गुरुवार, 31 जनवरी 2013

'Postcards from Ladakh' एक पुस्तक जो दिखाती है लद्दाख का आईना !

मुसाफ़िर हूँ यारों पर आज आपको एक ऐसी जगह ले चल रहा हूँ जहाँ आज तक मैं नहीं जा सका हूँ पर जहाँ जाने की बड़ी इच्छा है। पर क्या बिना किसी स्थान पर गए हुए उसको महसूस करना संभव हैं? जरूर है जनाब अगर आप को किताबें पढ़ने का शौक़ हो। अब तो आप समझ ही गए होगें कि आज की ये यात्रा होगी एक पुस्तक के माध्यम से जिसे लिखा है अजय जैन ने और वो इलाका है लद्दाख का।  इससे पहले कि मैं आपको लद्दाख के सफ़र पर ले चलूँ कुछ बातें लेखक के बारे में।

मेकेनिकल इंजीनियरिंग, MBA व पत्रकारिता की डिग्री हासिल करने वाले अजय ने प्रबंधन से जुड़ी अपनी पहली किताब 2001 में लिखी। घुमक्कड़ी, फोटोग्राफी  और यात्रा लेखन का शौक़ रखने वाले अजय एक कुशल व्यवसायी भी हैं। Postcards from Ladakh अजय की तीसरी किताब है जो 2009 में प्रकाशित हुई।


अजय ने इसी साल लद्दाख के आस पास के इलाकों में अपने चौपहिया वाहन से दस हजार किमी तक की दूरी भी तय की। सच पूछिए तो Postcards from Ladakh कोई विस्तृत यात्रा वृत्तांत नहीं है। 182 पृष्ठों की इस किताब को एक यात्रा डॉयरी कहना ज्यादा उचित होगा क्यूँकि पूरी किताब अजय के छोटे छोटे उन संस्मरणों से अटी पड़ी है जिन्हें लेखक ने अपनी यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर महसूस किया। ख़ुद अजय अपनी किताब को कुछ यूँ परिभाषित करते हैं
"मैंने इस किताब को इस तरह लिखा है जैसे मैं उस स्थान से आपको कोई पोस्टकार्ड लिख रहा हूँ। इनमें ना सिर्फ मेरी अनुपम यादें हैं बल्कि वहाँ रहकर जो मैंने जाना समझा उसका सार भी है।"

शनिवार, 26 जनवरी 2013

आइए शरीर को Message करें बनारस में ! 'Message' your body from Varanasi :)

गणतंत्र बने साठ साल से ज्यादा हो गए पर अंग्रेजों की दी गई निशानी अंग्रेजी भाषा से हम भारतीयों का प्रेम सालों साल दोगुनी चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रहा है। हालत ये है कि उसे हम हर हाल में अपनाने को तैयार रहते हैं चाहे उसमें रत्ती भर की महारत ना हासिल हो। अंग्रेजी की कौन कहे हिंदी में भी आलम यही है। इसलिए आप देश के किसी भी हिस्से में जाएँ हिंदी के साइनबोर्ड और विज्ञापनों में आपको तमाम गलतियाँ मिल जाएँगी। ख़ैर मैं बात भारतीयों के अंग्रेजी प्रेम की कर रहा था। कई बार इसका नतीजा ये होता है कि अंग्रेजी के अधकचरे ज्ञान के बावज़ूद इसका प्रयोग करने की चाहत अर्थ का अनर्थ कर देती है। ऐसा ही एक प्रयोग मुझे पिछले हफ्ते बनारस में नज़र आया।

हुआ यूँ कि पिछले हफ्ते कुछ काम से बनारस का चक्कर लगा। संयोग से पहले दिन व शाम का समय खाली मिल गया तो सोचा जरा उस समय का सदुपयोग बनारस के मंदिरों और घाटों के दर्शन में बिताया जाए। दुर्गा कुंड और मानस मंदिर से आगे जाती मुख्य सड़क पर एक मंदिर दिखा जिसे अपनी पिछली बनारस व सारनाथ यात्रा में मैं नहीं देख सका था। अंदर जाकर पता चला कि इसे बनारस के राजस्थानी समुदाय द्वारा बनाए गया है और इसका नाम त्रिदेव मंदिर है।

