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बुधवार, 30 जुलाई 2008

मुसाफ़िर हूँ यारों विशेष: पचमढ़ी, मध्यप्रदेश का मेरा संकलित यात्रा वृत्तांत

14 अक्टूबर की सुबह आ चुकी थी । और हम नागपुर (Nagpur) की ओर कूच करने को तैयार थे। वहीं मेरी बहन का अभी का निवास है। दरअसल इस बार सारे परिवार को इकठ्ठा होने के लिये हमने पचमढ़ी को चुना था । नागपुर तक ट्रेन से जाना था और उसके बाद सड़क मार्ग से पचमढ़ी पहुँचना था । समय से आधे घंटे पहले हम हटिया स्टेशन पर मौजूद थे ।

 
अब यात्रा की शुरुआत एकदम सामान्य रहे तो फिर उसका मजा ही क्या है । कार की डिक्की खुलते ही इस रहस्य से पर्दाफाश हुआ कि माँ की एक अटैची तो घर ही में छूट गयी है। गाड़ी खुलने में २५ मिनट का समय शेष था और स्टेशन से वापस घर का रास्ता कार से ८-१० मिनट में तय होता है । आनन फानन में कार को वापस दौड़ाया गया । खैर गाड़ी खुलने के ७-८ मिनट पहले ही अटैची वापस लाने का मिशन सफलता पूर्वक पूरा कर लिया गया।

आगे की यात्रा पारिवारिक गपशप में आराम से कटी । दुर्ग (Durg) पहुँचते पहुँचते हमारी ट्रेन २ घंटे विलंबित हो चुकी थी। यानि ११.३० बजे रात की बजाय हम १.३० बजे पहुँचने वाले थे । गाड़ी तो खैर १.१० तक पहुँच गयी पर रात की ठंडी हवा का असर था या मेरी पिछली पोस्ट का नागपुर के ठीक २ घंटे पहले से छींकने का जो दौर चालू हुआ वो यात्रा के पहले दो दिन बदस्तूर कायम रहा । मुझे तो यही लगा कि ये सब ऊपरवाले की ही महिमा थी । भगवन को याद किया तो कानों में उनका यही स्वर गूँजता मिला कि

अरे नामाकूल मुझसे छींकने को कह रहा था ! ले अब भुगत ।

पूरी यात्रा शांति से कट जाए ये भला भारतीय रेल में संभव है । हम अलसाते हुये नीचे उतरने का उपक्रम कर ही रहे थे कि स्लीपर के अतिरिक्त डिब्बे को सामान्य डिब्बा समझ स्थानीय ग्रामीणों की फौज ने बोगी में प्रवेश करने के लिये धावा बोल दिया । अब न हम गेट से बाहर निकल पा रहे थे और ना उनका दल पूरी तरह घुसने में कामयाब हो रहा था । भाषा का भी लोचा था । खैर अंत में हमारी सम्मिलित जिह्वा शक्ति काम में आई और किसी तरह धक्का मुक्की करते हुये हम बाहर निकल पाए । खैर इस प्रकरण से एक फायदा ये रहा कि हम सब की नींद अच्छी तरह खुल गई ।

 
अगला दिन आराम करने में बीता । शाम को हम दीक्षा भूमि पहुँचे । सन १९५६ में लाखों समर्थकों के साथ डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने यहीं बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी । दीक्षा भूमि स्तूप का गुम्बद करीब १२० फीट ऊँचा और इतने ही व्यास का है । बाहर से देखने में पूरी इमारत बहुत सुंदर लगती है । अंदर के हॉल में बुद्ध की प्रतिमा के आलावा प्रदर्शनी कक्ष भी है जिसमें भगवान बुद्ध और बाबा साहेब के जीवन से जुड़ी जानकारी दी जाती है । एक बात जरूर खटकी कि इतनी भव्य इमारत के अंदर और स्तूप परिसर में साफ सफाई का उचित इंतजाम नहीं था ।

शाम ढ़लने लगी थी । पास के एक मंदिर से लौटते हुये हमें एक नई बात पता चली कि संतरे के आलावा नागपुर के समोसे भी मशहूर हैं । और तो और यहाँ तो इन की शान में पूरी दुकान का नाम भी उन्हीं पर रखा गया है , मसलन समोसेवाला, पकौड़ीवाला.. . 

