सोमवार, 22 दिसंबर 2008

मुसाफ़िर हूँ यारों विशेष : क्या आपके शहर के कार्यालयों की चारदीवारी इतनी सुंदर है ?

भारतीय शहरों में आम तौर पर सरकारी चारदीवारियों को उनके अपने वास्तविक रंगों में कायम रख पाना एक टेढ़ी खीर है। राजनैतिक दलों के आह्वानों से लेकर, कागज़ी इश्तिहारों , पान की पीकों और यहाँ तक की मूत्र त्याग से ये दीवारें सुशोभित रहती हैं। पर उड़ीसा सरकार और खासकर भुवनेश्वर (Bhubneshwar) के म्यूनिसिपल कमिश्नर की तारीफ करनी होगी जिन्होंने एक ऐसा तरीका ढूँढ निकाला जिससे ना केवल शहर की दीवारें सुसज्जित हो गईं, बल्कि यहाँ के कलाकारों की पूछ राज्य में ही नहीं पूरे देश में हो गई।

तो क्या तरीका अपनाया यहाँ की म्यूनिसिपल कमिश्नर ने ? इन दीवारों को उड़ीसा के कलाकारों को सौंप दिया गया ताकि वे अपनी कला के माध्यम से उड़ीसा (अब ओड़ीसा) की समृद्ध कला और संस्कृति को उभारें। इसके लिए कलाकारों को जो पैसे दिए गए उन्हें राज्य में कार्य कर रही निजी कंपनियों द्वारा प्रायोजित किया गया। बाद में जब अन्य राज्यों के प्रतिनिधि भुवनेश्वर आए तो अपने राज्यों में ऍसा कुछ करने के लिए इनमें से कई कलाकारों को आमंत्रण दे डाला। तो चलिए मेरे साथ आप भुवनेश्वर की सड़कों पर और कीजिए कला और संस्कृति के विविध रूपों का दर्शन, इन दीवारों पर उकेरे गए चित्रों के माध्यम से..

तो शुरुआत यहाँ की ऐतिहासिक धरोहरों से। ये रहा खंडगिरि (Khandgiri) और उदयगिरि (Udaigiri) का चित्र और उसके नीचे के चित्र में बाँयी तरफ नजर आ रहा है धौलागिरी (Dhaulagiri) का बौद्ध स्मारक जिसकी विस्तार से चर्चा मैं अपनी पिछली पोस्ट में कर चुका हूँ।



शहर के विभिन्न इलाकों की सरकारी इमारतों की दीवारों पर बनाए गए चित्र उड़ीसा के जनजातीय और अन्य इलाकों की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं। नीचे के दृश्य में उड़ीसा में मिट्टी के पात्रों पर की गई नक्काशी को दिखाया गया है। इनका इस्तेमाल रोजमर्रा के काम आने वाले बर्तनों और विभिन्न रीति रिवाजों को संपादित किए जाने वाले विशेष पात्रों के रूप में किया जाता है। इन पात्रो को कुम्हार, शक्ति के विभिन्न प्रतीकों जैसे बैल, हाथी, घोड़े या फिर मंदिर का रूप देते हैं।


उड़ीसा की जनजातियाँ भले ही गरीबी और कुपोषण के दंश को जीवन पर्यन्त झेलने को मजबूर हों फिर भी सामाजिक जीवन में उन्होंने पारंपरिक नृत्य और संगीत को अपने त्योहारों और रीति रिवाजों से समाहित रखा है। वैसे तो विभिन्न जनजातियों में नृत्य की विभिन्न शैलियाँ हैं पर कुछ हद तक इनमें साम्यता भी है। इन सारे नृत्यों में एक खास तरह के रिदम यानि ताल रखा जाता है। ये लय तालियों के रूप में हाथों की थाप या फिर ढोल या नगाड़ों से रची जाती है। नर नारी और बच्चे सभी लोक गीत गाते हैं और साथ ही थिरकते हैं पर नृत्य की लय देने का काम सामान्यतः पुरुष ही करते हैं, जैसा कि आप नीचे के चित्र से देख सकते हैं


उड़ीसा की विभिन्न जनजातियाँ यूँ तो पूरे राज्य के विभिन्न जिलों में पाई जाती हैं पर कोरापुट, मयूरभंज, कालाहांडी, सुंदरगढ़ क्योंझर, काँधमाल और मलकानगिरि जिलों में इनकी संख्या ज्यादा है। इनमें से कुछ ने तो खेती बाड़ी को अपना प्रमुख उद्यम बना लिया है तो कुछ ने अभी तक अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभावों से मुक्त रखा है। नीचे के दृश्य में युद्ध पर जाते एक जनजातीय दल को दिखाया गया है।


नृत्य और संगीत उड़ीसा की संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं। ओडिसी नृत्य का उद्भव उड़ीसा के मंदिरो से हुआ और प्राचीन समय से मंदिर की देवदासियों ने इस परम्परा को बनाए रखा। नीचे के चित्र इस नृत्य की विभिन्न भाव भंगिमाओं और साथ प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्रों को प्रदर्शित कर रहे हैं।


