बुधवार, 25 दिसंबर 2013

बड़ा बाग, जैसलमेर : भाटी राजाओं का स्मृति स्मारक ! ( Royal Cenotaphs, Bada Bagh, Jaisalmer )

अब तक जैसलमेर से जुड़ी इस श्रंखला में आपने थार मरुस्थल, सोनार किला और लोद्रवा के खूबसूरत मंदिरों की यात्राएँ की। आज चलिए आपको ले चलें जैसलमेर के बड़ा बाग इलाके में जो लोद्रवा के मंदिरों और जैसलमेर के बीचो बीच पड़ता है।


सत्रहवीं शताब्दी में महाराजा जय सिंह द्वितीय ने यहाँ बाँध बनाकर एक तालाब बनाया था। पानी का स्रोत मिलने से इस रेगिस्तानी इलाके में भी हरियाली का एक टुकड़ा निकल आया। जय सिंह द्वितीय के पुत्र लुनाकरण ने यहाँ एक बाग का निर्माण किया और साथ ही अपने पिता की स्मृति में एक समाधिस्थल बनाया जिसे राजस्थान में 'छतरी' के नाम से भी जाना जाता है। तभी से भाटी राजाओं की छतरियाँ यहाँ बनने लगीं। इन छतरियों पर जब सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूरज की रोशनी पड़ती है तो नज़ारा देखने लायक होता है।


मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

क्यूँ हैं लोद्रवा के जैन मंदिर राजस्थान के खूबसूरत मंदिरों में से एक? The beauty of Lodurva Jain Temples, Jaisalmer

राव जैसल द्वारा त्रिकूट पर्वत पर जैसलमेर की नींव रखने के पहले भाटी राजपूतों की राजधानी लौद्रवा थी जो जैसलमेर से सत्रह किमी उत्तरपश्चिम में है। आज तो लौद्रवा की उपस्थिति जैसलमेर से लगे एक गाँव भर की है।  ऐसा माना जाता है कि लोदुर्वा का नाम इसे बसाने वाले लोदरा राजपूतों की वजह से पड़ा।  दसवीं शताब्दी में ये इलाका भाटी शासकों के अधीन आ गया। ग्यारहवीं शताब्दी में गजनी के आक्रमण ने इस शहर को तहस नहस कर दिया। प्राचीन राजधानी के अवशेष तो कालांतर में रेत में विलीन हो गए पर उस काल में बना जैन मंदिर सत्तर के दशक में अपने जीर्णोद्वार के बाद आज के लोद्रवा की पहचान है।

जैसलमेर में थार मरुस्थल और सोनार किले को देखने के बाद हमारा अगला पड़ाव ये जैन मंदिर ही थे। दिन के साढ़े नौ बजे जब हम अपने होटल से निकले, नवंबर के आख़िरी हफ्ते की खुशनुमा धूप गहरे नीले आकाश के सानिध्य में और सुकून पहुँचा रही थी। जैसलमेर से लोधुर्वा की ओर जाती दुबली पतली सड़क पर अज़ीब सी शांति थी। बीस मिनट की छोटी सी यात्रा ने हमें मंदिर के प्रांगण में ला कर खड़ा कर दिया था।

जैसलमेर के स्वर्णिम शहर के नाम को साकार करते हुए ये मंदिर भी सुनहरा रूप लिए हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह में जैन तीर्थांकर पार्श्वनाथ की मूर्ति है। इनके आलावा इस जैन मंदिर परिसर के हर कोने में अलग अलग तीर्थांकरों को समर्पित मंदिर हैं।


सोमवार, 16 दिसंबर 2013

यादें केरल की भाग 10 -आइए सैर करें बैकवाटर्स की : अनूठा ग्रामीण जीवन, हरे भरे धान के खेत और नारियल वृक्षों की बहार..

मलयालम में केरा (Kera) का मतलब होता है नारियल का वृक्ष और अलयम (Alayam) मतलब जमीन या देश। ऍसा कहा जाता है कि केरलयम ही समय के साथ केरल में बदल गया। यूँ तो नारियल के पेड़ पूरी यात्रा में हमेशा दिखाई देते रहे पर कोट्टायम (Kottayam) के बैकवाटर्स में ये जिस रूप में हमारे सामने आए वो बेहद खूबसूरत था।

 
जैसा कि मैंने आपको बताया था कि लोग केरल के बैकवाटर्स का आनंद लेने कुमारकोम जाते हैं जो कि कोट्टायम शहर से करीब १६ किमी है। पर यही काम आप काफी कम कीमत में कोट्टायम शहर में रहकर भी कर सकते हैं। पूरे कोट्टायम जिले में नदियों और नहरों का जाल है जो आपस में मिलकर वेम्बनाड झील (Vembanad lake) में मिलती हैं।


जिस होटल में हम ठहरे थे वहीं से हमने दिन भर की मोटरबोट यात्रा के टिकट ले लिए। ये प्रति व्यक्ति टिकट मात्र 200 रुपये का था जिसमें दिन का शाकाहारी भोजन और शाम की चाय शामिल थी। कोट्टायम जेट्टी में उस दिन यानि 28दिसंबर को कोई भीड़ नहीं थी। दस बजे तक धूप पूरी निखर चुकी थी और हम अपनी दुमंजिला मोटरबोट में आसन जमा चुके थे। ऊपर डेक पर नारंगी रंग का त्रिपाल तान दिया गया था जिससे धूप का असर खत्म हो गया था। बच्चे कूदफाँद करते हुए सबसे पहले मोटरबोट के डेक के सबसे आगे वाले हिस्से पर जा पहुँचे। वो जगह चित्र खींचने और मनमोहक दृश्यों को आत्मसात करने के लिए आदर्श थी।