खैर सबने चटपटी पीली हरी चटनी के साथ समोसों का आनंद उठाया और चल पड़े तेलांगखेड़ी झील (Telangkhedi Lake) की तरफ ।
झील तो आम झीलों की तरह ही थी पर आस पास का माहौल देख के ये जरूर समझ आ गया कि इस झील का नागपुर के लोगों के लिये वही महत्त्व है जो मुंबई वासियों के लिये मैरीन ड्राइव का ये कलकत्ता के लोगों के लिए विक्टोरिया गार्डन का । उमस काफी हो रही थी सो कुछ समय बिता, इस लाल रंगत बिखेरते फव्वारे की छवि लेकर हम वापस लौट गए ।
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नागपुर से पचमढ़ी: हिलाती डुलाती सड़क यात्रा

सुबह ९ बजे तक चलने के बजाय हम १० बजे ही निकल पाए । ८ लोगों और सामान से पैक ट्रैवेरा में मुझे पीछे ही जगह मिल पाई थी। साथ में जीजा श्री बैठे थे। मौसम साफ था । संगीत का आनंद उठाते और एक दूसरे की खिंचाई करते सफर आराम से कट रहा था । करीब ५० - ६० किमी. का सफर शायद तय हो चुका था । बीच-बीच में, रास्ते के दोनों ओर संतरे के बाग दिख जाया करते थे। अचानक विचार आया कि क्यों ना संतरे का बाग अगर सड़क के पास दिखे तो अंदर जाकर तसवीर खींची जाए। खैर वैसा बाग पास दिखा नहीं और फिर हम गपशप में मशगूल हो गए । हमारी मस्ती का आलम तब टूटा जब हमें एक जोर का झटका नीचे से लगा और पीछे की सीट में हम अपना सिर बमुश्किल बचा पाए । गाड़ी के बाहर नजर दौड़ायी तो एक तख्ती हमारी हालत पर मुस्कुराते हुये घोषणा कर रही थी

मध्य प्रदेश आपका स्वागत करता है !

अगले एक घंटे में ही मध्य प्रदेश की इन मखमली सड़कों पर चल-चल कर हमारे शरीर के सारे कल पुर्जे ढ़ीले हो चुके थे । और बचते बचाते भी जीजा श्री के माथे पर एक गूमड़ उभर आया था । अब हमें समझ आया कि उमा भारती ने क्यूँ सड़कों को मुद्दा बनाकर दिग्गी राजा की सल्तनत हिला कर रख दी थी । खैर जनता ने सरकार तो बदल दी पर सड़कों का शायद सूरत-ए-हाल वही रहा ।

सौसर (Sausar) और रामकोना(Ramkona) पार करते हुये हम करीब साढ़े तीन घंटे में करीबन १३० किमी की यात्रा पूरी कर जलपान के लिये छिंदवाड़ा (Chindwara) में रुके । रानी की रसोई ( Rani ki Rasoi) हमारी ही प्रतीक्षा कर रही थी क्योंकि हमारे सिवा वहाँ कोई दूसरा आगुंतक नहीं था । जैसा कि नाम से इंगित हो रहा है खान-पान की ये जगह छिंदवाड़ा नरेश की थी ।
भोजनालय के ठीक पीछे राजा साहब ने एक महलनुमा खूबसूरत सा मैरिज हॉल बना रखा था जिसे देख कर हम सब की तबियत खुश हो गई।


राजा की बगिया में टहलते हुये इस नागफनी के पौधे पर नजर पड़ी जो हमें पिछले तीन घंटों की शारीरिक यंत्रणा का प्रतीक लगा सो तुरन्त उसकी तसवीर ली ताकि ऍसे सफर की यादगार बनी रहे । 


छिंदवाड़ा के आगे का रास्ता अपेक्षाकृत बेहतर था यानि गढ़्ढ़े लगातार नहीं पर रह रह कर आते थै । परासिया (Prasia) से तामिया तक का रास्ता मोहक था । सतपुड़ा की पहाड़ियाँ, उठती गिरती सड़कें और पठारी भूमि पर सरसों सरीखे पीले पीले फूल लिये खेत एक अद्भुत दृश्य उपस्थित कर रहे थे। देलाखारी (Delakhari) पार करते करते सांझ ढ़ल आयी थी पर परासिया के बाद हमें उस रास्ते पर पचमढ़ी की तख्ती नहीं दिखी थी । देलाखारी के २०-२५ किमी चलने के बाद फिर जंगल शुरु हो गए पर मील का पत्थर ये उदघोषणा करने को तैयार ही नहीं था कि यही रास्ता पचमढ़ी को जाता है । या तो मटकुली (Matkuli) का नाम आता था या फिर भोपाल का। मन ही मन घबराहट बढ़ गई की हम कहीं दूसरी दिशा में तो नहीं जा रहे। सांझ के अँधेरे के साथ ये शक बढ़ता जा रहा था। पचमढ़ी के ४५ किमी पहले एक जगह एक बेहद पुराना साइनबोर्ड जब दिखा तब हमारी जान में जान आई । बलिहारी है मध्य प्रदेश पर्यटन की कि इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाओं में लगातार दो तीन हफ्तों से दो दो पन्ने के रंगीन इश्तिहार देने में कंजूसी नहीं करते पर पचमढ़ी जाने वाली इन मुख्य सड़कों में इतनी मामूली जानकारी देने में भी कोताही बरतते हैं ।


