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मंगलवार, 13 मई 2014

खूबसूरती का पर्याय खुरपा ताल, नैनीताल In pictures : Khurpa Tal, Nainital !

दिल्ली से नैनीताल जाने के कई रास्ते हैं। दिल्ली गाज़ियाबाद मुरादाबाद तक तो सारे रास्ते एक से रहते हैं पर उसके बाद या तो आप रामपुर - रुद्रपुर - हलद्वानी - काठगोदाम होते हुए नैनीताल पहुँचिए या रामपुर से पहले ही बाजपुर की ओर जानेवाले दो विकल्पों में से एक को चुनते हुए कालाडूंगी से नैनीताल पहुँच जाइए। हमें जब दिल्ली से नैनीताल जाना था रुद्रपुर में दो समुदाय के बीच कुछ तनाव चल रहा था। सो एक लंबे रास्ते से होते हुए हम काशीपुर से बाजपुर पहुँचे थे। 

पर इस रास्ते की सबसे बड़ी खूबी ये है कि जब आप कालाडूंगी से नैनीताल की ऊँचाई तक बढ़ते हैं तो सीधी चढ़ाई होने की वज़ह से घुमावदार रास्तों से तो आप बचते ही हैं , साथ ही पूरे रास्ते भर नयनाभिराम दृश्य आपका मन मोहते रहते हैं। इसी रास्ते पर बढ़ते हुए जब हम नैनीताल से दस किमी पहले समुद्र तल से 1635 मीटर ऊँचाई पर स्थित खुरपा ताल पहुँचे तो इसके आस पास के दृश्यों को देखकर मेरा रोम रोम खिल उठा। आज के इस फोटो फीचर में मैं आपको दिखाऊँगा कि क्यूँ लगा मुझे छोटा सा खुरपा ताल इतना सुंदर ?

An isolated house surrounded with abundant greenery
बताइए तो एक शहरी जीव को अचानक उठाकर इस घर में रख दिया जाए तो क्या उसका जी नहीं हरिया उठेगा? :)
Pine Forests in all their glory
चीड़ के इन वृक्षों के बीच आप चाहे जितना वक़्त बिताएँ आपका मन नहीं भरेगा।:) हम जब खुरपा ताल के पास पहुँचे तो हल्की बारिश हो चुकी थी और झील के किनारे बने मकानों के पीछे की धुंध धीरे धीरे छँट रही थी।

First glimpse of Khurpa Taal

सोमवार, 5 मई 2014

भटकना बिनसर के जंगलों में और दर्शन नंदा देवी का ! Forests of Binsar and Nanda Devi !

बिनसर में भी हम वन विश्राम गृह में ही ठहरे थे। वहाँ खाने पीने की कोई व्यवस्था नहीं थी इसीलिए बिनसर पहुँचते ही हमने कुमाऊँ मंडल विकास निगम (KMVN) के गेस्ट हाउस में खाना खाया और चल पड़े अपने विश्राम गृह की दिशा में। इस रेस्ट हाउस  (Forest Rest House) में ज्यादा कमरे नहीं हैं। पर पहले तो उन्हें कमरा कहना उचित नहीं होगा। समझ लीजिए कि अंग्रेजों के ज़माने में बने बँगलों को ही दो तीन हिस्सों में बाँट दिया गया हो। बड़े बड़े ऊँची छतों वाले कमरे, विशालकाय डाइनिंग कक्ष, ढेर सारे दरवाज़े जो चारों ओर से घिरे बारामदे में खुलते हों। बारामदों से कुछ मीटर के फासले पर ही पहाड़ की ढलान जिसमें जाती दुबली पतली पगडंडियों को चारों ओर फैला जंगल मानो अपने में आत्मसात कर लेता था। 


घड़ी की सुइयाँ पौने तीन बजा रही थीं। हमें बताया गया था कि विश्राम गृह से सूर्यास्त का मंज़र देखते ही बनता है। पर उस मंज़र को देखने से पहले हमें हिमालय की चोटियों को बिनसर से देख लेने की जल्दी थी। वैसे KMVN विश्राम गृह भी हिमालय को निहारने के लिए अच्छा स्थल है पर वहाँ से दिन में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा था। किसी ने बताया कि पास ही में ज़ीरो प्वाइंट (Zero Point) है जिसका रास्ता जंगलों के बीच से जाता है। हमारे गेस्ट हाउस से उसकी दूरी करीब ढाई किमी की थी। करीब तीन बजे हम चहलकदमी करते हुए ज़ीरो प्वाइंट की ओर बढ़े।


इस स्थल तक पहुंचने के लिए जो रास्ता बना है वो जंगलों के ठीक बीच से जाता है। बिनसर में बने विश्राम गृह काफी ऊँचाई पर बने हैं। इसका अंदाज़ा इसी बात से हो जाता है कि जैसे ही आपकी गाड़ी बिनसर अभ्यारण्य के मुख्य द्वार से घुसती है, काफी दूर तक चीड़ के जंगल आपको साथ मिलते हैं। पर दो किमी के बाद जैसे ही चढ़ाई आरंभ होती है नज़ारा बदलने लगता है। पाँच छः किमी के बाद चीड़ की जगह ओक के पेड़ ले लेते हैं। 14 किमी चलने के बाद बिनसर के विश्रामगृह तक पहुँचते पहुँचते समुद्रतल से ये ऊँचाई करीब 2400 मीटर की हो जाती है। यही वज़ह थी कि बिनसर की इन ऊँचाइयों पर हमें भांति भांति के पेड़ दिखे जिन्हें पहचानना कम से कम मेरे लिए मुश्किल था।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

