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बुधवार, 25 दिसंबर 2024

संत फिलोमेना कैथेड्रल, मैसूर St. Philomena's Cathedral, Mysore

अगर भारत में निर्मित गिरिजाघरों की बात करूं तो सबसे भव्य और विशाल चर्च मैंने केरल और गोवा में देखे हैं। मेघालय और मेरे राज्य झारखंड में भी कई चर्च हैं पर स्थापत्य के पैमाने पर उनमें वो विशिष्टता नहीं है।

गिरिजा के सामने का दृश्य : 53 मीटर ऊंचे शिखर जिनका स्थापत्य देखते ही बनता है।

भारत के सबसे सुंदर चर्च अगर मुझे कोई लगा तो वो था मैसूर का संत फिलोमेना कैथेड्रल। तो चलिए क्रिसमिस के शुभ अवसर पर मेरे साथ इस चर्च में जहाँ एक साथ 800 लोग बैठ कर प्रार्थना कर सकते हैं। 

अक्सर आपने चर्च के नाम किसी पुरुष संत के नाम जैसे पीटर, फ्रांसिस, जॉन के नाम पर सुने होंगे पर संत मेरी के अलावा पहली बार मैंने यहां आ के जाना कि ये गिरिजाघर ग्रीस की राजकुमारी फिलोमेना के नाम पर है। 

संत फिलोमेना चर्च का उत्तरी दरवाजा

फिलोमेना और उसके पिता ने जब ईसाई धर्म स्वीकार किया तो वहां के सम्राट ने उनपर धावा बोलने की धमकी दी। भाग कर राजा रोम में सहायता के लिए पहुंचा पर वहां भी सम्राट ने फिलोमेना की सुंदरता से रीझ कर उससे विवाह का प्रस्ताव रख दिया जिसे फिलोमेना ने ठुकरा दिया क्योंकि फिलोमेना ने तब तक अविवाहित रहते हुए धर्म की सेवा करने का निर्णय ले लिया था। चौदह वर्ष की अल्पायु में ही अपने धर्म का अनुपालन करने की वज़ह से वो सम्राट द्वारा दी गई प्रताड़ना का शिकार हुईं और अंत में उनकी मृत्यु हो गई। 

संत फिलोमेना की मूर्ति

फेलोमिना चर्च के सामने का हिस्सा

उनके सम्मान में 1930 के दशक में बने इस गिरिजाघर को अंग्रेजों ने तत्कालीन शासक कृष्णराज वाडियार चतुर्थ के सहयोग से बनाया था। इसके फ्रांसीसी आर्किटेक्ट ने इस भवन की रूपरेखा जर्मनी के विश्व प्रसिद्ध गिरिजाघर कोलोन कैथेड्रल के आधार पे रखी।

कोलोन जर्मनी में बना गिरिजाघर जिससे मैसूर में बना गिरिजा प्रेरित है।

नियो गोथिक शैली में बनाए इस बेहद खूबसूरत गिरिजाघर को ऊपर से नीचे तक देखने के लिए आपको आसमान की तरफ पूरी गर्दन टेढ़ी करनी पड़ती है। सामने की तरफ के इसके दो स्तंभकार शिखर 53 मीटर ऊंचे हैं। नीचे से आयताकार और ऊपर जाकर तिकोने होती संरचना नियो गोथिक शैली से बनाए गए भवनों की पहचान है ।

भवन की दीवारों पर लाल और पीले रंग में रंगे कांच जो सौम्य स्लेटी रंग की दीवारों में निखार ले आते हैं

मुख्य द्वार के ऊपर का डिजाइन

जैसा कि अमूमन ज्यादातर गिरिजाघरों में होता है मुख्य या बगल के दरवाजों के ऊपर बनाए गए नमूनों में रंगीन कांच का इस्तेमाल हुआ है जो स्लेटी रंग के इस भवन को और आकर्षक बनाता है। ऐसे ही रंगीन कांच भवन की आंतरिक दीवारों पर भी हैं। ये चर्च होली क्रॉस के रूप में बनाया गया है जिसमें लंबाई वाली दिशा में बैठने की व्यवस्था है ही साथ ही साथ क्रॉस के मिलन बिंदु पर प्रार्थना स्थान और Choir के लिए जगह है। दाएं और बाएं फैले भवन यानी क्रॉस के दूसरे सिरे में भी बैठने की व्यवस्था है।

मैसूर में ये चर्च वहां के प्रसिद्ध मैसूर महल से ज्यादा दूर नहीं है। तो जब भी मैसूर जाइए इस खूबसूरत गिरिजाघर के दर्शन जरूर कीजियेगा। इस ब्लॉग का अपडेट पाने के लिए आप इसके फेसबुक या इंस्टाग्राम पेज का अनुसरण कर सकते हैं।

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

बनलता जोयपुर जंगलों के किनारे बसा फूलों का गाँव

पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे विख्यात जगह है तो वो है बिष्णुपुर। वर्षों पहले बांकुरा जिले में स्थित इस छोटे से कस्बे में जब मैं यहाँ के विख्यात टेराकोटा मंदिरों को देखने गया था तो ये जगह मुझे अपनी ख्याति के अनुरूप ही नज़र आई थी। तब बिष्णुपुर एक छोटा सा कस्बा था जहां एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक जाने के लिए संकरी सड़कों की वज़ह से ऑटो की सवारी लेनी पड़ती थी। अब सड़कें तो अपेक्षाकृत चौड़ी हो गई हैं पर इतनी नहीं कि ऑटो को उनकी  बादशाहत से हटा सकें।

पिछले हफ्ते एक बार फिर बिष्णुपुर जाने का मौका मिला पर इस बार कुछ नया देखने की इच्छा मुझे जोयपुर के जंगलों की ओर खींच लाई। मैंने सुना था कि इन जंगलों के आस पास की ज़मीन पर फूलों के फार्म हैं जिसे एक रिसार्ट का रूप दिया गया है। नाम भी बड़ा प्यारा बनलता। तो फिर क्या था चल पड़े वहाँ जंगल और फूलों के इस मिलन बिंदु की ओर। 