मुटकली आते ही हमारी सड़क पिपरिया पचमढ़ी मार्ग से मिल गई और। पचमढ़ी जाने का ये अंतिम ३० किमी का मार्ग पीछे के रास्तों से बिलकुल उलट था । सीधी सपाट सफेद धारियाँ युक्त सड़कें, हर एक घुमाव पर चमकीले यातायात चिन्ह और सड़क के दोनों ओर हरे भरे घने जंगल ! अब सही मायने में लग रहा था कि हम सतपुड़ा की रानी के पास जा रहे हैं।

वैसे सतपुड़ा के इन जंगलों के साथ हम दिन भर कई बार आँख मिचौनी कर चुके थे । भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ पूरे सफर में रह रह कर याद आती रही थीं

झाड़ ऊँचे और नीचे
चुप खड़े हैं आँख मींचे
घास चुप है, काश चुप है
मूक साल, पलाश चुप है
बन सके तो धँसों इनमें
धँस ना पाती हवा जिनमें
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
डूबते अनमने जंगल

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पचमढ़ी पहला दिन : दर्शन पांडव गुफा, अप्सरा विहार, गुप्त और बड़े महादेव के !पचमढ़ी (Pachmadhi) सतपुड़ा की पहाड़ियों की गोद में बसा हुआ एक हरा भरा हिल स्टेशन है। करीब १३ वर्ग किमी में फैले इस हिल स्टेशन की समुद्र तल से ऊँचाई 1067 मी है । इस जगह को ढ़ूंढ़ने का श्रेय कैप्टन जेम्स फार्सिथ को जाता है जो 1857 में अपने घुड़सवार दस्ते के साथ यहाँ के प्रियदर्शनी प्वाइन्ट (Priyadarshani Point) पर पहुँचे । जिन लोगों को पहाड़ पर चढ़ने उतरने का शौक है उनके लिये पचमढ़ी एक आदर्श पर्यटन स्थल है । यहाँ किसी भी जगह पहुँचने के लिए 200 से लेकर 500 मी तक की ढलान और फिर ऊँचाई पर चढ़ना आम बात है ।

पचमढ़ी की पहली सुबह जैसे ही हम सब नाश्ते के लिये बाहर निकले तो पाया कि सड़क के दोनों ओर हनुमान के दूत भारी संख्या में विराजमान हैं। दरअसल पिछली शाम को जहाँ चाय पीने रुके थे वहीं का एक वानर दीदी के हाथ पर कुछ भोजन मिलने की आशा में कूद बैठा था । रात में होटल वालों ने बताया था कि बंदरों ने यहाँ काफी उत्पात मचाया हुआ है और टी.वी. पर केबल अगर नहीं आ रहा तो ये उन्हीं की महिमा है। सुबह जब ये फिर से दिखाई पड़े तो कल की सारी बातें याद आ गयीं सो जलपानगृह पहुंचते ही हमने अपनी शंकाओं को दूर करने के लिये सवाल दागा ।

भइया क्या यहाँ बंदर कैमरे भी छीन लेते हैं?
बीस साल बाद के लालटेन लिये चौकीदार की भांति भाव भंगिमा और स्थिर आवाज में उत्तर मिला
हाँ सर ले लेते हैं ।
पापा की जिज्ञासा और बढ़ी पूछ बैठे और ऐनक ?
हाँ साहब वो भी, अरे सर पिछले हफ्ते जो सैलानी आये थे उनके गर्मागरम आलू के पराठे भी यहीं से ले कर चलता बना था । :)

सारा समूह ये सुनकर अंदर तक सिहर गया क्योंकि उस बक्त हम सभी पराठों का ही सेवन कर रहे थे।
पचमढ़ी पूरा घूमने के बाद हमें लगा कि बन्दे ने कुछ ज्यादा ही डरा दिया था । महादेव की गुफाओं और शहर को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर ये दूत सभ्यता से पेश आते हैं ।
यहाँ पर सबसे पहले हमने रुख किया जटा शंकर की ओर । मुख्य मार्ग से यहाँ पहुँचने के लिये पर्वतों के बीच से २०० मी नीचे की ओर उतरना पड़ता है । बड़ी बड़ी चट्टानों के नीचे उनके बीच से रिसते शीतल जल पर नंगे पाँव चलना अपनी तरह का अनुभव है । प्राकृतिक रुप से गुफा में बने इस शिवलिंग की विशेषता ये है कि इसके ऊपर का चट्टानी भाग कुंडली मारे शेषनाग की तरह दिखता है ।