उड़ीसा की चित्रकला का भी समृद्ध इतिहास रहा है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर की अंदरुनी दीवारों को अगर आपने गौर से देखा हो तो आप पाएँगे कि यहाँ चटक रंगों (लाल, हरा, बैंगनी, काला, सफेद आदि) का खूब प्रयोग होता रहा है। मूलतः यहाँ की चित्रकारी को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है : भित्ति चित्र (Murals), तालपटचित्र (Palm Leaf Engravings) और कपड़ों पर बनाए जाने वाले चित्र (Cloth Paintings)

इसके आलावा यहाँ की एक और कला है खेल में प्रयुक्त गोल पत्तों जी हाँ गोल ये उड़ीसा की खासियत है इन्हें यहाँ गंजप (Ganjapas) कहा जाता है। इनकी किनारी पर भिन्न प्रकार के डिजाइन बने रहते हैं और बीच में रामायण और विष्णु लीला के दृश्य रहते हैं। सड़क पर घूमते टहलते इससे मिलती जुलती पेंटिंग पर नज़र पड़ी तो मैंने इसे भी कैमरे में क़ैद कर लिया

इसके आलावा मैंने भुवनेश्वर में ऍसी दीवारों को भी देखा जिन पर यहाँ की प्रसिद्ध संभलपुरी (Sambhalpuri Silk) और तसर सिल्क की साड़ियाँ लगी हुई थीं। यानि अगर आपने पूरे शहर का चक्कर मार लिया तो यहाँ की सारी कलाओं की झांकियाँ तो मिल ही जाएँगी। है ना नायाब तरीका अपने राज्य की धरोहरों को प्रदर्शित करने का !

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

मेरी ओड़िशा यात्रा : कुछ झलकियाँ नंदन कानन से.... Snapshots from Nandan Kanan

नंदन कानन (Nandan Kanan) यानि उल्लास से भरा एक वन। नंदन कानन का जैविक उद्यान भुवनेश्वर से करीब बीस किमी दूरी पर है। 1960 में स्थापित ये उद्यान सफेद बाघों (White Tigers) के लिए तो मशहूर है ही साथ ही यहाँ घड़ियाल प्रजनन केंद्र (Gharial Breeding Centre) भी है।


नंदन कानन में आप टाइगर सफॉरी (Tiger Safari) और नेचर ट्रेल (Nature Trail) का भी आनंद ले सकते हैं। इतना ही नहीं चंडक के जंगलों के विस्तार में बसे इस वन को आप देखना तो चाहते हों पर ज्यादा चलना फिरना आपके लिए कष्टकारी हो तो यहाँ के रोप वे (Rope Way) का इस्तेमाल करें।

हमारे पास नंदन कानन में व्यतीत करने के लिए तीन घंटे का ही समय था जो कि इसे पूरी तरह देखने के लिए अपर्याप्त है। इसलिए बिना ज्यादा समय नष्ट किए हम पहले सफेद बाघ के बाड़े की ओर ही चल पड़े। नंदन कानन में आज ३० से ऊपर सफेद बाघ हैं जिनका रूप आप को सहज ही आकर्षित करता है


जहाँ बाघ अपनी गुर्राहट से जंगल की शांति में खलल डाल रहे थे वहीं ये जनाब घास के बीचों बीच सुस्ताते दिखाई दिए

फिर रोपवे की ओर बढ़े तो ये हाथी मिल कर अभिवादन करने लगे।

और जिन विदेशी घुमंतु पक्षियों (Migratory Birds) की तालाश हम चिलका में कर रहे थे वो आखिरकार यहाँ देखने को मिलीं

रोपवे से जंगल की विशालता तो दिखती है पर इतनी ऊपर से आप उसे महसूस नहीं कर पाते जैसा कि नेचर ट्रेल में हमने पेरियार में किया था। रोप वे (Rope Way) से दिखती ये सहमी शांत सी झील

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

चलिए चलें भुवनेश्वर की जैन गुफाओं और मंदिरों की सैर पर !

भुवनेश्वर मंदिरों का शहर है। जैन, बौद्ध और हिंदू धर्मों के अनुयायिओं ने कालांतर में इस प्राचीन कलिंग प्रदेश में कई मंदिरों का निर्माण किया। पिछली पोस्ट में मैंने आपसे खंडगिरि के जैन मंदिर के आहाते में खींचे गए चित्र से जुड़ा एक सवाल पूछा था। यूँ तो आप सबमें से अधिकांश लोगों ने उसे किसी मन्नत से जोड़ा था पर चित्र पहेली का बिल्कुल सही जवाब अभिषेक ओझा ने दिया था। ईंट पत्थरों को एक दूसरे पर सजाने के पीछे मान्यता ये है कि ऍसा करने से अपने घर के नव निर्माण का सपना शीघ्र पूरा होता है।

