शनिवार, 14 मई 2011

किस्से हैदराबाद से भाग 3 : जब महामंत्रियों के शौक़ से वज़ूद में आया एक अद्भुत संग्रहालय!

हैदराबाद की ये यात्रा कुली कुतुब शाह के बनाए इस शहर की मेरी दूसरी यात्रा थी। पहली बार दस साल पूर्व जब हैदराबाद गया था तो चारमीनार के अलावा गोलकुंडा किले की चढ़ाई भी की थी, एक छोटी पहाड़ी पर स्थित बिड़ला मंदिर से हुसैन सागर झील का अवलोकन भी किया था। नौका विहार से हुसैन सागर में बनी भगवान बुद्ध की प्रतिमा को भी नजदीक से जा कर देखा था। रह गया था तो बस सलारजंग म्यूजियम क्यूँकि उस दिन वो बंद था। इसलिए इस बार इस म्यूजियम के बारे में जो सुन रखा था उसे प्रत्यक्ष देखने की बड़ी तमन्ना थी।
सामान्यतः भारतीय पर्यटक संग्रहालयों में अक्सर तब जाते हैं जब घूमने के लिए कुछ और ना बचा हो और कुछ घंटों का समय उनके पास शेष हो। नतीजा होता है कि उस थोड़े समय में देखने के लिए इतनी चीजें होती हैं. कि भागा दौड़ी में उन संग्रहणीय वस्तुओं को ना देखने का आनंद रहता है ना उनसे जुड़ी ऐतिहासिक बातों को जज़्ब करने का ! मैं भी अपनी आरंभिक यात्राओं में इसी प्रवृति से ग्रसित रहा हूँ पर हाल फिल हाल की यात्राओं में मेरी कोशिश यही रही है कि उतना ही देखूँ जितने के लिए समय पर्याप्त हो।
चारमीनार भ्रमण और बाजार में थोड़ा वक़्त बिताने के बाद जब हम मूसी नदी के किनारे अवस्थित सलारजंग के संग्रहालय पहुँचे तो दिन के ढाई बज चुके थे। म्यूजियम के अंदर कैमरे ले जाने की मनाही है।
चित्र सौजन्य : सलारजंग संग्रहालय

सलारजंग संग्रहालय में कुल 38 दीर्घाएँ हैं। भूतल पर बनी भारतीय दीर्घाओं में अस्त्र शस्त्र, हाथी दाँत. रेबेका , राजा रवि वर्मा के बनाए चित्र और भित्ति चित्रों से जुड़ी दीर्घाएँ खासा आकर्षित करती हैं। वैसे भी टीपू सुल्तान और औरंगजेब जैसे शासकों के हथियारों को सामने से देखना मन को रोमांचित कर ही देता है। पर्दे के पीछे से झाँकती रेबेका की कलाकृति में महीन काम को देख दाँतो तले ऊँगली दबानी पड़ती है। निचले तल से प्रथम तल की ओर बढ़ने से पहले एक जगह भारी भीड़ को देख कदम ठिठक जाते हैं। अगल बगल खड़े दर्शकों से पूछने पर पता चलता है कि संगीतमय घड़ी में तीन बजने की प्रतीक्षा हो रही है। हम सभी सोच में पड़ जाते हैं कि एक घड़ी की संगीतमय तान सुनने के लिए इतना बवाल क्यूँ? तीन बजने के पहले इंग्लैंड से आई इस घड़ी के ऊपरी बाँए सिरे से एक खिलौनानुमा आकृति उभरती है जो तीन बार घंटे को बजा कर वापस चली जाती है। भीड़ इतनी होती है कि ठीक ठीक सब कुछ देख पाना मुश्किल होता है हालांकि घड़ी की बगल में दर्शकों की सुविधा के लिए टीवी स्क्रीन लगा दी गई है।

घड़ी के इस तमाशे को देखकर हम संग्रहालय के प्रथम तल पर पहुँचते हैं। बच्चों के लकड़ी के खिलौने,शंतरंज की बिसात, पुराने ज़माने के फर्नीचर और गलीचों को को देखने के बाद हम सुदूर पूर्व का खंड बिना देखे संग्रहालय के पश्चिमी यूरोपीय खंड की ओर बढ़ चलते हैं। यूरोपीय कला दीर्घाओं में रखी वस्तुओं को देखकर आश्चर्य से हमारी आँखे फटी रह जाती हैं। यूरोपीय शीशे, पोर्सीलीन के बर्तन, फर्नीचर, तरह तरह की घड़ियों का बेशुमार संग्रह मन मोह लेता है। मन में आता है कि सालारजंग परिवार को बेशकीमती कलाकृतियों के संग्रह का शौक लगा कैसे और इन्हें हासिल करने के लिए आखिर इतना धन उन्होंने कहाँ से कमाया होगा ?
यात्रा से लौटने के बाद इतिहास के पन्नों को टटोलता हूँ तो एक कहानी सामने आती है। सलारजंग परिवार ने निजाम की सलतनत को कई काबिल महामंत्री दिए। सलारजंग-I यानि मीर तुरब अली खाँ एक बेहतरीन प्रशासक थे। सलारजंग परिवार में कलाकृतियों के संग्रह का काम उन्हीं के समय उनके तत्कालीन निवास दीवान देवड़ी में शुरु हुआ। सलारजंग-I ने इन कलाकृतियों को स्थान देने के लिए देवड़ी में आईना खाना, बर्मा से मँगवाई टीक की लकड़ी से लक्कड़ कोठ और चीनी खाना जैसी इमारते बनवायीं। कहते हैं कि इसी दीवान देवड़ी के आईनाखाने में नक्काशीदार शीशों और खूबसूरत झाड़्फ़ानूसों के बीच फिल्म मुगले आजम के गीत जब प्यार किया तो डरना क्या की शूटिंग की गई थी।

