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बुधवार, 22 सितंबर 2010

दीघा यात्रा समापन किश्त : वो अविस्मरणीय सुबह की सैर जो हमें ले गई बंगाल से उड़ीसा !

दिसंबर की किसी सुबह का ख्याल आते ही आपका मन में कड़कड़ाती ठंड की याद आना स्वाभाविक है जिसमें रजाई से बाहर ना निकलने का आलस्य भी समाहित रहता है। पर समुद्र के पास वैसी ठंड नहीं होती। पर ये भी नहीं कि आप सूर्य उगने के पहले उठें और बिना किसी ऊनी कपड़े के चलते बने। पंद्रह दिसंबर को हम सभी को वापस लौटना था और अभी तक मैंने सुबह का सूर्योदय नहीं देखा। फिर नए दीघा के आस पास के समुद्र तट में तफ़रीह की इच्छा भी जोर मार रही थी। नए दीघा से बाँयी ओर का रास्ता पुराने दीघा तक ले जाता है। पर ये रास्ता ना तो साफ है और ना ही शहरीकरण से अछूता। दाँयी ओर का रास्ता दीघा से बाहर को जाता है।

सुबह छः बजे उठ कर स्वेटर डाल हम उसी रास्ते पर निकल लिए। हम लोगों को पता नहीं था कि ये रास्ता हमें कहाँ ले जाएगा ? बच्चन की पंक्तियाँ याद आने लगीं
पूर्व चलने के बटोही
बाट की पहचान कर ले
हम दो थे इसलिए इन पंक्तियाँ को अनसुना करते हुए हम अपने अनजाने गन्तव्य की ओर बढ़ चले..

नए दीघा के समुद्र तट पर पहुँचे तो ऐसा लगा कि दीघा के सारे पर्यटक ही हमसे पहले उठ कर आ पहुँचे हों। लोगों की लंबी कतार सूर्य देव की प्रतीक्षा में आसमान की ओर अपलक निहार रही थी पर सूर्य महोदय बादलों के घर चाय पीने में तल्लीन थे। आखिर जाड़े के दिनों में आलस्य क्या सिर्फ मानव जाति तक ही सीमित रहता होगा? नए दीघा में भीड़ के साथ समुद्र तट भी उतना साफ नहीं रहता इसलिए हमलोग तट के समानांतर दीघा के बाहर जाने वाले रास्ते में आगे बढ़ गए।



कुछ ही देर में हमें मछुआरों की एक टोली मिली जो सुबह में पकड़ी गई मछलियों को अपने विक्रेताओ तक पहुँचाने में तल्लीन थी। कोई झोलों में मछलियाँ भर रहा था तो कोई प्लास्टिक की ट्रेज में। प्लास्टिक ट्रेज मोटरसाइकिल पर लाद कर विक्रेता फर्राटे से अपने ठिकानों पर जा रहे थे। ऍसी सुविधा बंगाल की खाड़ी से लगे बंगाल और उड़ीसा के तटों में ही देखने को मिलती है।



मछुआरों को छोड़ कर आगे बढे ही थे कि सूर्य देव के दर्शन हो गए।




हम लोगों ने बारी बारी से सूर्य को अपनी मुट्ठियों में क़ैद करने की कोशिश की। जो नतीजा आया वो सामने है।



अब समुद्र तट बिल्कुल सुनसान हो चला था। दाँयी ओर अचानक ही पेड़ों की कतार शुरु हो गई थी। इस सन्नाटे में एक मन हुआ कि वापस लौट चलें पर समुद्र तट की ये शांति अंदर ही अंदर मन को प्रफुल्लित भी कर रही थी। हम इसी उहापोह में थे कि दूर तट पर नाव की कतारें दिखाई पड़ीं। हम एक बार फिर मछुआरों की किसी बस्ती के पास पहुँच रहे थे। नावों के थोड़े और पास आने पर हमें सब जाना पहचाना लगने लगा।


अरे कल दिन में यहीं तो हम आए थे यानि हम पैदल चलते हुए उदयपुर के उस तट पर पहुँच चुके थे जहाँ मैंने बच्चों के साथ समुद्र में डुबकी लगाई थी। नए दीघा से पैदल चल कर उदयपुर के तट पर पहुँचने में हमें करीब पचास मिनट लगे थे।