बांकुड़ा वैसे तो एक कृषिप्रधान जिला है पर अपने टेराकोटा के खिलौनों, बालूचरी साड़ियों और डोकरा कला के लिए खासा जाना जाता है। बांकुरा में टेराकोटा से बने घोड़ा की पूछ तो पूरे देश में होती ही है, आस पास के जिलों में यहाँ का गमछा भी बेहद लोकप्रिय है। बांकुड़ा जिले में आम के बागान और सरसों के खेत आपको आसानी से दिख जाएँगे। चूँकि जाड़े का मौसम था तो सरसों के पीतवर्ण खेतों को देखने का मौका मिला। कुछ तो है इन सरसों के फूलों में कि लहलहाते खेतों का दृश्य मन को किसी भी मूड से निकाल कर प्रसन्नचित्त कर देता है।


बांकुड़ा और बिष्णुपुर के बीचों बीच एक जगह आती है बेलियातोड़। चित्रकला के प्रशंसकों को जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि ये छोटा सा कस्बा एक महान कलाकार की जन्मभूमि रहा है। जी हाँ, प्रसिद्ध चित्रकार जामिनी राय का जन्म इसी बेलियातोड़ में हुआ था। वैसे आज लोग बेलियातोड़ से गुजरते वक़्त जामिनी राय का नाम तो नहीं पर लेते पर यहाँ की मलाईदार लालू चाय और ऊँट के दूध से बनने और बिकने वाली चाय का घूँट भरने के लिए अपनी गाड़ी का ब्रेक पेडल जरूर दबा देते हैं।

बेलियातोड़ से निकलते ही रास्ता सखुआ के जंगलों में समा जाता है। सड़क पतली है पर है घुमावदार। मैं तो वहाँ समय की कमी की वज़ह से नहीं उतर सका पर मन में बड़ी इच्छा थी कि जंगल के बीच चहलकदमी करते हुए जाड़े की नर्म धूप का लुत्फ़ उठाया जाए।

बेलियातोड़ वन क्षेत्र 

बिष्णुपुर शहर से जोयपुर का वन क्षेत्र करीब 15 किमी दूर है। इन वनों के एक किनारे बना है बनलता रिसार्ट जो कि रिसार्ट कम और फूलों का गाँव ज्यादा लगता है। इस रिसार्ट में पहुँचने पर जानते हैं सबसे पहला फूल हमें कौन सा दिखा? जी हाँ गोभी का फूल और वो भी नारंगी और गुलाबी गोभी का जिन्हें ज़िंदगी में मैंने पहली बार यहीं देखा।

सच पूछिए तो इनकी ये रंगत देख कर एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ कि इनका ये प्राकृतिक रंग है। ऐसा ही अविश्वास राजस्थान से गुजरते हुए लाल मूली को देख कर हुआ था।
बाद में पता चला कि विश्व में फूलगोभी नारंगी, सफेद, और जामुनी रंग के अलावा हल्के हरे रंग में भी आती है। नारंगी फूलगोभी मूलतः सत्तर के दशक में कनाडा में उगाई गई थी। आम सफेद फूलगोभी और इसमें मुख्य फर्क ये है कि इसमें बीटा कैरोटीन नामक पिगमेंट होता है जो इसे नारंगी रंग के साथ साथ सामान्य गोभी की तुलना में पच्चीस फीसदी अधिक विटामिन ए उपलब्ध कराता है। जामुनी गोभी का गहरा गुलाबी रंग एक एंटी ऑक्सीडेंट एंथोसाइनिन की वज़ह से आता है। इस गोभी में विटामिन C प्रचुर मात्रा में विद्यमान है।
आलू गोभी की भुजिया में नारंगी गोभी का स्वाद चखा तो लगभग सफेद गोभी जैसी पर थोड़ी कड़ी लगी। जामुनी गोभी तो खाई नहीं पर वहां पूछने पर पता चला कि उसका ज़ायक़ा हल्की मिठास लिए होता है।

एक नारंगी गोभी की कीमत चालीस रुपये

बनलता परिसर में घुसते ही बायीं तरफ एक छोटा सा जलाशय दिखता है जिसके पीछे यहां रहने की व्यवस्था है। बाकी इलाके में छोटे बड़े कई रेस्तरां हैं जो बंगाल का स्थानीय व्यंजन परोसते दिखे। पर खान पान में वो साफ सफाई नहीं दिखी जिसकी अपेक्षा थी। ख़ैर मैं तो यहां के फूलों के बाग और जंगल की सैर करने आया था तो परिसर के उस इलाके की तरफ चल पड़ा जहां भांति भांति के फूल लहलहा रहे थे।

गजानिया के फूलों से भरी क्यारी 

कुछ आम कुछ खास


ऊपर चित्र में आप कितने फूलों को पहचान पा रहे हैं। चलिए मैं आपकी मदद कर देता हूं। ऊपर सबसे बाएँ और नीचे सबसे दाहिने गज़ानिया के फूल हैं। यहां गज़ानिया की काफी किस्में दिखीं। इनमें एक किस्म ट्रेजर फ्लावर के नाम से भी जानी जाती है। फ्लेम वाइन के नारंगी फूलों को तो आप पहचान ही गए होंगे। इनकी लतरें तेजी से फैलती हैं और इस मौसम में तो मैने इन्हें पूरी छत और बाहरी दीवारों को अपने रंग में रंगते देखा है। नास्टर्टियम की भी कई प्रजातियां दिखीं।