खैर, मंदिरों की सैर कराने के पहले आज सबसे पहले आपको ले चलते हैं, भुवनेश्वर से करीब ७ किमी. दूर स्थित उदयगिरी (Udaigiri) और खंडगिरी (Khandgiri) की गुफाओं की ओर ! कहते हैं ये गुफाएँ आज से करीब २००० वर्ष पूर्व जैन राजा खारवेल (Jain King Kharvela) के समय बनाई गई थीं। हमलोग यहाँ दिन के तीन बजे पहुँचे थे। प्रवेश द्वार पर बंदरों की फौज हमारे स्वागत को तैयार थी। नतीजन कैमरे को चुपचाप पतलून की जेब में डाल कर हम गुफाओं की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ चले थे। जमीन से ३०-३५ मीटर ऊपर पहुँचते ही गुफाएँ दिखनी शुरु हो जाती हैं।
उदयगिरि में करीब १५ से २० के बीच गुफाएँ हैं। कुछ के अंदर घुसने के लिए वर्गाकार चौखट बनी हुई हैं , जबकि अधिकांश गुफाओं के लिए ये स्वरूप आयताकार है। गुफाओं के अंदर का फर्श सपाट है जो लगता है कि जैन साधकों के विश्राम करने के लिए बनाया गया होगा। कहीं कहीं एक ओर फर्श पर हल्का उठा हुआ प्रोजेक्शन भी दिखा जो शायद तकिये का भी काम करता हो।


गुफा की दीवारों पर जानवरों, युद्ध से जुड़े शिल्प हैं जो संभवतः जैन शासक खारवेल के समय रहे परिवेश को दर्शाते हैं पर इनमें से अधिकांश बहुत हद तक टूट गए हैं। गुफा के प्रवेश द्वार को हाथी, साँप जैसे जानवरों की शक्ल दी गई है। इसी आधार पर इनका नामाकरण हाथी गुफा, पैरट केव्स या अनंत गुफा आदि पड़ा है। देखिए ऍसी ही एक गुफा के प्रवेश द्वार की ये तसवीर...



उदयगिरी के ठीक सामने और उससे थोड़ी ऊँची खंडगिरि की पहाड़ियाँ हैं। इसकी ऊँचाई करीब ४० मीटर है और इसके शीर्ष से भुवनेश्वर शहर को देखना एक सुखद अनुभव है। शीर्ष पर जैन भगवान आदिश्वर (Adishwar) का मंदिर भी है। ये भी कहा जाता है कि एक समय भगवान महावीर यहाँ अपने भक्तों को संबोधित करने आए थे।


अगली सुबह हम चल पड़े यहाँ के प्रमुख मंदिरों के दर्शन को। हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र यहाँ का लिंगराज मंदिर है और लोग कहते हैं कि जगन्नाथ पुरी जाने के पहले यहाँ पूजा अवश्य की जानी चाहिए । इसे ११ वीं शताब्दी में बनाया गया था। ये मंदिर उड़ीसा की स्थापत्य कला का अनूठा नमूना है। पूरा मंदिर चार प्रमुख इमारतों भोगमंडप (भोजन के लिए बना आहाता, Dining Hall) , नटमंडप (Dancing Hall) , जगमोहन (Audience Hall, सभागार) और देउला जहाँ भगवान शिव की अराधना की जाती है, में बँटा हुआ है। यहाँ का आठ फीट व्यास का चमकदार शिवलिंग ग्रेनाइट का बना हुआ है और पानी और दूध से उसका रोज़ स्नान होता है।

मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है और शिव दर्शन के लिए धक्का मुक्की भी करनी पड़ती है। इसलिए मेरा सुझाव ये है कि अगर आप शांति से पूजा अर्चना में विश्वास रखते हों तो फिर मुक्तेश्वर के शिव मंदिर का रुख कीजिए। धौली से करीब दो तीन किमी दूरी पर ये मंदिर अपनी सु्दरता और आस पास फैली हुई शांति से आपको सहज ही आकर्षित कर लेगा। दसवीं शताब्दी में बने इस मंदिर को स्थापत्य की दृष्टि से, हिंदू जैन और बौद्ध स्थापत्य कलाओं का संगम माना जाता है।

वैसे तो भुबनेश्वर के कई अन्य मंदिर भी विख्यात हैं पर हमें शाम के पहले तक नंदन कानन (Nandan Kanan) पहुँचना था। इसलिए लिंगराज और मुक्तेश्वर की यात्रा के बाद हम कुछ देर विश्राम कर नंदन कानन की ओर चल पड़े। क्या हम नंदन कानन के सफेद बाघ को देख पाए ये विवरण इस सफ़र के अगले भाग में....

