पिछली प्रविष्टि में मेहरानगढ़ का किला तो बाहर से आपने देख लिया। आइए आज आपको ले चलते हैं इसके दौलतखाने में। वैसे इस नाम से 'कन्फ्यूजिया' मत जाइएगा। हुजूर अब स्वर्ण मुद्राओं वाली दौलत कहाँ इन पुराने किलों को नसीब होनी है वो तो आज किसी बैंक की शोभा बढ़ा रही होगी। एक ज़माना था जब यहाँ खजाना रखा जाता था और उसके बाद इसका उपयोग शाही आभूषणों को रखने में किया जाने लगा। आज की तारीख में मेहरानगढ़ का दौलतखाना राठौड़ शासकों के शौर्य, रहन सहन,राजपूत संस्कृति से जुड़ी श्रेष्ठ कलात्मक वस्तुओं का एक संग्रहालय है।
पर इससे पहले कि मैं आपको दौलतखाने की ओर ले चलूँ , एक नज़र मेहरानगढ़ के श्रृंगार चौक के संगमरमर के बने इस राजसिंहासन की ओर। श्रृंगार चौक तीन तरफ़ से लाल पत्थरों से नक़्काशीयुक्त झरोखों वाले महल से घिरा हुआ है। इसीलिए इसे झाँकी महल भी कहा जाता था। यहीं से राजमहल की स्त्रियाँ श्रृंगार चौक पर हो रहे राठौड़ राजकुमारों का राज्याभिषेक को देख पाती थीं।
अब रानियाँ तो नहीं रहीं पर उन दिनों की यादगार स्वरूप आज के झाँकी महल में शाही पालनों का संग्रह रखा गया है।
ऐसे मौकों पर रानियों किस तरह से सुसज्जित होती थीं उसका अंदाजा आप दौलतखाने में रखी देवी गणगौर की इस छवि से लगा सकते हैं। गणगौर राजस्थान का एक प्रसिद्ध त्योहार है जिसमें अच्छे वर की कामना के लिए अविवाहिता और अपना सुहाग अखंड रखने के लिए विवाहित स्त्रियाँ माता पार्वती के इस रूप गणगौर की पूजा करती हैं।
क्या आप बता सकते हैं कि पेपरवेट सी दिखने वाली ये वस्तु आख़िर है क्या ? अगर उस वक़्त की जुबान का इस्तेमाल करूँ तो इसे मीर ए फर्श कहना होगा। उस ज़माने में जो कालीन बिछते थे उन्हें चारों ओर से दबाने के लिए इनका प्रयोग किया जाता था। वैसे इन्हें पत्थर समझने की भूल नहीं कीजिएगा जनाब। दरअसल ये ऊँट की हड्डी का रँगा हुआ कलात्मक रूप हैं।
दौलतखाने का एक कक्ष तरह तरह के हाथी हौदों से अटा पड़ा है। आप तो जानते ही हैं कि उस ज़माने में युद्ध में हाथियों का इस्तेमाल व्यापक रूप से होता था। युद्ध के आलावा विशेष मौकों पर राजा हाथी की सवारी पर ही निकलते थे। महावत के अतिरिक्त हाथी पर बैठने के लिए लकड़ी के जिन आसनों का निर्माण किया उन्हें हाथी हौदा कहा जाता था। हौदे हाथियों की पीठ से बँधे होते थे और इसमें महावत के साथ अगले भाग में राजा और पीछे के छोटे हिस्से में उनके अंगरक्षकों को बैठने की व्यवस्था होती थी।
हौदों के आलावा दौलतखाने में उस वक़्त इस्तेमाल की जाने वाली पालकियों का भी खूबसूरत संग्रह है। हौदों के आलावा दौलतखाने में उस वक़्त इस्तेमाल की जाने वाली पालकियों का भी खूबसूरत संग्रह है। नीचे चित्र में दिख रही पालकी करीब तीन सौ साल पुरानी है। जोधपुर के महाराज अभय सिंह इसे अपनी गुजरात विजय के बाद साथ लाए थे। इस पालकी या महाडोल में लकड़ी के ऊपर सोने का पानी चढ़ाया गया है। इसके ऊपरी हिस्से में की गई नक्काशी, गुजराती काष्ठशिल्प कला का अद्भुत उदाहरण है।
और ये पालकी तो ऐसा आभास देती है कि इसे मोर ही लिए चले जा रहे हों। वैसे मारवाड़ में पालकी उठाने वालों को मेहर या मोही कहा जाता था। अक्सर ये मोही देश के पूर्वी इलाकों से आए हुए लोग होते थे।
और ये है इस संग्रहालय में प्रदर्शित उस समय का अभिलेख..
पर राठौड़ शासकों के संग्रहालय में युद्ध में प्रयुक्त हथियारों से जुड़ी दीर्घा ना हो क्या ऐसा हो सकता है? दौलतखाना के अच्छा ख़ासा हिस्सा उस ज़माने में प्रयुक्त भालों , बरछी, तलवार, कृपाण, खंजर से अटा पड़ा है। इनके आकार प्रकार की भिन्नता और उनके बनाने के तरीकों के बारे में भी कई रोचक जानकारियाँ संग्रहालय में दी गई हैं।
और इन खंजरों और उनके भाई भतीजों को देखने के बाद तो जग्गू दा की गाई और कृष्ण बिहारी नूर की लिखी ग़ज़ल का वो शेर याद आ जाता है..
बस एक वक़्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है
इस श्रृंखला की अगली किस्त में लगाएँगे मेहरानगढ़ के महलों के चक्कर..आप फेसबुक पर भी इस ब्लॉग के यात्रा पृष्ठ (Facebook Travel Page) पर इस मुसाफ़िर के साथ सफ़र का आनंद उठा सकते हैं।
इतनी कलाकृति तो कहीं नहीं देखी..
ReplyDeleteहैदराबाद में निज़ाम का संग्रहालय तो इससे भी वृहत है !
DeleteSuch beautiful objects!
ReplyDeleteand well maintained too...
Deleteबहुत खूबसरत एवं जानकारीपरक।
ReplyDeleteशुक्रिया अजित जी !
Deleteइन सब चीजो को देखने और समझने के लिये काफी समय चाहिये
ReplyDeleteसमय के साथ इतिहास के प्रति प्रेम और उत्सुकता भी होना चाहिए।
Deletebeautiful pictures...
ReplyDeletethanx Sumedha !
Deletetasveere achchi hain,vivran to achcha hota hi hai
ReplyDeleteसिफ़रशायर प्रविष्टि पसंद करने के लिए शुक्रिया !
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