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रविवार, 19 जून 2016

अलविदा मेघालय : यूमियम झील और वो अनहोनी ! Umiam Lake, Shillong

मेघालय में बिताए हमारे आख़िरी दिन की शुरुआत तो लैटलम कैनय की भुलभुलैया से हुई थी। पर वहाँ से लौटने के बाद हमारा इरादा वहाँ के बेहद प्रसिद्ध संग्रहालय डॉन वास्को म्यूजियम को देखने का था। ऐसा सुना था कि ये संग्रहालय उत्तर पूर्वी राज्यों की संस्कृति को जानने समझने की मुफ़ीद जगह है। मावलाई स्थित इस संग्रहालय में जाना तो हमें अपने शिलांग प्रवास के पहले ही दिन था पर बंदी की वज़ह से हमारे ड्राइवर ने इस इलाके में आने से इसलिए इनकार कर दिया कि ये इलाका बंदी के समय ख़तरे से खाली नहीं है।

बाहरी द्वार, डॉन बास्को म्यूजियम Front gate of Don Bosco Museum

रविवार के दिन जब हम यहाँ पहुँचे तो खिली धूप और छोटे छोटे घरों से अटा ये इलाका कहीं से ख़ौफ़ पैदा करने वाला नहीं लग रहा था। पर यहाँ आकर सबसे बड़ी निराशा हमें तब हुई जब पता चला कि ये संग्रहालय रविवार को बंद रहता है। सुना था संग्रहालय की सात मंजिली इमारत में उत्तर पूर्व के सारे राज्यों की संस्कृति की झांकी दिखलाई गई है। 

दूर से एक आम भारतीय के लिए उत्तर पूर्व एक लगता है। पर फिर ये भी सुनने में आता है कि नागा व मणिपुरी, बोदो व असमी आपस में ही तलवारें तान लेते हैं। ख़ैर यहाँ आकर एक मौका था इन राज्यों के रहन सहन, पहनावे व खान पान के तौर तरीकों में छोटी बड़ी भिन्नताओं को परखने का पर अफ़सोस वो अवसर हमें मिल ना सका।और तो और संग्रहालय की छत की मशहूर स्काई वॉक पर चहलकदमी करने का मौका भी जाता रहा।


डॉन बास्को म्यूजियम की सात मंजिली इमारत

शनिवार, 21 मई 2016

लैटलम कैनयन : जहाँ अचानक से खत्म हो जाती हैं खासी पहाड़ियाँ ! Laitlum Canyon, Shillong

मावलीनांग से शिलांग लौटने के बाद हमारे पास एक दिन और बचा था। मैंने शिलांग आने के पहले  इंटरनेट पर लैटलम कैनयन के बारे में पढ़ा था। वहाँ की खूबसूरत वादियों का जिक्र तो था ही, साथ ही ये हिदायत भी थी कि भीड़ भाड़ से दूर इस सुनसान इलाके में पहुँचना टेढ़ी खीर है इसलिए रास्ते के बारे में जानकर ही वहाँ जाएँ। प्राकृतिक सुंदरता मुझे हमेशा लुभाती रही है और लैटलम के एकांत में कुछ पल अपने को डुबाने की कल्पना मुझे उसकी तरफ़ खींच रही थी ।

पर सबसे बड़ी दिक्कत थी कि इस अनजाने से स्थान पर जाया कैसे जाए? जो जानकारी मुझे उपलब्ध थी उसके हिसाब से हमारा पहला लक्ष्य स्मित नाम का गाँव था। हमारी गाड़ी गुवहाटी की थी और हमें पक्का यकीन था कि हमारे चालक को लैटलम क्या स्मित के बारे में भी कोई जानकारी नहीं होगी। मैंने उसे खड़ी ढाल वाली संकरी घाटी के बारे में जब बताया तो उसने बड़े आत्मविश्वास से बताया कि उसे रास्ता पता है।