अब और आगे बढ़ने से हम कहाँ पहुंचेगे ये उत्सुकता मन में जग चुकी थी। आगे बढ़ने का फैसला लेने में हमें तब आसानी हुई जब एक अधेड़ युगल को और आगे हमने टहलते जाते देखा। हमने वापस आठ बजे होटल तक पहुँचने का लक्ष्य रखा था इसलिए अपनी गति बढ़ा दी। करीब आधे घंटे हम समुद्र और किनारे के पेड़ों की कतारों के बीच के चौरस तट पर चलते रहे।

घड़ी अब सवा सात बजा रही थी और पेड़ों की कतारें आगे जाकर दाँयी ओर मुड़ती दिख रही थीं। हम लोगों ने सोचा कि इन मुड़ती कतारों के साथ हम भी वापस हो लेंगे क्यूँकि अब हमारे आगे पीछे दूर दूर तक कोई नहीं था। पर जैसे जैसे हम उस मोड़ के पास पहुँचे समुद्र से एक धारा हमारे रास्ते को काटती दिखाई दी।



हम दोनों खुशी से चिल्लाए कि ये तो तालसरी है यानि हम अब उड़ीसा की सीमा के अंदर थे। जिस नदी को हमने पार किया था वो समुद्र की उस धारा के पीछे दिख रही थी। यानि दस बारह किमी के रोड के रास्ते से पिछले दिन हम जिस तालसरी तक पहुँचे थे उसे पैदल हमने डेढ़ घंटे में ही निबटा दिया था।



तालसरी के पास समुद्र धाराओं के दो भागों में बँटने से उत्पन्न हुआ दृश्य बड़ा ही मनमोहक था। नदी की लाई मिट्टी और रेत के होने से वहाँ एक दुबला पतला पेड़ भी खड़ा हो गया था। तालसरी के मुहाने के कुछ दूर पहले से ही हम वापस लौटने लगे। लौटते समय जहाँ मेरा मित्र शंखों और सीपों को चुनने में व्यस्त हो गया वहीं मैंने समुद्र तट के किनारे चलने वाले उस विरल जंगल के बीच से अपनी राह बना ली।








नए दीघा तक जब हम वापस पहुँचे साढ़े आठ बजने को थे। तट पर भीड़ और बढ़ गई थी। घोड़े वाले घोड़ों को सुसज्जित कर घुमाने को तैयार थे।


हमारी अन्तर्राज्यीय मार्निंग वॉक समाप्त हो चुकी थी पर ये वाक़या मुझे वर्षों याद रहने वाला था।



दो घंटे बाद हम अपने समूह के सदस्यों को फिर उसी रास्ते पर ले गए। इस बार नहाने के लिए हमने उदयपुर और नए दीघा के बीच का समुद्र तट चुना। घंटे दो घंटे हम सभी ने एक बार फिर जम कर समुद्र में स्नान किया। ये स्नान हमारी दीघा यात्रा का पटाक्षेप भी था।

आशा है दीघा के इस सफ़र में आपको भी आनंद आया होगा। मेरी आपको यही सलाह है कि जब भी आप दीघा जाएँ नए दीघा से पुराने दीघा का समुद्र तट छोड़कर मंदारमणि, शंकरपुर उदयपुर के सुंदर और साफ समुद्र तटों पर स्नान करें। इससे यात्रा का आनंद और बढ़ जाएगा। इसी वज़ह से दीघा की हमारी ये दूसरी यात्रा पहली यात्रा की अपेक्षा ज्यादा आनंददायक रही।

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


  • हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
  • मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
  • दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब
  • आज करिए दीघा के बाजारों की सैर और वो भी इस अनोखी सवारी में...
  • तालसरी जहाँ पैदल पार की हमने नदी और चंदनेश्वर मंदिर
  • वो अविस्मरणीय सुबह की सैर जो हमें ले गई बंगाल से उड़ीसा
  • शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

