शंकरपुर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शंकरपुर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 21 अगस्त 2010

आइए ज़रा करीब से देखें दीघा के इन लाल 'राजकुमारों' को....

दीघा के आस पास के समुद्रतटों की इस सैर में पिछली बार मैंने आपको इस छिद्र के पास छोड़ा था। इसे देखकर मन उत्साह से भर गया था। जो मंदारमणि में नहीं देख पाए थे वो कम से कम शंकरपुर में तो देखने को मिले।


छिद्र से और थोड़ी दूर बढ़ने पर दूर से ही मुझे लाल केकड़ों (Red Crabs of Digha) का पूरा दल घूमता टहलता दिखाई दिया।

खुशी के मारे मैंने अपने साथियों को आवाज़ें देनी पड़ी। पर मैं तो उन्हें समुद्र तट से करीब 300-400 मीटर दूर छोड़ आया था सो मेरी आवाज़ साथियों तक कहाँ पहुँचती। (नीचे के चित्र को बड़ा कर के देखेंगे तो मैं करीब करीब उसी जगह था जहाँ एक व्यक्ति आपको दिख रहा है।)


साथियों को पास बुलाने का एक उद्देश्य ये भी था कि इन केकड़ों का चित्र लेने के लिए उनके ज्यादा ज़ूम वाले कैमरों का प्रयोग किया जाए। लाल केकड़े अगर अपने बिल के पास होते हैं तो उनके दस मीटर की दूरी तक ही आप पहुँच सकते हैं। अगर आपने और पास आने की कोशिश की तो वो चट से अपने बिल में घुस कर अदृश्य हो जाते हैं।

अप इन्हें ही देख लीजिए ना किस तरह बिल में घुसने की तैयारी कर रहे हैं।


ये लाल केकड़े ज्यादा देर धूप में नहीं रह सकते इस लिए समुद्र तट पर रेत के बिल बना कर रहते हैं। साल में कम से कम एक बार ये अंडे देने के लिए समुद्र की ओर रुख करते हैं। हम तो ये दृश्य नहीं देख पाए पर समुद्र की ओर जब ये भारी संख्या वाले समूह में चलते हैं तो ऐसा लगता है मानो समुद्र के किनारे लाल लाल फूलों की बहार आ गई हो।



अगले दिन हम जब तालसरी गए तो वहाँ तो चारों ओर केकड़े ही केकड़े दिख रहे थे। तालसरी में पर्यटक की संख्या बहुत कम होती है इसलिए यहाँ केकड़े अपने घर से दूर घूमते भी नज़र आए। ये देखते हुए इस दफ़ा हमने उनका पास से चित्र लेने की दूसरी तरकीब सोची। एक केकड़ा जो बाहर निकला हुआ दिखा उसके पीछे हौले हौले हो लिए और दस मीटर पहले से उसे दौड़ा दिया। कुछ दूर भागने के बाद उस केकड़े को अपने साथी का बिल मिला। पर दिलचस्प बात ये थी कि उसने सिर्फ बिल में सिर्फ अपना सिर घुसाया शरीर नहीं क्यूँकि वो जानता था कि ये जिसका घर है वो अंदर से उसे निकाल बाहर करेगा। हमने बस उसके इसी पोज़ की फोटो ले ली।


और ये महाशय तो बालू से सने हुए थे और पानी में अठखेलियाँ कर लौट रहे थे कि इनके रास्ते में हम लोग आ गए।


पर वहाँ रहने वाले ग्रामीण बच्चे तो इन केकड़ों को ऐसे उठा रहे थे मानों वो कोई खिलौने हों। मैंने इस लड़के से पूछा क्यूँ भाई ये काटता नहीं क्या? वो बोलो क्यूँ नहीं काटता पर हम सब अब अभ्यस्त हो गए हैं इनके वार से बचने के लिए। तो ज़रा आप भी तो पास से देखिए इस सुंदर पर खतरनाक प्राणी को...




चलते चलते देखिए तालसरी के समुद्र तट पर केकड़ों के इस विशाल समूह को..


अगली बार आपको दिखाएँगे रात के दीघा की रौनक....