(लिंगराज मंदिर की तसवीर सौजन्य विकीपीडिया ,बाकी चित्र मेरे कैमरे से)

बुधवार, 12 नवंबर 2008

भुवनेश्वर का जैन मंदिर और पिट्टो की याद दिलाती ये चित्र पहेली

बचपन में आपने पिट्टो तो जरूर खेला होगा। अरे क्या याद नहीं आपको वो पतले पतले पत्थर को एक दूसरे के ऊपर सजा कर रखना और थोड़ी दूरी से रबर की गेंद से निशाना साधना। अगर निशाना नहीं लगा और गेंद टप्पा खा कर लपक ली गई तो आपकी बारी खत्म। और अगर निशाना सही पड़ा तो आपकी टीम के सारे खिलाड़ी दूर दूर तक भाग खड़े होते थे। विपक्षी टीम के खिलाड़ियों को छकाने के बाद यदि अगर वापस बिना गेंद से सिकाई के आपने पत्थर की गोटियाँ सजा लीं तो हो गया पिट्टो !

खैर आप भी सोच रहे होंगे कि उड़ीसा घुमाते घुमाते आखिर आपको पिट्टो के बारे में क्यूँ बताया जा रहा है। तो जनाब नीचे का चित्र देखिए। क्या आपको ये पिट्टो की याद नहीं दिलाता ?



ये चित्र भुवनेश्वर स्थित खंडगिरि के जैन मंदिर (Jain Temple at Khandgiri) के आहाते का है। अब इतना तो पक्का है कि मुसाफ़िर इतनी ऊपर पहाड़ी पर बनें मंदिर पर आ कर पिट्टो तो नहीं खेलते होंगे ? :)

तो बताइए क्या सोचकर पर्यटक और श्रृद्धालु पत्थर और ईंट के टुकड़े को इस तरह सजाते होंगे?

सही जवाब का खुलासा अगली पोस्ट किया जाएगा। हो सकता है उससे पहले ही आप इस गुत्थी को सुलझा लें ....

रविवार, 9 नवंबर 2008

धौलागिरी, भुवनेश्वर : जो कभी युद्ध में हुए भीषण रक्तपात का साक्षी रहा था

कोणार्क (Konark) से वापस हम शाम तक भुवनेश्वर आ गए थे। अगले दो दिन भुवनेश्वर (Bhubneshwar) में रहने का कार्यक्रम था। भुवनेश्वर में अगली सुबह हम जा पहुँचे धौलागिरि (Dhaulagiri), जो कि शहर से करीब आठ किमी दूर स्थित है। धौलागिरि के शिखर पर स्थित सफेद गुम्बद नुमा शांतिस्तूप (Peace Pagoda, Dhauli) दूर से ही दिखाई पड़ता है। १९७२ में इस स्तूप को जापानियों के सहयोग से बनाया गया था। स्तूप के गुम्बद के छत्र के रूप कमल के फूल की पाँच पंखुड़ियों को रखा गया है। सीढ़ियों की शुरुआत में ही खंभों के दोनों ओर सिंहों की प्रतिमा बनाई गई है।

स्तूप की सीढ़ियों को पार कर जैसे ही आप चबूतरे पर पहुँचते हैं आपको पद्मासन में बैठे चिर ध्यान में लीन बुद्ध की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। दूर-दूर तक पहाड़ी से दिखती हरियाली को देख मन पहले से ही पुलकित हो जाता है और भगवान बुद्ध की ये भाव भंगिमा विचारों में निर्मलता का प्रवाह खुद-ब-खुद ले आती है।

पूरी इमारत के चारों ओर दीवारों पर भगवान बुद्ध के जीवन और उस समय के परिवेश से जुड़ी कई कलाकृतियाँ हैं जिसमें कहीं बुद्ध निद्रामग्न हैं तो कहीं अपने शिष्यों से घिरे हुए....


शांति स्तूप से नीचे का नज़ारा भुवनेश्वर का मेरा सबसे यादगार दृश्य रहा। चारों ओर हरे भरे धान के लहलहाते खेत, खेतों की निरंतरता को तोड़ते वृक्ष और पास बहती दया नदी (River Daya) का किनारा.. कुल मिलाकर एक ऍसा दृश्य जिसे देख कर ही मन खिल उठे। कौन सोच सकता है कि ये वही जगह है जहाँ सम्राट अशोक ने कलिंग के साथ युद्ध (Kalinga War) में भयंकर रक्तपात मचाया था। दया नदी का तट लाशों से अटा पड़ा था जिसे देखकर पराक्रमी अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया था।


शांति स्तूप के लिए जहाँ से चढ़ाई शुरु होती है उसके करीब सौ मीटर आगे ही वो जगह है जहाँ हाथी के अग्र भाग का शिल्प बनाया गया था। चट्टानों को काटकर बनाए गए इस शिल्प को भारत का सबसे पुराना (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का ) माना जाता है। कहते हैं कि इसी जगह पर अशोक का हृदय परिवर्त्तन हुआ था। हाथी के निकलते हुए सर को प्रतीतात्मक रूप से बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव माना जाता है। चित्र में शिल्प के पार्श्व में दिख रहा है शांति स्तूप के साथ ही लगा शिव मंदिर (Lord Dhavaleshwar's temple) जिसका पुनर्निर्माण भी सत्तर के दशक में हुआ था।