    दीघा यात्रा : तालसरी जहाँ पैदल पार की हमने नदी और चंदनेश्वर मंदिर

    अब तक के यात्रा विवरण में मैंने आपको बताया कि किस तरह पहले दिन हमने की मंदारमणि और शंकरपुर की सैर और देखी शाम में दीघा के बाजारों की रौनक। दीघा का दूसरा दिन चंदनेश्वर मंदिर और तालसरी के लिए मुकर्रर था। दरअसल बंगाल की खाड़ी के उत्तरी सिरे में बसा दीघा, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा की सीमा से बहुत सटा है। इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि चंदनेश्वर मंदिर जो दीघा से मात्र आठ किमी की दूरी पर स्थित है उड़ीसा राज्य के अंदर आता है।

    चंदनेश्वर, भगवान शिव का मंदिर है। चैत माह के अंत में इस मंदिर में विशाल मेला लगता है। मेले के समय आस पास के राज्यों से ढेरों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। सुबह साढ़े दस के करीब जब हम मंदिर के प्रांगण में दाखिल हुए तो वहाँ अच्छी खासी चहल पहल थी। पंडे साथ लगने के लिए तैयार थे पर हमने उन्हें ज्यादा तवज़्जह नहीं दी। मुख्य मंदिर तो शिव का है पर साथ में कृष्ण लला और अन्य भगवनों के मंदिर भी हैं।

    सारी प्रतिमाओं के सामने शीश झुका कर हम बाहर निकल ही रहे थे कि एक मज़ेदार घटना घटी। हुआ यूँ कि भक्तों को सिर्फ भगवान शिव पर प्रसाद चढ़ाते देख उनकी सवारी कुपित हो गई और गुस्से के मारे आहाते में ही झूमती हुई इधर उधर जाने लगी। अब शिव के उस मंदिर में साँड़ को रोकने की हिम्मत किसे। सो लोग इधर उधर छिटककर उसे रास्ता देने लगे। अब साँड़ महोदय मुख्य मंदिर से सटे मंदिर की ओर उन्मुख हुए। वहाँ एक पंडित जी मंदिर से निकल कर सामने के सरोवर की ओर मुख कर प्रार्थना कर रहे थे। साँड़ उनके पास आ गया तो भी वे बेखबर पूजा में लीन रहे। साँड़ को ये बात अखर गई और उसने सामने की ओर झुके पंडित की धोती पर अपनें सींगों से एक करारा झटका दे दिया। बेचारे भगवन के दूत की इस अभद्रता के बावजूद किसी तरह सँभल गए तब तक साँड़ की ओर कुछ भोजन फेंक कर उसे प्रसन्न किया गया।

    चंदनेश्वर से हम तालसरी की ओर बढ़े। तालसरी, चंदनेश्वर से करीब तीन किमी पर स्थित समुद्र तट है। बालेश्वर और चाँदीपुर वाले रास्ते से ये करीब नब्बे किमी दूर है। यहाँ पर एक नदी समुद्र से आकर मिलती है इसीलिए शायद इस जगह का नाम तालसरी पड़ा। तालसरी के समुद्र तट पर मछुआरों की बस्ती है। जैसे ही आप तालसरी के समुद्र तट के पास पहुँचते हैं नदी के किनारे खड़ी नावों की कतारें और मछुआरों के जाल आपका स्वागत करते हैं।

    नदी में पानी बहुत ज्यादा नहीं था, फिर भी नाव से लोग नदी पार कर रहे थे। नदी में ज्वार के साथ पानी बढ़ता है पर दिन के पौने ग्यारह बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो लो टाइड (Low Tide) का वक़्त था। हम निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि नदी नाव से पार की जाए या पैदल। नदी का तट दूर से ही पंकिल नज़र आ रहा था जिसमें हमें फिसलने की पूरी संभावना दिख रही थी।

    फिर नदी का पानी कितना गहरा होगा ये भी नहीं पता लग पा रहा था। हमने सोच विचार में ही वक़्त गँवा दिया और उधर पानी का स्तर इतना कम हो गया कि नाव चलनी बंद हो गई। लिहाज़ा समुद्र तट तक पहुँचने के लिए हम अपनी अपनी चप्पलें हाथों में लेकर नंगे पाँव पैदल ही चल पड़े।

    आशा के विपरीत नदी का पाट पंकिल ना हो कर ठोस था। फिसलन से बचते बचाते जैसे ही नदी के शीतल जल से चरणों का स्पर्श हुआ, गर्मी से निढ़ाल पूरे शरीर की थकान एकदम से जाती रही। बच्चों को नदी के जल में छपा छईं करने में बेहद आनंद आया।

