रविवार, 19 मई 2019

क्यों झुकी पीसा की मीनार Leaning Tower of Pisa, Italy

पिछले महीने आपको अपनी इटली यात्रा की पहली कड़ी में फेरारी के संग्रहालय  की सैर कराई थी। उस सुबह संग्रहालय देखने से ज्यादा रोमांच दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक पीसा की मीनार देखने का था। मारानेल्लो जहाँ फेरारी का संग्रहालय है से पीसा की दूरी करीब दो सौ किमी की है।


यूँ समझ लीजिए कि हमें इटली के उत्तर मध्य इलाके से उसके पश्चिमी तटीय इलाके की ओर रुख करना था। इटली का उत्तरी चौरस भाग जहाँ फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी और आस्ट्रिया जैसे देशों से घिरा हुआ है वहीं दक्षिणी भाग के लंबे पतले सिरे के दोनों ओर समुद्र हैं। दक्षिण पूर्वी इटली की सीमाएँ एड्रियाटिक सागर तय करता है जबकि दक्षिण पश्चिम में टीरेनियन। नेपल्स की तरह पीसा और रोम टीरेनियन से बिल्कुल सटे ना होकर थोड़े ही दूर हैं जबकि वेनिस  इसके पूर्वी तट की शान हैं।

हरी भरी पहाड़ी के बीच छिपा इटली का एक गाँव

मारानेल्लो के इलाके से निकलते ही हमारी बस हमें हरे भरे पहाड़ों के बीच ले आई। ये मंज़र ज्यादा देर हमारे साथ नहीं रहा और आधे घंटे के अंदर हम इटली के मध्यवर्ती मैदानी इलाके में थे। कुछ देर सड़क के दोनों ओर छोटे छोटे घरों के चारों ओर एक ही फसल की बुआई किए गए बड़े बड़े फार्म दिखाई देने लगे। भारत की तरह यूरोप में छोटे खेत आप शायद ही देखेंगे। अगर इटली की बात करूँ  तो यहाँ हर किसान के पास औसतन आठ हेक्टेयर की ज़मीन है। 

ग्रामीण क्षेत्रों के खेत खलिहान
इटली में घूमते हुए मुझे एक बात खास लगी वो ये कि यहाँ के ग्रामीण इलाकों के अधिकांश घरों का रंग रोगन क्रीम या पीले से मिलते जुलते रंगों से ही किया जाता है। छतें अवश्य खपरैल के गेरुए भूरे रंग की दिखाई दीं।
साँप की तरह लहराते पौधे और गमलों में पॉम की एक नस्ल
गाड़ी चलाने वाला भटक ना जाए इसके लिए सामान्य साइनबोर्ड के आलावा पूरी सड़क पर ही बड़े बड़े अक्षरों में मुख्य शहरों की ओर जाती सड़कों को प्रदर्शित करने का यहाँ चलन हैं यानी दूसरे शब्दों में कहें तो यहाँ की सड़कें अपने आप में ही पथप्रदर्शक का काम करती हैं।
सीधी सड़क रोम को और दाँयी ओर रास्ता जा रहा है पीसा को
करीब ढाई घंटे के सफ़र के बाद हमारा समूह पीसा के छोटे से शहर में दाखिल हो चुका था। पीसा में जहाँ झुकी मीनार है वो यहाँ के कैथेड्रल यानी बड़े गिरिजाघर परिसर का हिस्सा है। इस परिसर मैं फैली इमारतों को यहाँ का चमत्कारिक मैदान यानी Field of Miracles भी कहा जाता है। मुख्य सड़क से एक पतली सी राह परिसर के मुख्य दरवाजे तक लाती है। इस सड़क के दोनों ओर यहाँ सोविनियर  बेचती छोटी छोटी दुकाने हैं। परिसर में घुसते ही आपको दाँयी ओर कुछ संग्रहालय और पर्यटक सूचना केंद्र मिलेगा जबकि बाँयी ओर एक हरे भरे मैदान के बीच यहाँ की बैपटिस्ट्री दिखाई देगी।