जटाशंकर से हम पांडव गुफा (Pandav Caves) पहुँचे । पहाड़ की चट्टानों को काटकर बनायी गई इन पाँच गुफाओं यानि मढ़ी के नाम पर इस जगह का नाम पचमढ़ी पड़ा । कहते हैं कि पाण्डव अपने १ वर्ष के अज्ञातवास के समय यहाँ आकर रहे थे । पुरातत्व विशेषज्ञ के अनुसार इन गुफाओं का निर्माण ९ -१० वीं सदी के बीच बौद्ध भिक्षुओं ने किया था । इन गुफाओं का शिल्प देखकर मुझे भुवनेश्वर के खंडगिरी (Khandgiri) की याद आ गई जो जैन शासक खारवेल के समय की हैं।


पांडव गुफाओं के ऊपर से दिखते उद्यान , आस पास की पहाड़ियाँ और जंगल एक नयनाभिराम दृश्य उपस्थित करते हैं और इस सौंदर्य को देखकर मन वाह-वाह किये बिना नहीं रह पाता ।
खैर यहाँ से हम सब आगे बढ़े अप्सरा विहार (Apsara Vihar) की ओर । थोड़ी ही देर में हम जंगलों की पगडंडियों पर थे । अप्सरा विहार में अप्सराएँ तो नहीं दिखी अलबत्ता एक छोटा सा पानी का कुंड जरूर दिखा । हम नहाने के लिये ज्यादा उत्साहित नहीं हो पाए, हाँ ये जरूर हुआ कि मेरे पुत्र पानी में हाथ लगाते समय ऐसा फिसले कि कुंड में उन्होंने पूरा गोता ही लगा लिया ।
पास ही कुछ दूरी पर ही यही पानी ३५० फीट की ऊँचाई से गिरता है और इस धारा को रजत प्रपात (Silver Falls) के नाम से जाना जाता है । प्रपात तक का रास्ता बेहद दुर्गम है सो दूर से जूम कर ही इसकी तस्वीर खींच पाए ।


वापस ऊपर चढ़ते-चढ़ते सबके पसीने छूट गए और एक-एक गिलास नीबू का शर्बत पीकर ही जान में जान आई । खैर ये तो अभी शुरुआत थी . अगले दिन तो हाल इससे भी बुरा होना था । पर अभी तो भोजन कर महादेव की खोज में जाना था। अगले हिस्से में जानेंगे कि भगवान शिव को क्या पड़ी थी जो इन गहरे खड्डों खाईयों में विचरते आ पहुँचे ।

अपराह्न में खाना खाने के बाद हम जा पहुँचे हांडी खोह के पास ।
३५० फीट गहरे इस खड्ड में ऊपर से देखने पर भी बड़े बड़े वृक्ष,बौने प्रतीत होते हैं। इस दृश्य को देख कर ही शायद कवि के मन में ये बात उठी होगी


जागते अँगड़ाईयों में ,
खोह खड्डे खाईयों में
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
डूबते अनमने जंगल


हांडी खोह से महादेव का रास्ता हरे भरे जंगलों से अटा पड़ा है। सड़क के दोनों ओर की हरियाली देखते ही बनती थी । महादेव की गुफाओं की ओर जाते वक्त चौरागढ़ (Chouragarh) की पहाड़ी पर स्थित शिव मंदिर स्पष्ट दिखता है। महाशिवरात्रि के समय हजारों श्रृद्धालु वहाँ त्रिशूल चढ़ाने जाते हैं । ना तो अभी शिवरात्रि थी और ना ही हमारे समूह में कोई इतना बड़ा शिवभक्त कि १२५० सीढ़ियाँ चढ़कर वहाँ पहुँचने का साहस करता।

तो चौरागढ़ ना जाकर हम सब बड़े महादेव (Bade Mahadeo) की गुफा की ओर चल पड़े । कैमरा गाड़ी में ही रख दिया क्यो.कि इस बार वानर दल दूर से ही उछल कूद मचाता दिख रहा था । समुद्र तल से १३३६ मी. ऊँचाई पर स्थित ये गुफा २५ फीट चौड़ी और ६० फीट. लम्बी है। गुफा के अंदर प्राकृतिक स्रोतों से हर समय पानी टपकता रहता है । अंदर एक प्राकृतिक शिव लिंग है जिसके ठीक सामने एक पवित्र कुंड है जिसे भस्मासुर कुंड कहते हैं ।