    नदी पार करते हुए ही हमें लाल केकड़ों के विशाल साम्राज्य के दर्शन हुए। दूर दूर तक जिधर भी नज़र जाती थी लाल केकड़े भारी संख्या में फैले नज़र आते थे। ऐसा लगता था मानों बालू की चादर लाल लाल फूलों से सजी हो। इनमें से कुछ केकड़ों के साथ हमने कैसे दौड़ लगाई ये विवरण तो आप पहले ही यहाँ पढ़ चुके हैं।

    शंकरपुर की तुलना में यहाँ केकड़ों का आकार और उनका घर भी अपेक्षाकृत बड़ा था। इनके बिल के चारों ओर गोलीनुमा भोज्य अवशेषों को देखकर मेरे मित्र की छोटी सी बिटिया बोल उठी "देखो क्रैब भी पूजा करने के लिए अपने घर के बाहर भगवान जी के लिए लड्डू बना कर रखा है।" भोलेपन में कही उसकी ये बात जब सबने सुनी तो ठहाकों का दौर काफी देर तक चला।

    लाल क्रैबों की दुनिया से निकलकर हम तालसरी के दूर तक फैले समतल समुद्र तट की ओर निकल लिए। दूर मछुआरों की दो नौकाएँ जाल में फँसी मछलियों के साथ तट पर लौटी थी। जाल को खींचने के लिए लोग कतार बाँध कर खड़े थे और आवाज़ें लगा रहे थे।
    नदी और समुद्र के मुहाने की एक खास बात थी, नदी के सूखे पाट पर पानी द्वारा बनाया गया सर्पीला घुमावदार पैटर्न, जो दूर तक फैला होने की वज़ह से और भी खूबसूरत लग रहा था। तालसरी से निकलने के पहले हमारे समूह ने एकत्रित होकर एक छवि खिंचवाई ताकि सनद रहे।

    तालसरी से हम लोग दीघा के उदयपुर के समुद्र तट पर गए। उदयपुर दरअसल मछुआरों का एक गाँव है और उसी गाँव के नाम पर इस समुद्र तट का नाम पड़ा है। समुद्रतट पर नाममात्र को सैलानी थे। मंदारमणि, शंकरपुर की तरह उदयपुर का समुद्र तट भी काफी चौरस और रमणीक है। तट पर दूर नावों की कतार दिख रही थी । दूर तक फैला हुआ तट एक साफ सुथरे मैदान की तरह दिख रहा था जिसके बीचो बीच प्लास्टिक की चादर ताने चाय बिस्कुट की दुकान ही दोपहर की निस्तब्धता को तोड़ रही थी।

    तालसरी में बच्चे पानी में नहीं उतरे थे। पर यहाँ उनसे सब्र कर पाना मुश्किल था। बच्चों को समुद्र में जाते देख मुझे भी जोश आ गया और मैंने भी उनके साथ समुद्र में डुबकी मार ली।


    दीघा की अगली सुबह भी एक यादगार सुबह थी क्यूँकि जहाँ तक हम लोग दूसरे दिन गाड़ी से दस बारह किमी चल कर पहुँचे थे वहाँ तक समुद्र तट के किनारे- किनारे चलकर करीब एक घंटे में पैदल पहुँच गए। कैसी रही हमारी भोर की वो यात्रा ये बताएँगे आप को अपनी दीघा यात्रा की समापन किश्त में...

    इस श्रृंखला में अब तक


  • हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
  • मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
  • दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब
  • आज करिए दीघा के बाजारों की सैर और वो भी इस अनोखी सवारी में...
  • सोमवार, 30 अगस्त 2010

    आज करिए दीघा के बाजारों की सैर और वो भी इस अनोखी सवारी में...