संग्रहालय और पर्यटक सूचना केंद्र

घास की मखमली चादर के बीच बैपटिस्ट्री के शानदार गुंबद को देख कर आगुंतक अभिभूत हो जाता है। ये इटली की सबसे विशाल बैपटिस्ट्री के रूप में जानी जाती है।  ये इमारत रोमन और गोथिक शैली के मिश्रण का अनुपम उदाहरण है। रोमन शैली में बनी इमारतों में अर्ध चंद्राकार मेहराबों का प्रचुरता से इस्तेमाल होता है जैसा आप इस बैपटिस्ट्री के निचले भाग में देख सकते हैं जबकि ऊपरी भागों में तिकोनी मेहराब दिखाई देती हैं जो कि गोथिक स्थापत्य कला की पहचान है। 
पीसा बैपटिस्ट्री Pisa Baptistery
अगर आप ईसाई धर्म के रीति रिवाज़ों से परिचित हैं तो ये जानते ही होंगे कि दूसरे धर्मों के लोगों और बच्चों को ईसाई धर्म अंगीकार करने की शुरुआत बैपटिज्म नामक प्रथा से की जाती है। ये आयोजन जिस भवन में होता है उसे ही बैपटिस्ट्री कहते हैं। अगर आप इस आलेख के पहले चित्र को देखेंगे तो इस बैपटिस्ट्री को भी दाँयी ओर ज़रा सा झुका पाएँगे। बैपटिस्ट्री में अंदर जाने का अलग से टिकट लगता है जो मैंने नहीं लिया और यहाँ के मुख्य गिरिजाघर की ओर चल पड़ा।
Pisa Cathedral
इस परिसर की सबसे पुरानी इमारत यहाँ का गिरिजाघर है। गिरिजे का ऊपरी भाग चारा समानांतर खंभों की कतारों पर टिका है। अंदर की दो कतारों के बीच बैठने के लिए लकड़ी के बेंच लगे हैं जिसके बीचो बीच चलकर आप जीसस की छवि के पास पहुँच सकते हैं। छत पर लकड़ी के फ्रेम पर नक्काशी कर सोने के पानी चढ़ा दिया गया है।

जीसस की छवि के ठीक ऊपर छत पर वर्जिन मेरी को अन्य संतों के साथ दिखाया गया है। किनारे की दीवारें चित्रित हैं पर ऊँचे ऊँचे खंभों की दीवारें बिना किसी नक्काशी के हैं। रोशनदानों की काँच पर रंग बिरंगी आकृतियाँ जरूर उकेरी गयी हैं जो आकर्षक लगती हैं। मुझे याद आया कि काँच पर ऐसी चित्रकला मैंने पहले राजस्थान के महलों में भी देखी थी। हमारे धनी रजवाड़े बड़े शौक़ से अपने महलों में काँच का काम यूरोप से कराते रहे हैं।

गिरिजे का प्रार्थना कक्ष

पीसा का बडा गिरिजा Pisa Cathedral
चूँकि ये भवन ग्यारहवीं शताब्दी में बनना शुरु हुआ इसकी संरचना रोमन स्थापत्य कला पर आधारित रही। परिसर के अंदर दो खंभों के बीच अर्ध चंद्राकार मेहराबें तो हैं ही, इसके प्रवेश द्वार पर भी इस शैली की अमिट छाप है।

गुंबद पर बना जीसस का चित्र, किनारे की दो कतारों के खंभों के बीच से दिखता दृश्य
गिरिजाघर के ठीक पीछे यहाँ का घंटा घर है जिसे हम पीसा की झुकी मीनार के नाम से जानते हैं। कौन जानता था कि इंजीनियरिंग की एक भूल इस मीनार का शुमार दूनिया के सात अजूबों में करने में सफल हो जाएगी। इस घंटाघर का निर्माण गिरिजाघर और बैपटिस्ट्री के बनने के बाद बारहवीं शताब्दी में हुआ। इंजीनियरिंग में भवन बनाने के पहले उस स्थान की Soil Bearing Capacity मापी जाती है जो ये बताती है कि इमारत की नींव प्रति वर्ग मीटर कितना वजन सह पाएगी। कई बार बिना परीक्षण किए भी आस पास की भूमि के पहले से उपलब्ध आँकड़ों पर ये काम होता है। 

बारहवीं शताब्दी में किस प्रक्रिया का अनुसरण किया गया ये तो पता नहीं पर हुआ ये कि मीनार के एक तरफ की भूमि अपेक्षाकृत मुलायम निकली जिससे  मीनार उस ओर झुकने लगी। दूसरे तल्ले के बनने के बाद निर्माण का दोष सबकी नज़र में आया और काम वहीं रोक देना पड़ा। फिर लगभग एक शताब्दी तक पीसा के युद्ध में फँसे रहने की वजह से काम आगे नहीं बढ़ पाया। आपको जान कर ताज्जुब होगा कि निर्माण शुरु होने के लगभग दो सौ साल के बाद इस मीनार में वो घंटियाँ लगाई गयीं जिसके लिए ये घंटाघर बना था।