इस शिल्प के दूसरी तरफ कुछ दूरी पर अशोक द्वारा बनाए गए शिलालेख हैं जो प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। इस शिलालेख में लोगों का दिल जीतने की बात कही गई है। सारी प्रजा के लिए सम्राट अशोक ने अपने आपको पिता तुल्य माना है और लिखा है कि अपने बच्चों की खुशियाँ और परोपकार का ही मैं अभिलाषी हूँ।
ये शिलालेख एक आक्रमक राजा के शांति का अग्रदूत बन जाने की कहानी कहते हैं। आज २००० वर्ष बीतने के बाद भी, हमारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेता भी इस महान शासक के अनुभवों से युद्ध की निर्रथकता का सबक ले सकते हैं।

जिस तरह सूर्य के रथ का पहिया कोणार्क की पहचान था उसी तरह धौली का स्तूप भुवनेश्वर की टोपोग्राफी पर राज करता है। पर अभी तो हमारी भुवनेश्वर यात्रा शुरु ही हुई है। अगले चरण में ले चलेंगे आपको भुवनेश्वर के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मंदिरों और स्मारकों की सैर पर...

रविवार, 2 नवंबर 2008

कोणार्क का सूर्य मंदिर : जिसका गुम्बद कभी समुद्री पोतों का 'काल' होता था

दशहरे के पहले आपको मैं पुरी और चिलका की यात्रा करा चुका था। फिर त्योहार और कार्यालय के कामों में ऍसा फँसा कि आगे के पड़ावों के बारे में लिख ना सका। तो आज अपनी उड़ीसा यात्रा को आगे बढ़ाते हुए बारी कोणार्क के विश्व प्रसिद्ध मंदिर (Sun Temple at Konark) की..


पुरी से कोणार्क का रास्ता बड़ा मोहक है। एक तो सीधी सपाट सड़क और दोनों ओर हरे भरे वृक्षों की खूबसूरत कतार। कोणार्क के ठीक पहले चंद्रभागा का समुद्री तट दिखाई देता है। हम लोग कुछ देर वहाँ रुककर कर तेजी से उठती गिरती लहरों का अवलोकन करते रहे। यहाँ समुद्र तट की ढाल थोड़ी ज्यादा है इसलिए नहाने के लिए ये तट आदर्श नहीं है।




कुछ देर बाद हम कोणार्क के मंदिर के सामने थे। क्या आपको पता है कि कोणार्क शब्द, 'कोण' और 'अर्क' शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा। कोणार्क का सूर्य मंदिर पुरी के उत्तर पूर्वी किनारे पर समुद्र तट के करीब निर्मित है। इसे गंगा वंश (Ganga Dynasty) के राजा नरसिम्हा देव (Narsimha Deva) ने १२७८ ई. में बनाया था।


कहा जाता है कि ये मंदिर अपनी पूर्व निर्धारित अभिकल्पना के आधार पर नहीं बनाया जा सका। मंदिर के भारी गुंबद के हिसाब से इसकी नींव नहीं बनी थी। पर यहाँ के स्थानीय लोगों की मानें तो ये गुम्बद मंदिर का हिस्सा था पर इसकी चुम्बकीय शक्ति की वजह से जब समुद्री पोत दुर्घटनाग्रस्त होने लगे, तब ये गुम्बद हटाया गया। शायद इसी वज़ह से इस मंदिर को ब्लैक पैगोडा (Black Pagoda) भी कहा जाता है।

19 वीं शताब्दी में जब इस मंदिर का उत्खनन किया गया तब ये काफी क्षत-विक्षत हो चुका था। जैसे ही इस मंदिर के पूर्वी प्रवेश द्वार से घुसेंगे सामने एक नाट्य शाला दिखाई देती है जिसकी ऊपरी छत अब नहीं है। कोणार्क नृत्योत्सव (Konark Festival) के समय हर साल यहाँ देश के नामी कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते है।

और आगे बढ़ने पर मंदिर की संरचना, जो सूर्य के सात घोड़ों द्वारा दिव्य रथ को खींचने पर आधारित है, परिलक्षित होती है। अब इनमें से एक ही घोड़ा बचा है। वैसे इस रथ के चक्कों, जो कोणार्क की पहचान है को आपने चित्रों में बहुधा देखा होगा। मंदिर के आधार को सुंदरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महिनों को प्रतिबिंबित करते हैं जबकि प्रत्येक चक्र आठ अरों (Spokes) से मिल कर बना है जो कि दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं।



पूरे मंदिर की दीवारें पर तरह तरह की नक्काशी है। कहीं शिकार के दृश्य हैं, तो जीवन की सामान्य दैनिक कार्यों के। कुछ हिस्से में रति क्रियाओं और दैहिक सुंदरता को भिन्न कोणों से दिखाने की कोशिश की गई है। मज़े की बात ये रही कि जब भी ऍसा कोई शिल्प पास आने वाला होता हमारा गाइड समूह के पुरुषों को तेजी से आगे बढ़वाकर धीरे से फुसफुसाता कि ये देखिए ! :)

मंदिर के चारों ओर आर्कियालॉजिकल सर्वे आफ इंडिया (Archeological Survey of India) ने एक बेहद सुंदर हरा भरा बाग बना रखा है जो इन खंडहरों में एक जीवंतता लाता है...आप भी देखिए, खूबसूरत है ना ? 