भस्मासुर की कथा यहाँ के तीन धार्मिक स्थलों चौरागढ़, जटाशंकर और महादेव गुफाओं से जुड़ी है । अपने कठिन जप-तप से उसने भगवान शिव को प्रसन्न कर ये वरदान ले लिया कि जिस के सर पर हाथ रखूँ वही भस्म हो जाए । अब भस्मासुर ठहरा असुर बुद्धि, वरदान मिल गया तो सोचा क्यूँ न जिसने दिया है उसी पर आजमाकर देखूँ । भगवन की जान पर बन आई तो भागते फिरे कभी जटाशंकर की गुफाओं में जा छिपे तो कभी गुप्त महादेव और अन्य दुर्गम स्थानों पर । पर भस्मासुर कोई कम थोड़े ही था भगवन को दौड़ा - दौड़ा कर तंग कर डाला। भगवन की ये दुर्दशा विष्णु से देखी नहीं गई और उतर आये पृथ्वी पर मोहिनी का रूप लेकर । अपने नृत्य से मोहिनी ने भस्मासुर पर ऍसा मोहजाल रचा कि खुद भस्मासुर उसी लय और हाव भाव में थिरकते अपने सिर पर हाथ रख बैठा । कहते हैं कि बड़े महादेव की उस गुफा में ही भस्मासुर भस्म हो गया ।

बड़े महादेव से ४०० मीटर दूर परएक बेहद संकरी गुफा हे जो कि गुप्त महादेव (Gupt mahadeo) का निवास स्थल है । इस गुफा में एक समय ८ ही व्यक्ति घुस सकते हैं । ऐसी गुफा में कोई मोटा व्यक्ति घुस जाए तो रास्ता जॉम ही समझिए । गुफा में आप साइड आन (side on) ही चल सकते हैं। खुद को पतला समझ कर मैंने एक बार सीधा होने की कोशिश की तो कमर को दो चट्टानों के बीच फँसा पाया। पहले १० फीट पार हो जाए तो गुफा में घना अँधेरा छा जाता है । कहने को गुफा के अंतिम छोर पर शिवलिंग के ऊपर एक बल्ब है पर वो भी जलता बुझता रहता है । जल्दी -जल्दी में प्रभु दर्शन निबटाकर हम झटपट गुफा से बाहर निकले ।

वापसी में राजेंद्र गिरी से सूर्यास्त देखने का कार्यक्रम था पर हमारे रास्ता भटक जाने की वजह से सूर्य देव हमारे वहाँ पहुँचने से पहले ही रुखसत हो लिये । पहले दिन का ये अध्याय तो यहीं समाप्त हुआ ।
अगले दिन की शुरुआत तो एक ऐसे दुर्गम ट्रेक से होनी थी जिसमें बिताये गए पल इस यात्रा के सबसे यादगार लमहे साबित हुये ।
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पचमढ़ी दूसरा दिन: डचेस फॉल और नीचे गिरते पत्थर

पचमढ़ी पर अभी तक गुजराती पर्यटकों ने धावा नहीं बोला था । पर सारे रेस्तरॉं उनके आने की तैयारी में जी जान से जुटे थे। कहीं होटल की पूरी साज सज्जा ही बदली जा रही थी तो कहीं रंगाई-पुताई चल रही थी ।वैसे भी दीपावली पास थी और उसी के बाद ही भीड़ उमड़ने वाली थी । पर अभी तो हालात ये थे कि जहाँ भी खाने जाओ लगता था कि पचमढ़ी में हम ही हम हैं ।

पचमढ़ी में दूसरे दिन का सफर हमें अपनी गाड़ी छोड़ कर, खुली जिप्सी में करना था । स्थानीय संग्रहालय को देखने के बाद हमें सीधे राह पकड़नी थी डचेश फॉल (Dutchess Fall) की । और डचेश फॉल के उन बेहद कठिन घुमावदार रास्तों को कोई फोर व्हील ड्राईव वाली गाड़ी ही तय कर सकती थी ।