इंजीनियर क्या नींव  ठीक करेंगे? कैमरे का कमाल इसे पल भर में सीधा कर सकता है। 😀
एक ओर से निरंतर धँसते रहने की वज़ह से एक समय इस पूरी इमारत के गिरने का खतरा उत्पन्न हो गया। नब्बे के दशक में इस इमारत को पर्यटकों के लिए बंद कर इसके पुनरुद्धार का काम शुरु हुआ। नींव की मजबूती के बाद अब अभियंताओं का दावा है कि ये मीनार दो सौ साल तक आसानी से इस अवस्था में संतुलित रह सकती है।

पीसा और ताजमहल की एक मीनार
56 मीटर ऊँची पीसा की ये सात मंजिला मीनार सादगी और शालीनता की प्रतिमूर्ति लगती है। मेहराबों की एकरूपता और इसका सफेद रंग मन में निर्मलता जगाता है। । इन इमारतों के पीछे की कहानियाँ तो हम बाद में जानते हैं पर इन्हें नज़दीक से आँखों में भर कर जब भी देखते हैं तो एक अलग ही अहसास तारी होता है... शांति का सुकून का। कुछ पल के ही लिए ही सही अपने आप को भूल जाने का..। मन करता है बैठे रहें इस अहसास को पकड़ कर.. निहारते रहें कुशल कारीगरों के बनाए इन अद्भुत प्रतिमानों को ...पर इस मशीनी युग में इतनी फुर्सत कहाँ दी है हमने अपने आप को

प्रथम तल पर की गयी नक्काशी
कुतुब मीनार से उलट पीसा की मीनार में अतिरिक्त टिकट लेकर आप अंदर जा सकते हैं पर एक समय मीनार के अंदर एक निश्चित संख्या में ही लोग प्रवेश कर सकते हैं। यही वज़ह है कि अगर टिकट लें तो ये देख लें कि आपके पास कुछ अतिरिक्त समय है या नहीं? मीनार के बगल से एक रास्ता इस परिसर के बाहर बनी रंगीन इमारत को जाता है। इन इमारतों में एक ज़माने में यहाँ काम करने वाले कारीगर और कर्मचारी रहा करते थे। आज इसका इस्तेमाल आपेरा हाउस की तरह होता है। इन इमारतों से लगा यहाँ एक प्राचीन समाधि स्थल भी है।

नृत्यशाला की छाँव में आराम करते पर्यटक (Opera House)
पीसा की मीनार से बाहर निकलते ही भगवा कपड़ों में लिपटे इन तथाकथित योगियों को हवा में लटके देख के आपको भारत की याद आ जाएगी। विश्व में भारतीय संतों के पानी पर चलने, हवा में तैरने की कहानियाँ इतनी प्रचलित हैं कि यहाँ कुछ भारतीय हवा में लटकने का करतब दिखा कर पैसे इकठ्ठा करते हैं। पीसा के चमात्कारिक मैदान के बाहर इन्हें देख कर मैं भी सकते में आ गया। बाद में पता चला कि ये सारा कारनामा इनके कपड़ों में छिपी छड़ों और प्लेटों की संरचना से संभव होता है यानी ऊपर हवा में लटकता व्यक्ति एक प्लेट पर बैठा होता है और उसका संतुलन एक दूसरी प्लेट  से होता है जिसके ऊपर नीचे वाला व्यक्ति बैठा है।

योग का छलावा है ना मजेदार

तो कैसी लगी आपको पीसा की ये यात्रा? इटली यात्रा की अगली कड़ी में ले चलेंगे आपको इटली की ऐतिहासिक राजधानी रोम में। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो Facebook Page Twitter handle Instagram  पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें।


इटली यात्रा में अब तक

रविवार, 5 मई 2019

कैसी थी अंतिम मुगल शासकों की जीवन शैली ? Book Review : City of my Heart !