कैसा दिखता है कौसानी से त्रिशूल ? ( Trishul and Kumaon Himalayan Peaks)

कौसानी में बिताई उस आख़िरी सुबह का इंतज़ार हमारे समूह को बेसब्री से था। पहली सुबह तो वर्षा और धुंध ने काम बिगाड़ दिया था। दूसरे दिन जिस तरह आसमान खुला था उससे ये जरूर लग रहा था कि नई सुबह हमारे लिए कुछ विशेष लाएगी। सुबह पाँच बजे से ही मैं इनर, जैकेट और मफलर बाँध कर वन विश्राम गृह के उस हिस्से पर पहुँच चुका था जहाँ से कुमाऊँ हिमालय की पर्वतश्रंखलाओं  की दिखने की उम्मीद थी। वन विभाग ने इस विश्राम गृह में एक अच्छा काम ये किया है कि अहाते में ही पत्थर के चौकौर स्तंभ पर वहाँ से दिखने वाली सारी चोटियों की दिशा और दूरी अंकित कर दी है जिससे कि चोटियों को पहचानने में काफी सहूलियत हो जाती है। आपको याद होगा कि जब मैंने कानाताल से गढ़वाल हिमालय के दर्शन कराए थे तो चोटियों को पहचानने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।

सुबह के साढ़े पाँच बजे दूर क्षितिज के एक कोने से आकाश हल्की नारंगी रंग की आभा से श्नैः श्नैः प्रकाशमान होने लगा था। एकदम दाहिनी ओर से चोटियों दिखाई देनी शुरु हुई। सबसे पहले हमें पाँच चोटियों के समूह पंचाचुली के दर्शन हुए। कौसानी से ये चोटियाँ आकाशीय मार्ग से करीब अस्सी किमी की दूरी पर हैं। वैसे पंचाचुली की भव्य चोटियों को नजदीक से देखना हो तो पूर्वी कुमाऊँ में स्थित मुनस्यारी तक आपको जाना पड़ेगा। पंचाचुली की इन चोटियों की ऊँचाई 6334 मी से लेकर 6904 मीटर तक है।

 कौसानी की वो खूबसूरत सुबह

पंचाचुली से पश्चिम की ओर बढ़ें तो सबसे पहले नंदा कोट और फिर नंदा देवी की चोटियाँ दिखाई देती हैं। नंदा देवी तो जैसा कि आपको मालूम ही है कंचनजंघा के बाद भारत की सबसे ऊँची चोटी है। दूर से देखने पर ऊँचाई का तो पता नहीं चलता पर सूर्योदय के समय जो शिखर सबसे पहले चमकता है उसी से उसकी ऊँचाई का भान होता है।



नंदा देवी के पश्चिम में मृगधूनी की चोटियाँ हैं। घड़ी में अब छः बजने वाले थे और आसमान की नारंगी रंगत पहले से ज्यादा खिल उठी थी। पंचाचुली की चोटियाँ कैमरे के जूम लेंस की बदौलत और पास आ चुकी थीं।

पंचाचुली के पाँच शिखर (Five Peaks of Panchachuli)


शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

सुमित्रानंदन पंत वीथिका और कौसानी की वो हसीन शाम ! Sumitranandan Pant Gallary Kausani

अक्सर पर्यटक कौसानी आने पर अनासक्ति आश्रम तो देखते हैं पर इस माटी में पैदा हुए विख्यात कवि के पैतृक निवास तक नहीं पहुँच पाते। गाँधी जी तो कौसानी कुछ दिनों के लिए आए थे पर छायावाद के प्रखर स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत का कौसानी में ना केवल जन्मस्थान है अपितु उनकी कई रचनाओं का उद्गम स्रोत भी। पंत जी का जन्म 20 मई 1900 को इस खूबसूरत कस्बे में हुआ था। उनके पिता गंगा दत्त पंत यहाँ के चाय बागान के व्यवस्थापक थे। बालक पंत की आरंभिक शिक्षा कौसानी में ही हुई थी।

सुमित्रानंदन पंत के बचपन की तसवीरें (Childhood photographs of Sumitranandan Pant)

कवि पंत का प्रारंभिक नाम गुसाई दत्त था। पंत ने 1911 ई में अल्मोड़ा के गवर्नमेंट हाईस्कूल में प्रवेश किया, जहाँ उन्होंने भगवान राम के भाई लक्ष्मण को आदर्श मानते हुए अपना नाम 'सुमित्रानंदन' रख लिया। पंत बचपन में सात वर्ष की आयु से ही काव्य रचना करने लगे थे। ऊँचे कद, तीखे नाक नक्श और लंबे बालों वाले पंत का शुमार हिंदी के रूपवान कवियों में होना चाहिए। पंत वो पहले कवि थे जिन्हें अपनी कृति चिदम्बरा के लिए 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया।

आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक युवा कवि पंत

बैद्यनाथ के मंदिरों, चाय बागान और हस्तकरघा केंद्र से लौटते लौटते दिन के ढाई बज चुके थे। दिन का भोजन कर हम करीब चार बजे कौसानी के मुख्य बाजार में पहुँचे। स्थानीयों से पूछने पर पता चला कि पास की गली से ही एक रास्ता कवि पंत के घर को जाता है। पाँच मिनट तक गली में चलने के बाद एक चबूतरे पर पंत की छोटी सी प्रतिमा दिखाई दी पर उनके घर का पता अब भी नहीं चल रहा था। फिर पूछना पड़ा। पता चला सामने वाला जो घर दिखाई दे रहा है वो उन्हीं का है। घर के ऊपर साइनबोर्ड ना देख कर मुझे आश्चर्य हुआ। खुले दरवाज़े से अहाते में दाखिल हुआ तो ज़मीन पर रखा ये बोर्ड नज़र आया।

