दिल्लीवासियों को बारिश से इतना प्यार क्यूँ है ये माज़रा ऊपर से देख कर ही समझ आ गया। पिछली पोस्ट में जब पुणे की हरियाली से आपको रूबरू कराया था तो ये भी कहा था कि घंटे भर में नीचे का दृश्य यूँ बदलता है कि आँखों पर विश्वास नहीं होता।
राजस्थान के उत्तरी इलाकों से दिल्ली ज्यूँ ज्यूँ पास आने लगती है हरियाली तो दूर पानी का इक कतरा भी नहीं दिखाई देता है। दिखती हैं तो बस सूखी नदियाँ, बिंदी के समान यदा कदा दिखते पेड़ ...


आखिरकार दिल्ली आ ही जाती है। मंज़र वैसा ही है। बस सूखी धरती की जगह कंक्रीट के जंगल दिखते हैं।


पर इस बहाई मंदिर यानि लोटस टेंपल को तो एक ही झलक में पहचाना जा सकता है। कितने सुकूनदेह था यहाँ की शांति में अपने आप को डुबा लेना जब दस बारह साल पहले मैं यहाँ गया था। ऊपर से ये मंदिर भी उतना ही सलोना दिखता है।

यूँ तो पिछली दफ़े करोलबाग की गहमागहमी में रहना हुआ था। सोमवार के पटरी बाजार में खरीददारी करने में आनंद भी बहुत आया था।

पर इस बार कौसाबी की बहुमंजिला इमारत के सबसे ऊपरी तल्ले पर हूँ। मौसम अपेक्षाकृत ठंडा है। लोग बता रहे हैं कि आज दिन में बारिश हुई है। बालकोनी पर जाते ही हवा के ठंडे रेले से टकराता हूँ और सफ़र की सारी थकान काफ़ूर हो जाती है। बहुत देर तक तेज हवा के बीच छत पर टहलता रहता हूँ। वापस कमरे में जाने का दिल नहीं करता। छत पर घूमते घूमते आँखें ठिठक जाती हैं। सामने के पैसिफिक माल की जगमगाहट सहज ही आकर्षित करती है।


सुबह आँखे मलते बाहर निकलता हूँ तो बाहर ये मेट्रो खड़ी दिखाई देती है। मेट्रो आने से दिल्ली सचमुच एक महानगर जैसी दिखने लगी है। दौड़ कर कैमरा लाने जाता हूँ और ये दृश्य हमेशा के लिए मेरे पास क़ैद हो जाता है।