अगर आप एक अच्छे यात्री या यात्रा लेखक बनना चाहते हैं तो आपको अपने इतिहास से भी लगाव होना चाहिए क्यूँकि तभी आप ऐतिहासिक इमारतों, संग्रहालयों और अपनी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के उद्गम से जुड़ी बहुत सी बातों को एक अलग नज़रिए से देख सकेंगे। यूँ तो किसी भी ऐतिहासिक इमारत में जाते वक़्त हमारा पुरातत्व विभाग उनके बारे में जरूरी जानकारी मुहैया कराता है पर जब वही बात  किसी किताब में आप एक प्रसंग या किस्से के तहत पढ़ते हैं तो वो हमेशा के लिए याद रह जाती है।

पुस्तक आवरण 

इसलिए मुझे जब कुछ महीने पहले राणा सफ़वी द्वारा आख़िरी मुगलों की जीवन शैली, किले के अंदर लोगों के रहन सहन और गदर के बाद शाही खानदान पर आई मुसीबतों पर लिखी किताबों के अंग्रेजी अनुवाद पर अपनी प्रतिक्रिया देने का अवसर मिला तो मैंने झट से अपनी हामी भर दी। 247 पन्नों की इस किताब को पढ़ने में मुझे करीब दो महीने का वक़्त लग गया। उसकी एक वज़ह ये भी रही किताब का अधिकांश हिस्सा किसी सफ़र के दौरान पढ़ा गया। 

City of my Heart चार पुस्तकों बज़्म ए आखिर, दिल्ली का आखिरी दीदार, किला ए मुआल्ला की झलकियाँ और बेगमात के आँसू का एक संग्रह है। इसमें पहली दो किताबें मुख्यतः उस दौरान किले में मनाए जाने वाले उत्सवों, रीति रिवाज़ और खान पान की बातें करती हैं जबकि तीसरी किताब में किले के अंदर की झलकियों के साथ सत्ता के लिए चलते संघर्ष का भी विवरण मिलता है। बेगमात के आँसू में शाही खानदान के उन चिरागों का जिक्र है जो अंग्रेजी हुकूमत के कत्ले आम से बच तो गए पर जिनके लिए शाही जीवन से आम व्यक्ति सा जीवन जीना बड़ा तकलीफ़देह रहा।

इन किताबों के कुछ लेखक इन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी रहे तो कुछ ने उस समय के किस्से कहानियाँ अपनी पिछली पीढ़ियों के हवाले से सुनी। अब किताब चूँकि दिल्ली के बारे में है इसलिए प्रस्तावना में राणा सफवी ने बड़े रोचक तरीके से दिल्ली के नामकरण और सम्राट अशोक के ज़माने सो होते हुए तोमर, खिलजी, तुगलक और मुगलों के समय में अलग अलग हिस्सों में बढ़ती और निखरती दिल्ली का खाका खींचा है। लाल किले के विभिन्न हिस्सों का उपयोग किन उद्देश्यों के लिए होता रहा इसका उल्लेख भी किताब में है।

राणा सफ़वी 
इस पुस्तक में जिस दौर की बात की गयी है तब मुगल साम्राज्य का अस्ताचल काल था। बादशाह अंग्रेजों की बँधी बँधाई पेंशन का मोहताज था और उसका राज काज में दखल, किले के बाशिंदों से जुड़े मामलों व सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सवों के आयोजन तक ही सीमित था। इन हालातों के बावज़ूद जिस शान शौकत का वर्णन बज़्म ए आखिर और दिल्ली का आखिरी दीदार में मिलता है उससे सिर्फ अंदाज़ ही लगाया जा सकता है कि अकबर से औरंगजेब के शासन काल तक किले के अंदर क्या रईसी रही होगी। 

किले में मनाये जाने वाले हर त्योहार से जुड़ी कुछ रवायतें रहीं जो आज तक हमारी मान्यताओं में शामिल हैं। मसलन दशहरे के समय नीलकंठ का दिखना आज भी इतना ही शुभ माना जाता है। पुस्तक में इस बात का जिक्र है कि हर दशहरे में नीलकंठ को लाकर उड़ाने का दस्तूर था। ईद, बकरीद, फूलवालों की सैर व उर्स के मेलों के साथ तब होली दीवाली भी धूमधाम से मनती थी जो कि किले के अंदर के सामाजिक सौहार्द का परिचायक था।  ईद में खेले जाने वाले खेल का एक दिलचस्प विवरण किला ए मुआल्ला की झलकियाँ में कुछ यूँ बयान होता है....
"ईद ए नवरोज़ के दिन राजकुमारों व कुलीन जनों के बीच अंडों से लड़ाई होती थी। इसले लिए एक विशेष तरह की मुर्गियों का इस्तेमाल होता था जिन्हें सब्जवार कहते थे।  इसके छोटे नुकीले अंडों की ऊपरी परत कठोर हुआ करती थी। त्योहार के कुछ महीने पहले तीन सौ रुपए जोड़े में ये मुर्गियाँ खरीदी जाती थीं और इनसे पाँच से छः अंडे तैयार हो जाया करते थे। प्रतियोगिता के दिन लोग नुकीले सिरे को सामने रखते हुए एक दूसरे के अंडों पर निशाना लगाते थे। जिसका अंडा पहले टूटता था उसकी हार होती थी. हजारों रुपयों की बाजियाँ लगती थीं। आम जनता सामान्य अंडों से बाद में यही खेल खेला करती थी।"

