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सोमवार, 1 अगस्त 2016

आइए ले चलें आपको मुखौटों के इस संसार में.. Mask Garden, Eco Park, Kolkata

मुखौटों की दुनिया बड़ी विचित्र है। आदि काल से मनुष्य मुखौटों का प्रयोग कर रहा है अपने को बाकी मनुष्यों से अलग दिखाने के लिए। वैसे तो खुदाई में नौ हजार वर्ष पूर्व के भी मुखौटे मिले हैं पर विशेषज्ञों का मानना है कि इनसे कहीं पहले इनका प्रयोग शुरु हो चुका था। पर आज मैं आपसे मुखौटों की बातें क्यूँ कर रहा हूँ। उसकी वज़ह ये है जनाब कि मैं आपको आज एक ऐसे उद्यान में ले चल रहा हूँ जिसका नाम ही Mask Garden है और ये स्थित है कोलकाता के राजरहाट इलाके में नए बने इको पार्क में। यूँ तो लगभग पाँच सौ एकड़ में फैले इस उद्यान में देखने को बहुत कुछ है पर मुखौटों का ये संसार इस पार्क को अन्य उद्यानों की तुलना में खास बना देता है।


तो सबसे पहले आपको लिए चलते हैं अफ्रीका। अफ्रीकी जनजातियों के धार्मिक अनुष्ठानों और पारिवारिक समारोहों में मुखौटों का प्रचलन पुरातन काल से आम रहा है।ऐसे माना जाता रहा कि एक बार मुखौटों को पहन लेने के बाद मनुष्य अपनी पहचान खो कर उस आत्मा का रूप धारण कर लेता है जिसके प्रतीक के तौर पर मुखौटे का निर्माण किया गया है। समाज में मुखौटे बनाने वालों और विशेष अवसर पर उन्हें पहनने वालों को सम्मान  की नज़रों से देखा जाता था । मुखौटे बनाने का काम भी पीढ़ी दर पीढ़ी एक परिवार के लोगों को ही दिया जाता था। यानि मुखौटे इन परलौकिक शक्तियों से संपर्क के सूत्र का काम निभाते थे।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

डायमंड हार्बर क्या एक बंदरगाह है? Diamond Harbour, Kolkata

डायमंड हार्बर.... बचपन में भूगोल की कक्षा में पहली बार इस जगह का नाम सुना था और तबसे आज तक मैं यही सोचता था कि कोलकाता का मुख्य बंदरगाह यही होगा। हीरा तो वैसे भी अनमोल होता है सो डायमंड हार्बर बाल मन से अपने प्रति उत्सुकता जगाता रहा। पर पिछले तीन दशकों में दर्जनों बार कोलकाता गया पर डायमंड हार्बर चाह कर भी नहीं जा पाया। जाता भी तो कैसे भीड़ भाड़ वाले कोलकाता में पचास किमी का सफ़र दो से तीन घंटे से पहले कहाँ खत्म होने वाला है और इतना समय होता नहीं था। सो विक्टोरिया मेमोरियल, बेलूर मठ, दक्षिणेश्वर, बोटानिकल गार्डन, साइंस सिटी, निको पार्क जैसी जगहों के चक्कर तो लग गए पर डायमंड हार्बर, डायमंड नेकलेस की तरह पहुँच से दूर ही रह गया। डायमंड हार्बर के बारे में जो गलतफहमी मैंने बचपन से पाल रखी थी वो तब दूर हुई जब डेढ़ महीने पहले यानि पिछले दिसंबर में मैं वहाँ पहुँचा। 

Diamond Harbour  डायमंड हार्बर,

आज की तारीख़ में डायमंड हार्बर में कोई बंदरगाह नहीं है। ये जरूर है कि कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट कई दिनों से यहाँ जेटी बनाने की सोच रहा है। फिर डायमंड हार्बर है क्या? दरअसल कोलकाता से दक्षिण पश्चिम बहती हुगली नदी इसी के पास दक्षिण की ओर घुमाव लेती हुई बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। एक ज़माने में ये देश विदेश से होने वाले व्यापार का केंद्र था क्यूँकि यहीं से कोलकाता के बाजारों तक पहुँचा जा सकता था। आज तो यहाँ बस एक रिवर फ्रंट और टूटा हुआ किला ही है।


बॉलीगंज से टालीगंज होते हुए जब हमने डायमंड हार्बर रोड की राह थामी तब घड़ी की सुइयाँ दस बजा रही थीं। छुट्टी का दिन था फिर भी सड़क पर ट्राफिक कम नहीं था। वैसे भी राष्ट्रीय राजमार्ग 117 से जाने वाला ये रास्ता चौड़ा नहीं है। दोपहर बारह बजे जब हम डायमंड हार्बर पहुँचे तो आसमान को स्याह बादलों ने घेर रखा था।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

