बचपन में जब भी दोस्तों के साथ लखनऊ शहर का जिक्र होता तो एक ही बात चर्चा में आती और वो थी यहाँ की भूलभुलैया की। जो भी यहाँ से हो कर आता इसकी तंग सीढ़ियों और रहस्यमयी गलियारों की बात जरूर करता। आज से करीब 28 साल पहले एक प्रतियोगिता परीक्षा देने मैं सन 89 में जब लखनऊ पहुँचा तो इरादा ये था कि परीक्षा जैसी भी जाए इस भूलभुलैया के तिलिस्म से गुजर कर ही लौटूँगा ।
बड़ा इमामबाड़ा का बाहरी द्वार और उद्यान |
एक आटो से परीक्षा केंद्र से सीधे भूलभुलैया तक तो पहुँच गया पर पर होनी को
कुछ और मंजूर था। उसी दिन शियाओं के सर्वोच्च नेता आयोतुल्लाह खोमैनी का
इंतकाल हो गया था। पूरा परिसर ही आम जनता के लिए बंद था। तभी मुझे ये सत्य उद्घाटित हुआ कि भूलभुलैया कोई अलग सी जगह नहीं पर बड़ा इमामबाड़ा का ही एक हिस्सा है। लगभग तीन दशकों बाद जब मैं इस इलाके में पहुँचा तो इमामबाड़े की आसपास की छटा बिल्कुल बदली बदली नज़र आयी। पर इससे पहले कि मैं आपको इस इमामबाड़े में ले चलूँ, कुछ बातें उस शख़्स के बारे में जिसकी बदौलत ये इमारत अपने वज़ूद में आई।
बड़ा इमामबाड़ा सहित लखनऊ की तमाम ऐतिहासिक इमारतों की नींव अवध के चौथे नवाब आसफ़ उद दौला ने रखी थी । आसफ़ उद दौला के पहले नवाबों की राजधानी फैज़ाबाद हुआ करती थी। वे 26 साल की उम्र में नवाब बने पर माँ की राजकाज में दखलंदाज़ी से तंग आकर उन्होंने फैज़ाबाद से राजधानी को लखनऊ में बसाने का निर्णय लिया।
पहले द्वार से घुसते ही दूसरे द्वार की झलक कुछ यूँ दिखाई देती है |
बड़े इमामबाड़े का निर्माण एक अच्छे उद्देश्य को पूरा करने के लिए हुआ। 1785 में अवध में भीषण अकाल पड़ा। क्या अमीर क्या गरीब सभी दाने दाने को मुहताज हो गए। लोगों को रोजगार देने के लिए नवाब ने ये बड़ी परियोजना शुरु की। वे आम जनता से दिन के वक़्त काम लेते। वहीं रियासत के अमीर उमरा रात के वक़्त काम करते ताकि उनकी तथाकथित रईस की छवि पर कोई दाग न लगने पाए । जब तक अकाल रहा इमामबाड़े पर काम चलता रहा। इमामबाड़े, मस्जिद और बाउली के साथ लगे मेहमानख़ाने को पूरा होने में छः साल लग गए।
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दूसरा द्वार और इसके पीछे दिखता बड़ा इमामबाड़ा |
बड़े इमामबाड़े तक पहुँचने के लिए आप को दो विशाल द्वार पार करने पड़ते हैं। इन द्वारों के बीच की जगह फिलहाल एक खूबसूरत बागीचे ने ले रखी है। इमारत के गुंबद हों, मेहराबें हों या मीनार इन सब पर मुगल स्थापत्य का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। इमामबाड़े की दीवारों के बारे में यहाँ का हर गाइड बड़े शान से ये बताना नहीं भूलता कि "दीवारों के भी कान होते हैं " ये मुहावरा यहाँ हक़ीकत बन जाता है।
बड़े इमामबाड़े का केंद्रीय कक्ष जिसके बीचो बीच से नवाब का मकबरा |
गाइड हमें मुख्य हॉल के ऊपर बने गलियारे में एक ओर जाने को कहता है और दूसरी ओर ख़ुद जाकर माचिस की एक तीली जलाता है। लपटों की फरफराहट दूसरी ओर भी साफ साफ सुनाई पड़ती है और हम लाजवाब हो जाते हैं। जानकार इसकी वज़ह दीवारों का भीतरी खोखलापन बताते हैं। इस समय बनी अन्य इमारतों की तरह ही यहाँ सीमेंट की अनुपस्थिति में उड़द की दाल, चूने और अंडे की जर्दी आदि के मिश्रण का प्रयोग ईंटों को आपस में बाँधने वाले पदार्थ के रूप में किया गया था ।
यहाँ एक अनूठी बात ये दिखी कि गुंबद की ऊँचाई के स्तर पर भी महिलाओं के लिए झरोखे बनाए गए थे ताकि वहाँ से नीचे की कार्यवाही का नज़ारा लिया जा सके। पूरी इमारत में मुख्य हॉल से जुड़े आठ अलग अलग ऊँचाई के कक्ष हैं। कहा जाता है कि इन्हें मिलाने से ही इनके ऊपर भूल भुलैया का अंदरुनी जाल बुना जा सका।
छत की कारीगरी और जनाना झरोखे |
इस जाल में आंगुतक को फँसाने के लिए 489 एक जैसे दरवाजे बनाए गए। जहाँ तक हमारा सवाल था तो भूल
भुलैया में हमारा खोना मुश्किल था क्यूँकि हम गाइड के साथ चल रहे थे और
हमें ये दिमाग नहीं लगाना पड़ रहा था कि पल पल आते वैकल्पिक मार्गों में
हमें किसे चुनना है?