    पिछली बार आपसे वादा किया था कि आपको रात के दीघा की रौनक के दर्शन कराऊँगा। पर बाजार का चक्कर लगाने से पहले ये तो जान लीजिए कि नए दीघा से पुराने दीघा के बाजारों तक जाने के लिए पर्यटक को कैसी सवारी उपलब्ध होती है? ना ना यहाँ आपको आटो या सामन्य रिक्शा नज़र नहीं आएगा। सामान्य रिक्शे यहाँ स्कूल रिक्शे की शक्ल में नज़र आते हैं। पर यहाँ की असली शान की सवारी है ठेला। चौंक गए जनाब ! ओ हो हो मैं भी तो थोड़ा गलत बोल गया मुझे कहना चाहिए था मोटाराइज्ड ठेला

    शाम को जब हमारी अर्धांगनियाँ बाजार के विस्तृत अध्ययन के लिए चली गईं तो सारे बच्चों का मन बहलाने की जिम्मेवारी हम लोगों पर आन पड़ी। अब भानुमति के इस कुनबे को हमें दीघा के मछलीघर और विज्ञान केंद्र की सैर करानी थी। होटल से बाहर निकलते ही हमें ये अजीब सी सवारी दिख गई। सो लद गए हम सब के सब इस पर और कुछ ही देर में हमारे ठेले का डीजल इंजन हमें दीघा की सड़कों पर सरपट दौड़ाने लगा।

    दीघा के विज्ञान केंद्र से लौटते लौटते शाम हो चुकी थी। अब हमें बच्चों को उनकी माताओं के सुपुर्द करना था। पर मोबाइल नेटवर्क काम ही नहीं कर रहा था लिहाजा हम सब बच्चों के साथ पुराने दीघा के बाजारों में उनकी खोज़ के लिए चल पड़े। दीघा का बाजार समुद्र तट के समानांतर फैला हुआ है। बंगाल का सबसे लोकप्रिय समुद्र तट होने के कारण यहाँ शाम को बाजारों में खासी चहल पहल होती है।


    यूँ तो ये बाजार एक आम बाजार की तरह है। पर यहाँ आने से मछली खाने के शौकीन पर्यटक, सी पाम्फ्रेड का स्वाद लेना नहीं भूलते।

    वैसे हम जैसे शाकाहारियों को फिर कुछ इस तरह की स्टॉल की शरण में जाना पड़ता है।


    खाने पीने के आलावा दीघा का बाजार मेदनीपुर जिले में सीप से बनाई हुई वस्तुओं का एक बड़ा बाजार है। शंख, मूर्तियाँ, माला, कान के बूँदे ,घर की आंतरिक सज्जा के लिए सीप की मालाओं से बने पर्दे, सीप के कवच से बने रंगीन खिलौने इस बाजार का प्रमुख आकर्षण हैं। एक नज़र आप भी देख लीजिए..







    वैसे पचास रुपए में अंदर में आपको ब्रेसलेट, बूँदे और माला का पूरा सेट मिल जाए तो क्या आप इनकी तरह उन्हें पहन कर नहीं चमकना चाहेंगी?

    वैसे दीघा में जूट के बने झूले, चटाई भी वाज़िब दामों में मिलते हैं। और हाँ यहाँ काजू भी अपेक्षाकृत सस्ते हैं। इसलिए अगर दीघा जाएँ तो कुछ खरीदारी तो आप कर ही सकते हैं।

    दीघा की यात्रा की अगली कड़ी में ले चलेंगे आपको एक मंदिर और फिर नंगे पैरों से पार करेंगे एक नदी।

    इस श्रृंखला में अब तक

  • हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
  • मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
  • दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब
  • शनिवार, 21 अगस्त 2010

    आइए ज़रा करीब से देखें दीघा के इन लाल 'राजकुमारों' को....

    दीघा के आस पास के समुद्रतटों की इस सैर में पिछली बार मैंने आपको इस छिद्र के पास छोड़ा था। इसे देखकर मन उत्साह से भर गया था। जो मंदारमणि में नहीं देख पाए थे वो कम से कम शंकरपुर में तो देखने को मिले।


    छिद्र से और थोड़ी दूर बढ़ने पर दूर से ही मुझे लाल केकड़ों (Red Crabs of Digha) का पूरा दल घूमता टहलता दिखाई दिया।

    खुशी के मारे मैंने अपने साथियों को आवाज़ें देनी पड़ी। पर मैं तो उन्हें समुद्र तट से करीब 300-400 मीटर दूर छोड़ आया था सो मेरी आवाज़ साथियों तक कहाँ पहुँचती। (नीचे के चित्र को बड़ा कर के देखेंगे तो मैं करीब करीब उसी जगह था जहाँ एक व्यक्ति आपको दिख रहा है।)


