकी, अबाबील की झलक पाते हुए नज़रें इस लंबी पूँछ वाले लहटोरे पर जा अटकीं। इससे तो कई बार पहले भी मुलाकात हुई थी। आँखों के आगे काली पट्टी बाँधे ये पक्षी दिखने में भले छोटा सा दिखे पर इसकी गिनती बेरहम शिकारियों में होती है।

लंबी दुम वाला लहटोरा या लटोरा, Long Tailed Shrike
फाख़्ता तो आपने कई देखे होंगे पर चितरोखा और छोटे फाख्ता की तुलना में गेरुई फाख्ता अपेक्षाकृत कम दिखाई देता है। अपने गले के पास के घेरे और नर के स्याह रंग के सिर की वजह से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। 

फाख्ता के बाद जो पक्षी मुझे दिखाई पड़ा वो थी लाल मुनिया। कहना ना होगा कि इसकी खूबसूरती के चर्चे और झाड़ियों वाले इलाकों में इसके नज़र आने की अधिक प्रायिकता ते मेरे मन में विश्वास जगा दिया था कि सुबह की मेरी इस सैर में इसके दर्शन जरूर होंगे।

गेरुई फाख्ता  (Red Collared Dove)
लाल रंग तो कुदरत ने कई पक्षियों पर उड़ेला है पर लाल शरीर और भूरे काले पंखों के साथ इन छोटे छोटे से सफेद बूटों को देख कर इस रूप पर कौन ना वारी जाए? सच पूछिए इसकी लाल सफेद काया का दर्शन ऐसा है मानों पक्षियों के सांता क्लाज के दर्शन हो गए :)।

अंग्रेज बड़े अच्छे इतिहासकार थे। किसी भी चीज़ को देखना और उसके बारे में लिखकर दस्तावेज़ की शक़्ल देना उन्हें बखूबी आता था। सालिम अली का युग तो बाद में आया पर उसके पहले बहुतेरे भारतीय पक्षियों का नामकरण अंग्रेजों द्वारा कर दिया गया। इस क्रम में कुछ नाम उन्होंने ऐसे बिगाड़े कि आप समझ ही नहीं पाएँगे कि इस पक्षी का नाम ऐसा क्यूँ दिया गया? अब लाल मुनिया को ही लीजिए। ये पक्षी अंग्रेजी में रेड अवदावत (Red Avadavat ) के नाम से मशहूर है। अब अवदावत तो अंग्रेजी मूल का शब्द है ही नहीं तो क्या आपने कभी सोचा कि आख़िर बेचारी इस छोटी और प्यारी सी मुनिया का इतना क्लिष्ट नाम क्यूँ रख दिया गया?



इतिहास के पन्नों को टटोलें तो पाएँगे कि ये नाम दरअसल भारत के गुजरात राज्य के शहर अहमदाबाद का अपभ्रंश है। सत्रहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने अपने दस्तावेज़ों में अहमदाबाद में पिंजरों में बंद इन सुंदर पक्षियों का जिक्र किया है। वहीं से इन्हें यूरोप भी ले जाया गया। कहीं अमिदावाद, कहीं अमदावत होते होते इस पक्षी का नाम अंग्रेजों ने रेड अवदावत कर दिया।
खैर छोड़िए अवदावत को हमारे लिए तो ये लाल मुनिया ही रहेगी। जब मेरी इससे मुलाकात हुई तो ये झाड़ी के एक नुकीले सिरे पर झूला झूल रहा था। हमारी नज़रे मिलीं और अपनी आजादी में खलल देख कर कुछ देर तो इसने नाक भौं सिकोड़ी पर फिर मुझ पर ध्यान ना देते हुए ये अपने गायन में तल्लीन हो गया। तस्वीर का ये लम्हा तभी का है।
लाल मुनिया नर  (Red Munia)

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

चलिए मेरे साथ पेंच राष्ट्रीय उद्यान में.. A visit to Pench National Park, Sillari Gate

पिछली दीपावली नागपुर में बीती। दीपावली के बाद हाथ में दो दिन थे तो लगा क्यूँ ना आस पास के राष्ट्रीय उद्यानों में से किसी एक की सैर कर ली जाए। ताडोबा और पेंच ऍसे दो राष्ट्रीय उद्यान हैं जो नागपुर से दो से तीन घंटे की दूरी पर हैं। अगर नागपुर से दक्षिण की ओर निकलिए तो चंद्रपुर होते हुए लगभग डेढ़ सौ किमी की दूरी तय कर आप ताडोबा पहुँच जाएँगे। दूसरी ओर नागपुर से पेंच के सबसे नजदीकी गेट सिल्लारी की दूरी मात्र 70 किमी है।