पर जिस फूलने अपने रंग बिरंगे परिधानों में हमें साबसे ज्यादा आकर्षित किया वो था सेलोसिया प्लूमोसा। सेलोसिया का मतलब ही होता है आग की लपट। इसके लाल, मैरून नारंगी व  पीले रंगों के शंकुधारी फूलों  की रंगत ऐसा ही अहसास कराती है।   

सेलोसिया प्लूमोसा (Silver Cockscomb)


अब जहां फूल होंगे वहां तितलियां तो मंडराएंगी ही:) चित्र में दिख रही है निंबुई तितली (Lime  Butterfly )


गुलाबी और नारंगी फूलगोभी की खेती यहां का विशेष आकर्षण है।

नास्टर्टियम  और स्नैपड्रैगन 



गजानिया

पुष्पों से मुलाकात के बाद मैंने जोयपुर के जंगलों का रुख किया। दरअसल बनलता जोयपुर वन क्षेत्र के एक किनारे पर बसा हुआ है। विष्णुपुर की ओर जाती मुख्य सड़क के दोनों और सखुआ के घने जंगल हैं। मुख्य सड़क के दोनों और कई स्थानों पर हाथियों और हिरणों के आने-जाने के लिए पगडंडियां बनी हैं। थोड़ा समय हाथ में था तो मैं अकेले ही जंगल की ओर बढ़ चला। थोड़ी दूर पर जंगल के अंदर जाती एक कच्ची सड़क दिखी। 

जोयपुर के जंगल और बनलता रिसार्ट

मुझे लगा के इस रास्ते को थोड़ा एक्सप्लोर करना चाहिए पर जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे वनों की सघनता बढ़ती गई और फिर रह रह के पत्तों से आई सरसराहट से मेरी हिम्मत जवाब देने लगी।  मुझे ये भान हो गया कि यहां छोटे ही सही पर जंगली जीव कभी भी सामने आ सकते हैं

जोयपुर जंगल की कुछ तस्वीरें

साथ में कोई था नहीं तो मैंने वापस लौटना श्रेयस्कर समझा। वैसे दो-तीन लोग इकट्ठे हों तो सखुआ के जंगलों से गुजरना आपके मन को सुकून और अनजाने इलाकों से गुजरने के रोमांच से भर देगा। 

इस इलाके के जंगलों के सरताज गजराज हैं। वर्षों से इस इलाके में उनके विचरण और  शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का ही प्रमाण है कि पेड़ों के नीचे स्थानीय निवासियों द्वारा बनाई गई मूर्तियां रखी दिखाई दीं। उनके मस्तक पर लगे तिलक से ये स्पष्ट था कि यहां उनकी विधिवत पूजा की जाती है। गजराज हर जगह अकेले नहीं बल्कि अपनी पूरी सेना के साथ तैयार दिखे।

यहाँ जंगल का राजा शेर नहीं बल्कि हाथी है

जोयपुर के जंगल से लौटते हुए कुछ वक्त बिष्णुपुर के रासमंच में बीता। रासमंंच सहित बिष्णुपुर के अन्य प्रसिद्ध मंदिरों की यात्रा यहां आपको पहले ही करा चुका हूं। वैसे इस क्षेत्र में अगर दो तीन दिन के लिए आना हो तो आप मुकुटमणिपुर पर बने बांध और बिहारीनाथ  की  पहाड़ियों पर स्थित शिव मंदिर का दर्शन भी कर सकते हैं।


बिष्णुपुर की पहचान रासमंच

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रविवार, 3 दिसंबर 2023

सीता जलप्रपात राँची का अनसुना पर खूबसूरत जलप्रपात Sita Falls, Ranchi

रांची को जलप्रपातों का शहर कहा जाता है। हुंडरू, दशम, जोन्हा, पंचघाघ, हिरणी और सीता जैसे ढेर सारे छोटे बड़े झरने बरसात के बाद अगले वसंत तक अपनी रवानी में बहते हैं यहां। पर बरसात के मौसम के तुरंत बाद यानी सितंबर और अक्टूबर के महीने में इन्हें देखने का आनंद ही कुछ और है। यही वो समय होता है जब झरनों में पानी का वेग और जंगल की हरियाली दोनों ही अपने चरम पर होती है।

रांची के सबसे लोकप्रिय जलप्रपातों में सबसे पहले हुंडरू, दशम और जोन्हा का ही नाम आता है। इसकी एक वज़ह ये भी है कि इन जगहों पर आप पानी के बिल्कुल करीब पहुंच सकते हैं।  मैं इन सभी झरनों तक कई बार जा चुका हूं पर जोन्हा के पास स्थित सीता जलप्रपात तक मैं आज तक नहीं गया था। सीता फॉल रांची से करीब 45 किमी की दूरी पर रांची पुरुलिया मार्ग पर स्थित है। 

सीता जलप्रपात का विहंगम दृश्य



जलप्रपात का ऊपरी हिस्सा

एक ज़माना था जब रांची से बाहर निकलते ही रास्ते के दोनों ओर की हरियाली मन मोह लेती थी पर बढ़ते शहरीकरण के कारण अब वो सुकून नामकुम और टाटीसिल्वे के ट्रैफिक को पार करने के बाद ही नसीब होता है।

सखुआ के जंगलों के बीच जलप्रपात की ओर जाती सीढियाँ 

मैं जब वहां पहुंचा तो टिकट संग्रहकर्ता और गार्ड के अलावा वहां कोई नहीं था। हमारे आने के बाद तीन चार परिवार वहां जरूर नज़र आए। फॉल के नजदीक तक पहुंचने के लिए 200 से थोड़ी ज्यादा सीढियां हैं। जंगल के बीचो बीच जाती इन सीढ़ियों के दोनों ओर साल के ऊंचे ऊंचे वृक्ष सूर्य किरणों का सबसे पहले स्वागत करने के लिए प्रतिस्पर्धा में रहते हैं।