फर्श पर पड़ा साइनबोर्ड

पंत के घर पर अब कोई नहीं रहता। वैसे भी इसे वीथिका में तब्दील कर ही दिया गया है पर इसके अधिकांश कमरे अब खाली है। अंदर के कमरे से निकल कर हम इस हाल तक पहुँचे। दीवारों पर रंग रोगन हुए लगता था कई साल बीत गए हैं। हॉल में ढेर सारी अलमारियाँ है और उनके अंदर पंत का विशाल पुस्तक संग्रह। इसमें उनकी, उनके समकालीनों और अन्य लेखकों की किताबें हैं। अलमारी के ऊपर बड़े बड़े फोटो फ्रेम में पंत और उनके मित्रों की तसवीरें हैं। अलमारी के ऊपर समाचार पत्र बिछाकर इन चित्रों को कतार में रख दिया गया है।

 पंत वीथिका का मुख्य हॉल (Main Hall , Sumitranandan Pant Gallary)

हॉल के एक कोने में लकड़ी की चौखट के पास एक मेज,चादर और अटैची रखी गई है। आप सब इस बात से इत्तिफाक रखेंगे कि ये वैसी ही अटैची है जिसे आज से तीन दशक पहले इस्तेमाल किया जाता रहा है। तब तक भारत के पहले प्रचलित सूटकेस VIP का आविर्भाव नहीं हुआ था।

सुमित्रानंदन पंत की अटैची व मेज़
इस गैलरी का केयरटेकर जो हमारे आहाते में प्रवेश करने के बाद  बगल से दौड़ता हुआ आया था, हमें बताता है कि इसी मेज़ पर पंत बैठ कर काव्य रचना करते थे। तसवीरें तो कई सारी थीं पर मेरी नज़र उनमें से एक पर जाकर ठिठकी।

 पंत और बच्चन हिंदी काव्य संसार के दो कर्णधार

इस तसवीर में पंत साहब के साथ हरिवंश राय बच्चन तो हैं ही, पर साथ में पीछे दायीं ओर आप अमिताभ बच्चन को भी खड़ा पाएँगे। दीवारों पर जगह जगह पंत की कविताओं की चार चार पंक्तियाँ बोर्ड की शक्ल में टाँग दी गई हैं।


पंत की इस वीथिका में इस बात का उल्लेख है कि कवि ने ऊपर की पंक्तियाँ क्यों लिखीं ? दरअसल सांस्कृतिक साहित्यिक चेतना से उन्होंने केशवर्धन की प्रतिज्ञा ली थी। कौसानी से प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद वो अल्मोड़ा चले गए। अल्मोड़े की घाटी की सुंदरता पर उनकी कलम भी चली जब उन्होंने लिखा..

लो चित सुलभ सी पंख खोल
उड़ने को है कुसुमित घाटी
यह है अल्मोड़े का बसंत

क्या कौसानी की इन सुंदर छटाओं से आप कवि की कल्पना को साकार नहीं पाते हैं? सुमित्रानंदन पंत की एक और कविता (जिसका उल्लेख इस वीथिका यानि गैलरी में भी है) का जिक्र करना चाहूँगा क्यूँकि वो मेरी भी परमप्रिय है। कविता कवि अपनी प्रियतमा से कहता है कि प्रकृति की इस अनुपम छटा के बीच रहते हुए मैं कैसे तुम्हारे सौंदर्य जाल में बँध कर इस संसार को भूल जाऊँ ? पंत की इस कविता की शुरु की पंक्तियों के लिए मुझे ये चित्र उपयुक्त लगा जो मैंने वीथिका से निकलने के बाद कौसानी की सड़कों पर चहलकदमी करते हुए खींचा था।

छोड़ द्रुमों* की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!(द्रुम : पेड़ों का समूह) 
कोयल का वह कोमल बोल, मधुकर की वीणा अनमोल
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से, कैसे भर लूँ सजनी श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
बहरहाल मुझे ऐसा लगा कि इतने महान साहित्यकार की वीथिका का रखरखाव इससे बेहतर ढंग से होना चाहिए। मुझे अपनी जापान की यात्रा याद आ गई जब वहाँ के नगर कोकुरा में हम ये देख कर आश्चर्यचकित रह गए थे कि वहाँ एक पूरा चमचमाता संग्रहालय पूरी तरह एक साहित्यकार को समर्पित था।

कौसानी की वो शाम हमने ऊपर ऊँचाई पर जाती घुमावदार सड़कों पर टहलने में बिताई। इस दुबले पतले रास्ते में एक ओर हरे भरे चीड़ के जंगल हैं तो दूसरी ओर खूबसूरत घाटी जिस पर ढलते सूरज की किरणों ने कब्जा जमा रखा था। अपने समूह से अलग होकर कुछ देर एकांत में मैं इस दृश्य को अपलक देखता रहा फिर लगा कि क्यूँ ना इसी रास्ते पर आगे बढ़ा जाए? चलते चलते मैं उस दोराहे पर पहुँच गया जिसका एक सिरा कौसानी के मिलट्री स्टेशन और दूसरा यहाँ के राज्य अतिथि गृह की ओर जाता है। वैसे तो मुझे अकेले ही और आगे तक विचरने का मन था पर तेजी से पसरते अँधेरे की वज़ह से मन मसोस कर मैं वापस चल पड़ा।

कौसानी सैन्य स्टेशन की ओर जाती सड़क (Road to Kausani Military Station)