पेंच और तडोबा बाघों के मशहूर आश्रयस्थल हैं पर मेरी दिलचस्पी बाघों से कहीं ज्यादा सुबह सुबह जंगल में विचरण करने की थी। वैसे भी किसी जंगल में मेरे जैसे यात्री के लिए सबसे सुखद पल वो होता है जब आप शांति से एक जगह बैठ कर उस की आवाज़ों को आत्मसात करें। फिर चाहे वो अनजाने पक्षियों की बोली हो, पत्तों की सरसराहट हो, कीट पतंगों का गुंजन या फिर अनायास ही किसी जंगली जानवर के आ जाने की आहट।


ताडोबा में जहाँ मैंने रुकने का सोचा था वहाँ जगह नहीं मिली तो पेंच का रुख किया। महाराष्ट्र में जितने भी राष्ट्रीय उद्यान हैं उनमें अंदर के विश्राम स्थल पर्यटकों के लिए बंद कर दिए गए हैं। यानी रुकने की व्यवस्था जंगल के बाहर ही है। पेंच राष्ट्रीय उद्यान का ज्यादातर हिस्सा मध्यप्रदेश और कुछ महाराष्ट्र में पड़ता है।  इस उद्यान में प्रवेश करने के कई द्वार हैं। नागपुर से सिल्लारी गेट सबसे पास है और अन्य लोकप्रिय द्वारों की तुलना में अपेक्षाकृत अछूता है इसलिए मैंने इसे ही चुना। 

पेंच राष्ट्रीय उद्यान के मुख्य द्वार की ओर जाती सड़क
दीपावली के दो दिन बाद भरी दुपहरी नें अपने दल बल के साथ हमने पेंच की ओर कूच कर दिया। एक घंटे से ऊपर का समय नागपुर के ट्रैफिक को साधने में ही लग गया। नतीजन सिल्लारी तक पहुँचते पहुँचते दिन के दो बज गए। 

अमलतास, जंगल के बाहर बना वन विभाग का रिसार्ट

सिल्लारी गेट के पास महाराष्ट्र पर्यटन और वन विभाग के दो अच्छे ठिकाने हैं। रहने के लिए मैंने वन विभाग के इको रिसार्ट अमलतास को चुना था। नाम के अनुरूप वहाँ अमलतास के पेड़ तो नज़र नहीं आए पर परिसर के पीछे का हिस्सा घने जंगलों से सटा मिला। अब जंगल पास होंगे तो बंदर और लंगूर कहाँ पीछे रहने वाले हैं। वो भी हमारे आशियाने का आस पास अपनी धमाचौकड़ी मचाने में व्यस्त थे। अपने कमरों को खोलकर हमने घर से लाए भोजन को खोलना शुरु किया ही था कि कमरे के दरवाजे पर हल्की सी आहट हुई। जब तक मैं कुछ समझ पाता कमरे का दरवाजा खुला और एक बंदर ने  झाँकते हुए अंदर आने की इच्छा प्रकट की। समझ आ गया कि इन्होंने भोजन की गंध भाँप ली है। ख़ैर वो तो भगाने से भाग गया पर उसके बाद कमरे में बैठने पर किसी ने भी अपना द्वार खुला रखने की जुर्रत नहीं की।

रिसार्ट वाले कमरे में भी जंगल वाली 'फील' लाना नहीं भूलते।
वन विभाग ने इन कमरों को बड़ी खूबसूरती से सजाया है। हर पलंग के सिराहने यहाँ के मुख्य आकर्षण बाघ की छवि तो बनी ही है, साथ ही हर कमरे की सामने की दीवार पर कोई ना कोई वन्य प्राणी जैसे मोर, सियार, लोमड़ी आदि बड़ी खूबसूरती से चित्रित किए गए थे।  वन विभाग ने ये सुनिश्चित कर रखा है कि अगर जंगल में इन जीवों से मुलाकात ना भी हो तो वापस लौट कर रिसार्ट में तो मुलाकात होगी ही।