जलप्रपात की पहली झलक

पहले वो जगह थोड़ी सुनसान थी। नीचे तक सीढियाँ ढंग से बनी नहीं थीं इसलिए वहां लोग जाना कम पसंद करते थे। लेकिन अब  वहां पार्किंग के साथ नीचे जाने का रास्ता भी बेहतरीन हो गया है। हां ये जरूर है कि यहां झरने के बिल्कुल पास पहुंचने के लिए आपको चट्टानों के ऊपर से चढ़ कर जाने की मशक्कत जरूर करनी पड़ेगी। वैसे अगर मौसम बारिश का हो तो ऐसा बिल्कुल मत कीजिएगा क्योंकि तब चट्टानों पर फिसलन ज्यादा ही हो जाती है।


रामायण और महाभारत की कहानियों से हमारे देश में सैकड़ों पर्यटन स्थलों को जोड़ा जाता है। सीता जलप्रपात भी इसी कोटि में आता है। कहा जाता है कि वनवास के समय भगवान राम सीता जी के साथ जब इस इलाके में आए तो उनकी रसोई के लिए इसी झतने का जल इस्तेमाल होता था। इस जलप्रपात को जाते रास्ते में लगभग एक किमी पहले सड़क के दाहिनी ओर एक बेहद छोटा सा मंदिर है। इस मंदिर में माँ सीता के पदचिन्हों को सुरक्षित रखा गया है।


कम सीढियाँ होने की वज़ह से आप यहाँ परिवार के वरीय सदस्यों के साथ भी आ सकते हैं। तीन चौथाई सीढियाँ पार कर ही पूरे जलप्रपात की झलक मिल जाती है। यहाँ बनाई सीढियाँ  भी चौड़ी और उतरने में आरामदायक हैं। हाँ जोन्हा या हुँडरू की तरह यहाँ जलपान की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसा इसलिए भी है कि यहाँ लोगों की आवाजाही राँची के अन्य जलप्रपातों की तुलना में काफी कम है।

जलप्रपात से बदती जलधारा जो आगे जाकर राढू नदी में मिल जाती है।

सीता जलप्रपात राढू नदी की सहायक जलधारा पर स्थित है इसलिए यहाँ पानी का पूरा प्रवाह बरसात और उसके बाद के दो तीन महीनों में ही पूर्ण रूप से बना रहता है। इसलिए यहाँ अगस्त से नवंबर के बीच आना सबसे श्रेयस्कर है। बरसात के दिनों में जल प्रवाह के साथ चारों ओर फैली हरियाली भी मंत्रमुग्ध कर देगी। सीता जलप्रपात के पाँच किमी पहले ही जोन्हा का भी जलप्रपात है। इसलिए जब भी यहाँ आएँ पहले इस झरने के दर्शन कर के ही जोन्हा की ओर रुख करें क्योंकि जोन्हा उतरना चढ़ना थोड़ा थकान भरा है। 

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रविवार, 5 मार्च 2023

ओडिशा का मनोहर पर्वतीय स्थल दारिंगबाड़ी Daringbadi a picturesque hill station of Odisha

संबलपुर से चलकर रास्ते रुकते रुकाते दारिंगबाड़ी हम करीब चार बजे पहुँचे। दारिंगबाड़ी के बारे में आप सबने कम ही सुना होगा। दक्षिण मध्य ओडिशा में लगभग 1000 मीटर से कुछ कम ऊंचाई पर बसा ये पर्वतीय स्थल एक ऐसे जिले कंधमाल का हिस्सा है जिसकी गिनती समीपवर्ती कालाहांडी और कोरापुट की तरह ओडिशा के एक पिछड़े जिले के रूप में होती है।
दारिंगबाड़ी इको रिट्रीट जो ओडिशा पर्यटन का सबसे मँहगा ठिकाना है।

हालांकि दारिंगबाड़ी और उसके आस पास के इलाके की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है। यहां के लोग इसकी आबोहवा के हिसाब से इसे ओडिशा का कश्मीर कहते हैं। ये उपमा कितनी सटीक है इस बारे में तो मैं बाद में टिप्पणी करूंगा।
इस आदिवासी बहुल इलाके की आबादी ज्यादा नहीं है। खेती बाड़ी और पशुपालन पर ही यहां के लोगों की नैया चलती है। एक ज़माने में यहां पर मौर्य शासकों का आधिपत्य था। उनके साथ ही यहां बौद्ध धर्म आया और इसी वजह से आज भी इसके पास बौध नाम का एक जिला है जिसका कंधमाल भी कभी एक हिस्सा था। अंग्रेजों के आने के पहले तक ये भूभाग स्थानीय गंगा वंश के शासकों के प्रभाव में रहा।

दारिंगबाड़ी के दस किमी पहले जंगलों के बीच से गुजरता रास्ता

19 वी शताब्दी में जब अंग्रेज यहां आए तो उन्होंने बौध को कंधमाल से अलग कर दिया। तभी इस रमणीक इलाके में प्रशासक के तौर पर दारिंग नाम का एक अंग्रेज अफसर आया जिसके नाम पर इस इलाके का नाम दारिंगबाड़ी (यानी दारिंग साहब का घर) पड़ गया।
दारिंगबाड़ी से बीस किमी पहले ही पहाड़ियों की पंक्तियां राह के दोनों ओर खुली बाहों से आपका स्वागत करती हैं। चटक धूप और गहरे नीले आसमान के आंचल में हरे भरे पेड़ों से लदी इन पहाड़ियों के बीच से गुजरना संबलपुर से दारिंगबाड़ी तक के सफ़र का एक सबसे खूबसूरत हिस्सा था। 😊