जिप्सी मंजिल से करीब करीब १.५ किमी पहले ही रुक जाती है । जो पर्यटक दो दिन के लिये पचमढ़ी आते हैं वो डचेश फॉल को देख नहीं पाते। वेसे भी ये पचमढ़ी का सबसे दुर्गम पर्यटन स्थल है । पहले ७०० मीटर जंगल के बीचों - बीच से गुजरते हुये हम उस मील के पत्थर के पास रुके जहाँ से असली यात्रा शुरु होती है ।
यहाँ से ८०० मीटर का रास्ता सीधी ढलान का है और इसके १० % हिस्से को छोड़कर कहीं सीढ़ी नहीं है । पहाड़ पर तेज ढलान पर नीचे उतरना कितना मुश्किल है ये पहले २०० मीटर उतर कर ही हम समझ चुके थे । नीचे उतरने में चढ़ने की अपेक्षा ताकत तो कम लगती है पर आपका एक कदम फिसला कि आप गए काम से । जब - जब हमें लगता था कि जूते की पकड़ पूरी नहीं बन रही हम रेंगते हुये नीचे उतरते थे ।
एक चौथाई सफर तय करते करते हम पसीने से नहा गए थे । अगर लगे रहो .... में संजय दत्त को जब तब गाँधीजी दिखाई देते थे तो यहाँ आलम ये था कि घने जंगलो के बीच फिसलते लड़खड़ाते और फिर सँभलते हम सभी के कानों के पास भवानी प्रसाद मिश्र जी आकर गुनगुना जाते थे


अटपटी उलझी लताएँ
डालियो को खींच खाएँ
पेरों को पकड़ें अचानक
प्राण को कस लें कपाएँ
साँप सी काली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद में डूबे हुए से
डूबते अनमने जंगल


स्कूल में जब मिश्र जी की कविता पढ़ी थी तो लगता था क्या बकवास लिखा है घास पागल...काश पागल..लता पागल..पात पागल पढ़कर लगता था कि अरे और कोई नहीं पर ये कवि जरूर पागल रहा होगा। कितने मूढ़ और नासमझ थे उस वक्त हम ये अब समझ आ रहा था । आज उन्हीं जंगलों में विचरते उनकी कविता कितनी सार्थक प्रतीत हो रही थी ।
सतपुड़ा के हरे भरे जंगलों में एक अजीब सी गहन निस्तब्धता है। ना तो हवा में कोई सरसराहट, ना ही पंछियों की कोई कलरव ध्वनि। सब कुछ अलसाया सा, अनमना सा। पत्थरों का रास्ता काटती पतली लताएँ जगह जगह हमें अवलम्ब देने के लिये हमेशा तत्पर दिखती थीं। पेड़ कहीं आसमान को छूते दिखाई देते थे तो कहीं आड़े तिरछे बेतरतीबी से फैल कर पगडंडियों के बिलकुल करीब आ बैठते थे।

हमारी थकान बढ़ती जा रही थी। और हम जल्दी जल्दी विराम ले रहे थे। पर मंजिल दिख नहीं रही थी । साथ में ये चिंता भी दिमाग में घर कर रही थी कि इसी रास्ते से ऊपर भी जाना है। हमारे हौसलों को पस्त होता देख मिश्र जी फिर आ गए हमारी टोली में आशा का संचार करने

धँसों इनमें डर नहीं है
मौत का ये घर नहीं है
उतरकर बहते अनेकों
कल कथा कहते अनेकों
नदी, निर्झर और नाले
इन वनों ने गोद पाले
सतपुड़ा के घने जंगल
लताओं के बने जंगल


इधर मिश्र जी ने निर्झर का नाम लिया और उधर जंगलों की शून्यता तोड़ती हुई बहते जल की मधुर थाप हमारे कानों में गूँज उठी। बस फिर क्या था बची- खुची शक्ति के साथ हमारे कदमों की चाप फिर से तेज हो गई। कुछ ही क्षणों में हम डचेश फॉल के सामने थे। पेड़ों के बीच से छन कर आती रोशनी और बगल में गिरते प्रपात का दृश्य आखों को तृप्त कर रहा था । शरीर की थकान को दूर करने का एकमात्र तरीका था झरने में नहाने का । सो हम गिरते पानी के ठीक नीचे पहुँच गए । जहाँ शीतल जल ने तन की थकावट को हर लिया वहीं पानी की मोटी धार की तड़तड़ाहट ने सारे शरीर को झिंझोड़ के रख दिया ।