अमलतास में तब पर्यटकों की अच्छी खासी हलचल थी। शाम की सफारी के लिए वन विभाग की गाड़ियाँ तैयार खड़ी थीं। नागपुर से पास होने की वजह से कई लोग यहाँ बिना रात बिताए सिर्फ सफारी का आनंद ले कर लौट जाते हैं पर हमें तो अगले दिन तक रुकना था तो सोचा कि क्यूँ ना सिल्लारी गेट तक के इलाके में थोड़ी चहलकदमी की जाए।

स्लेटी रामगंगरा (Cinereous Tit)
रिसार्ट के आगे एक रास्ता वहीं गाँव की ओर मुड़ता था। गाँव में बीस तीस घर और एक छोटा सा मंदिर और एक चबूतरा  था। शाम के वक़्त शायद वो चबूतरा बतकही का अड्डा बनता हो पर उस दुपहरी में वहाँ सन्नाटा पसरा था। खेतों में चारा चरती गायें और उनका अनुसरण करते बगुले, दाने की तलाश में उड़ते कपोतक और गौरैया ही उस निस्तब्धता को तोड़ रहे थे।  राह में टुइयाँ तोते के साथ सलेटी रामगंगरा भी दिखाई पड़ीं। 

सागरगोटी या सागरगोटा
चलते चलते मुझे एक अजीब सा पौधा दिखा जिसकी अंडाकार फलियों पर ढेर सारे काँटे उगे थे। पूछने पर पता चला कि स्थानीय भाषा में इसे सागरगोटी कहते हैं और इसका इस्तेमाल लोग मलेरिया सहित कई रोगों के उपचार के लिए करते हैं।

सुबह सुबह जंगल के अंदर जाने को तैयार
मुझे बताया गया कि अगली सुबह की सफारी के लिए टिकट साढ़े पाँच बजे से ही मिलने लगते हैं। वन विभाग का महकमा भोर होते ही काउंटर पर मुस्तैद दिखा। पूरी गाड़ी, गाइड व कैमरे के साथ करीब साढ़े तीन हजार की रकम चुकता कर हमारा कुनबा सिल्लारी गेट की ओर बढ़ गया। ठंड तो गुनगुनी थी पर हल्के हल्के बादलों ने जंगल के बीच सूर्योदय को देखने के आनंद से हम सबको वंचित रखा। जंगल में घुसते ही जो पहला पक्षी दिखा वो धनेश (Grey Hornbill) था। पेड़ की ऊँचाइयों पर आराम से आसन जमा रखा था उसने। थोड़ा और आगे बढ़े तो कोतवाल के जंगली सहोदर रैकेट टेल ड्रैंगो (Racket Tail Drongo) की लहराती उड़ान दिखी। ये पक्षी जब उड़ान भरता है तो पंखों के दोनों ओर लतरों की तरह हवा में लहराती हुई डंडियाँ देखते ही बनती हैं।

जंगल के अंदर...
इधर मैंने अपनी नज़रें आसमान में पक्षियों की तलाश में टिकाई थीं और उधर हमारा गाइड जंगल में पाए जाने वाले पेड़ों की चर्चा कर रहा था। झारखंड, ओडीसा और छत्तीसगढ़ में जहाँ साल के पेड़ों की प्रधानता वाले जंगल ज्यादा हैं वहीं पेंच का जंगल सागवान (सागौन) यानी टीक के पेड़ों की प्रचुरता है। चौड़े पत्तर और क्रीम रंग के फूलों से लदे इसके पौधे बहुत सुंदर तो नहीं लगते पर अपनी कीमती लकड़ी की वज़ह से गर्व से इतराए खड़े दिखे। सागौन की अधिकता यहाँ भले अधिक हो पर पेंच के जंगल को मिश्रित जंगल कहना ज्यादा उचित होगा क्यूँकि यहाँ इसके आलावा बेर, गूलर, तेंदू पत्ता, बरगद, बाँस और अन्य कई जंगली पेड़ और लताएँ भी दिखाई पड़ीं।

माँ का प्रेम
गाइड बड़े मजे से घोस्ट ट्री के बारे में बता रहा था। ये पेड़ अपनी छाल का रंग बदलता रहता है। घुप्प अँधेरे में अपनी चमकती सफेद छाल की वजह से अंग्रेजों के समय से इसका ये नाम प्रचलित हो गया। ऐसे ही मगरमच्छ के कवच जैसी छाल रखने वाले पेड़ का यहाँ क्रोकोडाइल ट्री नाम सुनने को मिला।