आइए ले चलें आपको कोलकाता के भव्य स्वामीनारायण मंदिर में ! Swaminarayan Temple, Kolkata

स्वामीनारायण सत्संग एक ऐसी धार्मिक संस्था है जिसने दुनिया के कोने कोने अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, केन्या,, तंजानिया, सेशल्स, मारीशस, फिजी या यूँ कह लें कि संसार की वो सारी जगहें जहाँ भारतीय आ कर बसे हैं में अपने मंदिरों का निर्माण किया है। । भारत में स्वामीनारायण संप्रदाय के सबसे ज्यादा मंदिर गुजरात में हैं। सबसे पहली बार किसी स्वामीनारायण मंदिर को देखने का मौका मुझे पन्द्रह साल पहले गाँधीनगर के अक्षरधाम को देख कर मिला था। क्या भव्य मंदिर था वो। तकनीक व सुंदरता का अद्भुत समन्वय। मुख्य मंदिर पहुँचने के रास्ते में स्वामीनारायण सम्प्रदाय के बारे में आडियो विसुअल शो का प्रस्तुतिकरण बड़ा प्रभावी लगा था तब।

BAPS Swaminarayan Temple, Kolkata स्वामीनारायण का भव्य मंदिर , कोलकाता
पिछले दिसंबर में कोलकाता जाना हुआ तो योजना बनी कि डॉयमंड हार्बर चला जाए। डायमंड हार्बर कोलकाता के  मुख्य शहर से करीब 50 किमी दूर है और स्वामीनारायण का ये मंदिर  इसके ठीक बीचो बीच पड़ता है। यानि आप डायमंड हार्बर जाते या लौटते हुए इस मंदिर को देख सकते हैं।


डायमंड हार्बर से चार बजे लौटकर जब हम वहाँ पहुँचे तो सूर्य बादलों के पीछे छुप चुका था। दिसंबर का आख़िरी सप्ताह होने के कारण परिसर में सैलानी अच्छी खासी संख्या में मौज़ूद थे। मुख्य मार्ग से अंदर घुसते हुए मंदिर के दोनों ओर जाने के गलियारे बने हुए हैं। स्तंभों और गुम्बदनुमा छतरियों से सुस्ज्जित इन गलियारों पर चलकर आप बाहर बाहर मंदिर की परिक्रमा कर सकते हैं। पर उस दिन इन गलियारों की ओर जाते रास्ते को मंदिर प्रबंधन ने बंद कर रखा था।



गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडाल : भाग 4 Durga Puja Pandals of Kolkata, Suruchi Sangha, 66 Palli : Concluding Part

आज नवरात्र का पर्व दशहरे के साथ समाप्त हो रहा है और मैं आपके सम्मुख हूँ कोलकाता के पूजा पंडाल परिक्रमा की इस आख़िरी कड़ी को लेकर। आज आपको ले चलूँगा दक्षिणी कोलकाता के उन दो पूजा पंडालों में जो हर साल अपनी अद्भुत थीम के चुनाव और निरूपण के लिए सुर्खियाँ बटोरते रहते हैं। ये पंडाल हैं न्यू अलीपुर में स्थित सुरुचि संघ और रासबिहारी गुरुद्वारे के करीब का 66 पल्ली। 


सुरुचि संघ इससे पहले 2003, 2009 व 2011 में कोलकाता के सर्वश्रेष्ठ पूजा पंडाल का ख़िताब जीत चुका है। पिछले साल इस पंडाल की थीम का केंद्र था छत्तीसगढ़। वहाँ की नक्सल समस्या को ध्यान में रखते हुए पंडाल के ठीक सामने एक काल्पनिक वृक्ष बनाया गया था । वृक्ष के ऊपरी हिस्से में राज्य में हो रही हिंसा व अशांति का चित्रण था जबकि नीचे शंति का संदेश देते हुए स्थानीय वाद्यों को लेकर नाचते गाते लोग दिखाए गए थे। भीड़ इतनी ज्यादा थी की चित्र लेने के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी।


पंडाल की शक़्ल एक आक्टोपस सरीखी थी। पर ध्यान से देखने पर लगा कि जिसे हम आक्टोपस की भुजा समझ रहे हैं वो तुरही के समान जनजातीय वाद्य यंत्र है। पंडाल की दीवारों पर वैसे चित्र अंकित किए गए थे जैसे पुरा काल में आदिवासी कला चट्टानों पर अंकित की जाती थी।



मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडाल : भाग 3 Durga Puja Pandals of Kolkata, Bose Pukur, Kumartuli, Talbagan, Bagh Bazar: Part III

बांग्ला में पुकुर का मतलब होता है पोखरा और आप तो जानते ही हैं कि बंगाल में आदि काल से हर गाँव और कस्बे में पोखर का होना अनिवार्य सा रहा है। यही वज़ह है कि वहाँ कस्बे और मोहल्लों के नाम तालाबों पर रखे गए हैं। दक्षिणी कोलकाता में गरियाहाट से सटा इलाका है कस्बा का और यहीं से बोस पुकुर सड़क होकर गुजरती है। इस इलाके की दुर्गा पूजा अपनी नई सोच और कलात्मकता के लिए पूरे कोलकाता में प्रसिद्ध है। आज आपको उत्तरी कोलकाता में ले जाने के पहले इसी इलाके के दो खूबसूरत पंडालों से रूबरू करवाना चाहता हूँ। पहले चलते हैं तालबागान जहाँ पिछले साल दुर्गा माँ तक पहुँचने के लिए आपको कमल के फूलों की पंखुडियों के बीच से जाना था. 


 रंग बिरंगी पंखुडियों के बीच आसीन माँ  दुर्गा...



रविवार, 18 अक्टूबर 2015

कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडाल : भाग 2 Durga Puja Pandals of Kolkata, West Bengal : Part II

दक्षिणी कोलकाता के गरियाहाट के आस पास के पंडालों को तो हम कोलकाता में बिताई पहली शाम को ही देख चुके थे। दूसरे दिन की शुरुआत हमने जोधपुर पार्क से की। गरियाहाट और जादवपुर के बीच पड़ने वाला ये इलाका दुर्गा पूजा की दृष्टि से हर साल चर्चा में रहता है। पिछले साल यहाँ पंडाल को तो प्राचीन मंदिर की शक़्ल दी गई थी पर काग़ज़ पर माँ दुर्गा की छवि 3D प्रिंटर से निकाल पंडाल में लगाई गई थी एक अलग से अनुभव को जगाने के लिए। 

Ancient temple depicted at Jodhpur Park
दूर से दिखते खंभो और उनके बीच की कलाकृतियों को देखकर तो यही लगता था कि सचमुच हम किसी पुरातन ऐतिहासिक मंदिर के करीब आ गए हैं। माता का 3D निरूपण तो अपनी जगह था पर पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से जानकर अच्छा लगा  कि ये सारे चित्र काग़ज़ पर उतारे गए हैं।

Goddess Durga in 3D

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडाल : भाग 1 Durga Puja Pandals of Kolkata, West Bengal : Part I

जिस तरह गणेश चतुर्थी का पर्व बड़े धूमधाम से भारत के पश्चिमी राज्यों में मनाया जाता है उसी तरह दुर्गा पूजा पूर्वी भारत में। पटना, राँची, कटक की पूजा देखने के बाद सिर्फ कोलकाता की पूजा देखने की हसरत रह गई थी मुझे। हर बार लोग वहाँ की भीड़ और उमस की बात कर मेरा उत्साह ठंडा कर दिया करते थे। पर पिछले साल अक्टूबर के महीने में उत्तर पूर्व की ओर निकलने के पहले मैंने कोलकाता में रुकने का कार्यक्रम बनाया। भीड़ से बचने के लिए पंचमी, षष्ठी व सप्तमी के दिन पंडालों के चक्कर लगाए और कुल मिलाकर मेरा अनुभव शानदार रहा। अब जबकि इस साल की दुर्गा पूजा पास आ रही है तो मैंने सोचा कि क्यूँ ना आपको कोलकाता के पूजा पंडालों की सैर करा दूँ ताकि आप ये समझ सकें कि क्यूँ होना चाहिए किसी को कोलकाता में दुर्गा पूजा के वक़्त?
 
मिट्टी के रंग में रँगी माता दुर्गा  Goddess Durga in her gray avtaar

कोलकाता में हर साल हजारों की संख्या में पंडाल बनते हैं। सारे तो आप देख नहीं सकते पर कुछ विशिष्ट पूजा पंडाल आप छोड़ भी नहीं सकते। कोलकाता जैसे महानगर में पूजा पंडालों का चक्कर लगाने का मतलब है कि एक दिन के लिए उसका कोई एक इलाका निर्धारित कर लें। मोटे तौर पर कोलकाता की पूजा के तीन मुख्य इलाके हैं उत्तरी कोलकाता, दक्षिणी कोलकाता और मध्य कोलकाता। अपने कोलकाता प्रवास के समय मैं वहाँ के बिड़ला मंदिर के पास ठहरा था तो मैंने अपनी पंडाल यात्रा दक्षिणी कोलकाता से शुरु की।

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

डगर थाइलैंड की भाग 1 : सफ़र राँची से बैंकाक का ! How to plan your trip to Thailand ?