त्रिदेव मंदिर को देखकर वापस लौट ही रहा था कि मेरी नज़र एक सैलून पर पड़ी। सैलून के मुख्य साइनबोर्ड पर उसका नाम देखकर मुस्कुराए बिना रहा नहीं जा सका। एक ज़माना था जब कबूतर पत्रवाहकों का काम करते थे । आज इस इंटरनेट के इस युग में ई मेल से संदेशों का आदान प्रदान यानि messaging आम हो गई है। पर अगर कोई संदेश के माध्यम से शरीर को ही इधर से उधर पहुँचाने की जिम्मेदारी ले तो इससे उन्नत तकनीक भला और क्या हो सकती है?  वैसे भी इहलोक से परलोक जाने के लिए लोग जन्म जन्मांतर से काशी प्रस्थान करते रहे हैं। पर कम से कम बनारसियों ने आधुनिक तकनीक से बॉडी को मैसेज करना सीख लिया है। क्या कहा यक़ीन नहीं आता। तो फिर नीचे के इन चित्रों पर गौर कीजिए




शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

पतरातू बाँध (Patratu Dam) : राँची के करीब एक रमणीक पर्यटन स्थल !

वैसे तो इस ब्लॉग पर आप मेरे साथ देश के अधिकांश राज्यों का भ्रमण कर चुके हैं । पर जैसा कि हम सभी के साथ होता है कि जहाँ हम रहते हैं उसके आस पास के इलाके अछूते रह जाते हैं। अब देखिए ना राँची में रहते हुए यूँ तो यहाँ के सारे रमणीक स्थानों को देख चुका हूँ पर आपको कभी अपने साथ नहीं  ले गया। राँची से तीस चालिस किमी की परिधि में कई झरने हैं। इनमें दशम जलप्रपात सबसे सुंदर है पर खतरनाक भी। हुंडरू और जोन्हा के झरने भी देखने लायक हैं पर हुंडरू के पास पनबिजली के उत्पादन के बाद से पानी का प्रवाह वैसा नहीं रहा। पर आज मैं आपको किसी निर्झर के दर्शन नहीं करा रहा पर ले चल रहा हूँ पिठौरिया पतरातू घाटी के रास्ते से होते हुए पतरातू बाँध (Patratu Dam) के सुंदर जलाशय में।

पतरातू  शहर मुख्यतः अपने ताप विद्युत संयंत्र के लिए जाना जाता रहा है पर जबसे पिठौरिया पतरातू घाटी की नई खूबसूरत सड़क बनी है पतरातू बाँध तक जाने का आनंद पहले से काफी अधिक हो गया है। राँची शहर से पतरातू बाँध की दूरी मात्र 35 किमी है यानि एक घंटे में आराम से आप वहाँ राँची से चल कर पहुँच सकते हैं। तो जाड़े की ऐसी ही एक सुबह अपने कार्यालय के साथियों के साथ मैं पतरातू की ओर निकल पड़ा। राँची में जाड़े की सुबह और रातें भले ठिठुराने वाली होती हों पर इस मौसम में दिन की छटा ही निराली होती है। स्वच्छ गहरा नीला आकाश सूरज की नर्म धूप के साथ अक्सर बाँहें फैलाए हर दिन हमें घर के बाहर निकलने का आमंत्रण देता है। एक बार आप शहर की सीमा से बाहर निकलते हैं और अगल बगल की  हरी भरी छटा से झारखंड (झार जंगल खंड हिस्सा) नाम सार्थक हो जाता है



पौन घंटे सीधे सपाट रास्ते पर चलने के बाद घाटी का घुमावदार रास्ता शुरु होता है। सर्प के समान घूमते इन मोड़ों से जब आप घाटी के शिखर पर पहुँचते हैं तो बड़ा ही मनमोहक नज़ारा आपके सामने होता है। सखुआ और साल के जंगलों को समेटे इस घाटी के ठीक पीछे पतरातू जलाशय की नीली जलराशि दिखाई देती है।
 

ढलान से जलाशय तक पहुँचने में दस पन्द्रह मिनट और लगते हैं।

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

Chick Chocolate मसूरी : आख़िर क्या खास है इस रेस्ट्राँ में ?