दारिंगबाड़ी में हमारे स्वागत को तैयार खुशनुमा वादियाँ और नीला आसमान

जैसा कि पिछले विवरण में मैंने आपको बताया था कि हम यहां संबलपुर और सोनपुर के रास्ते पहुंचे थे पर यहां आने के लिए आप ओडिशा के तटीय हिस्से से होते हुए ब्रह्मपुर तक ट्रेन तक और फिर सड़क मार्ग से भी सरलता से पहुंच सकते हैं।
पर्वतीय स्थलों पर सूर्यास्त की बेला सौम्य तो होती ही है, साथ ही उसमें चित्त को भी शांत कर देने की अद्भुत शक्ति होती है। सूरज को बादलों के साथ लुका छिपी खेलते देखना पहले तो मन को आनंदित करता है पर जैसे जैसे सूरज का अंतिम सिरा पर्वतों में अपना मुंह छुपा लेता है पूरे वातावरण में गहन निस्तब्धता सी छा जाती है।
दारिंगबाड़ी के हमारे ठिकाने के ठीक ऊपर वहां का सूर्यास्त बिंदु था। कमरे में सामान रखकर थोड़ी ही देर में हम वहां जा पहुंचे थे। बादलों के बीच सूर्यास्त दिखने की संभावना ज्यादा नहीं थी फिर भी हमारे जैसे पचास सौ लोग अपने अंदर उम्मीद की किरण जगा कर वहां डेरा जमा चुके थे।


सनसेट प्वाइंट पर ढलती शाम के नज़ारे

उनका उत्साह देख कर सूरज बाबा पिघल गए। डूबने के पहले अपने हाथों से बादलों को तितर बितर किया और अपनी मुंहदिखाई करा कर पहाड़ियों के पीछे दुबक लिए। हल्की ठंड में चाय की गर्माहट का साथ मिला तो मैंने वहीं सड़क के किनारे ही बैठ कर आसमान पर नज़रें टिका दीं।
आसमान में रंगों का असली खेल तो सूर्यास्त के बाद ही चलता है। घर हो या बाहर आकाश की इस बदलती छटा को एकटक निहारना मन को बेहद सुकून पहुंचाता रहा है। ये वो लम्हा होता है जब आप खुद उस दृश्य में एकाकार हो जाते हैं। पहाड़ों के ऊपर धुंध बढ़ने लगी थी। परत दर परत दूर होती चोटियां स्याह होती जा रही थीं। पर इस बढ़ती कालिमा से बेखबर ऊपर का मंजर आकर्षक हो चला था। डूबते सूरज की आड़ी तिरछी किरणें बादलों को दीप्त किए दे रही थीं। जब तक रोशनी की आखिरी लकीर साथ रही हम वहां टस से मस नहीं हुए।🙂
प्राकृतिक सुंदरता के बीच अगर रहने का सही ठिकाना मिल जाए तो वक्त और मजे में कटता है। दारिंगबाड़ी में रहने के ढेर सारे विकल्प नहीं है या तो बिल्कुल मामूली या फिर काफी महंगे। ऐसे में Utopia Resort सचमुच एक आदर्श चुनाव के रूप में हमारे सामने आया।


शहर से अलग थलग घाटी में बना हुआ ये आशियाना प्रकृति को तो आपके सामने लाता ही है और साथ ही सुबह की सैर में आपको अपने आस पास के ग्रामीण जीवन की झलक भी दिखला जाता है। हफ्ते भर की यात्रा में हम जितनी जगह ठहरे उसमें ये ठिकाना सबसे ज्यादा प्यारा था। रहने और खाने पीने दोनों ही मामलों में।

यूटोपिया रिसार्ट की सुबह...

वैसे तो ये इलाका सूर्यास्त बिंदु के पास है पर प्रभात बेला में पहाड़ों के पीछे से आती किरणें बादलों से टकरा कर जो स्वर्णिम आभा बिखेरती हैं वो दृश्य देखने लायक होता है। आस पास के खेत खलिहानों में आपको कुछ रंग बिरंगे पक्षी भी दिख जाएंगे जिनकी वज़ह से मेरी सुबह कुछ और खूबसूरत हो गई।

रात में जगमगाता रिसार्ट
रात में अगर आसमान साफ हो सप्तर्षि सहित तारों का जाल स्पष्ट दिखाई देता है। रात को रिसार्ट पर लौटने के बाद पता लगा कि दारिंगबाड़ी के लोकप्रिय स्थलों में कुछ जलप्रपात और उद्यान हैं । सबसे दूर वाली जगह मंदासारू की घाटी थी जो दारिंगबाड़ी से चालीस किमी दूर थी। इतना तो तय था कि हम एक दिन में सारी जगहें सिर्फ भागा दौड़ी में देखी जा सकती थीं जो कि हमें करनी नहीं थी इसलिए तय हुआ कि हम पहले मंदासारू जाएँगे और फिर बचे समय के हिसाब से बाकी की जगहों का चुनाव करेंगे। गूगल की गलती ने अगली सुबह मंदासारू की जगह हमें कैसे दूसरी जगह पहुँचा दिया ये कथा इस वृत्तांत के अगले चरण में..

बुधवार, 11 जनवरी 2023

यात्रा दक्षिणी ओडिशा की कैसे पहुँचे हम संबलपुर से दारिंगबाड़ी? Road trip from Sambalpur to Daringbadi

झारखंड से ओडिशा तक का सफ़र हमें सिमडेगा, सुंदरगढ़, झारसुगुड़ा जिलों को पार कराता हुआ हीराकुद तक ले आया था। हीराकुद  देखने के बाद हमने पिछली रात संबलपुर में गुजारी थी। संबलपुर में ठंड तो बिल्कुल नहीं थी पर जहाँ भी देखो रक्त पिपासु मच्छरों की फौज मौज़ूद थी। होटल के कमरे में घुसते ही उन्होंने धावा बोल दिया था। अंत में जब रिपेलेन्ट की महक से काम नहीं बना तो हार कर कंबल ओढ़ पंखे की हवा का सहारा लेना पड़ा। ये तरीका कुछ हद तक कारगर रहा और थोड़ी बहुद नींद आ ही गई।