इस श्रृंखला में अब तक

  1. हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
  2. मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
  3. दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब

सोमवार, 9 अगस्त 2010

आइए चलें मंदारमणि जहाँ तेरह किमी लंबे समुद्र तट पर दौड़ती हैं गाड़ियाँ...

जैसा कि आपको इस यात्रा वृत्तांत की शुरुआत में ही बता चुका हूँ कि इस बार की हमारी दीघा यात्रा का उद्देश्य दीघा से ज्यादा दीघा के आस पास के समुद्र तट पर विचरने का था। और हमारी फेरहिस्त में सबसे पहला नाम था मंदारमणि के समुद्र तट का। इस यात्रा के लिए सबसे ज्यादा उत्साह बच्चों में था सो बिना किसी माम मुन्नवल के वे सुबह आठ बजे ही तैयार हो गए। होटल के आहाते में ही एक छोटा सा पार्क था तो सबसे पहले धमाचौकड़ी वही मचने लगी।


तभी होटल के भोजनालय से नाश्ते की तैयारी की सूचना दी गई। बंगाल में सुबह के नाश्ते में प्रायः आपको लुचि व आलू की रसेदार सब्जी खाने को मिलेगी। अब आप सोच रहे होंगे कि लुचि सब्जी और पूरी सब्जी में क्या फर्क है। लुचि को सिर्फ आटे के बजाए मुलायम आटे में थोड़ा मैदा मिलाकर बनाया जाता है और साथ में हल्का सा नमक भी मिला देते हैं।



सुबह के सवा नौ बजे तक हम सब भाड़े की सूमो में मंदारमणि की ओर कूच करने के लिए तैयार थे। नए दीघा से मंदारमणि तकरीबन 35 से 40 किमी के बीच की दूरी पर है।


खड़गपुर से दीघा हम जिस रास्ते से आए थे उसी रास्ते पर रामपुर तक वापस जाना होता है और फिर वहाँ से दीघा कोन्ताई (Contai) मार्ग ले लेना होता है। सुनहरी धूप, हरे भरे खेतों कच्चे पक्के मकानों, बागानों और हवा के हल्के ठंडे झोकों के बीच दीघा से चाउलकोला (Chaulkhola) का शुरु का पच्चीस किमी का रास्ता आसानी से कट गया। वैसे सामान्यतः पर्यटक जब कोलकाता से दीघा आते हैं तो चाउलकोला का ये चौक दीघा से पहले ही पड़ जाता है। यहाँ से मंदारमणि के लिए रास्ता कटता है। कुछ वर्ष पूर्व तक मंदारमणि की ओर जाने वाली ये सड़क कच्ची थी। पर अब इसे पक्का कर दिया गया है। वैसे जब हम दिसंबर में गए थे तब इस सड़क के टूटे हुए हिस्सों में निर्माण कार्य चल रहा था।

चौदह किमी का ये रास्ता बंगाल के गाँवों से होता हुआ निकलता है एक ओर तो हरे भरे नारियलों से घिरे पोखर मन में ताजगी का अहसास जगाते हैं तो वही जब आप गाँवों के उन घरों के पास से गुजरते हैं जहाँ पर मछलियों को सुखा जा रहा होता है तो आप को जल्द ही नाक पर रुमाल लगा लेना होता है। सवा दस के लगभग हम मंदारमणि के समुद्र तट पर आ गए थे। मंदारमणि समुद्रतट तक पहुँचने के लिए अंतिम कुछ किमी में आपकी गाड़ी में बैठ कर ही समुद्रतट का आनंद ले रहे होते हैं। सुनने और महसूस करने में ये बेहद रोमांचक लगता है पर इसका एक दुखद पहलू है जिसके बारे में आपको बाद में बताऊँगा।