बाँस की झाड़ियाँ
जंगल अब घना होता जा रहा था। हमारा वाहन पक्की से कच्ची सड़क  की राह लेता हुआ अब लगातार हिचकोले ले रहा था। मोर, हिरण और सांभर अपने दर्शन दे चुके थे। एक भूरी फैन टेल  कैमरे का ट्रिगर दबाने से पहले ही फुर्र हो गयी थी। लाल भूरा कठफोड़वा भी अपनी आवाज़ के साथ हल्की झलक दिखाकर जाने कहाँ अदृश्य हो गया था। गाड़ी का इंजन जहाँ शांत होता पक्षियों की आवाज़े गूँजने लगतीं पर उतने घने जंगल में उन्हें ढूँढ पाना दुसाध्य काम था।

दर्शन मोर का

चीतल (Spotted Deer)
आसमान छूते पेड़ों पर अचानक से हरियल का एक झुंड दिखा। गाड़ी रोककर नीचे से किसी तरह उनकी तस्वीर ली। अब महाराष्ट्र के राजकीय पक्षी से अपनी मुलाकात का सबूत तो अपने पास रखना ही था।

हरियल (Green footed Pigeon)


सड़क के किनारे अब पानी की एक धारा का स्वर जंगल के स्वर में एकाकार हो चुका था कि तभी हमें झाड़ियों के बीच एक विशाल गौर दिखाई पड़ा। भूरे घुटने के नीचे इसके सफेद रंग के पैर होने की वजह से गाइड इसे अक्सर सफेद मोजे पहनने वाला बताते हैं। ये गौर खा पीकर इतना मोटा ताजा हो गया था कि इसका अपने झुंड से साथ छूट गया था। पानी की धारा अब हमें पेंच नदी के बिल्कुल करीब ले आई थी जिसके ऊपर इस पार्क का नाम पड़ा है। ये नदी उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई इस उद्यान को दो बराबर भागों में बाँटती है। 

भारतीय गौर (Indian Bison)
नदी को छू कर हम लौट ही रहे थे कि पता चला कि हमारे पीछे आने वाली गाड़ी में से एक के सामने से एक बाघ छलाँग लगाता हुआ जंगल में ओझल हो गया। वापस लौटते हुए उस स्थान पर थोड़ी देर रुके भी पर बाघ के पैरों के ताज़ा निशान के आलावा हमारे हाथ कुछ ना लगा।

बाघ के पद चिन्ह

टुइयाँ तोता मादा
जंगलों की भूल भुलैया में करीब तीन चार घंटे बिताने के बाद अब बारी वापस लौटने की थी। 

सफ़र वापसी का

लौटते वक्त मंदिरों के शहर रामटेक का एक छोटा सा चक्कर लगा। जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है रामटेक यानी जहाँ कभी भगवान राम टिके थे। नागपुर से पचास किमी दूरी पर स्थित ये शहर मंदिरों का शहर है। ऐसी किंवदंती है कि वनवास के दौरान भगवान राम का ठिकाना यहाँ भी था। आज भी हजारों लोग प्रतिदिन पहाड़ पर बने राम मंदिर जिसे गड मंदिर भी कहा जाता है में भगवान राम के दर्शन करने आते हैं। राम मंदिर के आलावा यहाँ प्राचीन जैन मंदिर भी हैं।

खिंडसी झील

पेंच नेशनल पार्क से वापस लौटते हुए मैं इस शहर से गुजरा जरूर पर ज्यादा समय ना होने के चलते खिंडसी झील होकर ही वापस नागपुर लौट आया। खिंडसी में  धूप तेज़ होने की वजह से नौकायन का आनंद नहीं उठाया। भूखे पेट में मीठी चाशनी में डूबे सूखे बेरों के साथ चटकीली झालमुड़ी का भोग तो सबको रास आया। साथ ही सफेद गोलाकार चीज भी बिकती दिखी जिसका नाम मैं अब भूल गया। कोई 'मराठी माणूस' मदद करे याददाश्त ताज़ा करने में तो कृपा होगी।