मुगलयी खान पान में जिसकी रुचि है और जो उस वक़्त के पकवानों के बारे में शोध करने में दिलचस्पी रखते हैं उनके लिए शाही मेनू से गुजरना बेहद उपयोगी रहेगा। बज़्म ए आखिर में खानपान के पहले की गतिविधियों का जिक्र कुछ यूँ होता है

"परिचारिकाएँ अपने सर पर टोकरियों में भोजन बैठक में लाती हैं।  पंक्ति में खड़े होकर खाना एक दूसरे से होते हुए शाही मेज तक पहुँचता है। सात गज लंबे और तीन गज चौड़े दस्तरखान के ऊपर सफेद रंग का कपड़ा बिछता है। इसके बीच में दो गज लंबी और डेढ़ गज चौड़ी और छः उँगली ऊँची एक मेज लगायी जाती है जिस पर तरह सील किए हुए पकवान रखे जाते हैं। रसोई प्रबंधक बादशाह के सामने बैठता है और खाना परोसता है।"

अब खाने में रोज़ क्या क्या परोसा जाता था उसकी फेरहिस्त देखेंगे तो लगेगा कि बादशाह और शाही परिवार ऐसा भोजन रोज़ रोज़ खा कर अपना हाजमा कैसे दुरुस्त रखते होंगे? स्टार्टर से लेकर मीठे तक विविध पकवानों का मास्टर मेनू देख के आप सभी चकित रह जाएँगे। सिर्फ पुलाव की बात करूँ तो मोती पुलाव, नूर महली पुलाव. नुक्ती पुलाव, नरगिसी पुलाव, किशमिशी पुलाव, लाल पुलाव , मुजफ्फरी पुलाव, आबी पुलाव, सुनहरी पुलाव, रुपहली पुलाव, अनानास पुलाव, कोफ्ता पुलाव... अंतहीन सूची है कितनी लिखी जाए। मेनू के कुछ हिस्से की बानगी चित्र में आप ख़ुद ही देख लीजिए।

शाही व्यंजनों की फेरहिस्त का कुछ हिस्सा

खान पान के बाद बात कुछ मौसम की। किताब में अलग अलग मौसम में शाही परिवार के क्रियाकलापों का विस्तार से वर्णन किया गया है।  दिल्ली में रहने वाले तो आजकल थोड़ी देर की बारिश और उमस से परेशान रहा करते हैं। उस ज़माने में दिल्ली के मानसून का मिज़ाज देखिए
"जब बारिश आठ से दस दिनों तक होती थी और मानसूनी बादल टस से मस होने का नाम नहीं लेते। कभी पानी की फुहारें आतीं तो कभी  मूसलाधार बारिश होती। लोग खुले आसमान और सूखे दिन के लिए तरसते। कभी कभी सूरज अपनी झलक दिखला जाता। रात में बादलों के झुरमुट से तारे नीचे ताकते तो ऐसा लगता कि जुगनू चमक रहे हों।"