लैटलम दर्रा, नदी व छोटा सा गाँव !
ख़ैर हम लोग तब भी सशंकित थे पर शिलांग शहर के बाहर निकलने के बाद भी वो जब बेफ़िक्री  से गाड़ी चलाता रहा तो हमें लगा बंदे को पता ही होगा। पर मुझे चिंता तब होने लगी जब चलते चलते एक घंटे बीत गए और लैटलम का पता ठिकाना ही नहीं मिला। दस बजे के वक़्त भी रास्ता सुनसान ही था। इक्का दुक्का व्यक्ति जो दिखते भी वो हिंदी या अंग्रेजी समझ पाने में अपनी असमर्थता दिखाते  हमारे तनाव को बढ़ता देख ड्राइवर ने अचानक बगल की घाटी को दिखाते हुए कहा कि यही लैटलम है। मैंने कहा कि स्मित गाँव आया नहीं और रोड के किनारे से ही तुम्हें लैटलम दिख रहा है। हमारी खरी खोटी सुनने के बाद उसने माना कि रास्ते के बारे में उसे पता नहीं था। डार्इवर के हाथ खड़े करने के बाद हमने जी पी एस की मदद ली। पता चला हम लैटलम नहीं बल्कि सिलचर के मार्ग पर जा रहे हैं । स्मित गाँव का रास्ता तो काफी पहले ही छूट चुका है।

स्मित गाँव की ओर जाती सड़क Road to Smit Village
गाड़ी वापस घुमाई गई। जीपीएस के सहारे हम रुकते रुकते उस मोड़ तक पहुँचे जहाँ स्मित गाँव का रास्ता कटता था। गनीमत थी कि वहाँ उस गाँव के नाम का बोर्ड भी लगा था। स्मित गाँव का रास्ता बेहद मनोरम था। दूर दूर तक हरे भरे पठारी मैदान और उनके बीच उगे इक्का दुक्का पेड़। हल्की पठारी ढलानों पर बिछी दूब की इस चादर को देख थोड़ी देर पहले मन में व्याप्त कड़वाहट जाती रही। 

पर हमारी लैटलम की खोज अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी। स्मित गाँव किसी भी हिसाब से हमें गाँव जैसा नहीं लगा। लगे भी तो कैसे सारे पक्के मकान और गाँव के केंद्र में इतनी बड़ी गोलाई में फैला विशाल चौराहा जो कि हमारी तरफ़ के छोटे  बड़े शहरों को भी मात दे दे। चौराहे पर मुंबई  की तरह ही काली पीली फिएट वाली टैक्सियाँ खड़ी थीं। हमें यहीं उतरकर  लैटलम का रास्ता पूछना था जो यहाँ से आठ दस किमी की दूरी पर था। हमारे सवाल पूछने पर एक टैक्सी ड्राइवर ने पाँच दस मिनट का सीधा रास्ता बताया और कहा कि दाँयी ओर देखते जाना। उधर ही से लैटलम के लिए एक  पतली सड़क मिलेगी

सब्जियों के लिए मशहूर मेघालय में गोभी के खेत Vegetable fields near Smit, Meghalaya

गाड़ी में बैठे हमारे समूह के प्रत्येक सदस्य को खिड़की से बाहर देखने का आदेश दे दिया गया कि जहाँ लैटलम का "L''  भी दिखे गाड़ी रुकवा दी जाए। हौले हौले हम उस डगर पर आगे बढ़े पर लैटलम ना मिलना था ना मिला। जब दस मिनट बीत गए तो अचानक मेरी  भांजी ने साइनबोर्ड Lait...पढ़ते हुए जोर से चीख मारी कि मिल गया.. मिल गया । आनन फानन में गाड़ी रुकवाई गई पर जब सबने साइनबोर्ड पूरा पढ़ा तो सबका हँसते हँसते बुरा हाल गया । साइनबोर्ड पर वास्तव में लिखा था Laitrine जाने का रास्ता। 

ख़ैर तब तक एक टैक्सी हमारे पीछे से आगे निकली। उसे हाथ देकर हमने अपनी व्यथा सुनाई। ड्राइवर ने हमारी परेशानी समझते हुए कहा कि आप हमारी गाड़ी के पीछे पीछे चलिए। एक मोड़ पर आकर हमें दाहिने मुड़ने का इशारा कर वो  सीधे चला गया। दाहिने वाले रास्ता तो और भी सुनसान था। लोगों का संयम भी अब खत्म हो रहा था।  सवाल उठने लगे कि वास्तव में लैटलम कोई जगह भी है या मनीष हमें यूँ ही कुछ उल्टा सीधा पढ़कर बेवज़ह  घुमा रहा है ।