पिछले हफ्ते आपसे वादा था थाइलैंड की पिछले अक्टूबर में की गई यात्रा का विवरण आपके सम्मुख लाने का। ये यात्रा भले ही अक्टूबर के पहले हफ्ते में शुरु हुई थी पर तैयारियाँ हमने अगस्त से ही शुरु कर दी थीं। पहले योजना श्रीलंका जाने की थी और हमारा इरादा  पैकेज टूर लेने का था पर ढेर सारे अनुसंधान के बाद हमने मध्य और दक्षिणी श्रीलंका में जाने के लिए जो जगहें चिन्हित की वो कोई पैकेज टूर वाला ले जाने को तैयार नहीं हुआ वहीं पूरी तरह अपने अनुसार बनाया हुआ कार्यक्रम मँहगा सिद्ध हो रहा था। 

हम इसी उहापोह में थे कि समूह में से किसी ने सुझाव दिया कि श्रीलंका की बजाए थाइलैंड क्यूँ ना जाया जाए ? थाइलैंड की छवि को लेकर मेरे मन में संशय था कि श्रीलंका की तुलना में वहाँ चमक दमक तो ज्यादा होगी पर शायद वैसी नेसर्गिक सुंदरता ना मिले। पर जब बैंकाक और पटाया को केंद्र ना बना के फुकेट के आस पास के तटीय इलाकों की टोह लेने की बात हुई तो मुझे ये प्रस्ताव जँच गया। 

दो तीन टूर आपरेटरों से बात करने के बाद लगा कि पैकेज टूर के बजाए अगर सब कुछ ख़ुद से ही किया जाए तो शायद हम अपनी मर्जी से घूम पाएँगे और पैसों की भी बचत होगी। तो सबसे पहले Air Asia से कोलकाता से बैकांक और बैकांक से फुकेत की उड़ानें बिना किसी एजेंट के मदद  लिए ख़ुद ही बुक कर लीं। चूँकि हम दुर्गा पूजा की छुट्टियों में और वो भी कोलकाता से जा रहे थे इसलिए टिकट की दरें प्रति व्यक्ति हजार से डेढ़ हजार तक ज्यादा हो गयीं थीं। वैसे इतना तो पक्का है कि अगर आपको टिकट भाड़ा कम करना है तो छुट्टियों को छोड़कर यानि कार्यालय से अवकाश लेकर यात्रा करनी होगी पर आफिस की सी एल भी तो कम मूल्यवान नहीं है। सो दोनों का संतुलन रखना बड़ा जरूरी हो जाता है।
 

हवाई टिकट आरक्षित हो जाने के बाद हम लोग कुछ हफ्ते निश्चिंतता से बैठे रहे कि अभी तो दो महीने बाकी हैं। बाद में कर लेंगे। पर दस पन्द्रह दिनों बाद जब अक्तूबर के लिए नेट पर उनके भाव को भी बढ़ता पाया तो निश्चय हुआ कि अब इस काम को भी निपटा देना है। 

विदेशों में होटल बुकिंग के लिए कुछ पोर्टल सिर्फ आपका क्रेडिट कार्ड नंबर लेते हैं। अगर आप आरक्षण को निर्धारित समय सीमा के पहले रद्द के दें तो आपका पैसा नहीं कटता पर ऐसा ना करने पर एक दिन का किराया क्रेडिट कार्ड से कट जाता है। हमने काफी छानबीन के बाद Expedia से फुकेत और Make My Trip से बैंकाक का टिकट आरक्षित कर लिया। 

होटल और हवाई टिकट तो बुक हो गया पर विदेश में भाषा का पर्याप्त ज्ञान ना होने पर असली समस्या तो वहाँ घूमने की होती है। अब हमने घूमने की जगहें तो पक्की कर ली थीं पर इंटरनेट पर मौज़ूद वहाँ की स्थानीय एजेंसियों में किसे विश्वसनीय मानें ये समझ नहीं आ रहा था। जो टिकट दरें वहाँ के जाल पृष्ठ बता रहे थे उससे कहीं कम में Make My Trip वाले quote दे रहे थे। सो मैंने आपना कार्यक्रम विस्तार से बता कर उन्हें दे दिया और उन्होंने उसी हिसाब से हमारा घूमने का इंतज़ाम भी कर दिया। छः अक्टूबर को दिन में दो बजे के करीब हमें राँची से कोलकाता रवाना होना था। 