अगली सुबह हमें ओडिशा के पर्वतीय स्थल दारिंगबाड़ी की ओर कूच करना था। संबलपुर से दारिंगबाड़ी की दूरी वैसे तो 240 किमी है पर फिर भी कुछ सीधे कुछ घुमावदार रास्ते पर चलते हुए कम से कम 6 घंटे तो लगते ही हैं। संबलपुर से दारिंगबाड़ी जाने के लिए यहां से सोनपुर जाने वाली सड़क की ओर निकलना होता है। सोनपुर का एक और नाम सुवर्णपुर भी है। नाम में बिहार वाले  सोनपुर से भले साम्यता हो पर ओडिशा का ये जिला पशुओं के लिए नहीं बल्कि साड़ियों और अपने ऐतिहासिक मंदिरों के लिए जाना जाता है। संबलपुर से सोनपुर के रास्ते में लगभग 25 किमी बढ़ने के बाद दाहिने कटने पर आप हुमा के लोकप्रिय  शिव मंदिर तक पहुंच सकते हैं । महानदी के तट पर स्थित ये छोटा सा मंदिर एक तरफ थोड़ा सा झुका होने की वज़ह से काफी मशहूर है। 

संबलपुर सोनपुर राजमार्ग खेत खलिहानों के बीच से होता हुआ महानदी के समानांतर चलता है ।  हीराकुद में महानदी का जो प्रचंड रूप दिखता है वो बांध के बाद से छू मंतर हो जाता है। बाँधों से जुड़ी नदी परियोजनाओं ने सिंचाई और बिजली बनाने में भले ही महती योगदान दिया हो पर इन्होने नदियों की अल्हड़ मस्त चाल पर जगह जगह अंकुश लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सोनपुर के पुल के नीचे नदी अपने विशाल पाट के महज एक तिहाई हिस्से में ही बहती दिखती हैं। हालांकि बारिश के दिनों में हीराकुद के द्वार खुलते ही इस इलाके में महानदी इस कदर उफनती है कि आस पास के गांव भी जलमग्न हो जाते हैं।


सोनपुर में महानदी पर बने पुल को पार करने के बाद कुछ ही देर बाद उसकी सहायक नदी तेल से रूबरू होना पड़ता है। इस नदी की इजाज़त के बगैर आप  दक्षिण पूर्वी ओडिशा के बौध जिले में प्रवेश नहीं ले सकते। अगर आपको जिले के इस नाम से इलाके का इतिहास बौद्ध धर्म से जुड़ा होने का खटका हुआ हो तो आप का अंदेशा बिल्कुल सही है। दरअसल इस इलाके में बौद्ध स्थापत्य के कई अवशेष मिले हैं। आठवीं शताब्दी में भांजा राजाओं के शासन काल में ये भू भाग बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र था।

संबलपुर से सोनपुर तक का 2 घंटे का सफर बादलों की आंख मिचौली की वजह से थोड़ा फीका ही रहा था। पर बौध जिले के आते ही आसमान की रंगत बदल गई। हम इस बदलते मौसम का आनंद ले ही रहे थे कि अचानक हमने अपने आप को एक जंगल के बीचो बीच पाया। धूप के आते ही चौड़े पत्तों वाले पेड़ जगमगा उठे थे। हरे धानी और आसमानी रंगों की मिश्रित बहार मन को मुग्ध किए दे रही थी। प्रकृति की इस मधुर छटा का रसपान करने के लिए गाड़ी से बाहर निकलना लाजमी हो गया था।

बौध जिले में प्रवेश करते ही आया ये जंगल

बौध जिले के कांटमाल और घंटापाड़ा के रास्ते होते हुए हम तेल नदी के बिल्कुल किनारे पहुंच गए।  रास्ते में ग्रामीण स्त्रियाँ छोटी छोटी झाड़ियों को सड़क पर सुखाती मिलीं। वो झाड़ी किस चीज की थी ये मैं समझ नहीं पाया। उसी में से एक झाड़ी साइलेंसर के पास यूँ जा चिपकी कि उसकी वज़ह से हो रही झनझन की आवाज़  से हमें ऐसा लगा कि गाड़ी में ही खराबी आ गयी है। बाहर निकल कर देखा तो माजरा समझ में आया। वैसे बाहर उतरने की असली वज़ह अचानक से इस श्वेत श्याम चितकबरे किलकिले का दिख जाना भी था जो बड़े मजे से पास के तालाब में तैरती मछलियों पर अपनी नज़र बनाए हुए था।

चितकबरा किलकिला (Pied Kingfisher)

मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

यात्रा दक्षिणी ओडिशा की Road Trip to Unexplored Southern Odisha

दिसम्बर के महीने में अचानक से यूँ ही कहीं चल देना आसान नहीं होता। ट्रेन में टिकटें नहीं रहतीं और हवाई जहाज के किराए तो आसमान छूने लगते हैं। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि अपनी गाड़ी निकालो और चलते बनो। मेरे एक पर्वतारोही मित्र ऐसे हैं जो अकेले ही गाड़ी चलाते हुए राँची से नागालैंड और हिमाचल तक की यात्रा कर चुके हैं। दिक्कत ये थी कि मैं गाड़ी चलाता नहीं और ऐसे में जब उन्होंने राँची से अराकू घाटी तक चलने का सुझाव दिया तो मैं अचकचाया क्यूँकि 1000 किमी अकेले चलाकर जाना और आना तो किसी के लिए भी दुष्कर कार्य है। हमने कई और जगहों के बारे में सोचा पर अंततः उनके आत्मविश्वास को देखते हुए मैं तैयार हो गया। 


