उड़ीसा की जनजातियाँ भले ही गरीबी और कुपोषण के दंश को जीवन पर्यन्त झेलने को मजबूर हों फिर भी सामाजिक जीवन में उन्होंने पारंपरिक नृत्य और संगीत को अपने त्योहारों और रीति रिवाजों से समाहित रखा है। वैसे तो विभिन्न जनजातियों में नृत्य की विभिन्न शैलियाँ हैं पर कुछ हद तक इनमें साम्यता भी है। इन सारे नृत्यों में एक खास तरह के रिदम यानि ताल रखा जाता है। ये लय तालियों के रूप में हाथों की थाप या फिर ढोल या नगाड़ों से रची जाती है। नर नारी और बच्चे सभी लोक गीत गाते हैं और साथ ही थिरकते हैं पर नृत्य की लय देने का काम सामान्यतः पुरुष ही करते हैं, जैसा कि आप नीचे के चित्र से देख सकते हैं
उड़ीसा की विभिन्न जनजातियाँ यूँ तो पूरे राज्य के विभिन्न जिलों में पाई जाती हैं पर कोरापुट, मयूरभंज, कालाहांडी, सुंदरगढ़ क्योंझर, काँधमाल और मलकानगिरि जिलों में इनकी संख्या ज्यादा है। इनमें से कुछ ने तो खेती बाड़ी को अपना प्रमुख उद्यम बना लिया है तो कुछ ने अभी तक अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभावों से मुक्त रखा है। नीचे के दृश्य में युद्ध पर जाते एक जनजातीय दल को दिखाया गया है।
नृत्य और संगीत उड़ीसा की संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं। ओडिसी नृत्य का उद्भव उड़ीसा के मंदिरो से हुआ और प्राचीन समय से मंदिर की देवदासियों ने इस परम्परा को बनाए रखा। नीचे के चित्र इस नृत्य की विभिन्न भाव भंगिमाओं और साथ प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्रों को प्रदर्शित कर रहे हैं।
इसके आलावा मैंने भुवनेश्वर में ऍसी दीवारों को भी देखा जिन पर यहाँ की प्रसिद्ध संभलपुरी (Sambhalpuri Silk) और तसर सिल्क की साड़ियाँ लगी हुई थीं। यानि अगर आपने पूरे शहर का चक्कर मार लिया तो यहाँ की सारी कलाओं की झांकियाँ तो मिल ही जाएँगी। है ना नायाब तरीका अपने राज्य की धरोहरों को प्रदर्शित करने का !