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

उत्तरी कोलकाता के कुछ दुर्गा पूजा पंडालों की एक झलक (Some Puja Pandals of North Kolkata )

थाइलैंड की एक हफ्ते की यात्रा के बाद विजयदशमी के दिन स्वदेश लौटा और वो भी कोलकाता में। राँची जाने की ट्रेन रात में थी इसलिए उत्तरी कोलकाता के तीन चार पूजा पंडालों का चक्कर लगाने का मौका मिला। कलात्मक पंडालों के लिए मशहूर कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडालों की इस छोटी सी सैर की कुछ झलकें आप भी देखें।

काशी बोस लेन के पंडाल का आकार जल्द समझ नहीं आता। पंडाल के सामने का हिस्सा किसी फूल की उलटी पंखुड़ी जैसा दिखता है। पर घुसते सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वो है कास के फूलों से भरे हरे भरे खेत जिनसे पंडाल की चारदीवारी बनाई गई है। इस पंडाल की विशेष बात काश के फूलों का इलेक्ट्रिक सॉकेट से बनाया जाना है।

काशी बोस लेन का पंडाल (Kashi Bose Lane Puja Pandal)

पंखुड़ी रूपी छत के बीच है पंडाल में घुसने का रास्ता !

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

कोलकाता की दुर्गा पूजाः आइए देखें माता दुर्गा के ये देशज और विदेशज रूप

पिछली पोस्ट में आप से वायदा किया था कि पंडालों की सैर कराने के बाद आपको दिखाऊँगा देवी दुर्गा की प्रतिमाओं के देशज और विदेशज रूप..। कोलकाता के कारीगर पंडालों की प्रारूप चुनने में तो मशक्कत करते ही हैं पर साथ ही देवी दुर्गा को भिन्न रूपों में सजाने पर भी पूरा ध्यान देते हैं। वैसे तो मैं बिहार, झारखंड और उड़ीसा मे दुर्गा पूजा के दौरान घूम चुका हूँ पर बंगाल में देवी की प्रतिमा में सबसे भिन्न उनकी आँखों का स्वरूप होता है जिससे आप शीघ्र ही समझ जाते हैं कि ये किसी बंगाली मूर्तिकार का काम है। तो आज इस मूर्ति परिक्रमा की शुरुआत ऍसी ही एक छवि से...


और यहाँ माता हैं अपने क्रुद्ध अवतार में..

और जब भगवान शिव और माँ दुर्गा एक साथ आ जाएँ फिर महिसासुर तो क्या किसी भी तामसिक शक्तियों का नाश तो निश्चित ही है।
यहाँ माँ दुर्गे बंगाल की धरती छोड़ कर जा पहुँची है एक तमिल मंदिर में। लिहाज़ा आप देख रहे हैं उन्हें एक अलग रूप में..


माता ने यहाँ वेशभूषा धरी है एक आदिवासी महिला की..


अब कलाकारों की कल्पना देखिए ..देशी परिधानों और वेशभूषा से आगे बढ़कर यहाँ आप देख रहे हैं बर्मा के मंदिर के प्रारूप में स्थापित यह प्रतिमा.. कितनी सहजता से माता के नैन नक़्शों को बदल डाला है परिवेश के मुताबिक कलाकारों ने..

और यहाँ की सफेद मूर्तियों पर असर साफ दिख रहा है फ्रांसिसी मूर्ति कला का..

और आखिर में चलें थाइलैंड यानि एक थाई मंदिर में..

(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)

तो कोलकाता की दुर्गा पूजा के पंडालों और प्रतिमाओं की कलात्मकता को आप तक पहुँचाने की कोशिश के रूप में ये थी तीन कड़ियों की श्रृंखला की आखिरी कड़ी। आशा है आपको ये प्रयास पसंद आया होगा।

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

कोलकाता पूजा पंडालों की सैर : बिष्णुपुर की टेराकोटा कला और फिल्म निर्देशक गौतम घोष का कमाल...