पहाड़ के सिरे पर हम सब At the edge of the plateau

सोमवार, 4 अप्रैल 2016

शिलांग से चेरापूंजी की वो खूबसूरत डगर ... Road trip from Shillong to Cherrapunji (Sohra)

शिलांग प्रवास के दूसरे दिन हमने चेरापूंजी की राह पकड़ी । अब यूँ तो चेरापूँजी बारिश के लिए जाना जाता है पर उस दिन आसमान लगभग साफ था। काले बादलों का  दूर दूर तक कोई नामो निशान नहीं था। शिलांग से चेरापूंजी की दूरी साठ किमी की है, जिसे रुकते रुकते भी आराम  से दो घंटे के अंदर पूरा किया जा सकता है। रुकते रुकते इसलिए कि शिलांग से वहाँ तक की डगर इतनी रमणीक है कि आपका दिल बार बार गाड़ी पर ब्रेक लगाना चाहेगा। वो कहते हैं ना कि गन्तव्य जितना महत्त्वपूर्ण रास्ता भी होता है तो वो बात इस सफ़र के लिए सोलह आने सच साबित होती है। तो चलिए मेघालय यात्रा की इस कड़ी में आज आपको दिखाता हूँ शिलांग से चेरापूंजी तक के सफ़र को अपने कैमरे की नज़र से.. 

Shillong Cherrapunji Highway
पर इससे पहले कि मेघालय के इस राज्य राजमार्ग 5 पर आगे बढ़ें चेरापूँजी और सोहरा के नामों से आपके दिल में जो संशय पैदा हो गया होगा उसे दूर कर देते हैं। दरअसल इस स्थान का वास्तविक नाम सोहरा ही है जो किसी ज़माने में खासी जनजाति प्रमुख द्वारा शासित इलाका हुआ करता था। अब अंग्रेजों ने सोहरा नाम को चुर्रा नाम क्यूँ बुलाना शुरु किया ये मेरी समझ से बाहर है। पर कालांतर में ये नाम चुर्रा से चेरा और फिर चेरापूंजी हो गया। वैसे अब मेघालय सरकार ने अपने साईनबोर्ड्स पर इस जगह के पुराने नाम को अपनाते हुए सोहरा को ही लिखना प्रारंभ कर दिया है।


वैसे भी  संसार का सबसे गीला स्थान होने का तमगा भी अब चेरापूंजी से छिनकर पास के गाँव मॉसिनराम को चला गया है।
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बारिश इस इलाके में पहले से कम जरूर हुई है पर शिलांग से सोहरा तक के रास्ते की हरियाली देखती ही बनती है। पूर्वी खासी की पहाड़ियों में  फैले हरे भरे घने जंगल, पतली दुबली नदियाँ और पहाड़ी ढलानों में थोड़ी भी समतल भूमि मिलने से बोई गई फसलों के नजारे इस रास्ते को अपनी अलग पहचान देते हैं। दो जगहों की तुलना मुझे कभी नहीं भाती और स्कॉटलैंड मैं गया नहीं पर यहाँ के सदाबहार जंगलों  की हरियाली की वजह से ही इसे शायद  स्काटलैंड आफ दि ईस्ट कहा जाता हो।

शनिवार, 26 मार्च 2016

मेरे साथ चलिए शिलांग की सैर पर ! My first day in Shillong !