उस दिन बारिश नहीं हुई थी इसलिए उम्मीद थी  कि अगली सुबह कौसानी छोड़ने से पहले भगवन शायद हमें हिमालय पर्वत श्रंखला का नज़ारा दिखा दें। क्या ये संभव हो सका जानेंगे इस श्रंखला की अगली कड़ी में...अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

गोमती तट पर खड़ा बैजनाथ मंदिर ( Baijnath Temple Uttarakhand )

चीड़ के जंगलों में विचरने के बाद कौसानी का हमारा अगला पड़ा बैजनाथ के मंदिर थे। बैजनाथ के ये मंदिर कौसानी बागेश्वर मार्ग पर कौसानी से 16 किमी दूरी पर स्थित हैं। दोपहर को जब हम कौसानी से चले तो धूप खिली हुई थी। कौन कह सकता था कि सुबह की इतनी गहरी धुंध दिन तक ऐसा रूप ले लेगी?  कौसानी से बैजनाथ पहुँचने के ठीक पहले गरुड़ (Garud) नाम का कस्बा आता है जो इस इलाके का मुख्य बाजार है। इस मंदिर के ठीक बगल से यहाँ गोमती नदी बहती है। पर कोसी की तरह ही ये वो गोमती नहीं है जो आपको लखनऊ में दिखाई देती हैं।

मुख्य सड़क से मंदिर की ओर जाता गलियारा कुछ दूर तक इस नदी के समानांतर चलता है। एक ओर फूलों की क्यारियाँ और दूसरी ओर बैजनाथ  कस्बे का परिदृश्य मन को मोहता है। गलियारे को पार कर ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बैजनाथ के मंदिर समूह के प्रथम दर्शन होते हैं। एक नज़र में पत्थर से बने छोटे बड़े इन मंदिरों का बाहरी शिल्प एक सा नज़र आता है। 



बुधवार, 2 अप्रैल 2014

चीड़ के पेड़ों के साथ कौसानी की धुंध भरी सुबह ! (Pine Forest & Kausani)

दिल्ली की सैर तो आपने कुतुब मीनार और हुमायूँ के खूबसूरत मकबरे के दर्शन से कुछ हद तक कर ली। मार्च के प्रथम हफ्ते में भी दिल्ली जाना हुआ था और इस बार दिन भर के कामों से थोड़ी फुर्सत मिली तो मित्रों की वज़ह से पुराने किले के अद्भुत लाइट एंड साउंड शो को देखने का अवसर भी मिला पर वो वाक़या फिर कभी। वैसे भी गर्मियों ने पूरे भारत में अपनी हल्की हल्की दस्तक देनी शुरु कर दी है तो क्यूँ ना आजआप को एक ठंडी पर बेहद खूबसूरत जगह ले चला जाए।

जी हाँ आज मैं ले चल रहा हूँ उत्तराखंड के एक छोटे व बेहद शांत पर्वतीय स्थल कौसानी की ओर। याद है एक बार आपसे उत्तराखंड की कोसी नदी की कहानी साझा करते वक़्त आपको नैनीताल से अल्मौड़ा और फिर सोमेश्वर तक की यात्रा करवाई थी।

सोमेश्वर से कौसानी तक पहुँचते पहुँचते हल्की बूँदा बाँदी शुरु हो गई थी। कस्बे के मुख्य भाग में जब हम पहुँचे तो एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। किराने की दुकानों में इक्का दुक्का आदमी दिख रहे थे। दो तीन छोटे जलपानगृह नज़र आए पर पर्यटकों की कमी के कारण उन्होंने अपनी दुकानें पहले से ही बंद कर रखी थीं। आधे घंटे की खोजबीन के बाद थोड़ी चढ़ाई पर हमें ढंग का रेस्ट्राँ मिल सका।

बाद में पता चला कि कौसानी कस्बे के दो हिस्से हैं ऊपरी हिस्से में अनाशक्ति आश्रम और होटल हैं जबकि निचले  इलाके में कस्बे का मुख्य बाजार है। जलपान करने के बाद शाम के साढ़े पाँच बज चुके थे। हमने सोचा गेस्ट हाउस में जाने के पहले एक चक्कर यहाँ के मशहूर अनासक्ति आश्रम का लगा लिया जाए। अनासक्ति आश्रम तक पहुँचते पहुँचते बारिश फिर शुरु हो गई थी। शाम के छः बजे थे और हल्का हल्का अँधेरा आश्रम की शांति को और प्रगाढ़ कर रहा था। आश्रम के मुख्य हॉल में गाँधी जी के कौसानी प्रवास से जुड़ी तसवीरें लगी हुई हैं। महात्मा गाँधी कौसानी के अनासक्ति आश्रम में आए और यहीं रह कर उन्होंने गीता के श्लोकों का सरल अनुवाद करके ‘अनासक्ति योग’ का नाम दिया। बाद में उनके विचारों का संकलन पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। कुछ ही देर में वहाँ भजन का कार्यक्रम शुरु हो गया। थोड़ा वक़्त बिताने के बाद हम वापस अपने गेस्ट हाउस चले आए।

लोग कौसानी मुख्यतः हिमालय पर्वत श्रंख्ला का नयनाभिराम नज़ारा देखने आते हैं। अल्मोड़ा से मात्र 52 किमी उत्तरपश्चिम में समुद्रतल से 1890 मी ऊँचाई पर स्थित है। एक ओर सोमेश्वर तो दूसरी ओर गरुड़, बैजनाथ कत्यूरी घाटियों के बीच बसे इस रमणीक कस्बे से आप हिमालय पर्वतमाला की नंदा देवी, माउंट त्रिशूल, नंदाकोट, नीलकंठ आदि चोटियों का विहंगम दृश्य देख सकते हैं। कौसानी जाने के लिए अक्टूबर का महीना हमारे समूह ने इसीलिए चुना भी था।

रविवार, 23 जून 2013

उत्तराखंड की इस त्रासदी से क्या कुछ सीख लेंगे हम? ( The man made tragedy of Uttarakhand !)