पिछली पोस्ट में आपने देखा लत्तरों से बना इगलू वो भी एक पूजा पंडाल के रूप में। पर अगर दुर्गा माँ बर्फीले प्रदेशों के इगलू में विराजमान हो सकती हैं तो कुछ ऊँचाई पर लटकते बया के घोसले में क्यूँ नहीं! विश्वास नहीं हो रहा तो बादामतला (Badamtala) की इन तसवीरों पर नज़र डालिए।



इस पंडाल की साज सज्जा के पीछे हाथ है कला फिल्मों के जाने माने निर्देशक गौतम घोष का। अगर नीचे के चित्र को आप बड़ा कर के देखेंगे तो पाएँगे कि गौतम ने माँ दुर्गा को एक आदिवासी महिला का रूप दिया है जिसने बया के घोसले को अपना घर बनाया है और जिनके हर हाथ में हथियारों की जगह तरह तरह की चिड़िया हैं जो शांति का संदेश देती हैं।। पर ये घोसला जमीन पर इसलिए आ गिरा है क्यूँकि महिसासुर रूपी टिंबर माफिया ने वनों की अंधंधुंध कटाई जारी रखी है। गौतम घोष का कहना था कि ये पंडाल जंगलों के निरंतर काटे जाने से धरती के बढ़ते तापमान पर उनकी चिंता की अभिव्यक्ति है।


अगर बादामतला का ये पंडाल जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों की ओर ध्यान आकर्षित कर रहा था तो जादवपुर की पल्लीमंगल समिति का पंडाल बंगाल की ऍतिहासिक टेराकोटा ईंट कला का प्रदर्शन कर रहा था। कोलकाता से १३१ किमी दूर बिष्णुपुर में सोलहवीं और अठारहवीं शताब्दी में मल्लभूमि वंश के राजाओं के शासन काल में ये कला खूब फली फूली। आज भी बिष्णुपुर में ये खूबसूरत मंदिर मौज़ूद हैं जो बंगाल की ऍतिहासिक विरासत का अभिन्न अंग हैं।

इन पंडालों की खासियत ये है कि बांकुरा के इस मृणमई माँ के मंदिर के पूरे अहाते का माहौल देने के लिए चारों तरफ छोटे छोटे अन्य मंदिर भी बनाए गए हैं।


और चलते चलते कुछ और प्रारूपों की झलक भी देख ली जाए

ये रहा पेरिस के आपरा हाउस (Opera House)..



और ये अपना जंतर मंतर (Jantar Mantar)
यहाँ है थाई मंदिर (Thai Temple) की झलक
ये पंडाल तो किसी गैराज वाले का प्रायोजित लगता है क्यूँकि ये बना है वाहनों के कल पुर्जों से..:)


पंडाल की आंतरिक दीवारों पर की कलाकारी भी पूरा ध्यान देते हैं कोलकाता के कारीगर


और यहाँ दिख रही है लंबे लंबे दीपकों से की गई अनूठी साज सज्जा..

(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)

इतनी सैर के बाद आप थक चुके होंगे तो अब कीजिए थोड़ा आराम। इस श्रृंखला की अगली और आखिरी कड़ी में मैं आपको दिखाऊँगा देवी दुर्गा की प्रतिमाओं के देशज और विदेशज रूप..

सोमवार, 30 नवंबर 2009

कोलकाता के अद्भुत पूजा पंडाल : क्या आपने देखा है हरा भरा इगलू (Igloo) और डोकरा (Dokra) शिल्प कला

पिछली पोस्ट में आप से वादा किया था कि कोलकाता की दुर्गापूजा के कलात्मक पक्ष को सामने रखने के लिए आपको वहाँ के नयनाभिराम पंडालों की सैर कराऊँगा। इस कड़ी में आज एक ऐसे पंडाल की ओर रुख करते हैं जिसका प्रारूप झारखंड, बंगाल और उड़ीसा में रहने वाले आदिवासियों की संस्कृति पर आधारित था। कोलकाता के लेकटाऊन (Laketown) में बने इस पूजा पंडाल को इस साल के सर्वश्रेष्ठ पूजा पंडाल का पुरस्कार मिला। तो देखिए कलाकारों की इस अद्भुत कारीगिरी का एक और नमूना..

एक बार फिर अगर आप नीचे के चित्र को देखेंगे तो समझ ही नहीं पाएँगे की ये पंडाल है। बचपन में हम सभी ध्रुवीय प्रदेशों में रहने वाले एस्किमो (Eskimo) के घर इगलू (Igloo) के बारे में पढ़ा करते थे। अब इगलू की दीवारें तो खालिस बर्फ की बनी होती थीं. पर अगर बर्फ को मिट्टी और उस पर उगाई गई लत्तरों से परिवर्तित किया जाएगा तो जो नज़ारा दिखेगा वो बहुत कुछ इसी तरह का होगा।



तो इस इगलूनुमा पंडाल के भीतर ही माँ दुर्गा की प्रतिमा रखी गई थी। अब आदिवासी संस्कृति का प्रभाव मूर्ति के शिल्प में दिखाने के लिए डोकरा कला (Dhokra/Dokra Art) का इस्तेमाल किया गया । ये कला झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में काफी प्रचलित है। चलिए अब इस कला की बात हो ही रही है तो थोड़ा विस्तार से जान लीजिए कि इस कला में धातुयी शिल्प किस प्रकार बनाए जाते हैं?