मसूरी की माल रोड पर रौशन जगमगाती दुकानों में ताक झाँक करते हम जा पहुँचे थे होटल क्लार्क के पास।  माल रोड की ऊँचाई से देहरादून की घाटी असंख्य जुगनुओं की टिमटिमाहट सदृश दिख रही थी।  पेट में चूहे नुक्कड़ पर छनती जलेबियों को देखने के बाद वैसे ही कुलबुलाने लगे थे। होटल के सामने ही सबको एक रेस्ट्राँ दिखा। नाम था चिक चॉकलेट (Chick Chocolate)! सबने सोचा कि क्यूँ ना चॉकलेट के साथ एक एक कप कॉफी हो जाए।



रेस्ट्राँ में घुसते ही पिज्जा, बर्गर और हॉट डॉग  के बोर्ड के साथ मेनू चार्ट पेपर पर लिखे मिले। चॉकलेट के साथ चिकेन रेसपी देख कर ऐसा लगा मानो इसीलिए इस रेस्ट्राँ का नाम ऐसा है। पर इस नाम के पीछे एक और अनसुलझी कहानी छिपी होगी तब क्या जानते थे। ख़ैर वो कहानी तो इस प्रविष्टि की आख़िर में आपसे बाँटेगे ही, चलिए पहले आपको इस भोजनालय की दिलचस्प आंतरिक सज्जा की झांकी दिखला दी जाए

हमें अंदाजा नहीं था कि बाहर से आम से दिखने वाले रेस्ट्राँ की अंदर की सजावट कुछ इस तरह की होगी।


मंगलवार, 1 जनवरी 2013

क्यूँ निराश किया हमें धनौल्टी ने ?

जैसा कि इस श्रृंखला की पिछली कड़ी में आपको बताया था कानाताल में अपने प्रवास के तीसरे दिन हम लोग  टिहरी बाँध देखने के बाद वापस कानाताल लौट आए। भोजनोपरान्त हमारा काफ़िला धनोल्टी होते हुए मसूरी की ओर चल पड़ा। ये बता दूँ कि कानाताल आने के पहले हमने आसपास की जगहों में सबसे ज्यादा धनोल्टी के बारे में सुन रखा था। अतः हमारे समूह में सबसे ज्यादा उत्साह वहीं जाने के लिए था। 

दरअसल धनौल्टी (Dhanaulti) एक छोटा हिल स्टेशन है जो मसूरी के अंधाधुंध शहरीकरण की वज़ह से पर्यटकों को अब आकर्षित कर रहा है। आजकल यहाँ कई छोटे बड़े होटल खुल गए हैं और जिन लोगों को ज्यादा चलना मुश्किल हो उनके लिए शिमला के कुफरी की तरह घोड़ों की पीठ पर बैठकर जंगल भ्रमण की सुविधा यहाँ उपलब्ध है। धनौल्टी चंबा मसूरी मार्ग पर लगभग चंबा और मसूरी के लगभग मध्य में स्थित है। मसूरी से इसकी दूरी महज 24 किमी है वहीं चंबा से 29 किमी।  कानाताल से निकलते निकलते सवा तीन बज चुके थे। इसलिए हमारे पास इतना समय नहीं था कि धनौल्टी से आठ किमी पहले पड़ने वाले सुरकंडा देवी मंदिर में दर्शन कर पाते। नीचे के चित्र में आप देख सकते हैं कि पहाड़ के ऊपर बने इस मंदिर में जाने के लिए बक़ायदा सीढ़ी और रेलिंग बनी हुई है। चढ़ाई में विश्राम लेने के लिए बीच बीच में शेड भी बनाए गए हैं। 



देवी दर्शन के लिए इस इलाके में जो तीन मंदिर सबसे विख्यात हैं उनमें सुरकंडा देवी मंदिर के साथ साथ चंद्रबदनी और कुंजपुरी मंदिर का भी नाम आता है। वैसे यहाँ के लोग कहते हैं कि गंगा दशहरा के समय यहाँ एक मेला लगता है  जिसमें भक्तों की भारी भीड़ जुटती है। अगर पहले दिन हम कानायाल सही समय पर पहुँचते तो निर्धारित कार्यक्रम के तहत सबसे पहले देवी माता के ही दर्शन करते पर अब माँ को दूर से ही सलाम कर आगे बढ़ गए।

पर सबसे बड़ी निराशा हुई धनोल्टी पहुँच कर। उत्तराखंड सरकार ने वहाँ दो इको पार्क बनाए हैं। अम्बर और धारा नाम के इन दो इको पार्क में देवदार के जंगलों को संरक्षित कर यहाँ आने वाले लोगों को प्रकृति को पास से महसूस करने का मौका दिया है। पर कानाताल के जंगलों में पिछली तीन सुबहों में विचरण करने के बाद इको पार्क की हरियाली हमें कुछ खास सम्मोहित नहीं कर सकी। पार्क में लकड़ी की बल्लियों के बीच से एक रास्ता ऊपर की ओर जा रहा था।