इस वृत्तांत के अगले हिस्से में देखेंगे वो जगह, जहाँ कभी सम्राट अशोक ने भयंकर युद्ध के बाद हमेशा के लिए शांति को अंगीकार किया था।

आप फेसबुक पर भी इस ब्लॉग के यात्रा पृष्ठ (Facebook Travel Page) पर इस मुसाफ़िर के साथ सफ़र का आनंद उठा सकते हैं।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

आइए देखें कितने आकर्षक थे इस साल राँची के दुर्गा पूजा पंडाल !

दुर्गा पूजा, पूर्वी भारत यानि बंगाल, बिहार, झारखंड एवमं उड़ीसा में सोल्लास मनाया जाने वाला त्योहार है। दिन क्या रात के दो बजे तक, मेरे शहर राँची में दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ी पड़ती है। हर साल इस अवसर मैं आपको राँची की सड़्कों पर ले चलता हूँ , पर इस बार मैं पाँच अक्टूबर को ही राँची से भुवनेश्वर चला आया। पर ट्रेन पर चढ़ने के पहले राँची में बन रहे पंडालों का चक्कर मारने से खुद को रोक नही पाया।

राँची में पंडालों (Puja Pandals of Ranchi) को अक्सर देश के प्रसिद्ध मंदिरों की तर्ज़ पर बनाया जाता है। पंडालों की दीवारों पर अलग अलग तरीकों से मनमोहक कलाकृतियों को उकेरा जाता है।
तो आइए चलें थोड़ी देर से ही सही इस मुसाफ़िर के साथ पंडालों की सैर पर..



राजस्थान मित्र मंडल (Rajasthan Chitra Mandal) का पंडाल



पंडाल के अंदर की दीवारों पर अक्सर हमारी पौराणिक कथाओं से जुड़े चित्र को बनाया जाता है


और यहाँ देखें बाहरी दीवारों को मूँगफली के छिलके कैसी सुंदरता प्रदान कर रहे हैं......साथ ही प्रयोग किया गया है नारियल के रेशे का


और ये है हरमू रोड (Harmu Road) के पंडाल का नज़ारा, इस रोड की खासियत ये है कि हमारे धोनी साहब अपना नया मकान यहीं बना रहे हैं



और ये रहा सत्य अमर लोक का पंडाल जो मुझे सबसे खूबसूरत लगा। इस पंडाल को थाईलैंड (Thailand) के प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर का रूप दिया गया है।


पंडाल की दीवारें जूट के रेशों से की गई नक्काशियों से अटी पड़ीं थीं। आप भी देखिए...




और ये है राँची का सबसे बड़ा बकरी बाजार का पंडाल जहाँ इस साल पहाड़ं पर खड़े इस तिरुपति के बालाजी मंदिर की झांकी प्रस्तुत की गई थी..




और बँगला स्कूल में तो हर बार की तरह बच्चों का मन मोहने वाले आकर्षक पुतले बनाए जा रहे थे।


पर ये तो था दिन का दृश्य। समय की कमी की वज़ह से रातू रोड (Ratu Road) और कोकर (Kokar) के इलाकों में जाना नहीं हो पाया।अगर राँची की सड़कों पर रात में जगमगाते पंडालों और उस वक़्त के माहौल का अनुभव करना चाहते हों तो इन प्रविष्टियों पर क्लिक करें

मेरा दशहरा तो इस बार उड़ीसा के आंतरिक इलाकों की सैर करते बीता। आशा है आप सबने भी इस दशहरे और दुर्गा पूजा का सपरिवार आनंद उठाया होगा...

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

मेरी उड़ीसा यात्रा भाग-४ :सफ़र चिल्का ( चिलिका ) झील का और कथा सफेद नकाबपोश सैनानियों की Chilka Lake Satpada

पुरी से चिल्का ( चिलिका ) झील का जो सिरा सबसे नजदीक पड़ता है उसका नाम सतपाड़ा (Satpada) है और ये पुरी से करीब ५० किमी दूरी पर है। सतपाड़ा पहुँचने में अपनी गाड़ी में बमुश्किल सवा घंटे लगते हैं। हाँ, सामान्य बस से यही दूरी तय करनें में एक घंटा तक ज्यादा लग सकता है। सफ़र का आधा हिस्सा पतली सड़क पर गाँवों और कस्बों के कच्चे पक्के घरों , खेत खलिहानों को देखते गुजरता है। सतपाड़ा से करीब 20 किमी पहले से रास्ता झील के पार्श्व जल के समानांतर चलता जाता है।