पिछली कुछ प्रविष्टियों में उत्तराखंड के कुमाऊँ इलाके के बारे में मैंने लिखना शुरु ही किया था कि उत्तराखंड में ये भीषण त्रासदी घटित हो गई।  रुड़की में अपने छात्र जीवन के दो साल बिताने के बावज़ूद मैं कभी केदारनाथ या बद्रीनाथ नहीं गया। मेरी व्यक्तिगत धारणा है कि ईश्वर अगर हैं तो हर जगह हैं और अगर आप किसी भी कोने में मन में कोई कलुषित भाव लाए बिना उनकी भक्ति करेंगे तो उनका आशीर्वाद हमेशा आपके साथ रहेगा। आज तक सिर्फ वैसे मंदिरों में ही मैंने अपना चित्त स्थिर और भक्तिमय पाया है जहाँ ईश्वर और मेरे बीच किसी तरह का कोलाहल ना हो और शायद इसी वज़ह से उत्तराखंड की पिछली कुछ यात्राओं में सिर्फ घूमने के ख्याल से इन धामों में जाना मुझे कभी उचित नहीं लगा।


कुछ सालों पहले जब उत्तरी सिक्कम में भूकंप आया था तो मन बेहद व्यथित हुआ था क्यूंकि वहाँ जाने के बाद मैं समझ सकता था कि उन निर्जन स्थानों में रहने वाले लोग अगर किसी आपदा में फँस जाएँ तो उन तक समय रहते पहुँचना किसी भी मानवीय शक्ति के लिए कितना दुसाध्य है। आज उत्तराखंड के निवासी और तीर्थयात्री भी अपने आप को उसी स्थिति में फँसा पा रहे हैं। ऐसे हालातों में हमारी सरकारें जैसा काम करने के लिए जानी जाती हैं, उत्तराखंड सरकार ने बस उसी पर फिर से मुहर लगाई है या यूँ कहें कि उससे भी बदतर उदाहरण पेश किया है। आज फँसे हुए लोगों और उनके नाते रिश्तेदारों में जो रोष है वो अकारण नहीं हैं। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखते हुए एक यात्री और भारत के आम नागरिक की हैसियत से बहुत सारी बातें मन को कचोट रही हैं जिसे मैंने यहाँ अपने शब्द देने की कोशिश की है।



सरकार के पास साधन सीमित हैं। चलिए मान लिया। अगर ऐसी परिस्थितियों में वो इतनी विशाल संख्या में फँसे तीर्थयात्रियों को बुनियादी सुविधाएँ को मुहैया कराने की व्यवस्था नहीं कर सकती है तो फिर इतने पर्यावरण संवेदनशील इलाके में भारी संख्या में भक्तों को जाने की अनुमति कैसे दे सकती है? बरसात के दिनों में विगत कुछ वर्षों में पहाड़ी क्षेत्रों में बादल फटने की घटना हमेशा होती रहीं हैं। सर्वविदित है कि पहाड़ी क्षेत्रों में संपर्क और आवागमन की सुविधाएँ मौसम की ऐसी कठोर मार से कभी भी छिन्न भिन्न हो सकती हैं। ये भी स्पष्ट है कि जब भी ऐसा होगा खराब मौसम की वजह से उन्हें दुरुस्त करने में समय लगेगा। ऐसी हालत में इन यात्राओं के दौरान रास्ते में पड़ने वाले कस्बों गाँवों में पहले से स्थानीय आपदा केंद्रों की स्थापना और उसमें पीने के पानी, बिस्किट या क्षय ना होने वाली भोजन सामग्री रखने की बात क्यूँ नहीं सोची गई ?

गुरुवार, 20 जून 2013

आओ यारों तुम्हे सुनाएँ एक कहानी कोसी की ! (Story of River Kosi, Uttarakhand)

कोसी का नाम सुनते ही उस नदी का ख्याल आ जाता है जिसे बिहार का शोक माना जाता है। नेपाल से बहकर बिहार में आने वाली ये नदी बारिश के मौसम में अपनी राहें बदल बदल कर आबादी के बड़े हिस्से के लिए तबाही बन कर आती रही है। इसलिए मुझे खासा आश्चर्य तब हुआ जब भोवाली से अल्मोड़ा और फिर कौसानी जाते हुए साथ साथ बहती नदी का नाम भी किसी ने कोसी बताया। 

वैसे नदियों के बगल बगल सड़क पर साथ चलने कै मौके बहुत मिले हैं। सिलीगुड़ी से गंगतोक तक साथ साथ इठलाती, बलखाती तीस्ता हो या फिर कुलु से मनाली के रास्ते में अपनी खूबसूरती से मन मोहने वाली व्यास, ये नदियाँ पूरी राह को यादगार बना देती हैं। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के पट्टी बोरारू पल्ला (Patti Borarau Palla) के प्राकृतिक झरनों से निकलने वाली कोसी, तीस्ता और व्यास जैसी वृहद तो नहीं पर ये पतली दुबली नदी संकीर्ण घाटियों के घुमावदार रास्तों के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए एक यात्री को कई खूबसूरत मंज़र जरूर दिखा देती है।



गुरुवार, 13 जून 2013

आइए आपकी मुलाकात कराएँ गरमपानी के इस विशालकाय मेढक से ! (Meet the large frog of Garampani, Nainital !)