मेरी मेघालय यात्रा की पहली कड़ी में आपने देखा आसमान से दिखते शिलांग के आस पास के हरे भरे इलाकों को। रात को पूजा की गहमागहमी के बाद जब अगली सुबह उठे तो मौसम बिल्कुल साफ था। रात को ही पता चला था कि वहाँ के किसी स्थानीय समूह ने मेघालय बंद का आह्वान किया है। गाड़ीवाला जिसे हम गुवहाटी से लाए थे हमें ऐसी हालत में चेरापूँजी चलने की ताकीद कर रहा था। शायद दूसरी गाड़ियों में उसके मित्र भी उस दिशा में जा रहे थे। पर बंदी के दिन राजधानी से बाहर निकलने का हम खतरा नहीं उठाना चाहते थे सो हमने वहाँ के सुरक्षाकर्मियों से बात चीत करने के बाद शिलांग शहर के अंदर ही घूमने का निश्चय किया।

मेघालय एक जनजातीय इलाका है। यहाँ की तीन प्रमुख पहाड़ियों गारो, खासी व जयंतिया के नाम पर यहाँ की तीन प्रमुख जनजातियों के नाम हैं। इस मातृ प्रधान समाज में आदि काल से लोग जानजातीय रीति रिवाज़ को मानते रहे पर उन्नीस वीं शताब्दी में जब अनुकूल मौसम को देखते हुए ब्रिटिश  यहाँ दाखिल हुए तो उन्होंने यहाँ के लोगों में ईसाई धर्म का खूब प्रचार प्रसार किया। उसी की बदौलत आज राज्य के तीन चौथाई लोग इस धर्म का पालन करते हैं।

Cathedral of Mary कैथडरल आफ मैरी 

ज़ाहिर है इतनी बड़ी तादाद के लिए पूजा स्थल यानि चर्च भी काफी संख्या में बनाए गए। शिलांग में भी खूबसूरत चर्चों की बहार हैं पर इनमें सबसे सुंदर चर्च कैथडरल आफ मैरी को माना जाता है। सो सुबह सुबह हम सबसे पहले इसी के दर्शन को चल पड़े। कहते हैं कि इसी स्थान पर कभी जर्मन मिशनरीज़ ने एक कैथलिक चर्च बनाया था। पर 1936 में गुड फ्राइडे के दिन लकड़ी का वो चर्च आग में जलकर राख हो गया।  उसी साल यहाँ कैथडरल आफ मैरी की नींव रखी गई। चर्च को बनने में ग्यारह साल लग गए। पहली नज़र में ही मुझे ये  बड़ी शानदार इमारत लगी।  सड़क से चर्च तक पहुँचने के लिए दोनों तरफ से चौड़ी चौड़ी सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं। चर्च के दोनों ओर आसमान छूते लंबे लंबे पेड़ हैं जिनके बीच  ये इमारत और खिल उठती है। 

यहाँ के लोग कहते हैं कि इस चर्च को बनाते समय यहाँ की चट्टानों को काटकर उनमें रेत भरी गई। यानि इस इमारत की नींव चट्टानों पर ना टिकी हो कर रेत की मोटी चादर  पर टिकी है। ऐसा इसलिए  किया गया ताकि ये इमारत भूकंप के झटकों को बर्दाश्त कर सके।


चर्च के चारों ओर काफी खुला समतल इलाका है। चर्च के अंदर तो तसवीर खींचने की मनाही थी। वैसे अंदर की दीवारों पर म्यूनिख के कलाकारों द्वारा टेराकोटा की कलाकृतियों में ईसा मसीह को दी गई यातना को दर्शाया गया है। बाहर आहाते में यीशू की माँ मैरी  की प्रतिमा है जिनके नाम पर इस चर्च का नामाकरण हुआ है।


चर्च के अंदर थोड़ा वक़्त बिताकर हमारा समूह शिलांग के सबसे मशहूर जलप्रपात एलिफेंट फॉल्स  की ओर चल पड़ा। अब आप अगर ये सोच रहे हैं कि इस जलप्रपात की शक्ल सूरत देख के आप इसके नाम के रहस्य का पर्दाफाश कर लेंगे तो आप मुगालते में हैं। शहर के केंद्र से मात्र बारह किमी दूर पूर्वी खासी पहाड़ियों पर स्थित ये जलप्रपात यहाँ के स्थानीय लोगों में  Ka Kshaid Lai Pateng Khohsiew के नाम से जाना जाता था। अब इसे हिंदी में उच्चारित करना मेरे बस की बात तो नहीं पर सरल शब्दों में इसका अर्थ है 'तीन पड़ावों में गिरता जलप्रपात' और यही इसकी असली पहचान है।