बंगाल की खाड़ी में बंगाल के दीघा से लेकर उड़ीसा के चाँदीपुर तक समुद्र तट काफी चौरस और छिछला है। पर नए दीघा, शंकरपुर और मंदारमणि के समुद्रतट छिछले लगभग आधा किमी तक छिछले होने के आलावा ऊपर से ठोस भी हैं। यही वज़ह है कि एक ओर तो इन समुद्र तटों पर काफी अंदर जाने के बावजूद पानी छाती की ऊँचाई से भी कम रहता है और डूबने का खतरा ना के बराबर होता है और दूसरी ओर पर आप आसानी से फुटबाल, क्रिकेट खेल सकते हें या तट पर मज़े से बाइक दौड़ा सकते हैं।


गाड़ी से उतरने के साथ ही सारे बच्चे आनन फ़ानन में कपड़े बदल कर समुद्र तट की ओर फर्राटा दौड़ लगाने लगे। लिहाज़ा इस पूरे समुद्र तट का ढंग से अवलोकन कर नहाने का विचार हमें त्यागना पड़ा। बच्चों के पीछे हमें भी दौड़ लगानी पड़ी। बच्चों के चेहरों के भावों से ही से ही आप उनके समुद्र में नहाने के उत्साह को समझ जाएँगे।






चित्र में आप देख सकते हैं कि तट से कितनी दूर आकर हमें समुद्र में गोते लगाने पड़ रहे थे। एक घंटे तक पानी में रहने के बाद मैं अपने मित्रों के साथ समुद्र तट के एक सिरे पर स्थित रिसार्टों का चक्कर लेने के लिए चल पड़ा।

मंदारमणि के समुद्र तट के किनारे आजकल ढेर सारे होटल और रिसार्ट बन रहे हैं। वैसे यहाँ अभी भी बिजली की व्यवस्था शायद नहीं है। इसलिए शाम को डीजी सेट यहाँ इनवर्टर के सहारे ही ये रिसार्ट चलते होंगे। मंदारमणि का ये इलाका करीब बारह किमी लंबा है। यानि ये भारत का सबसे लंबा मोटरेबल समुद्र तट है। थोड़ी दूर चलने के बाद दीघा इलाके की ट्रेडमार्क Casuarina Plantations दिखती हैं जो इस समुद्र तट के सौंदर्य को और बढ़ा देती हैं।



पर पिछली बार न्यू दीघा में जो लाल केकड़े दिखाई दिए थे और जिन्हें देखने की आशा में हम मंदारमणि आए थे, वो यहाँ से हमें नदारद मिले। अब बताइए अगर आपके घरों के ऊपर कार और जीप चलती रहे तो कब तक आप उस घर में रहेंगे। इसलिए शायद लाल केकड़ों ने आपना आशियाना शायद थोड़ा वीराने में कर लिया होगा। पश्चिम बंगाल सरकार को चाहिए कि वो शीघ्र ही होटलों की कतार के समानांतर एक सड़क बना के वाहनों के परिचालन को नियंत्रित करे अन्यथा लाल केकड़े मंदारमणि से बिल्कुल ही गायब हो जाएँगे।

मंदारमणि तट पर करीब तीन घंटे बिताने के बाद एक बजे हम वहाँ से शंकरपुर के समुद्र तट की ओर रुखसत हो लिए जो कि मंदारमणि से दीघा जाने वाले के रास्ते के लगभग मध्य में पड़ता है। दीघा से चौदह किमी दूर शंकरपुर के इस समुद्र तट पर हम पिछली बार हम कुछ ही समय के लिए रुके थे और वहाँ की हरी भरी छटा से मंत्र मुग्ध हो गए थे। दिन के लगभग पौने दो बजे मंदारमणि से चलकर जब हम शंकरपुर पहुँचे तो हमें तब


और अब की छटा में बड़ा फर्क नज़र आया। समुद्र के तट की ओर निरंतर बढ़ते चले जाने की वजह से बहुत सारे पेड़ पौधे अब वहाँ है हीं नहीं। पिछली बार की हरियाली इस बार बेहद फीकी फीकी सी लगी। पेड़ों को समुद्री कटाव से बचाने के लिए लकड़ी का एक लंबा ढाँचा खड़ा मिला।




नहा तो हम पहले ही चुके थे इसलिए समुद्र तट के किनारे शांति से बैठने का सबका मन हुआ। बच्चे बालू के टीले और पहाड़ बनाने में जुट गए