बोलो बोलो बोलो बोलो ना.. क्या है मेरा नाम ? :)
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रविवार, 3 मार्च 2019

लवासा सिटी एक रंग बिरंगा सुंदर पर सुनसान शहर Lavasa, Maharashtra

पुणे महाराष्ट्र का एक ऐसा शहर है जहाँ दो तीन साल में एक बार जाना होता रहा है। दो दशक पहले जब पहली बार यहाँ की हरी भरी ज़मीं पर क़दम रखा था तो यहाँ से लोनावला और खंडाला जाने का अवसर मिला था। वैसे भी खंडाला उन दिनों आमिर खान की फिल्म गुलाम के बहुचर्चित गीत आती क्या खंडाला से.... और मशहूर हो चुका था। पश्चिमी घाटों की वो मेरी पहली यात्रा थी जो आज तक मेरे मन में अंकित है।


डेढ़ साल पहले जब महाबलेश्वर और पंचगनी जाने का कार्यक्रम बना तो कुछ दिन पुणे में एक बार फिर ठहरने का मौका मिला। शहर की कुछ मशहूर इमारतों और मंदिरों को देखने के बाद पश्चिमी घाट के आस पास विचरने की इच्छा ने पर पसारने शुरु कर दिए। मुंबई के मित्रों से झील और हरे भरे पहाड़ों के किनारे बसाए गए इस शहर की खूबसूरती का कई बार जिक्र सुना था।

फिर ये भी सुना कि किस तरह ये शहर पूरी तरह विकसित होने के पहले ही ढेर सारे विवादों में घिरता चला गया पर इस शहर को एक बार देखने की इच्छा हमेशा मन में रही। 

टेमघर बाँध की दीवार से रिसता पानी
अक्टूबर के तीसरे हफ्ते के एक सुनहरे चमकते हुए दिन हमारा काफिला दो कारों में सवार होकर खड़की  से लवासा की ओर चल पड़ा। पुणे में ज्यादा ठंड तो पड़ती नहीं। महीना अक्टूबर का था तो मौसम में हल्की गर्मी थी। वैसे तो पुणे से लवासा की दूरी साठ किमी से थोड़ी कम है पर आधा पौन घंटे तो पुणे महानगर और उसके आसपास के उपनगरीय इलाकों से निकलने में ही लग जाते हैं। फिर तो आप पश्चिमी घाट की छोटी बड़ी पहाड़ियों की गोद में होते हैं। 

मुठा नदी पर बनाया गया टेमघर जलाशय

सफर की तीन चौथाई दूरी तय करने के बाद मुठा नदी पर बना टेमघर बाँध आ जाता है वैसे इस बाँध की खूबसूरती इसके थोड़ा आगे बढ़ने पर तब दिखाई देती है जब इससे लगा जलाशय सड़क के बिल्कुल आपसे हाथ मिलाने चला आता है। लाल मिट्टी के किनारे बहता नीला आसमानी जल अपने पीछे की हरी भरी पहाड़ियों का सानिध्य पाकर और खूबसूरत लगने लगता है। ऍसी जगहों में वक़्त बिताने का आनंद तब और बढ़ जाता है जब वहाँ शांति हो। हमारे आलावा वहाँ बस पाँच छः लोग और थे। 

ढाल से नीचे उतरकर कुछ देर हम सभी टेमघर की सुंदरता में खोए रहे। सड़क के किनारे भुट्टे सिंक रहे थे। फेरीवालों की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा तो लगा कि अब यहाँ रुके हैं तो भुट्टों का स्वाद भी ले ही लेना चाहिए।भुट्टों की बात से याद आया कि पुणे की तरफ उपजने वाले भुट्टे उत्तर भारत के भुट्टों की अपेक्षा बेहद मीठे होते हैं। 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

एक सुबह बांद्रा की गलियों में ! Bandra Street Art & Bollywood Art Project

अगर पिछले महीने कच्छ की यात्रा पर नहीं गया होता तो शायद आपको आज बांद्रा ना ले जा रहा होता। दरअसल राँची से मुंबई की हवाई यात्रा के बाद जब वहाँ से कच्छ के लिए रेल का टिकट लेने लगा तो देखा कि कच्छ के लिए सभी रेलगाड़ियाँ  बांद्रा टर्मिनस से ही रवाना होती हैं।  