पौन घंटे के करीब फॉल के पास बिता कर हमारी चढ़ाई शुरु हुई । हमारा गाइड तो पहाड़ पर यूँ चढ़ रहा था जैसे सीधी सपाट सड़क पर चल रहा हो । उसके पीछे मेरे सुपुत्र और जीजा श्री थे । चढ़ते चढ़ते अचानक लगा कि रास्ता कुछ संकरा हो गया है । लताएँ मुँ ह को छूने लगीं और झाड़ियाँ कपड़ों में फँसने लगीं। अचानक जीजा श्री की आवाज आई कि अरे यहाँ से ऊपर चढ़ना तो बेहद कठिन है । हम जहाँ थे वहीं रुक गए ओर गाइड को आवाजें लगाने लगे । गाइड ने जब हमारी स्थिति देखी तो दूर से ही चिल्लाया कि अरे ! आप लोग तो गलत रास्ते पर चले गए हैं । अब नीचे मुड़ने के लिए जैसे ही मेरे भांजे ने कदम बढ़ाए दो तीन पत्थर ढलक कर मेरे बगल से निकल गए । मैंने उसे तो वहीं रुकने को कहा पर अपना पैर नीचे की ओर बढ़ाया तो तीन चार छोटे बड़े पत्थर मेरे पीछे नीचे की ओर पिताजी की ओर जाने लगे । मेरे नीचे की ओर समूह के सारे सदस्य जोर से चिल्लाये मनीष ये क्या कर रहे हो ? मैं जहाँ था वहीं किसी तरह बैठ गया और नीचे वाले सब लोगों को गिरते पत्थरों के रास्ते से हटने को कहा । फिर एक बार में एक - एक व्यक्ति रेंगता जब पुराने रास्ते तक पहुँचा तो सबकी जान में जान आई।

वापस लौटने के पहले हम लोग कुछ देर के लिये इको प्वाइंट (Echo Point) पर गए । सबने अपने गले का खूब सदुपयोग किया और अपने चिर - परिचित नामों को पहाड़ों से टकराकर गूँजता पाया । खाने के बाद हमें पचमढ़ी झील होते हुये धूपगढ़ से सूर्यास्त देखना था।

डचेश फॉल तक पहुँचने की जद्दोजहद ने हमें बुरी तरह थका दिया था । भोजन के बाद कुछ देर का आराम लाजिमी था । सवा चार बजे हम पचमढ़ी झील (Pachmadhi Lake) की ओर चल पड़े । यहाँ की झील प्राकृतिक नहीं है । जल के किसी स्रोत पर चेक डैम बनाकर ये झील अपने वजूद में आयी है । पर झील कै फैलाव और उसके चारों ओर की हरियाली को देखकर ऐसा अनुमान लगा पाना काफी कठिन है ।

दिन की चढ़ाई के बाद कोई पैडल बोट को चलाने में रुचि नहीं ले रहा था । पर धूपगढ़ जाने के पहले कुछ समय भी बिताना था। सो एक नाव की सवारी कर ली गई। झील के मध्य में पहुँचे तो दो ऊँचे वृक्षों के बीच इस छोटे से घर की छवि मन में रम गई। भांजे को तुरत तसवीर खींचने को कहा ! नतीजन वो दृश्य आपके सामने है ।
झील में सैर करते-करते पाँच बज गए । अब आज तो सूर्यास्त किसी भी हालत में छूटने नहीं देना था जैसा कि पहले दिन हुआ था। सो तुरत फुरत में सब जिप्सी में सवार हो कर चल पड़े धूपगढ़ की ओर जो कि पचमढ़ी से करीब १०-१२ किमी दूरी पर है ।

धूपगढ़ (Dhoopgarh)पचमढ़ी की नहीं वरन पूरे मध्य प्रदेश की सबसे ऊँची पहाड़ी है । समुद्र तल से इसकी ऊँचाई १३५९ मीटर है। धूपगढ़ तक जाने के लिये अंतिम ३ किमी का रास्ता काफी घुमावदार है और पहली बार मंजिल तक पहुँचने के पहले ही सिर भारी होने लगा । पर जिप्सी के बाहर निकलते ही चारो ओर की छटा देख कर मन प्रसन्न हो उठा । वहाँ पहुँचने तक सूर्यास्त होने में सिर्फ १५ मिनट ही रह गए थे । इसलिये वहाँ की चोटी पर ना चढ़ के हम सूर्यास्त बिन्दु की ओर चल पड़े ।

धूपगढ़ चूंकि यहाँ का सबसे ऊँचा शिखर है इसलिए यहाँ से सूर्य पहाड़ों के पीछे जा नहीं छुपता । वो तो बादलों के बीच में ही धीरे धीरे मलिन होता अपना अस्तित्व खो बैठता है और अचानक से आ जाती है एक हसीन शाम । कैसे घटता है ये मंजर वो इन छवियों के माध्यम से खुद ही देख लीजिए ।
 





शाम के साथ एक सफेद धुंध भी पर्वतों के चारों ओर फैल गई थी । मानो ये अहसास दिलाना चाहती हो कि सूर्य को हटाकर उसके पूरे साम्राज्य की मिल्कियत अब इसी के कब्जे में है। धुंध की चादर के बीच खड़े इस हरे भरे पेड़ को देख कर मन मुग्ध हो रहा था ।

शाम का अँधेरा ठंडक के साथ तेजी से बढ़ने लगा तो हमें धूपगढ़ से लौटना ही पड़ा ।
धूपगढ़ की ये शाम बहुत कुछ पंडितविनोद शर्मा की इन पंक्तियों की याद दिला रही थी
बुझ गई तपते हुए दिन की अगन
साँझ ने चुपचाप ही पी ली जलन
रात झुक आई पहन उजला वसन
प्राण ! तुम क्यूँ मौन हो कुछ गुनगुनाओ
चांदनी के फूल तुम मुस्कराओ.....