और हम समुद्र तट के अन्वेषण में.... यहाँ भी समुद्रतट उतना ही चौरस है। बगल ही में मछुआरों की बस्ती और एक फिशिंग हार्बर है । फिशिंग हारबर एक बरसाती नदी के मुहाने पर बसा हुआ है। चूंकि नदी में पानी कम था तो मछुआरों की हलचल भी ना के बराबर थी। तब और अब के शंकरपुर में फर्क ये भी आ गया है कि अब तट पर गाड़ियाँ चलनी बंद हो गई हैं।


मेरे मित्र को थोड़ी दूर पर ये स्टारफिश दिखी


थोड़ी देर बैठे रहने के बाद मेरा खोजी मन अकेले ही विचरण को हुआ और मैं समुद्र तट से नदी के मुहाने की ओर चल पड़ा। करीब आधे किमी तक आगे चलने के बाद मुझे दूर बालू पर हरक़त सी होती दिखाई दी। कुछ आगे और बढ़ा तो ये छिद्र के सामने अपने को खड़ा पाया। कड़ी धूप में आधे पौने किमी का सफ़र मुझे सार्थक लगने लगा क्यूँकि मुझे पता लग गया था कि जिसकी तलाश में मैं था वो मंजिल पास आ गई है...


क्या था इस छिद्र का राज और क्या दिखा मुझे आगे उसके लिए देखना ना भूलिएगा इस कड़ी की अगली पोस्ट...

बुधवार, 19 अगस्त 2009

दीघा और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ दौड़ती हैं जीपें, दिखते हैं फुटबॉल खेलते लोग और लाल लाल प्रहरी !

पिछली प्रविष्टि में मैंने आपको बताया था कि किस तरह हम राँची से खड़गपुर होते हुए दीघा (Digha) पहुँचे। होटल से पाँच मिनट पैदल चलकर हम पुराने दीघा (Old Digha) के समुद्र तट पर थे। दरअसल दीघा को पर्यटन मानचित्र पर स्थापित करने का श्रेय इतिहासकार अंग्रेज पर्यटक जॉन फ्रैंक स्मिथ (John Frank Smith) को देते हैं जो 1923 में दीघा आए और यहाँ की सुंदरता देख यहीं बस गए। दीघा के बारे में उनके लेखों ने इस जगह के बारे में लोगों की जानकारी को बढ़ाया। आजादी के उपरांत स्मिथ ने तत्कालीन मुख्यमंत्री विपिन चंद्र रे को दीघा को एक पर्यटन स्थल बनाने के लिए राजी किया। वैसे इस जगह का उल्लेख अंग्रेज गवर्नर जेनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के १७८० में अपनी पत्नी को लिखे ख़त में भी मिलता है. हेस्टिंग्स ने बीरकुल के नाम से जाने वाली इस जगह को अपने पत्र में ब्राइटन आफ दि ईस्ट (Brighton of the East) की संज्ञा दी थी।

उस दिन पूरे तट पर जबरदस्त भीड़ थी। सबने सफ़र की थकान मिटाने के लिए जम कर स्नान किया। जिन्हें पानी से डर लग रहा था उनके लिए बड़ी बड़ी रबर ट्यूब्स का सहारा था। एक दो घंटे में जब धूप ज्यादा चढ़ आई तो हम वापस लौट चले।

(चित्र छायाकार सुमित)
समुद्री अपरदन ने दीघा के पुराने तट की चौड़ाई कम कर दी है। पर बाकी तटों से मिलती जुलती बातें यहाँ भी नज़र आती हैं। यानि कि समुद्र तट के सामानांतर चलती रोड और उसके ठीक अगल पर छोटी-छोटी खाने पीने की दुकानें। शाम को जब हम तट की गहमागहमी देखने वापस आए तो हमारे साथियों ने यहाँ की सी पाम्फ्रेड मछली (Sea Pamfred) का जम कर लुत्फ़ उठाया। मित्र गणों को पेट पूजा में तल्लीन छोड़ कर मैं सूर्यास्त का नज़ारा लेने के लिए तट के भीड़ भाड़ वाले इलाके से दूर निकल पड़ा। रास्ते के एक तरफ अपरदन रोकने के लिए चट्टानों की बनाई दीवार थी तो दूसरी ओर हरे भरे कैसुराइना प्लानटेशन। ये प्लानटेशन ही इस तट को एक विशिष्टता प्रदान करती हैं।