गत वर्ष नैनीताल से अल्मौड़ा के घुमावदार रास्ते में जब इस जगह के साइनबोर्ड के साथ बगल में बहती कोसी नदी का प्रवाह सुनाई दिया तो गाड़ी रुकवाए बिना रहा नहीं गया। नाम था गरमपानी। गरम पानी भी किसी जगह का नाम हो सकता है ये मेरी सोच के परे था। बाद में पता चला कि ऐसा ही एक गरमपानी हिमाचल में भी हैजो कि गाड़ी से शिमला से दो घंटे की दूरी पर है। इस जगह का नाम वैसे तत्तापानी है। पंजाबी में तत्ता का मतलब गरम से लिया जाता है। इसके आलावा असम के कार्बी एंगलांग जिले में गोलाघाट के पास गरमपानी नाम का एक अभ्यारण्य भी है। पर मैं जिस गरमपानी की बात कर रहा हूँ वो नैनीताल से करीबन तीस किमी की दूरी पर है और नैनीताल से रानीखेत (Ranikhet) या अल्मोड़ा (Almora) के रास्ते में भोवाली (Bhowali)  और कैंची धाम (Kainchi Dham) पार करने के बाद आता है।

नदी पर एक छोटा सा पुल बना था। पुल पर चढ़ते ही एक अजीब सी चट्टान नदी के ठीक बीचो बीच विराज़मान दिखाई दी। तत्काल मुझे इस छोटे से कस्बे गरमपानी की लोकप्रियता का राज समझ आ गया। दरअसल वो चट्टान एक विशालकाय मेढ़क का आकार लिए हुई थी। रही सही कसर ग्राम सभा सिल्टूनी वालों ने चट्टान में सफेद रंग की आँख बना कर, कर दी थी ताकि इस चट्टानी मेढक को ना देख पाने की भूल कोई ना कर सके।



सोमवार, 24 दिसंबर 2012

टिहरी बाँध : इंजीनियरिंग कार्यकुशलता का अद्भुत नमूना ! (Tehri Dam : An engineering Marvel !)

अगर आपके समक्ष ये प्रश्न करूँ कि टिहरी (Tehri) किस लिए मशहूर है तो शायद दो बातें एक साथ आपके मन में उभरें। एक तो सुंदरलाल बहुगुणा का टिहरी बाँध (Tehri Dam) के खिलाफ़ संघर्ष तो दूसरी ओर कुछ साल पहले बाँध बन जाने के बाद पूरे टिहरी शहर का जलमग्न हो जाना।

टिहरी एक ऐसा शहर था जो अब इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया है। आज उसकी छाती पर भारत का सबसे विशाल बाँध खड़ा है। पर जिसने वो शहर नहीं देखा हो वो क्या उन बाशिंदों का दर्द समझ पाएगा जिन्हें वहाँ से विस्थापित होना पड़ा। एक नवआंगुतक तो टिहरी बाँध पर आकर देशी इंजीनियरिंग कार्यकुशलता की इस अद्भुत मिसाल देखकर दंग रह जाता है। 260.5 मीटर ऊँचे इस भव्य बाँध को पास से देखना अपने आप में एक अनुभव हैं। इससे पहले मैं आपको हीराकुड बाँध  (Hirakud Dam) पर ले जा चुका हूँ पर तकनीकी दृष्टि से  2400 MW बिजली और तीन लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा बड़े इलाके को सिंचित करने वाली ये परियोजना अपेक्षाकृत वृहत और आधुनिक है। पर अगर ये परियोजना इतनी लाभदायक है तो फिर इसका विरोध क्यूँ?



दरअसल बड़े बाँधों के निर्माण में पर्यावरणविदों और इंजीनियरों में शुरु से ही वैचारिक मतभेद रहे हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि हिमालय प्लेट से जुड़े क्षेत्रों में इतने विशाल बाँध बनाना भूकंप को न्योता दे कर बुलाने के समान है। वही इंजीनियर ये कहते हैं कि उन्होंने बाँध का निर्माण इस तरह किया है कि रेक्टर स्केल पर 8.4 तक के जबरदस्त भूकंप के आने पर भी बाँध का बाल भी बाँका  नहीं होगा। जापान के इंजीनियर भी अपने परमाणु संयंत्र के लिए यही कहा करते थे पर सुनामी के बाद हुई फ्यूकीशीमा की दुर्घटना ने वहाँ की जनता का विश्वास अपने  संयंत्रों से ऐसा बैठा कि आज वहाँ के  सारे परमाणु संयंत्र ही  बंद हैं। भगवान करे कि मेरे साथी इंजीनियरों का दावा सच निकले और गंगोत्री और यमुनोत्री को अपनी गोद में समाए इस पवित्र इलाके में विकास की ये बगिया फलती फूलती रहे।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

कानाताल की वो खूबसूरत सुबह !


कानाताल में हमारा कमरा पश्चिम दिशा की ओर खुलता था। इसलिए हमारी हर सुबह की शुरुआत होती थी चंद्र देव के दर्शन से। पर्वतों पर फैलती सूर्य किरणों की लालिमा हमारे चंदा को संकेत कर देती थीं कि अब तुम्हारी रुखसती का वक़्त आ गया है और चंदा जी भी इशारा समझ धीरे धीरे नीचे खिसकना शुरु कर देते।


अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में पूर्णिमा पास ही पड़ी थी इसलिए चाँद अपनी पूर्णता के साथ हमें रिझा रहा था। हम भी सुबह की ठंड की परवाह किए बिना बॉलकोनी में खड़े होकर चंद्रमा के इस अद्भुत रूप को निहारा करते थे।  



सोमवार, 3 दिसंबर 2012

आइए चलें गढ़वाल हिमालय की गंगोत्री समूह की चोटियों की सैर पर!