सबसे पहले कठोर मिट्टी के चारों ओर मोम का ढाँचा बनाया जाता है। फिर इसके चारों ओर अधिक तापमान सहने वाली रिफ्रैक्ट्री (Refractory Material) की मुलायम परतें चढ़ाई जाती हैं। ये परतें बाहरी ढाँचे का काम करती हैं। जब ढाँचा गर्म किया जाता है तो कठोर मिट्टी और बाहरी रिफ्रैक्ट्री की परतें तो जस की तस रहती हैं पर अंदर की मोम पिघल जाती है। अब इस पिघली मोम की जगह कोई भी धातु जो लौहयुक्त ना हो (Non Ferrous Metal) जैसे पीतल पिघला कर डाली जाती है और वो ढाँचे का स्वरूप ले लेती है। तापमान और बढ़ाने पर मिट्टी और रिफ्रैक्ट्री की परतें भी निकल जाती है और धातुई शिल्प तैयार हो जाता है।



इगलू की ऊपरी छत पर लतरें भले हों पर अंदरुनी सतह पर क्या खूबसूरत चित्रकारी की गई है। इस तरह के चित्र आपको आदिवासी घरों की मिट्टी की दीवारों पर आसानी से देखने को मिल जाएँगे।


नीचे के चित्र में अपने परम्परागत हथियारों धनुष और भालों के साथ आदिवासियों को एक कतार में चलते दिखाया गया है



आदिवासी संस्कृति में गीत संगीत का बेहद महत्त्व है। इन से जुड़े हर पर्व में हाथ में हाथ बाँधे युवक युवतियाँ ताल वाद्यों की थाप पर बड़ा मोहक नृत्य पेश करते हैं. पंडाल के बाहरी प्रांगण में ये दिखाने की कोशिश की गई है।



(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)
तो कैसा लगा आपको आदिवासी संस्कृति से रूबरू कराता ये पूजा पंडाल? अगली कड़ी में ऐसी ही कुछ और झाँकियों के साथ पुनः लौटूँगा...

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

चित्र पहेली 10 : खा गए ना चकमा! जिन्हें आप सचमुच की इमारत समझ रहे थे वे थे कोलकाता के पूजा पंडाल......

इस बार की चित्र पहेली में कोलकाता के शिल्पकारों ने पाठकों को ऐसा दिग्भ्रमित किया की पहेली में दिखने वाली इमारतों को आप सभी सचमुच का मान बैठे। दरअसल इन नकली हवेलियों द्वारा शिल्पकारों ने कोलकाता के पुराने स्वरूप का चेहरा दिखाने की कोशिश की थी। मौका था इस साल की दुर्गा पूजा का ! यानि जर्जर हवेली और अंग्रेजों के ज़माने की साफ सुथरी इमारत की खासियत ये थी कि वे दोनों ही दुर्गा पूजा के पंडाल थे। विश्वास नहीं हो रहा तो चलिए मेरे साथ इन हवेलियों के अंदर...

दक्षिणी कोलकाता में जादवपुर और धाकुरिया के बीच में एक इलाका है जोधपुर पार्क (Jodhpur Park) और उसके नज़दीक ही है बाबूबागान। ये दोनों जगहें दुर्गा पूजा पंडालों के लिए जानी जाती हैं। तो सबसे पहले बात करते हैं बाबू बागान की जहाँ पर बनाया गया था प्लाइवुड और थर्मोकोल की सहायता से पुरानी जर्जर सी हवेली का ये सजीव प्रारूप।

इस दुर्गापूजा पंडाल की थीम भी बड़ी दिलचस्प थी। कलाकार रूपचंद्र कुंडू ने भगवान का रूप धारण कर कस्बों और गाँवों में घूमने वाले बहुरुपियों को ध्यान में रखकर इस प्रारूप को रचा। इमारत के अंदर पुरानी दुकानें,टूटती दीवारों पर देवी देवताओं के चित्र बनाए गए थे ताकि माहौल कुछ दशक पहले की झाँकी प्रस्तुत कर सके।