सतपाड़ा से नौकाएँ बंगाल की खाड़ी के मुहाने तक जाती हैं जो कि वहाँ से करीब छः किमी की दूरी पर है। कहते हैं एक ज़माने में चिलका के इसी हिस्से से सुदूर पूर्व तक व्यापार होता था। ऍसे तो चिलका की विशाल झील में बोटिंग करने का अनुभव अपने आप में बेहद सुकून देने वाला है पर चिलका का सौ्दर्य तब और भी खिल उठता है जब तेज सर्दियों में इसके विशिष्ट अतिथि इसकी दूर-दूर तक फैली हल्की हरी चादर पर पनाह लेने के लिए आते हैं।

जी हाँ, मैं उन्हीं साइबेरियन क्रेन (Siberian Crane), फ्लेमिंगो (Flemingo) की बात कर रहा हूँ जो रूस और मध्य एशिया की बर्फीली सर्दियों से बचने के लिए दिसंबर से मार्च तक अपना डेरा डालते हैं। उस वक्त सारी झील सफेद सी परत लिये दिखती है। यहाँ के स्थानीय निवासी इन पक्षियों के बारे में बड़ी रोचक कथा सुनाते हैं।

कहा जाता है कि पहली बार जब ब्रिटिश फौजों ने इस रास्ते से उड़ीसा की मुख्यभूमि पर हमला बोलने की सोची तो उन्हें ऊँचे-ऊँचे सफेद वर्दी पहने सैनिकों की कतार दिखाई पड़ी और वो घबरा कर वापस चले आए। ये सफेद नकाबपोश और कोई नहीं ये दूर से आने वाले पक्षी(Migratory Birds) ही थे।:)

खैर हम ये दृश्य देखने से वंचित रह गए क्योंकि नवंबर के महिने में झील में इन पंछियों ने आना शुरु ही किया था। फिर भी दूरदराज में इनकी झलक मिलती रही। नाव के पार्श्व में जो सफेद हल्की लकीर देख रहें हैं आप, वे पक्षी ही हैं:)।

सतपाड़ा से सी-माउथ (Sea Mouth) यानि समुद्री मुहाने के रास्ते में दोनों ओर नारियल के झुंडों के बीच बसे छोटे-छोटे गाँव नज़र आ रहे थे। प्रसिद्ध भारतीय नृत्यांगना सोनल मान सिंह (Sonal Man Singh) इसी मिट्टी की उपज हैं। ज्यादातर गाँव मछुआरों के हैं।
पर्यटकों को इस यात्रा में डॉलफिन के दर्शन कराने की बात कही जाती है। पर इससे आप वैसी डॉलफिन ना समझ लीजिएगा जिसके करतबों का मुज़ाहरा आप अक्सर टीवी के पर्दों पर विदेशी फुटेज में देखते आए हैं। चिलका की डॉलफिन (Dolphin) पालतू ना होकर प्राकृतिक हैं और मछुआरों द्वारा बिछाए जालों के आस पास मछलियों का शिकार करने के लिए उछलती रहती हैं।

अब ये नज़ारा जब हमें देखने को मिला और दो-दो कैमरों से इनकी तसवीरें लेने की पुरज़ोर कोशिश की। पर इनकी छलाँग में सेकेंड के कुछ हिस्से में ही ये सतह के ऊपरी हिस्से पर दिखती हैं और उसी समय आपको कैमरे का ट्रिगर दबाना होता है। और क्या आप यकीन करेंगे की हमारे सम्मिलित पंद्रह प्रयासों में से एक में ये डॉलफिन क़ैद की जा सकी, वो भी ऍसी जिसमें सामने वाले को बताना पड़े कि ये डॉलफिन है।:)

समुद्री मुहाने पर हम करीब एक घंटे रुके। समुद्र और झील के बीच रेत का एक बड़ा हिस्सा फैला हुआ है। बारिश के समय चिलका झील जब अपने अधिकतम विस्तार पर होती है तब ये देश के सबसे बड़े मीठे पानी की झील बन जाती है जबकि बाकी समय में समुद्र की ओर से आता जल इसे नमकीन बना देते हैं।

चिलका में पाया जाने वाला झींगा बड़ा ही स्वादिष्ट होता है। अब ये मैं अपने नहीं बल्कि अपने सहयात्री के अनुभवों से बता रहा हूँ जिन्होंने वापस लौटते समय दिन के भोजन में इसका भरपूर आनंद लिया। वैसे तो अगर समय हो तो चिलका में एक रात गुजारने से यहाँ के रमणीक सूर्यास्त और सूर्योदय का दृश्य देखा जा सकता है पर हमें शाम को जगन्नाथ मंदिर के दर्शन भी करने थे इसलिए सूर्यास्त के पहले हम पुरी लौट आए।

यात्रा के अगले हिस्से में चलेंगे कोणार्क मंदिर (Konark temple) के सफ़र पर और दिखाएँगे आपको चंद्रभागा तट (Chandrabhaga Beach) की एक झांकी....