पेट्रोल को मारो गोली रख लो चप्पलों की जोड़ी :)
मुंबई पहले भी कई बार जा चुका हूँ और पुरानी यादों में जूहू और बांद्रा का इलाका फिल्मी कलाकारों का घोसला माना जाता था। पर हाल फिलहाल में बांद्रा , बांद्रा वर्ली सी लिंक के बनने से भी बराबर चर्चा में आता रहा था। पर अपनी आभासी  ज़िंदगी में यात्रा लेखकों की सोहबत में रहते हुए इस जगह के बारे में जो एक नई बात मालूम हुई वो थी चैपल रोड के आसपास दीवारों पर जहाँ तहाँ फैली चित्रकला जिसे पश्चिमी जगत में स्ट्रीट आर्ट भी कहा जाता है। तभी इसे देखने की इच्छा मन में घर कर गयी थी।

चैपल रोड में सबसे पहले दिखनी वाली चित्रकारी थी ये ट्रिपल आप्टिक्स : अब इन त्रिनेत्र की नज़रों से कौन बचेगा?
कच्छ से लौटते वक़त मेरे पास सुबह छः से दस बजे का वक़्त था सो मैंने मन ही मन अपनी एक सुबह बांद्रा की गलियों में देने का निश्चय कर लिया। जाते समय ही क्लोक रूम की स्थिति की जानकारी ले ली थी ताकि साथ का सामान सुबह सुबह ठिकाने लगाने में सुविधा रहे।


तेरह जनवरी की सुबह जब हमारी ट्रेन बांद्रा स्टेशन पर पहुँची तो बाहर घुप्प अँधेरा था। सात बजे जब हल्की हल्की लालिमा क्षितिज पर  उभरी तो मैं अपने मित्र के साथ मुंबई के चैपल रोड की ओर निकला। सूरज से पहले हमें मुंबई की सड़कों से पूर्णिमा के चाँद के दर्शन जरूर हो गए।

बांद्रा टर्मिनस के आस पास के इलाके से गुजरते ये आभास ही नहीं होता कि हम उसी मायानगरी में हैं जहाँ बनी फिल्में अथाह सपनों के जाल बुन हमें लुभाती हैं। ऐसा लगा मानों हम एक कस्बे  से गुज़र रहे हों। छोटे मँझोले घर जिनमें बरसों से रंग रोगन ना हुआ हो। घरों के सामने बेतरतीबी से रखे वाहन और बाजारों के निकट यत्र तत्र सर्वत्र फैली गंदगी।


सुबह की उस बेला में दफ्तर जाने की तैयारी में लोग जुटे थे। कुछ दुकानें खुल गयी थीं। पर माहौल अब भी अलसाया हुआ था और हम थे कि चैपल रोड के किनारे बसे हर घर की दीवारों को घूरते और गलियों में झाँकते गुजर रहे थे। शुरु के पाँच दस मिनटों में हमें इक्का दुक्का ही कलाकृतियाँ नज़र आयीं और तब समझ आया कि इन गली कूचों के अंदर से झाँकते इन कार्टून सदृश चरित्रों को देख पाना इतना आसान नहीं है।


अब दीवार पर बनी हरी शर्ट पहने ये जनाब तो नज़र आए पर इनके ठीक बगल में बिल्डिंग की ऊँचाई पर बाल्टी से पानी गिराती महिला का चित्र हमारी नज़रों के दायरे में आया ही नहीं। यहाँ तक कि हम इस इलाके की सबसे विख्यात मधुबाला की पेटिंग के नीचे से निकल गए और हमें पता ही नहीं चला। बाद में उसी सड़क पर लौटते हुए वो मुस्कुराती दिखाई दीं तो उनके खूबसूरत चेहरे से नज़रें हटाना मुश्किल हो गया।


स्ट्रीट आर्ट के केंद्र की तरह बांद्रा का उभरना अपने आप में आश्चर्य से कम नहीं हैं। चैपल रोड में घर की दीवारों पर बने ये चित्र ज्यादातर विदेशी मूल के कलाकारों ने बनाए हैं। ये कलाकार छुट्टियों में भारत आते हैं और इन बेनाम गलियों की इन दीवारों को अपनी कूचियों से रोशन कर देते हैं।