रात फिर सैर सपाटे में बीतती है। ज़िंदगी मे पहली बार रात के दो बजे सिनेमा के शो को देख कर निकल रहा हूँ। सप्ताहांत नहीं है फिर भी शो में सौ के करीब लोग आए दिख रहे हैं। आखिर दिन में वक़्त कहाँ है लोगों के पास।
अगला दिन वापसी का है । गर्मी उफान पर है। पारा 45 डिग्री छू रहा है। जल्द से जल्द मन कर रहा है कि वापस राँची की आबो हवा में लौट जाऊँ। राँची उतरते ही ज़िंदगी की सुई वापस अपनी सुकूनदेह चाल पर आ जाती है। यहाँ वक़्त आदमी को नहीं, आदमी वक़्त को दौड़ाता नज़र आता है।
पोस्ट तो बहुत अच्छी है , बिलकुल सच लिखा है दिल्ली के बारे में . दिल्ली के सच से रु बा रु करा दिया . पर इतना सच लिखना भी अच्छा नहीं है , इसी दौडती भागती दिल्ली में डेढ़ करोड़ लोग रहते है . दिल्ली सिर्फ सपने नहीं दिखाती बल्कि रोटी भी देती है . दोष दिल्ली का नहीं बल्कि हमारे भ्रष्ट नेताओं का है जिन्होंने आजादी के साठ साल बाद भी कलकाता से दिल्ली के बीच कोई ढंग का शहर नहीं बसा सके . दिल्ली पर बोझ है पुरे उत्तर भारत का.
ReplyDeleteरोजगार, शिक्षा , स्वास्थ्य या किसे भी चीज के लिए उत्तर भारतीय दिल्ली का मुह ताकते है. अगर बिहार या यु पी में कोई दिल्ली जैसा शहर होता तो ना दिल्ली ऐसी होती ना दिल्ली के लोग ही. लुतीयन की दिल्ली ५० लाख लोगो के लिए थी ना की डेढ़ करोड़ के लिए .
तसवीरें काफी अच्छी है , एक बात और... दिल्ली में हरियाली है विशवास ना हो तो मेरे ब्लॉग पर आकर देख ले
तस्वीरें बहुत अच्छी है , धन्यवाद .
ReplyDeleteलेह लदाख का लेख लिखे तो कृपा होगी
मनीष जी,
ReplyDeleteआपसे मैने दो बार मिलने का वादा किया था लेकिन दोनों ही बार मिल नहीं सका।
पहली बार का मामला तो आपको पता ही है। दूसरी बार का मैं बताता हूं। जब आपका फोन आया कि मैं फ्लाइट से दिल्ली आ रहा हूं, रात नौ बजे दूसरी फ्लाइट है। उस समय मुझे पूछना याद नहीं रहा कि मिलना कहां है? दोबारा फोन किया तो स्विच ऑफ मिला। मैं तुरन्त ही निकल पडा। सोचा कि दो घण्टे में धौला कुआं या फिर एयरपोर्ट पहुंच जाऊंगा, तब फोन कर लूंगा। लेकिन धौला कुआं पहुंचकर आपको फोन मिलाया तो मिला ही नहीं।
आज भी या तो टूं-टूं की आवाज आकर फोन कट जाता है या फिर अनरीचेबल आता है।
माधव जी आपकी टिप्पणी पोस्ट की विषयवस्तु से हटकर है। मैंने इस लेख में महानगरीय और छोटे शहरों की जीवन शैली के अलगाव को चिन्हित करने का प्रयास किया है। ये महानगर कोई भी हो सकता है। दौड़ती भागती ज़िंदगियाँ आपको हर ऍसे महानगर में नज़र आएँगी और साथ नज़र आएगा ज़िंदगी के छोटे छोटे सुखों को जी पाने का आभाव। ज़ाहिर है रोज़गार के अच्छे अवसर पाने के लिए ये कष्ट तो सहना ही पड़ता है।
ReplyDeleteलेह अभी तक गया नहीं जब ऐसा अवसर मिलेगा आपसे जरूर बाटूँगा।
Lovely shots, particularly the Lotus Temple one. And it is raining cats and dogs these days, apart from the traffic chaos I am not complaining.
ReplyDeleteहमारी दिल्ली ऐसी है? विवरण और फोटो दोनो ही बेहतरीन है।
ReplyDeleteChitra aur vivran dono sazeev hain.shubkamnayen.
ReplyDeleteजहाज़ पूरी दिल्ली दिखा पाता तो पता चलता कि कितनी हरी-भरी है दिल्ली . उत्तरी दिल्ली, दक्षिण की अपेक्षा अधिक हरी -भरी है भाई . मैं दक्षिण छोड़ कर उत्तर में शिफ्ट इसीलिए हुआ कि यहाँ मोर, किंगफिशर और बत्तख भी दिख जाते हैं जापानी पार्क में . अगली बार आप आओ और खुद देख लो ! मेरा फोने नंबर नीरज से ले सकते हैं . २ दिन निकाल के आइये तो हिमाचल भी चल सकते हैं ! पुणे , चंडीगढ़, मैसूर और गांधीनगर से तो नहीं मगर शेष तीनों मेट्रो सिटिज़ से तो बहुत अच्छी और झेलनीय है ये नगरी !
ReplyDelete...और हाँ मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली भी चल सकते हैं !
ReplyDeleteमनीष जी सही कहा आपने , मेरी टिप्पड़ी में विषयांतर हो गया था , पर एक का दर्द भी छिपा था उसमे.
ReplyDeleteमैंने आपके लेख में कोई कमी नहीं निकाली है , आपका लेख बहुत ही सार्थक और सारगर्भित था . माधव मेरे बेटे का ब्लॉग है जो ढाई साल का है
दिल्ली दर्शन का शुक्रिया...मैं भी दिल्ली रहा हूँ लेकिन मुझे वो कभी अच्छी नहीं लगी...भीड़ भाद शोर शराबे से वहां दिल घबराता है...
ReplyDeleteनीरज
सुन्दर प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteबेहतरीन तस्वीरें हैं
ReplyDeleteप्रणाम
Dilli ki hakikat ko bahut achhe se represent kiya hai apne...
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ReplyDeletePics to saari acchi thi bade bhai.. ek malaal rahega agar 1 din pehle bhi aapke aane ka idea hota to zaroor milte hum..
ReplyDeleteMere to ghar se bhi pacific mall just 20 min ke drive pe hai.. :D
Main abhi-2 wapas aayi hu Tamil Nadu ki garmi se bachker aur Dilli ki garmi se saamna ?
ReplyDeleteWaise aapki prastuti bahut achhi lagi aur chitra bhi. Abhi tak Lotus temple nahi jana ho paya hai lekin. :(