    साथियों को पास बुलाने का एक उद्देश्य ये भी था कि इन केकड़ों का चित्र लेने के लिए उनके ज्यादा ज़ूम वाले कैमरों का प्रयोग किया जाए। लाल केकड़े अगर अपने बिल के पास होते हैं तो उनके दस मीटर की दूरी तक ही आप पहुँच सकते हैं। अगर आपने और पास आने की कोशिश की तो वो चट से अपने बिल में घुस कर अदृश्य हो जाते हैं।

    अप इन्हें ही देख लीजिए ना किस तरह बिल में घुसने की तैयारी कर रहे हैं।


    ये लाल केकड़े ज्यादा देर धूप में नहीं रह सकते इस लिए समुद्र तट पर रेत के बिल बना कर रहते हैं। साल में कम से कम एक बार ये अंडे देने के लिए समुद्र की ओर रुख करते हैं। हम तो ये दृश्य नहीं देख पाए पर समुद्र की ओर जब ये भारी संख्या वाले समूह में चलते हैं तो ऐसा लगता है मानो समुद्र के किनारे लाल लाल फूलों की बहार आ गई हो।



    अगले दिन हम जब तालसरी गए तो वहाँ तो चारों ओर केकड़े ही केकड़े दिख रहे थे। तालसरी में पर्यटक की संख्या बहुत कम होती है इसलिए यहाँ केकड़े अपने घर से दूर घूमते भी नज़र आए। ये देखते हुए इस दफ़ा हमने उनका पास से चित्र लेने की दूसरी तरकीब सोची। एक केकड़ा जो बाहर निकला हुआ दिखा उसके पीछे हौले हौले हो लिए और दस मीटर पहले से उसे दौड़ा दिया। कुछ दूर भागने के बाद उस केकड़े को अपने साथी का बिल मिला। पर दिलचस्प बात ये थी कि उसने सिर्फ बिल में सिर्फ अपना सिर घुसाया शरीर नहीं क्यूँकि वो जानता था कि ये जिसका घर है वो अंदर से उसे निकाल बाहर करेगा। हमने बस उसके इसी पोज़ की फोटो ले ली।


    और ये महाशय तो बालू से सने हुए थे और पानी में अठखेलियाँ कर लौट रहे थे कि इनके रास्ते में हम लोग आ गए।


    पर वहाँ रहने वाले ग्रामीण बच्चे तो इन केकड़ों को ऐसे उठा रहे थे मानों वो कोई खिलौने हों। मैंने इस लड़के से पूछा क्यूँ भाई ये काटता नहीं क्या? वो बोलो क्यूँ नहीं काटता पर हम सब अब अभ्यस्त हो गए हैं इनके वार से बचने के लिए। तो ज़रा आप भी तो पास से देखिए इस सुंदर पर खतरनाक प्राणी को...




    चलते चलते देखिए तालसरी के समुद्र तट पर केकड़ों के इस विशाल समूह को..


    अगली बार आपको दिखाएँगे रात के दीघा की रौनक....

    इस श्रृंखला में अब तक

    1. हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
    2. मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
    3. दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब

    सोमवार, 9 अगस्त 2010

    आइए चलें मंदारमणि जहाँ तेरह किमी लंबे समुद्र तट पर दौड़ती हैं गाड़ियाँ...

    जैसा कि आपको इस यात्रा वृत्तांत की शुरुआत में ही बता चुका हूँ कि इस बार की हमारी दीघा यात्रा का उद्देश्य दीघा से ज्यादा दीघा के आस पास के समुद्र तट पर विचरने का था। और हमारी फेरहिस्त में सबसे पहला नाम था मंदारमणि के समुद्र तट का। इस यात्रा के लिए सबसे ज्यादा उत्साह बच्चों में था सो बिना किसी माम मुन्नवल के वे सुबह आठ बजे ही तैयार हो गए। होटल के आहाते में ही एक छोटा सा पार्क था तो सबसे पहले धमाचौकड़ी वही मचने लगी।