पर एक बात यहाँ आकर स्पष्ट हो जाती है कि जिन घर की दीवारों पर ये चित्रकारी है वहाँ या उसके आस पास के लोग इनसे कोई जुड़ाव नहीं महसूस करते। यही वज़ह है कि यहाँ की अनेक कलाकृतियाँ घर की गाड़ियों के बीच अपना मुँह छुपाती फिरती हैं। कला को कला दीर्घाओं से निकालकर आम जनमानस के बीच ले जाने का विचार तो अनुकरणीय है पर कला का विषय ऐसा हो कि स्थानीय संस्कृति उसे अपनी धरोहर समझे तभी ऐसे प्रयोग पूरी तरह सफल हो सकते हैं।

बांद्रा की अनारकली

चैपल रोड. हिल रोड और फिर बांद्रा बैंडस्टैंड के रास्ते से गुजरते हुए स्ट्रीट आर्ट का जो सबसे रोचक पहलू सामने आया वो था बॉलीवुड आर्ट प्रोजेक्ट ( BAP)। मुंबई के बाहर सारा देश इसे फिल्मनगरी समझता आँकता आया है। पर अपनी इस छवि को निखारना तो दूर इस शहर ने तो अपनी पहचान को समझने की ढंग से कोशिश ही नहीं की है। तभी तो हरियाणा के सोनीपत से ताल्लुक रखने वाले एक अदने से पेंटर को ये काम अपने जिम्मे लेना पड़ा।

हम्म, कभी इन नज़रों की पूरी पीढ़ी दीवानी हुआ करती थी !

ग्यारहवीं में पढ़ाई छोड़ पुताई के काम में लगे रंजीत दहिया  को स्कूल की दीवार रँगते समय माँ सरस्वती की पेटिंग बनाने का मौका मिला और तभी से उनकी रुचि चित्रकारी में बृढ़ गयी। बाद में उन्होंने चित्रकला की विधिवत पढ़ाई पूरी की और मुंबई में इंटरफेस डिजाइनर बन गए। बॉलीवुड आर्ट प्रोजेक्ट के तहत शहर की दीवारों को बॉलीवुड के ऐतिहासिक लमहों को क़ैद करने का विचार उन्हें 2013 में आया। तबसे वो अमिताभ, मधुबाला, राजेश खन्ना  व नादिरा जैसे कलाकारों को अपनी कूची से दीवारों पर ढ़ाल चुके हैं।

दादा साहब फालके
बांद्रा रिक्लेमेशन के पास MTNL की इमारत पर मशहूर निर्माता निर्देशक दादा साहब फालके का चित्र BAP का नवीनतम प्रयास है। कहा जाता है कि 125 फीट लंबी और 150 फीट चौड़ी इस पेंटिंग पर तकरीबन चार सौ लीटर का पीला पेंट इस्तेमाल किया गया। अब आप ही बताइए जिसके नाम पर फिल्म उद्योग का इतना बड़ा पुरस्कार हो उसके चित्र को मुंबई के कितने लोग पहचानते थे अब तक ? फिलहाल BAP दिलीप कुमार की तस्वीर पर काम कर रहा है। वहीं का स्टूडियो गुरुदत्त की पेटिंग से गुलज़ार है। जरूरत है कि ऐसे प्रयासों की गति तेज़ करने की।  मुंबई के रईस कलाकारों का फ़र्ज़ बनता है की वो इस मुहिम में अहम भूमिका निभायें ।

दीवार पर टिका दीवार का हीरो
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रविवार, 23 अगस्त 2015

चलिए देखते हैं सागर के बीच बने सिधुदुर्ग के इस 'किल्ले' को ! Sindhudurg Fort.. Malvan

कुछ ही दिनों पहले आपको कोंकण के समुद्रतटों की यात्रा पर मालवण ले गया था। मालवण के डांडी समुद्र तट से सिंधुदुर्ग मोटरबोट से दस पन्द्रह मिनट की दूरी पर है। दूर से सिंधुदुर्ग का किला राजस्थान के किसी किले सा दिखाई देता है। चार किमी तक टेढ़ी मेढ़ी फैली इसकी परिधि के साथ नौ मीटर ऊँची और लगभग तीन मीटर चौड़ी दीवारें इसकी अभेद्यता के दावे को मजबूत करती हैं। पर सिंधुदुर्ग  की राजस्थानी किलों से समानता यहीं खत्म भी हो जाती है। जहाँ पहाड़ियों पर स्थित राजस्थानी किले दूर से ही अपनी मजबूत दीवारों के साथ ऊँचाई पर बने भव्य महलों का दर्शन कराते हैं वहीं इस जलदुर्ग की दीवारों के पीछे नारियल वृक्षों की कतारों के आलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता।