सलारजंग-I के संग्रहण के काम को जुनूनी हद तक पहुँचाने का काम किया सलारजंग -III यानि मीर यूसुफ़ अली खाँ ने।


चित्र सौजन्य : विकीपीडिया
यूसुफ़ के प्रयासों से दीवान देवड़ी का संग्रहालय संसार का सबसे बड़ा व्यक्तिगत संग्रहालय बन गया। जहाँ तक धन कमाने की बात है तो सलारजंग परिवार निज़ाम की कृपा से चौदह सौ वर्ग मील के इलाके का मालिक था। दो लाख की रियाया के इस इलाके से प्रतिवर्ष सलारजंग परिवार को उस ज़माने में पन्द्रह लाख रुपये के राजस्व की प्राप्ति होती थी। सलारजंग परिवार ने इस धन का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपनी नियमित यूरोप यात्राओं में हजारों की संख्या में कलाकृतियाँ खरीदने में लगा दिया। आजादी के बाद सलारजंग-III का ये संग्रह ऍतिहासिक दीवान देवड़ी से अभी के सलारजंग संग्रहालय में चला आया। आज हैदराबाद में दीवान देवड़ी का सिर्फ बाहरी ढाँचा बचा है। उसके अंदर की इमारतें विपणन संस्थानों और बाजारों में तब्दील हो गई हैं जो इसके गौरवशाली इतिहास को देखते हुए प्रशासकों के प्राचीन धरोहरों के प्रति उदासीन रवैये को दर्शाता है।

सलारजंग संग्रहालय की इस यात्रा के बाद हमने शाम का कुछ समय हुसैनसागर के आस पास चक्कर काटते बिताया। हैदराबाद से सिंकदराबाद को जोड़ने वाला हुसैनसागर को इब्राहिम कुतुब शाह ने सोलहवीं शताब्दी में पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया था। आज भी हैदराबादी इसके किनारे किनारे बनी सड़कों पर वेसे ही नज़र आते हैं जैसे मेरीन ड्राइव पर मुंबईवासी ।

हैदराबाद यात्रा की अगली कड़ी में आपको ले चलेंगे आज के हैदराबाद के लोकप्रिय पर्यटन स्थल रामोजी फिल्म सिटी की सैर पर...

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मंगलवार, 3 मई 2011

किस्से हैदराबाद के भाग 2 : पुराने शहर की पहचान चारमीनार !

शादी की रस्मों और खानपान से तो हम सब ग्यारह बजे ही फ़ारिग हो लिए थे। इससे पहले की गर्मी की मार और तेज हो हम सब जल्द से जल्द चारमीनार के इलाके में पहुँच जाना चाहते थे। मैं चारमीनार पहले भी एक बार गया हूँ। कुतुबशाही शासनकाल में इसे सुल्तान मोहम्मद कुली कुतुब शाह ने पुराने शहर के मध्य में बनाया था। लिहाज़ा रेलवे स्टेशन से सात किमी दूर स्थित ऐतिहासिक इमारत तक पहुँचने के लिए आप शहर के व्यस्त इलाकों से होकर गुजरते हैं। पर प्रश्न उठता है कि आखिर कुतुबशाही सुल्तान को ये इमारत बनाने की सूझी कैसे?