हफ्ते भर की इस यात्रा में हमें दक्षिणी ओडिशा के उन हिस्सों को देखने की तमन्ना थी थे जिस की ओर बाहर से आने वाले शायद ही रुख करते हों। कालाहांडी, कंधमाल  और कोरापुट जैसे आदिवासी बहुल जिलों की प्राकृतिक सुंदरता को करीब से देखने का इरादा था हमारा। अपने अंतिम मुकाम तक पहुँचने के बजाए हम ज्यादा उत्साहित उस रास्ते से थे जो हमें अपने गन्तव्य तक पहुँचाने वाला था।

राँची से हमारा पहला पड़ाव संबलपुर था जहाँ करीब एक दशक पहले मैं हीराकुद बाँध देखने गया था। दिसंबर की एक सुबह जब हम राँची से निकले तो हमें एक चमकदार सुबह और नीले आसमान की तलाश थी। आख़िर सर्दी के दिनों में ये दोनों साथ रहें तो सफ़र और भी खूबसूरत हो जाता है। पर ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था। दिन चढ़ते ही बादलों ने जो हमारा दामन ऐसा थामा कि हीराकुद तक छोड़ा ही नहीं।

राँची से सिमडेगा तक की राहें..

राँची से सिमडेगा के लिए हमने बकसपुर, कामडारा और कोलेबिरा वाला रास्ता चुना। कर्रा से बकसपुर का रास्ता मरम्मत की तलाश में है। दुबली पतली सड़कें यूँ तो ठीक हैं पर बीच बीच में अचानक से ही गढ्ढे भी आ जाते हैं। धान की फसल कट जाने के बाद खेतों में भी वीरानी पसरी थी जो धुँधले आसमान में और भी गहराती जा रही थी।कस्बे बीच बीच में इस चुप्पी को तोड़ते पर उनकी चिल्ल पों से उकता कर मन जल्दी से खुले रास्तों के आने की उम्मीद करने लगता।

इस रास्ते में आने वाले कस्बों के बाहर ज्यादा ढाबे नहीं है्। पहली ढंग की जगह हमें कोलेबीरा के बाद नज़र आई जहाँ हम जलपान के लिए रुके। थोड़ी ही देर में हम दक्षिणी पश्चिम झारखंड की सीमा से सटे सिमडेगा जिले में थे। सिमडेगा को झारखंड में हॉकी के गढ़ के रूप में भी जाना जाता है। एक समय था जब सिमडेगा में ओड़िया राजाओं की हुकूमत चलती थी। ओडिसा से सटे होने के कारण आज भी जिले के भीतरी इलाकों में ओड़िया संस्कृति का असर दिखता है। वैसे आज की तारीख में जिले की आधे से अधिक आबादी ईसाई है। 


सिमडेगा की हरी भरी पहाड़ियाँ


सिमडेगा से आगे निकलते ही शंख नदी का विशाल रूप सामने आ गया। शंख नदी झारखंड के गुमला जिले से निकलती है और मुख्यतः झारखंड और थोड़ी दूर छत्तीसगढ की सीमा में बहते हुए राउरकेला के पहले दक्षिणी कोयल नदी में मिल जाती है। इनके संगम स्थल को वेदव्यास कहा जाता है क्यूँकि ऐसा माना जाता है कि महर्षि व्यास ने कुछ समय इस संगम पर बिताया था। 

सिमडेगा के पास इसका विशाल पाट अथाह जलराशि समेटे मंद मंद बह रहा था। काश के फूलों ने नदी की तट रेखा अपने नाम कर ली थी। सफ़र को विराम देने के लिए ये एक अच्छी जगह थी। कुछ देर पानी की स्निग्ध धारा और उसमें तैरते पक्षियों को निहार कर हम फिर आगे बढ़ चले।


शंख नदी का तट जहाँ अभी भी कास के फूलों की बहार है



ओड़िशा में प्रवेश करते ही हम राज्य राजमार्ग 10 पर आ गए जो राउरकेला से संबलपुर होते हुए कोरापुट को जोड़ता है। फोर लेन हाइवे को देखते ही हमारी गाड़ी हवा हवाई हो गयी इस रास्ते की वज़ह से अब हम करीब साढ़े छः घंटे में ही हीराकुद के पास पहुँचने की स्थिति में आ गए। हालांकि तेज रफ्तार का खामियाजा हमें बाद में भुगतना पड़ा। वापस इसी रास्ते से लौटते समय पता चला कि हमने सौ किमी प्रति घंटे की निर्धारित गति सीमा कहीं पार कर ली थी। ओड़िशा में सरकार ने राजमार्गों पर जगह जगह कैमरे लगाए हुए हैं जो गतिसीमा पार करने पर न्यूनतम दो हजार रुपये का जुर्माना जरूर ठोंकते हैं। यूँ तो सिमडेगा से लेकर संबलपुर तक पश्चिमी ओड़िशा का ये इलाका कृषि प्रधान है पर इनके बीच झारसुगुड़ा का औद्योगिक क्षेत्र भी है जहाँ पहुँचते ही लगने लगता है कि हवा धूल कणों से भरी हुई है।

संबलपुर पहुँचने से पहले ही एक रास्ता हीराकुद जलग्रहण क्षेत्र की ओर जाता दिखा। गाड़ी उधर ही मोड़ ली गयी। थोड़ी ही देर में समझ आ गया यही रास्ता हीराकुड इको रिट्टीट को भी जाता है। यहाँ जलाशय के बगल में ही सरकार ने टेंट बना रखे हैं। वहाँ कुछ वाटर स्पोर्ट्स की व्यवस्था भी दिखी पर दो लोगों के लिए एक रात गुजारने के लिए आठ हजार खर्च करने का कोई औचित्य नहीं दिखा।