    तभी होटल के भोजनालय से नाश्ते की तैयारी की सूचना दी गई। बंगाल में सुबह के नाश्ते में प्रायः आपको लुचि व आलू की रसेदार सब्जी खाने को मिलेगी। अब आप सोच रहे होंगे कि लुचि सब्जी और पूरी सब्जी में क्या फर्क है। लुचि को सिर्फ आटे के बजाए मुलायम आटे में थोड़ा मैदा मिलाकर बनाया जाता है और साथ में हल्का सा नमक भी मिला देते हैं।



    सुबह के सवा नौ बजे तक हम सब भाड़े की सूमो में मंदारमणि की ओर कूच करने के लिए तैयार थे। नए दीघा से मंदारमणि तकरीबन 35 से 40 किमी के बीच की दूरी पर है।


    खड़गपुर से दीघा हम जिस रास्ते से आए थे उसी रास्ते पर रामपुर तक वापस जाना होता है और फिर वहाँ से दीघा कोन्ताई (Contai) मार्ग ले लेना होता है। सुनहरी धूप, हरे भरे खेतों कच्चे पक्के मकानों, बागानों और हवा के हल्के ठंडे झोकों के बीच दीघा से चाउलकोला (Chaulkhola) का शुरु का पच्चीस किमी का रास्ता आसानी से कट गया। वैसे सामान्यतः पर्यटक जब कोलकाता से दीघा आते हैं तो चाउलकोला का ये चौक दीघा से पहले ही पड़ जाता है। यहाँ से मंदारमणि के लिए रास्ता कटता है। कुछ वर्ष पूर्व तक मंदारमणि की ओर जाने वाली ये सड़क कच्ची थी। पर अब इसे पक्का कर दिया गया है। वैसे जब हम दिसंबर में गए थे तब इस सड़क के टूटे हुए हिस्सों में निर्माण कार्य चल रहा था।

    चौदह किमी का ये रास्ता बंगाल के गाँवों से होता हुआ निकलता है एक ओर तो हरे भरे नारियलों से घिरे पोखर मन में ताजगी का अहसास जगाते हैं तो वही जब आप गाँवों के उन घरों के पास से गुजरते हैं जहाँ पर मछलियों को सुखा जा रहा होता है तो आप को जल्द ही नाक पर रुमाल लगा लेना होता है। सवा दस के लगभग हम मंदारमणि के समुद्र तट पर आ गए थे। मंदारमणि समुद्रतट तक पहुँचने के लिए अंतिम कुछ किमी में आपकी गाड़ी में बैठ कर ही समुद्रतट का आनंद ले रहे होते हैं। सुनने और महसूस करने में ये बेहद रोमांचक लगता है पर इसका एक दुखद पहलू है जिसके बारे में आपको बाद में बताऊँगा।

    बंगाल की खाड़ी में बंगाल के दीघा से लेकर उड़ीसा के चाँदीपुर तक समुद्र तट काफी चौरस और छिछला है। पर नए दीघा, शंकरपुर और मंदारमणि के समुद्रतट छिछले लगभग आधा किमी तक छिछले होने के आलावा ऊपर से ठोस भी हैं। यही वज़ह है कि एक ओर तो इन समुद्र तटों पर काफी अंदर जाने के बावजूद पानी छाती की ऊँचाई से भी कम रहता है और डूबने का खतरा ना के बराबर होता है और दूसरी ओर पर आप आसानी से फुटबाल, क्रिकेट खेल सकते हें या तट पर मज़े से बाइक दौड़ा सकते हैं।


    गाड़ी से उतरने के साथ ही सारे बच्चे आनन फ़ानन में कपड़े बदल कर समुद्र तट की ओर फर्राटा दौड़ लगाने लगे। लिहाज़ा इस पूरे समुद्र तट का ढंग से अवलोकन कर नहाने का विचार हमें त्यागना पड़ा। बच्चों के पीछे हमें भी दौड़ लगानी पड़ी। बच्चों के चेहरों के भावों से ही से ही आप उनके समुद्र में नहाने के उत्साह को समझ जाएँगे।






    चित्र में आप देख सकते हैं कि तट से कितनी दूर आकर हमें समुद्र में गोते लगाने पड़ रहे थे। एक घंटे तक पानी में रहने के बाद मैं अपने मित्रों के साथ समुद्र तट के एक सिरे पर स्थित रिसार्टों का चक्कर लेने के लिए चल पड़ा।