(चित्र छायाकार अनुनय)
दीघा का सूर्यास्त पुरी और चाँदीपुर जैसा मंज़र पेश करता है। पुराने दीघा की भीड़ भाड़ को देखते हुए अब दीघा से २ किमी दूर नई दीघा बीच (New Digha) का विकास किया गया है जो अपेक्षाकृत शांत और साफ सु्थरी है। अगले दिन हम नए दीघा के तट पर भी गए पर पैदल नहीं बल्कि एक जीप में। आपको विश्वास हो ना हो पर दीघा और उसके आस पास के समुद्री तट इतने सख्त हैं कि ज्वार के समय वहाँ आसानी से चौपहिया वाहन चलाए जा सकते हैं।

वैसे नए दीघा में जीप से जब आप समुद्र तट पर जाएँगे तो सैकड़ों की संख्या में एक जाति विशेष के आंगुतक अपने घरों के दरवाजे से बाहर निकलकर आपका इंतज़ार करते हुए मिलेंगे। जीप उनके घरों को रौंदती हुई निकल जाएगी पर मज़ाल है कि उनमें से किसी का भी बाल बाँका हो जाए। जीप से कुछ फीट दूर रहते ही ये इस तेजी से अपने घरों के अंदरुनी तहखानों में घुसते हैं कि आपको उनकी फुर्ती देखकर दाँतो तले उँगलियाँ दबानी पड़ती हैं।

जी हाँ ये हैं इस इलाके में पाए जाने वाले रेड क्रैब (Red Crab).. दीघा के लाल प्रहरी जो रेत में बनाए गए छोटे छोटे छिद्रों से आपको तब तक घूरते रहेंगे जब तक आप इनके बिल्कुल करीब ना आ जाएँ और फिर पास आते ही अपने घरों में यूँ छिप जाएँगे जैसे वहाँ कोई रहता ही ना हो।


(चित्र छायाकार मानिक मंडल)

अगली सुबह हम दीघा से 14 किमी दूर शंकरपुर के समुद्री तट पर गए। दीघा के समुद्र तट की तुलना में शंकरपुर कहीं ज्यादा सुंदर है। दूर दूर तक फैला छिछला समुद्र ज्वार के समय किसी फुटबॉल के मैदान की शक़्ल इख़्तियार कर लेता है । पार्श्व की हरियाली आँखों को सुकून देती है सो अलग। ऊपर से भीड़भाड़ का नामोनिशान नहीं। बगल में ही मछुआरों की बस्तियाँ हैं जहाँ बड़ी संख्या में मछली पकड़ने वाली नौकाएँ लगी रहती हैं। ज्वार की वज़ह से लहरें ज्यादा नहीं उठ रहीं थीं इसलिए नहाना यहाँ नहीं हो पाया। पर दीघा की भीड़ भाड़ के बाद यहाँ आने पर इतनी खुशी मिली कि हम सब ने तट रूपी मैदान पर जम कर दौड़ भाग की और तसवीरें खिंचाई गई़। उस समय को याद दिलाती कुछ स्कैन्ड तसवीरें ये रहीं। देखिए तट के ठीक पीछे की हरियाली


देख रहे हैं ना पीछे की हरियाली और फुटबॉल मैदान से भी बड़ा ठोस समतल समुद्र तट। इसीलिए यहाँ लोग सचमुच ही फुटबॉल खेलते नज़र आ जाएँ तो कोई अचरज की बात नहीं...

(चित्र छायाकार राजीव लोधा)

तो ये था चाँदीपुर, शंकरपुर और दीघा का मेरा सफ़रनामा। शायद इन जगहों पर बाद में फिर जाने को मिले तब अपने कैमरे से यहाँ के कुछ और दृश्य दिखला सकूँगा। बताइए कैसी लगी आपको ये श्रृंखला ?