 
थोड़ी दूर आगे बढ़ते ही नहर के दोनों किनारों पर नारियल के पेड़ों की श्रृंखला नज़र आने लगी। बीच बीच में नहर को पार करने के लिए पुल बने थे जिन्हें मोटरबोट के आने से उठा लिया जाता था। पहले आधे घंटे तक नहर की चौड़ाई संकरी ही रही। पानी की सतह के ऊपर जलकुंभी के फैल जाने की वजह से मोटरबोट को बीच-बीच में रुक-रुक के चलना पड़ रहा था। नहर के दोनों ओर ग्रामीणों के पक्के साफ-सुथरे घर नज़र आ रहे थे। बस्तियाँ खत्म हुईं तो ऍसा लगा कि हम वाकई धान के देश में आ गए हैं। दूर दूर तक फैले धान के खेत अपनी हरियाली से मन को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। किनारे-किनारे प्रहरी के रूप में खड़े हुए नारियल के पेड़ और खेतों में मँडराते सफेद बगुलों और अन्य पक्षियों के झुंड ऐसा दृश्य उपस्थित करते हें कि बस आपके पास टकटकी लगा कर देखने के आलावा कुछ नहीं बचता।

हालैंड के आलावा यही ऍसा इलाका है जहाँ समुद्रतल के नीचे धान की खेती होती है। खेतों के चारों ओर इतनी ऊँचाई की मेड़ बनाई जाती है जिससे खारा पानी अंदर ना आ सके। समुद्र के पार्श्व जल से भरे ये इलाके यहाँ के ग्रामीण जीवन की झलक दिखाते हैं। यहाँ के लोगों का जीवन कठिन है। मुख्य व्यवसाय नाव निर्माण, नारियल रेशे का काम, मछली -बत्तख पालन और धान की खेती है। सामने बहती नदियाँ और नहरें इनके जीवन की सभी मुख्य गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं। हर छोटे बड़े घर के सामने एक छोटी सी नाव आप जरूर पाएँगे। घर से किसी काम के लिए निकलना हो तो यही नाव काम आती है। यहाँ तक की फेरीवाले तमाम जरूरत की चीजों को नाव पर डालकर एक गाँव से दूसरे गाँव में बेचते देखे जा सकते हैं।
केरल के ग्राम्य जीवन के विविध रंगों की झलक देखने के लिए यहाँ क्लिक करें।


सोमवार, 9 दिसंबर 2013

आज मेरे साथ चलिए जैसलमेर के सोनार किले के अंदर ! (Sonar Quila , Jaisalmer)

जैसा कि पिछली प्रविष्टि में आपको बताया था कि हम जैसलमेर से सटे थार रेगिस्तान में अपनी शाम बिताकर वापस शहर लौट गए थे। हमारा होटल किले की ओर जाती सड़क पर था। रात को सोने के पहले ही मैंने ये योजना बना ली थी कि सुबह सूरज की पहली किरण किले पर पड़ने के बाद तुरंत किले की सैर के लिए चल पड़ेंगे। सूर्योदय के पहले ही होटल की बॉलकोनी से मैं अपना कैमरा ले कर तैयार था। सूर्योदय के बाद अपने कैमरे से नवंबर के गहरे नीले आसमान की छत के नीचे फैले इस विशाल किले की जो पहली छवि क़ैद की वो आपके सामने है। 


वैस पीले चूनापत्थरों से बने इस किले का रंग सूर्यास्त के ठीक पहले की रोशनी में बिल्कुल सुनहरा हो जाता है और इसलिए लोग इसे सोनार किले के नाम से पुकारते हैं। फिल्मों में रुचि रखने वाले लोगों के लिए ये जानना रुचिकर रहेगा कि निर्देशक सत्यजित रे ने इसी नाम से एक बाँग्ला थ्रिलर भी बनाई थी जिसमें इस किले को बड़ी खूबसूरती से फिल्मांकित किया गया था। जैसलमेर के त्रिकूट पर्वत पर 76 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस किले का निर्माण भाटी राजा राव जैसल ने 1156 ई में करवाया था। सोनार किले का अनूठापन इस बात में है कि ये दुनिया के उन चुनिंदे किलों में से एक है जिसमें लोग निवास करते हैं। राजपूत राज तो अब नहीं रहा पर राजाओं द्वारा  बसाए गए पुष्करणा ब्राह्मणों और जैनों की बाद की पीढ़ियाँ आज भी इस किले को आबाद किए हुए हैं।


किले की विशालता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी बाहरी दीवार का घेरा पाँच किमी लंबा है और इसकी दीवारें 2-3 मीटर मोटी और 3-5 मीटर ऊँची है। किले की लंबी सर्पीली दोहरी प्राचीर के मध्य 2-3 मीटर चौड़ा रास्ता है जिसमें सैनिक गश्त के लिए घूमा करते थे। किले का परकोटा 99 बुर्जियों और छज्जेदार अटारियों द्वारा सुसज्जित है। मजे की बात ये है कि बिना सीमेंट और गारे के  पत्थरों को आपस में फँसाकर किले और उसकी अंदर की इमारतों को बनाया गया है ।