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
  1. सफर राँची से राउरकेला होते हुए पुरी तक का
  2. पुरी का समुद्र तट क्यूँ है इतना खास ?
  3. पुरी का सूर्योदय और वो सुबह का समुद्री स्नान

सोमवार, 29 सितंबर 2008

मेरी उड़ीसा यात्रा भाग-३ :पुरी का सूर्योदय और वो सुबह का समुद्री स्नान

अब तक आपने पढ़ा पुरी तक पहुँचने और समुद्र के सानिध्य में बिताए पहले दिन का हाल। आज देखें मेरे साथ पुरी का सूर्योदय और आनंद उठाएँ सुबह के समुद्री स्नान का।
जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में जिक्र किया था मेरे मित्र की कानपुर से आने वाली ट्रेन, दस घंटे विलंबित होते होते रात के करीब दो बजे पहुँची। गेस्ट हाउस में आते ही उसे ताकीद दे दी गई थी कि भाई पुरी के समुद्र तट का आनंद लेना है तो बस तुम्हारे लिए सिर्फ सुबह का समय बचा है। सूर्योदय के साथ अगर पानी बहुत ठंडा ना हुआ तो एक डुबकी भी लगा ली जाएगी।

पर गलती ये हो गई कि इस कार्यक्रम की जानकारी गेस्ट हाउस के चौकीदार को नहीं दी गई। अगली सुबह आँखे मलते-मलते जब किसी तरह हम सवा पाँच बजे तैयार हुए तो पता चला कि हम गेस्टहाउस में क़ैद हैं। नीचे के ग्रिल पर ताला लटका था और चौकीदार पर हमारी और रूम की कर्कश कालिंग बेल की आवाज़ों का कोई असर नहीं हो रहा था। उधर दूर क्षितिज पर सूर्योदय के पहले की हल्की-हल्की लाली नज़र आने लगी थी। हम सब हाथ पर हाथ धरे कुछ देर बैठे रहे। अंत में मेरे कनिष्ठ सहकर्मी ने एक जुगत भिड़ाई। पहले मंजिले के रेलिंग से लटकते हुए वो सामने वाली छत पर पहुँचा और फिर वहाँ से करीब छः सात फीट नीचे कूद गया। इस तरह चौकीदार को जगा के ताला खोला गया और हम करीब छः सवा छः बजे तक तेज़ कदमों से भागते टहलते समुद्र तट के करीब पहुँच गए।

वहाँ पहुँचे तो देखा कि सूर्योदय तो दस मिनट पहले ही हो गया था। पर सूर्य देवता बादलों की ओट में अपनी लाली बिखेरते शायद हमारे ही आने का इंतजार कर रहे थे। हमने तुरत फुरत में उस समय की तसवीरें लीं ।


सामने के नज़ारे को देखते ही सबका मन समुद्र में गोते लगाने का हो गया। पहले दिन की अपेक्षा आज सागर पूरे जोश में था और लहरें सिर की ऊँचाई तक उठ रहीं थीं। कुछ देर तो मैं अपने कैमरे की रखवाली करता रहा पर मित्रों को पानी में मस्ती करता देख रहा नहीं गया और मैं भी उनके साथ हो लिया। समुद्र तट खाली था। हमारे सिवाए इतनी सुबह स्नान को आतुर कोई पर्यटक नहीं दिख रहा था। हाँ सुबह टहलने वाले इक्का दुक्का दिख जाते थे। हम सभी को लहरों के साथ कूद फाँद करने में बेहद मज़ा आ रहा था। ऊँची लहरों के आते ही हमारे आस पास का समुद्री फेनीय जल श्वेत आभा से चमक उठता था। आप खुद ही देखिए..


पर आज का मुहुर्त ही कुछ गड़बड़ था। नहा के वापस लौटे तो देखा कि हमारे वरीय सहयोगी अपने तौलिए की बजाए अपनी छोटी बेटी का तौलिया उठा लाए हैं। ख़ैर जैसे तैसे छुपते छुपाते हमने कपड़े बदले। दूर से दोस्त ये देख हल्ला मचा रहे थे पर उन्हें क्या पता था कि कुछ ही समय बाद उनमें से एक पर क्या विपदा आने वाली है।

हुआ यूँ कि जब समने वस्त्र बदल लिए तो मेरे मित्र को ख़्याल आया कि उसने जल्दबाजी में भीगे कपड़ों पर ही पैंट पहन ली है। सो फिर उसे भी उसी तौलिए की शरण में जाना पड़ा। अब एक झटके में जैसे ही मित्र ने अंदर के कपड़े निकाले, तौलिया जवाब दे गया। अब हमारा तो हँसते-हँसते बुरा हाल था। रास्ते भर वो हमें कोसता गया कि "सर ऍसा तौलिया लाने से अच्छा था कि कुछ ना लाते"

वापस लौट कर हमें चिलका झील की ओर निकलना था जिसका एक सिरा पुरी से करीब ५० किमी दूर है। अगली पोस्ट में आपको ले चलेंगे खुर्दा, गंजाम और पुरी जिलों में करीब ११०० वर्ग किमी तक फैली इस झील के सफ़र पर....

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
  1. सफर राँची से राउरकेला होते हुए पुरी तक का
  2. पुरी का समुद्र तट क्यूँ है इतना खास ?