पंडाल के दोनों किनारों पर बनी सीढ़ियाँ दुर्गा पूजा पंडाल के पहले तल्ले पर ले जाती थीं जहाँ अनेक प्रकाशदीपों से सुसज्जित झाड़फानूस लगाया गया था।
और ठीक इसके सामने दुर्गा, लक्ष्मी, कार्तिक, गणेश और असुर की प्रतिमाएँ इस तरह से रची गई थीं मानों ऐसा लगे कि सामने सचमुच के बहुरुपिए खड़े हों। तो मान गए ना लोहा आप इन कारीगरों की मेहनत और अद्भुत सोच का।

(ऊपर के सभी चित्रों के छायाकार हैं मेरे सहकर्मी प्रताप कुमार गुहा)
दूसरे चित्र में अंग्रेजों के ज़माने में बनाई गई इमारत दिख रही थी। ये भी एक पूजा पंडाल था जो जोधपुर पार्क में लगाया गया था। प्लाइवुड थर्मोकोल और कार्डबोर्ड से रची इन इमारतों को इतने बेहतरीन तरीके से बनाया गया कि खिड़कियों की बनावट और वास्तुशिल्प का अध्ययन करते वक़्त आपके मन में ये ख्याल नहीं आया कि ये साज सज्जा नकली हो सकती है।

पिछली पोस्ट के चित्र में दिखाई दे रहे हवेली के सामने का बाग और मुस्तैदी से रक्षा करते पहरेदार ने आपके भ्रम को बढ़ाए रखने में मदद की। इसलिए छत के ऊपर का डिजाइन, बिल्कुल बेदाग दीवारें और चित्र के दाँयी ओर Entry का साइनबोर्ड भी आपकी नज़रों को नहीं खटका।


चित्र साभार : कुणाल गुहा

मुझे आशा थी कि कोलकाता से जुड़ा कोई व्यक्ति इस पहेली का सही उत्तर बता सकेगा। बाकी लोगों के लिए इतना अनुमान लगा लेना की हवेली नकली है काफी होता। फिर भी आप सब ने पूरी मेहनत से अपने अनुमान लगाए उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। दरअसल मेरा उद्देश्य दुर्गापूजा के पुनीत पर्व पर हर साल बनाए जाने वाले इन अद्भुत पूजा पंडालों की ओर आपका ध्यान खींचना था।
इस चिट्ठे की अगली कुछ पोस्टों में आपको मैं कोलकाता की दुर्गापूजा के कुछ और नयनाभिराम पंडालों की सैर कराऊँगा।

सोमवार, 20 जुलाई 2009

कंक्रीट के जंगलों से हरे भरे खेत खलिहानों तक : देखिए कोलकाता और राँची के आस पास का ऊपरी परिदृश्य

उत्तर भारत में भले ही मानसूनी बादल आँख मिचौली कर रहे हों पर पूर्वी भारत में सावन जोरों पर है। ऍसे ही एक बरसाती दिन में कोलकाता से राँची आने का अवसर मिला। दोनों शहर आसमान की छत से कितना भिन्न परिदृश्य उपस्थित करते हैं ये आप इन चित्रों से आसानी से समझ जाएँगे।

कोलकाता से विमान उड़ता है तो कंक्रीट के जंगलों को चीरता हुआ तुरंत हुगली नदी के ऊपर मंडराने लगता है।





बादलों के बीच से दिखता हावड़ा ब्रिज और उसके ठीक दाँयी ओर हावड़ा का स्टेशन


कुछ ही देर में हम बादलों की दुनिया में हैं। पर राँची के पास आते ही विमान धीरे धीरे अपनी ऊँचाई को कम करता नीचे आने लगता है और फिर दिखती है सर्वत्र हरियाली। जी हाँ आखिर ये झारखंड की धरती है।







पर अब तो बारिश का मौसम आ गया है तो राँची के आस पास के खेत खलिहान एक दूसरी ही छटा लिए हुए हैं।

विकास की दौड़ जंगलों को हमसे दूर करती जा रही है। पर झारखंड में राँची क्या, कहीं भी जंगलों के बीच खेतों का ये दृश्य आम तौर पर दिखाई दे जाता है।

और जब बारिश झमाझम होगी तो धान की रोपनी कहाँ दूर रह सकती है।

झारखंड अभी भी विकास के पथ से काफी दूर है। हम सभी चाहते हैं कि हमारा राज्य आगे बढ़े पर ये विकास अपने आस पास की प्रकृति को नष्ट कर नहीं पर बल्कि एक सामंजस्य बिठाकर हो तो सही अर्थों में हम सब यहाँ की सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक विशिष्टता को अक्षुण्ण रख पाएँगे।
(चित्रों को बड़ा कर देखने के लिए उन पर क्लिक करें।)