हीराकुद का इको रिट्रीट, नहीं जी हम यहाँ नहीं ठहरे

पानी के किनारे किनारे हम करीब दस किमी चलते रहे। सूर्यास्त का समय पास था पर बादलों की गिरफ़्त से किसी तरह निकलकर सूर्य किरणें मानों छन छन कर नीचे आ रही थीं।अगर मौसम साफ होता तो विशाल जलराशि के बीच यत्र तत्र फैले टापुओं के साथ मछुआरों की दूर धिरे धीरे खिसकती नावों को देखना और भी सुकूनदेह रहता। जाड़े का समय था तो कुछ प्रवासी पक्षी अबलक बत्तख, शिवहंस और सैंडपाइपर दिखे पर उनकी तादाद बहुत ज्यादा नहीं थी। फिर भी राजमार्ग से अलग इस रास्ते पर चलना दिन की यादगार स्मृतियों का हिस्सा बन गया।


चलते चलते हम मुख्य बांध के एकदम पास पहुंच गए पर पता चला कि इधर से आगे सामान्य पर्यटकों को आगे जाने की अनुमति नहीं है। अब गूगल को तो ये सब बातें कहाँ पता रहती हैं सो हमें वापस मुड़कर पास के गाँव के रास्ते हीराकुड जाने वाली दूसरी सड़क की ओर रुख करना पड़ा जो गाँधी मीनार तक जाती है।

मछली पकड़ने के लिए जलाशय में बना स्टेशन

हीराकुड बाँध की परिकल्पना विशवेश्वरैया जी ने तीस के दशक में रखी थी। सन 1937 में महानदी में जब भीषण बाढ़ आई तो इस परिकल्पना को वास्तविक रूप देने के लिए गंभीरता से विचार होने लगा। ये पाया गया कि जहाँ छत्तीसगढ़ में महानदी के उद्गम स्थल का इलाका सूखाग्रस्त रहता है तो उड़ीसा में महानदी का डेल्टाई हिस्सा अक्सर बाढ़ की त्रासदी को झेलता रहता है। लिहाज़ा यहाँ एक विशाल बाँध बनाने का काम आजादी से ठीक पूर्व 1946 में चालू हुआ। करीब सौ करोड़ की लागत से (तब के मूल्यों में) यह बाँध सात साल यानि 1953 में जाकर पूरा हुआ और 1957 में नेहरू जी ने इसका विधिवत उद्घाटन किया। मिट्टी और कंक्रीट से बनाया गया ये बाँध विश्व के सबसे लंबे बाँध के रूप में जाना जाता है।


शाम की धुंध में लिपटा हीराकुद बाँध

एक दशक पहले जब यहाँ पहुंचा था तो यहाँ लोगों की आवाजाही इतनी नहीं होती थी पर पिछले कुछ सालों में सरकार ने जवाहर उद्यान के साथ साथ गाँधी मीनार के बाहरी स्वरूप का कायाकल्प किया है जिसकी वज़ह से यहाँ लोग सैकड़ों की संख्या में दिखने लगे हैं। अब एक रोपवे भी बन गया है जो गाँधी मीनार से जवाहर उद्यान को जोड़ता है हालांकि वो बाँध के ठीक ऊपर से नहीं जाता। मीनार की सर्पीली सीढ़ियों को जल्दी जल्दी पार कर हम सब मीनार के ऊपर पहुँचे ताकि ढलती शाम और गहराती धुंध के बीच कुछ तस्वीरें ली जा सकें।


गाँधी मीनार से नीचे का दृश्य



हमलोग जिस रास्ते से आ रहे थे वही राह आगे जाकर दाँयी वाली सड़क में मिलती

गाँधी मीनार से जाता रोपवे जो पास के नेहरू पार्क में उतरता है

संबलपुर में हमने होटल की बुकिंग पहले से नहीं कर रखी थी। हालांकि इंटरनेट से कई होटलों के रेट देख रखे थे। ऐसे ही एक होटल में जब हम पहुँचे तो कमरे की कीमत नेट पर बताई गयी कीमत से बारह सौ रुपये ज्यादा दिखी। मैंने कहा अगर ऐसा है तो फिर नेट से ही क्यूँ न आरक्षण कर लें। कमरा देख के जब लौटे तो नेट में अचानक ही सारे कमरे आरक्षित बताए जाने लगे। होटल वालों ने इतनी ही देर में अपना कमाल दिखला दिया था। ख़ैर हमें भरोसा था कि इतने बड़े शहर में कई अन्य विकल्प और मिल जाएँगे। और हुआ भी वही।

हीराकुड बांध के अलावा संबलपुर जिस चीज के लिए मशहूर है वो है यहाँ की साड़ी। हाथ से बनी इन साड़ियों के पारंपरिक डिजाइन तो आपने देखे ही होंगे। संबलपुरी साड़ियाँ संबलपुर के अलावा मध्य और पश्चिमी ओडिशा के जिलों बलांगीर, सोनपुर बारगढ़ आदि में भी बनती हैं। अगर आप संबलपुर जाएँ तो एक बार यहाँ के गोल बाजार का चक्कर जरूर लगाएँ। यहाँ आपको सरकारी और निजी दुकानों में अपनी पसंद का कोई ना कोई संबलपुरी परिधान मिल ही जाएगा।

संबलपुरी प्रिंट के कपड़े

ओड़िशा सामिष भोजन के लिए जाना जाता है पर मैं तो ठहरा शाकाहारी तो वापस की यात्रा में यहाँ की चाट का आनंद लेते हुए गया।

संबलपुर में चाट का आनंद चाट महाराज में



संबलपुर से चलते चलते हजामत बनाने वाली इस दुकान के इस नाम पर नज़र ठहर गई। अब बताइए भला अगर दुकानदार को लेडीज़ पार्लर खोलना होता तो वो इसका क्या नाम रखता? :) हमारा अगला पड़ाव ओड़िशा का छोटा सा पर्वतीय स्थल दारिंगबाड़ी था जो कि वहाँ के कांधमल जिले में स्थित है और जिस तक पहुँचने के लिए इसी महानदी को पार करते हुए कालाहांडी के जंगलों से होकर गुजरना था।