किले के अंदर सत्ता के संघर्ष की छोटी छोटी घटनाओं का ऊपरी जिक्र यदा कदा किताब में मिलता है पर ऐसे विवरणों में वो गहराई नहीं है जिससे इतिहास के छात्र लाभान्वित हो सकें। इतना तो साफ है कि मुगल साम्राज्य का नैतिक पतन औरंगजेब के बाद ही होना शुरु हो गया था। मुगल साम्राज्य के अंतिम पचास सालों में ज्यादातर बादशाह और शहजादे अय्याश और अकर्मण्य थे और मंत्रियों और सरदारों के इशारों पर खून के रिश्ते को दागदार बनाने का मौका नहीं चूकते थे। भाई भाई को, रानियाँ अपने सौतेले पुत्रों को और पुत्र पिता को अपने रास्ते से हटाने के लिए किसी भी हद जाने को तैयार हो जाते थे। बहादुर शाह जफर से जुड़ी ऐसी ही एक घटना का उल्लेख पुस्तक में कुछ इस तरह से आता है
"एक बार बहादुर शाह जफर के स्वागत के लिए जश्न के साथ किले में एक दावत का आयोजन था। दावत के बाद संगीत की महफिल जमी तो बहादुर शाह उसमें तल्लीन हो गए। उनको मारने के लिए उनके एक पुत्र की ओर से पान का बीड़ा भिजवाया गया जिसमें बाघ की मूँछों के बाल भी डाल दिए गए थे। पान खाने के तुरंत बाद ही बादशाह की तबियत खराब हो गयी। पान  में कुछ मिलावट की आशंका से हकीमों ने उनको उल्टियाँ कराने की दवा दी जिसमें खून के साथ वो बाल भी बाहर निकल आया। 
तफ्तीश के दौरान शहज़ादे की इस साजिश का पता लग गया। तबियत ठीक होने की खुशी में एक उत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उस शहज़ादे को भी बुलाया गया। बादशाह ने उसके लिए जहर भरा शर्बत भी तैयार कर रखा था। शहज़ादे को पता था कि अब उसके साथ क्या होने वाला है, फिर भी वो वहाँ सर झुकाए हाथ जोड़ते हुए पहुँच गया। बादशाह ने शर्बत का गिलास हाथ में लेकर कहा, बेटा तुमने जो मुझे बाघ के मूँछ का बाल दिया था उसके बदले में मैंने तुम्हारे लिए जहर भरा शर्बत बनवाया है। 
शहज़ादे ने कुछ कहना चाहा पर बादशाह उससे पहले ही बोल उठे मेरा बुरा चाहने वाले मनहूस तुम अब मेरे हुक्म ना मानने की भी गलती करना चाहते हो? 
शहज़ादे ने जहर मिला शर्बत पिया और वहीं तड़पते हुए जान दे दी।"

किताब को पढ़ने के बाद दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि किले के बाहर और नजदीकी क्षेत्रों में रह रही रियाया की हालत से शाही खानदान को शायद ही कोई लेना देना था। किले के अंदर रहने वाले उनके टुकड़ों पर पलते थे इसलिए उनके वफादार रहे। शाही खानदान को जिन नाज़ नखरों से पाला जाता रहा यही उनकी दुर्दशा का कारण बना। जब वे अंग्रेजों से डरकर भागे तो शहर से बाहर गाँवों में रहने वालों ने भी उन पर तरस नहीं खाया। आपको पढ़कर ताज्जुब होगा कि शाही युवा अपनी ज़िन्दगी में दौड़ना तो दूर कुछ दूर पैदल भी नहीं चले थे। उन्होंने जीवन भर हुक्म चलाना सीखा था, कुछ काम करना नहीं। इसलिए शाही खानदान से जुड़े कई लोगों को बाद में भीख माँगकर गुजर बसर करनी पड़ी। उनमें से जो थोड़े बहुत खुद्दार थे उन्होंने जरूर मेहनत मजदूरी कर अपना स्वाभिमान बचाए रखा।

शुरुआत की दो किताबों का मूल विषय एक ही है। हर रस्म की अदाएगी में होने वाले ताम झाम का विवरण पढ़कर पाठकों की किताब में रुचि बनाए रखना बेहद मुश्किल हो जाता है। यही इस पुस्तक का सबसे कमजोर पक्ष है। हालांकि किले से जुड़ी झलकियाँ और गदर के बाद शाही खानदान से जुड़ी कहानियाँ पहले भाग से अपेक्षाकृत अधिक रोचक हैं। 

ये पुस्तक उन लोगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो मुगलकालीन धार्मिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों, उस समय के पहनावे व खान पान में विशेष रुचि रखते हों या उन पर शोध करने के अभिलाषी हों । किताब में जिन व्यंजनों और पहनावों का जिक्र हुआ है उस पर जहाँ तक संभव हो सका है अनुवादिका ने पुस्तक के परिशिष्ट में उनके बारे में अतिरिक्त जानकारी देने की कोशिश की है जो कि काबिलेतारीफ़ है।

आमेजन पर ये किताब यहाँ उपलब्ध है