कानाताल में बिताया गया तीसरा दिन सुबह से ही काफी व्यस्त रहा। सवा तीन किमी की मार्निंग वॉक और नाश्ते को निबटाने के बाद हम टिहरी बाँध (Tehri Dam) गए और फिर वहाँ से लौटकर दोपहर में धनौल्टी (Dhanaulti) होते हुए मसूरी के लिए निकल गए।  कानाताल, टिहरी और फिर धनौल्टी जाते समय हमें गढ़वाल हिमालय की अलग अलग चोटियों के दर्शन हुए। इसमें वो चोटी भी शामिल थी जिसे पहचानने के लिए एक प्रश्न आपसे मैंने पिछली पोस्ट में पूछा था। जैसा कि आपको पिछली पोस्ट में बताया था कि मैंने इन चोटियों का नाम पता करने के लिए नेट पर उपलब्ध नक़्शों और चित्रों की मदद ली। दो तीन रातों की मेहनत से मैं अपने कैमरे द्वारा खींचे अधिकांश चित्रों में दिख रही चोटियों को पहचान सका। सच पूछिए तो जैसे जैसे ये अबूझ पहेली परत दर परत खुल रही थी, मन आनंदित हुए बिना नहीं रह पा रहा था।  तो चलिए आज की पोस्ट में आपको ले चलता हूँ गढ़वाल हिमालय  की गंगोत्री समूह की चोटियों के अवलोकन पर ।

कानाताल (Kanatal) के क्लब महिंद्रा रिसार्ट के ठीक सामने जंगल के बीच से जाता ट्रेकिंग मार्ग है। जैसे ही आप जंगलों के बीच चलना शुरु करते हैं लंबे वृक्षों के बीच से गढ़वाल हिमालय की चोटियाँ दिखने लगती हैं। पर घने जंगलों की वजह से आपको क़ैमरे में क़ैद करने के लिए करीब सवा किमी तक चलना पड़ता है। इस जगह पर सामने कोई वृक्ष नहीं हैं। कानाताल से सबसे पहले जिस पर्वत चोटी का दीदार होता है उसका नाम है बंदरपूँछ ! वैसे लोग कहते हैं कि बंदर की पूँछ के आकार का होने के कारण इसका ये नाम पड़ा।  मुझे तो इस चोटी के ऊपरी स्वरूप को देखकर ऐसा नहीं लगा पर वो कहते हैं ना कि सही पहचान करने के लिए वो नज़र होनी चाहिए जो शायद विधाता ने मुझे नहीं बख्शी।:)
 तीन चोटियों के ऊपर गर्व से आसन जमाए बैठी बंदरपूँछ की जुड़वाँ चोटियाँ

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

चित्र पहेली 21 : क्या आप हिमालय प्रेमी हैं? तो फिर पहचानिए इस चोटी को !

हिल स्टेशन तो हम सभी कभी ना कभी जाते ही रहते हैं। किसी भी पर्वतीय स्थल में जाइए वहाँ आपको देखने की जगहों की सूची में भांति भांति के View Points जरूर मिल जाते हैं। कम ऊँचाई वाली जगहों में अक्सर इन विशेष बिंदुओं से उस जगह का सूर्योदय (Sunrise Point) या सूर्यास्त (Sunset Point) देखा जा सकता है। 

पर ज्यादा ऊँचाई वाले पर्वतीय स्थलों में हमारी रुचि सूर्योदय या सूर्यास्त देखने के आलावा हिमआच्छादित पर्वतीय शिखरों को देखने की भी होती है। और अगर आपकी जानकारी इतनी हो कि आप बर्फ से ढकी इन चोटियों को देख कर ही पहचान लें तो बात ही क्या ! वैसे हिमालय पर्वत श्रृंखला से सबसे करीबी सामना तो उत्तरी सिक्किम की ओर जाते वक़्त हुआ था। पर पर्वतीय चोटियों को पहचानने का चस्का पिछले साल कौसानी जाने पर हुआ। इसलिए पिछले महिने जब Blogger's Conference के सिलसिले में   मसूरी के निकट कानाताल गया तो इस बार भी ये कोशिश जारी रही। कानाताल (Kanatal) और फिर टिहरी ( Tihri) जाते वक़्त चोटियाँ तो खूब दिखीं पर उनके नाम जानने में ज्यादा सफलता हाथ नहीं लगी। कई बार तो स्थानीय लोगों ने एक ही चोटी के अलग अलग नाम बता कर और संशय में डाल दिया।

ख़ैर मैंने चित्र खूब खींचे और वापस लौटकर नेट पर छानबीन की तो एक एक कर सारे खींचे चित्रों में दिख रहे पर्वत शिखरों के नाम के पीछे से पर्दा उठता गया। 

गढ़वाल हिमालय की इन खूबसूरत चोटियों के बारे में तो अगली पोस्ट में आप सबको विस्तार से बताऊँगा पर यदि आप अपने आप को हिमालय प्रेमी मानते हों तो ज़रा ये तो बताइए कि नीचे दिख रहे तीखी ढाल और घुमावदार आकार वाले शिखर का नाम क्या है ? विस्तार से उत्तर जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।


मुसाफिर हूँ यारों हिंदी का एक यात्रा ब्लॉग

बुधवार, 21 नवंबर 2012

Unconference @ Kanatal : कानाताल में बिताया वो अविस्मरणीय दूसरा दिन !