    मंदारमणि के समुद्र तट के किनारे आजकल ढेर सारे होटल और रिसार्ट बन रहे हैं। वैसे यहाँ अभी भी बिजली की व्यवस्था शायद नहीं है। इसलिए शाम को डीजी सेट यहाँ इनवर्टर के सहारे ही ये रिसार्ट चलते होंगे। मंदारमणि का ये इलाका करीब बारह किमी लंबा है। यानि ये भारत का सबसे लंबा मोटरेबल समुद्र तट है। थोड़ी दूर चलने के बाद दीघा इलाके की ट्रेडमार्क Casuarina Plantations दिखती हैं जो इस समुद्र तट के सौंदर्य को और बढ़ा देती हैं।



    पर पिछली बार न्यू दीघा में जो लाल केकड़े दिखाई दिए थे और जिन्हें देखने की आशा में हम मंदारमणि आए थे, वो यहाँ से हमें नदारद मिले। अब बताइए अगर आपके घरों के ऊपर कार और जीप चलती रहे तो कब तक आप उस घर में रहेंगे। इसलिए शायद लाल केकड़ों ने आपना आशियाना शायद थोड़ा वीराने में कर लिया होगा। पश्चिम बंगाल सरकार को चाहिए कि वो शीघ्र ही होटलों की कतार के समानांतर एक सड़क बना के वाहनों के परिचालन को नियंत्रित करे अन्यथा लाल केकड़े मंदारमणि से बिल्कुल ही गायब हो जाएँगे।

    मंदारमणि तट पर करीब तीन घंटे बिताने के बाद एक बजे हम वहाँ से शंकरपुर के समुद्र तट की ओर रुखसत हो लिए जो कि मंदारमणि से दीघा जाने वाले के रास्ते के लगभग मध्य में पड़ता है। दीघा से चौदह किमी दूर शंकरपुर के इस समुद्र तट पर हम पिछली बार हम कुछ ही समय के लिए रुके थे और वहाँ की हरी भरी छटा से मंत्र मुग्ध हो गए थे। दिन के लगभग पौने दो बजे मंदारमणि से चलकर जब हम शंकरपुर पहुँचे तो हमें तब


    और अब की छटा में बड़ा फर्क नज़र आया। समुद्र के तट की ओर निरंतर बढ़ते चले जाने की वजह से बहुत सारे पेड़ पौधे अब वहाँ है हीं नहीं। पिछली बार की हरियाली इस बार बेहद फीकी फीकी सी लगी। पेड़ों को समुद्री कटाव से बचाने के लिए लकड़ी का एक लंबा ढाँचा खड़ा मिला।




    नहा तो हम पहले ही चुके थे इसलिए समुद्र तट के किनारे शांति से बैठने का सबका मन हुआ। बच्चे बालू के टीले और पहाड़ बनाने में जुट गए


    और हम समुद्र तट के अन्वेषण में.... यहाँ भी समुद्रतट उतना ही चौरस है। बगल ही में मछुआरों की बस्ती और एक फिशिंग हार्बर है । फिशिंग हारबर एक बरसाती नदी के मुहाने पर बसा हुआ है। चूंकि नदी में पानी कम था तो मछुआरों की हलचल भी ना के बराबर थी। तब और अब के शंकरपुर में फर्क ये भी आ गया है कि अब तट पर गाड़ियाँ चलनी बंद हो गई हैं।


    मेरे मित्र को थोड़ी दूर पर ये स्टारफिश दिखी


    थोड़ी देर बैठे रहने के बाद मेरा खोजी मन अकेले ही विचरण को हुआ और मैं समुद्र तट से नदी के मुहाने की ओर चल पड़ा। करीब आधे किमी तक आगे चलने के बाद मुझे दूर बालू पर हरक़त सी होती दिखाई दी। कुछ आगे और बढ़ा तो ये छिद्र के सामने अपने को खड़ा पाया। कड़ी धूप में आधे पौने किमी का सफ़र मुझे सार्थक लगने लगा क्यूँकि मुझे पता लग गया था कि जिसकी तलाश में मैं था वो मंजिल पास आ गई है...


    क्या था इस छिद्र का राज और क्या दिखा मुझे आगे उसके लिए देखना ना भूलिएगा इस कड़ी की अगली पोस्ट...