इतिहासकार कहते हैं कि मोहम्मद कुली कुतुब शाह ने ही गोलकुंडा से अपनी राजधानी बदलकर हैदराबाद का शहर बसाया। दुर्भाग्यवश उनके शासनकाल के दौरान शहर में प्लेग की बीमारी फैल गई। सुल्तान ने दुआ माँगी की जल्द से जल्द उनके शहर से प्लेग का साया हटे। सुल्तान ने ये भी प्रण लिया कि जिस जगह उन्होंने ये प्रार्थना की  है उसी जगह पर दुआ कुबूल होने पर वे एक मस्जिद बनाएँगे और इस तरह पुराने शहर के मध्य में सन 1591 में चारमीनार की बुनियाद पड़ी।


चारमीनार जैसे जैसे करीब आता है मैं उसकी उन चार मीनारों और उनसे जुड़ी चार मेहराबों पर अपनी नज़रे गड़ा हुआ पाता हूँ। ग्रेनाइट व चूने से बने चौकोर खंभों के कंधों पर खड़ी 24 मीटर ऊँची मीनारें कभी हैदराबाद शहर का विहंगम दृश्य दिखाने का काम करती थीं। पर अब ये सहूलियत सिर्फ़ गणमान्य अतिथियों को ही नसीब है। पहली मुश्किल चारमीनार की तस्वीर लेने में आती है। चारमीनार के दक्षिणपूर्वी सिरे से दृश्य तो सुंदर आता है पर आप किसी भी तरह लटकते तारों से फोटोफ्रेम को निज़ात नहीं दिला सकते।



टिकट खरीद कर अब ऊपर से मंज़र देखने की उत्सुकता है। 56 मीटर ऊँची इस इमारत पर चढ़ने के लिए बनाई गई सीढियाँ संकरी हैं। बाहर खड़ा गार्ड एक निश्चित संख्या से ज्यादा होने पर नीचे से आवाजाही बंद कर देता है। जैसा कि भारत में अमूमन हर प्राचीन धरोहरों में होता है,यहाँ भी लोगों ने दीवारों के चूने को खुरच खुरच कर अपना नाम उकेरने की क़वायद ज़ारी रखी है। सामान्य पर्यटकों को सिर्फ पहले तल तक जाने की आजादी है। ये जगह कभी मदरसे के रूप में इस्तेमाल होती थी। ऊपर के तल पर मस्जिद है जिसका गुंबद आपको ऊपर वाले चित्र में दिखाई दे रहा है।



मई के महिने में दिन के वक्त भी चारमीनार पर्यटकों से ठसा पड़ा था। नीचे का दृश्य देखने के लिए  किसी तरह हमने एक खिड़की के पास जगह बनाई।पीले काले रंग के आटो , बरसातियों से ढके ठेले और खोमचे और उनसे जरूरत का सामान लेते बाशिंदों से सड़क अटी पड़ी थी। दक्षिण पूर्वी सिरे पर निज़ामिया यूनानी अस्‍पताल की पुरानी पर शानदार इमारत और ठीक उसके उलट मक्का मस्जिद का आहाता दिख रहा था।


चारमीनार की भीड़ भरे माहौल से निकलने का दिल हो रहा था तो मैं उतरकर मक्का मस्जिद की ओर चल पड़ा।


मक्का मस्जिद का निर्माण भी मोहम्मद कुली कुतुब शाह ने 1617 में ही शुरु करवाया था। पर क्या आप मानेंगे कि इस मस्जिद को बनते बनते 77 साल लग गए । इसका निर्माण पूर्ण करने का श्रेय मुगल सम्राट औरंगजेब को दिया जाता है। मक्का मस्जिद हैदराबाद की सबसे बड़ी मस्जिद है। मस्जिद के 180 फीट लंबे और 220 फीट चौड़े इस मुख्य हाल में एक साथ दस हजार लोग नमाज पढ़ सकते हैं। मस्जिद के अंदर तो पहुँच गया पर अंदर तपते फर्श पर नंगे पैर चलने की हिम्मत नहीं हुई। कबूतरों ने मस्जिद की हर मुंडेर पर अपना कब्जा जमा रखा था।


बच्चे गर्मी की परवाह किए बिना कबूतरों के साथ दौड़ भाग कर अपना मनोरंजन कर रहे थे। जब ये प्यारी बच्ची मेरे सामने से गुजरी तो खु़द बा ख़ुद केमरे का शटर दब गया।


मक्का मस्जिद से चारमीनार का एक दृश्य (पहली बार किसी कोण से बिजली के तारों से मुक्ति मिली :))



चारमीनार की कोई यात्रा इसके उत्तर पश्चिमी सिरे में फैले  लाड बाजार में घूमे हुए बिना खत्म नहीं होती खासकर तब जब आपके कुनबे में महिलाएँ भी हों। दरअसल कुछ लोग तो बाजार में खरीदारी करने के बहाने चारमीनार देख लेते हैं। पूरा बाजार तरह तरह की चूड़ियों और माणिकों की दुकानों से भरा पड़ा है। हैदराबाद तो वैसे भी मोतियों के बाजार  लिए पूरे देश में जाना जाता है और दाम के मामले में हर तरह से आपके शहर से सस्ता ही होगा।  हमारा अगला घंटा इन्हीं दुकानों में विचरते बीता।


दोपहर के बाद का हमारा अगला पड़ाव था सलारजंग म्यूजियम.. उस यात्रा का विवरण इस श्रृंखला के अगले भाग में.....

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