पहले दिन की यात्रा के बाद थकान काफी हो गई थी। अगली सुबह जल्दी उठने का मन नहीं होते हुए भी हिमालय पर्वत श्रृंखला की चोटियों पर पड़ती धूप की पहली किरणों को देखने की उत्सुकता ने हमें छः बजे ही जगा दिया था। मेरे रूम पार्टनर दीपक  भी तैयार थे इस सुबह की सैर के लिए। सो करीब साढ़े छः बजे हम अपने रिसार्ट से बाहर आ गए। सड़क की दूसरी तरफ़ ही एक ट्रैकिंग मार्ग था। हम तेज कदमों से उस पर चल पड़े। थोड़ी दूर चलने के बाद ही पेड़ की झुरमुटों से हिमालय पर्वत श्रृंखला दिखने लगी। 



पर ये क्या ! कैमरे को चालू करते ही उसमें मेमोरी कार्ड एरर (Memory Card Error) दिखने लगा।। रात तक अच्छा भला कैमरा सुबह जल्दी उठाने पर एक बच्चे की तरह नाराज़ हो गया था। मेरे चेहरे पर चिंता की लकीरें देख कर दीपक ने कार्ड को निकाल कर फिर से कैमरा चालू करने की सलाह दी। पर कार्ड किसी भी तरह मानने को तैयार ही नहीं था। नतीजन जॉली ग्रांट से लेकर शाम और फिर रात के कानाताल की तसवीरें कार्ड में ही दफ़न हो गयीं। बेवकूफी ये की थी कि अतिरिक्त कार्ड ले कर भी नहीं चला था। मायूस मन से मैं चुपचाप दीपक के साथ हो लिया। पगडंडी के एक ओर चीड़ और देवदार के वृक्षों से भरा पूरा घना जंगल था।

कभी कभी इनके बीच से बर्फ से ढकी चोटियों की झलक मिल जाती थी। पर एक किमी तक चलने के बाद भी पर्वतश्रृंखला का अबाधित दृश्य हम नहीं देख पा रहे थे। Unconference के लिए तैयार भी होना था इसलिए अगली सुबह फिर इसी मार्ग पर दूर तक जाने का निश्चय कर हम वापस लौट चले।


शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

Conclay @ Kanatal : साथी यात्रा ब्लागरों के साथ बिताया वो खुशनुमा पहला दिन !

पिछली बार सिक्किम में ट्रैवेल ब्लॉगर कांफ्रेस में ना जाने का अफ़सोस था पर जापान की यात्रा ऐसे अवसर पर आ गई थी कि मेरे पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं बचा था। पर अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में जब CLAY की ओर से दूसरी बार ऐसी ही एक कांफ्रेस में शामिल होने की गुजारिश की गई तो मेरे मुँह से पहले ना ही निकला क्यूँकि जिन तिथियों पर CONCLAY का आयोजन हो रहा था उस अंतराल में मैं पहले ही दक्षिण महाराष्ट्र के लिए अपना सपरिवार घूमने का कार्यक्रम बना चुका था। 29 को मुंबई से राँची वापसी की टिकट भी हो चुकी थी। पर अचानक ही ये ख्याल आया कि दक्षिण महाराष्ट्र की यात्रा तो 26 रात तक  खत्म हो रही है। बाकी दिन तो रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलने के लिए रखे थे। अगर श्रीमतीजी को वापस अकेले लौटने को तैयार कर लिया जाए और क्लब महिंद्रा वाले मुंबई से मुझे पिक अप कर लें तो कानाताल जाना संभव हो सकता है।


जब मैंने घुमक्कड़ ब्लॉगरों की इस कांफ्रेंस के बारे में पत्नी को बताया तो वो अनिच्छा से ही सही राजी हो गयीं। क्लब महिंद्रा वाले मेरे मुंबई से यात्रा करने के लिए पहले ही हामी भर चुके थे। गणपतिपूले, सिंधुदुर्ग, कोल्हापुर, पुणे होते हुए हम 26 अक्टूबर की आधी रात को मुंबई से करीब अपने अड्डे अंबरनाथ पहुँचे। मेल चेक करने पर पता लगा कि मुझे अपने साथियों से 28 की सुबह पाँच बजे मुंबई हवाई अड्डे पर मिलना है। पाँच बजे का मतलब था कि अंबरनाथ से रात तीन बजे ही निकल चलूँ। अब जहाँ छुट्टियों के लिए भाई बहनों के सारे परिवार एक जगह वर्षों बाद इकठ्ठा हों वहाँ रात के बारह एक बजे से पहले कहाँ सोना हो पाता है। रात डेढ़ बजे से एक घंटे के लिए बस आँखें भर बंद कीं। नींद ना आनी थी, ना आई। करीब सवा तीन बजे मैं सबसे विदा ले कर घर से निकल पड़ा। यूँ तो अंबरनाथ (जो कि कल्याण से लगभग दस किमी दूर है) से मुंबई हवाईअड्डे का सफ़र आम तौर पर ट्रैफिक की वज़ह से दो ढाई घंटे में पूरा होता है पर सुबह का वक़्त होने की वज़ह से मैं सवा घंटे में ही पहुँच गया। बीच में अँधेरी में सड़क किनारे गाड़ी रुकवा चाय की चुस्कियाँ भी लीं। सुबह के साढ़े चार बजे जब हवाई अड्डे पर पहुँचा तो वहाँ कोई जाना पहचाना चेहरा दिख नहीं रहा था। वैसे भी मुंबई से जिन चार लोगों को जाना था उनमें से किसी से पहले मैं मिला भी नहीं था। पर ये जरूर था कि अपनी मुखपुस्तिका यानि फेसबुक की बदौलत इनमें से कुछ की शक़्लों का खाका दिमाग में था।