डूबते सूरज की लाली और धूपगढ़ में बिताई उस हसीन शाम की मधुर स्मृतियाँ लिये जब हम होटल पहुँचे तो देखा कि होटल में काफी चहल - पहल है। पता चला कि अहमदाबाद से स्कूली बच्चों की एक बड़ी टोली आई है जो होटल के गलियारों में धमाचौकड़ी मचा रही थी। सुबह उन सबको एक साथ तैयार होता और कतार लगा कर नाश्ता करना देखना सुखद अनुभव था। वैसे भी जहाँ ढेर सारे बच्चे हों वहाँ आस पास का वातावरण सरस हो ही जाता है ।
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पचमढ़ी तीसरा दिन: बी फॉल, रीछगढ़ और संतरे के बागान

आज का पहला मुकाम बी फॉल था । बी फॉल पचमढ़ी से मात्र २ किमी दूरी पर है । डचेस फॉल की तरह यहाँ जाने के लिए नीचे की ओर उतरना तो पड़ता है पर पहले तो जंगल के बीच से होते हुए समतल रास्तों पर और फिर ठीक झरने तक जाती हुई सीढ़ियों से । डचेश फॉल में तो नीचे उतरना इतना जोखिम भरा था कि बीच में रुक कर चित्र लेने की हिम्मत ही नहीं होती थी ।

पर यहाँ गिरने फिसलने का डर नहीं था इसलिए अपने कैमरे का सही सदुपयोग कर पाए । तो सबसे पहले देखिये उस जगह से नीचे गिरते झरने का दृश्य जहाँ से नीचे जाने के लिए सीढ़ियाँ शुरु होती हैं ।

भले ही यहाँ सीढ़ियाँ थीं पर जंगलों की विकरालता वैसी ही थी । पर इसका फायदा ये था की बाहर खिली कड़ी धूप भी हमें छूने से कतरा रही थी । सीढ़ियाँ उतरते उतरते घने जंगल के बीच पानी की एक लकीर दिखने लगी । हम बी फाल के बिलकुल करीब आ चुके थे ।

बी फाल या जमुना प्रपात (Bee Fall) निश्चय ही पचमढ़ी का सबसे खूबसूरत प्रपात है । पचमढ़ी का मुख्य जल स्रोत भी यही है । करीब १५० फीट की ऊँचाई से गिरती धाराओं को देखना और ठीक उनके नीचे जाकर उनकी शीतल तड़तड़ाहट को शरीर पर महसूस करना एक रोमांचक अनुभव था।

बी फॉल से हम लोग रीछगढ़ गए जो एक प्राकृतिक गुफा है । पचमढ़ी प्रवास का हमारा ये आखिरी पड़ाव था ।

अगली सुबह हम वापस नागपुर की राह पर थे । सौंसर से कुछ दूर आगे ही सड़्क के किनारे एक
संतरे का बाग दिखा । हम जैसों के लिए तो ये अजूबे की बात थी। तो सारे लोग बाग में पेड़ों का निरीक्षण करने उतर लिये। बागान का मालिक बड़ा भला आदमी निकला । घूम घुम कर उसने ना केवल हमें अपना बाग दिखाया बलकि रसदार संतरे भी खिलाये । अब आपको वो संतरे खिला तो सकता नहीं तो तसवीर से ही काम चलाइए ।

अन्य पर्यटन स्थलों की अपेक्षा पचमढ़ी भीड़ भाड़ से अपने आप को दूर रखकर अपनी नैसर्गिक सुंदरता बनाये हुए है ।
अगर आपको सतपुड़ा के जंगलों को करीब से महसूस करना है
अगर आप प्रकृति के अज्ञात रहस्यों को खोजने के लिये चार पहियों की गाड़ी की बजाए अपने चरणों को ज्यादा सक्षम मानते हों तो पचमढ़ी आप ले लिये एक आदर्श जगह है ।

चलते-चलते पचमढ़ी की यादों को किसी चित्र के जरिये समेटने की कोशिश करूँ तो यही छवि मन में उभरती है। पहाड़ियों और चने वनों की स्याह चादर के बीच इस नन्हे हरे-भरे पेड़ की तरह पचमढ़ी भी इन उँघते अनमने जंगलों के बीच हरियाली समेटे जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा सा प्रतीत होता है। !