अब मुझे इस नाम को लेने में तकलीफ़ हो रही है तो ब्रिटिश कितने कष्ट से गुजरे होंगे ये आप भली भांति समझ सकते हैं। लिहाज़ा उन्होंने इस जलप्रपात की दूसरी पहचान ढूँढनी शुरु की। जलप्रपात के आख़िरी पड़ाव पर जा कर उन्हें लगा कि बगल की चट्टान का आकार हाथी जैसा है। अब उनका ये आकलन कितना सही था वो हम और आप तो बता नहीं सकते क्यूँकि आज से करीब एक सौ बीस साल पहले वो चट्टान भूकंप में नष्ट हो गयी।

Elephant Falls : First Step एलिफेंट फॉल पहला पड़ाव

शनिवार, 12 मार्च 2016

कैसा दिखता है आकाश से मेघालय ? Kolkata to Shillong : An aerial view of Meghalaya !

कुछ साल पहले की बात है। हिंदी में यात्रा लेखन पर शोध कर रही एक उत्तर पूर्व की छात्रा ने मुझसे  सिक्किम यात्रा वृत्तांत से जुड़े सवाल पूछे थे। साथ ही ये प्रश्न भी किया था कि सिक्किम के आलावा उत्तर पूर्व के किसी राज्य में क्या आप नहीं गए?  मैंने उससे कहा सोच तो बहुत सालों से रहा हूँ पर लगता है मेघालय व असम जाना शीघ्र ही हो जाए। पर वो 'शीघ्र' उस बातचीत के तकरीबन दो साल बाद आया जब दुर्गा पूजा की छुट्टियों में मेरा शिलांग, चेरापूँजी, मावल्यान्नॉंग और गुवहाटी जाने का कार्यक्रम बना। 

The abode of Clouds मेघों का आलय (घर) मेघालय

पर पूजा की छुट्टियों के समय मेघालय की ओर रुख करने की सबसे बड़ी समस्या रहने की होती है। चेरापूँजी में ज्यादा ढंग के होटल नहीं है और जो हैं वो महीनों पहले पूरी तरह आरक्षित हो जाते हैं। इसलिए अपने मेघालय प्रवास का केंद्र मुझे मजबूरन शिलांग बनाना पड़ा।

कोलकाता से शिलांग पहुँचने के दो रास्ते हैं। कोलकाता से गुवहाटी की उड़ान लीजिए और फिर वहाँ से सड़क मार्ग से सौ किमी की दूरी तीन घंटे में सड़क मार्ग से तय कीजिए। दूसरा तरीका ये है कि कोलकाता से शिलांग की सीधी उड़ान भरिए। पर इसके लिए आपको आरक्षण काफी पहले से कराना होगा  क्यूँकि इस मार्ग पर सिर्फ एयर इंडिया का विमान ही उड़ान भरता है। हमारे समूह में कुछ लोग गुवहाटी होकर आ रहे थे जबकि मुझे कोलकाता से शिलांग की सीधी उड़ान भरनी थी।

At Kolkata Airport नेताजी सुभाष चंद्र बोस एयरपोर्ट कोलकाता
करीब पौने एक बजे हमने कोलकाता से उड़ान भरी। गंगा डेल्टा को पार किया। पर मेघालय की सीमा तक पहुँचने में तकरीबन घंटे भर का समय लग गया। डेढ़ घंटे की उड़ान के आख़िरी आधा घंटे में नज़रें एक बार खिड़की से क्या चिपकी, फिर तो चिपकी ही रह गयीं। मेघालय एक ऐसा राज्य है जहाँ बारिश बहुतायत में होती है। राज्य का सत्तर प्रतिशत इलाका जंगलों से भरा पूरा है। पठार की समतल भूमि पर धान की खेती भी खूब होती है। सो जिधर भी देखिए वहाँ हरियाली ही हरियाली नज़र आती है।

Aerial View, Meghalaya मेघालय के आकाशीय नज़ारे