इतना ही नहीं एक और खास बात है सिंधुदुर्ग में जो इसे अन्य किसी राजस्थानी किले से अलग करती है। वो ये कि एकदम पास जाने पर भी आप इसके मुख्य द्वार की स्थिति का पता नहीं लगा पाते।



गुरुवार, 30 जुलाई 2015

मालवण तट के दस बेहतरीन नज़ारे.. In pictures : Beaches of Konkan : Dandi , Malvan

कोंकण के समुद्र तटों की इस यात्रा में आप देख चुके हैं कुनकेश्वर, चिवला और तारकर्ली के समुद्र तट। इस श्रंखला की इस कड़ी में आज बारी है मालवण के समुद्र तट की जिसे डांडी का समुद्र तट भी कहा जाता है। मालवण के समुद्र तट पर आए बिना आप यहाँ के प्रसिद्ध समुद्री किले सिंधुदुर्ग तक नहीं पहुँच सकते। मतलब ये कि सिंधुदुर्ग का प्रवेश द्वार मालवण की ही जेटी है।


जैसा आप नीचे के मानचित्र में देख सकते हैं डांडी यानि मालवण का ये समुद्र तट चिवला और तारकर्ली के बीचो बीच में है। इस नक़्शे को देख आप ये समझ सकते हैं कि डांडी के आलावा तारकर्ली से भी सिंधुदुर्ग क्यूँ दिखाई दे रहा था?


अन्य समुद्र तटों की अपेक्षा आप मालवण के तट पर हमेशा चहल पहल पाएँगे। पर ये चहलपहल तट के साथ लगी मछुआरों की बस्ती की वज़ह से ज्यादा हैं। इस तट पर लहरें नहीं उठती सो यहाँ नहाने का आनंद तो आप नहीं उठा सकते मगर प्राकृतिक सुंदरता के मामले में ये तट किसी से पीछे नहीं है।


मालवण की अपनी एक संस्कृति है। इस संस्कृति का अभिन्न अंग है यहाँ की बोली (जो कि कोंकणी और मराठी का मिश्रण है) और भोजन। मालवण की मछली, चावल और नारियल से सजी मालवणी थाली नांसाहारियों को तो खूब पसंद आएगी। डांडी के तट पर नारियल के पेड़ों की सघनता और ढेर सारी मछुआरों की नावों से भोजन के इन अवयवों को स्रोत तो सहज ही मिल जाता है।

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

कोंकण के नयनाभिराम समुद्र तट : चिवला व तारकर्ली Beaches of Konkan : Chivla and Tarkarli !

कोंकण के समुद्र तटों की यात्रा में गणपतिपुले और कुनकेश्वर की यात्रा के बाद आज चलिए इस तट के सबसे खूबसूरत समुद्र तट चिवला व तारकर्ली की चित्रात्मक झाँकी पर। मालवण से दस किमी की दूरी के अंदर ही ये दोनों समुद्र तट स्थित हैं जहाँ चिवला का तट मालवण तट  के उत्तर में हैं वहीं तारकर्ली इसके दक्षिण में है।दोनों ही तट अपनी  नैसर्गिक खूबसूरती से आपका सहज ही ध्यान आकर्षित कर लेते हैं। जब हम चिवला के तट पर पहुँचे तो वहाँ दूर दूर तक सन्नाटा था। तट के किनारे कुछ नावें लगी थीं। उनके पीछे नारियल के पेड़ों का विशाल झुरमुट था।


चिवला की खूबसूरती कई कारणों से है। एक तो यहाँ गहरा नीला समुद्र का जल और दूसरी यहाँ की मुलायम सफेद स्याह रेत ।


 फिर यहाँ का लंबा समुद्र तट और उसके किनारे नारियल  के पंक्तिबद्ध पेड़ भी मन को मोहते हैं। पर इस तट पर जो लहरें आती हैं वो ज्यादा ऊँची नहीं उठती सो यहाँ तैरना तो हो जाता है पर उछलती लहरों द्वारा आपको आगोश में लिये जाने का डर नहीं रहता।