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भूलभुलैया का छत से सटा बाहरी गलियारा |
पर इन संकरे रास्तों को आनेवालों की कारगुजारियों का शिकार होना पड़ा है। इन दीवारों की मुलायम परतों पर अपने नाम नक्श करने के लिए लोगों ने तमाम आड़ी तिरछी लकीरें खींच डाली हैं जिसकी वज़ह से पुरानी पड़ती ये दीवारें खुरदुरी और जर्जर होती जा रही हैं।
इमामबाड़े की छत को घेरते स्तंभ और मेहराबें , Roof of Bara Imambara |
भूलभुलैया की इस दुर्दशा से गुजरते हुए हम जा पहुँचे हम बड़े इमामबाड़े की छत
पर। यहाँ से ना केवल पूरा परिसर दिखाई देता है बल्कि बाहर की इमारतें भी
दृष्टिगोचर होती हैं। इन इमारतों में जो दूर से ही आपका ध्यान खींचती है वो है गोमती नदी के पास बनी टीले वाली मस्जिद। सफेद गुंबद और मीनारों से सुसज्जित ये मस्जिद बड़ा इमामबाड़ा से भी पुरानी है। इसका निर्माण तब हुआ था जब मुगल सल्तनत पर शाहजहाँ की हुकूमत थी। सिपाही विद्रोह के समय यहाँ से ब्रिटिश फौजौं का काफी दिनों तक प्रतिरोध किया गया था।
आसफ़ी मस्जिद बड़े इमामबाड़े के दाहिनी ओर स्थित है। आप समझ ही गए होंगे कि इसका नामकरण आसफ़ उद दौला के नाम पर हुआ। गैर मुस्लिमों का यहाँ प्रवेश वर्जित है।
आसफ़ी मस्जिद Aasfi Mosque |
आसफ़ी मस्जिद की दूसरी तरफ़ यहाँ की शाही बाउली है। बड़े इमामबाड़े के निर्माण के लिए पानी की जरूरत थी। इसीलिए निर्माण स्थल पर बड़ा सा कुआँ खोदा गया। पास ही में गोमती नदी होने की वजह से इस कुएँ को भुमिगत जल का स्रोत मिल गया। आसफ़ उद दौला इमारतों के शौकीन तो थे ही तो उन्होंने इस बाउली को केंद्र में रखकर एक शाही मेहमान ख़ाना बना दिया। ऍसे क़यास लगाए जाते हैं कि ये इमारत पाँच मंजिला थी और इसके नीचे के तीन तले पानी में दब गए हैं। इस शाही मेहमानख़ाने के पहले अतिथि बन कर आए वारेन हेस्टिंग्स। अपने संस्मरणों में इस जगह को तो उन्होंने खूबसूरत बताया है पर फिर भी यहाँ रहना उन्हें रास नहीं आया था।
शाही बाउली Shahi Baoli |
बाउली तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गयी थी अन्य Step Wells की तरह। बाउली के दूसरी ओर के झरोखों का सीढ़ी से संरेखण इस तरह रखा गया था कि उतरते हुए व्यक्ति और पानी में बनती उसकी छाया दूसरी तरफ़ से दिखाई दे जाए। पिछले एक दशक से शाही बाउली अब बिल्कुल सूख गई है। फिलहाल इसमें पानी वापस लाने के लिए तकनीकी प्रयास चल रहे हैं।
सीढ़ियाँ जो ले जाती है बाउली की तरफ Step Well |
शाही बाउली की ऊपर की दो मंजिलें और झरोखे |
बड़े इमामबाड़े के ठीक बाहर हुसैनाबाद रोड के दूसरी ओर नौबत ख़ाना है। मुगलों ने इसे नक़्क़ार ख़ाना का भी नाम दिया था। नौबत ख़ाना अक्सर किसी शाही इमारत के मुख्य द्वार के पास बनाया जाता था। किसी उत्सव में नगाड़े से लेकर अन्य वाद्य यंत्रों को बजाने के लिए ये मंच प्रदान करता था।
नौबत ख़ाना Naubatkhana |
नौबत ख़ाने के बाँयी ओर यानि बड़े इमामबाड़े की पश्चिमी दिशा में नवाब ने रूमी दरवाज़ा बनाया था जो आज लखनऊ का प्रतीक चिन्ह बन गया है। वैसे ये बता दूँ कि इस दरवाजे का सूफ़ी संत और कवि रूमी से कोई लेना देना नहीं है। रूमी का अर्थ यहाँ रोमन सभ्यता से जुड़ा हुआ से है। इस दरवाजे का डिजाइन इस्तानबुल में बने ऐसे ही दरवाज़े से प्रेरित है। उस वक़्त तुर्की रोमन साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। इस दरवाज़े का निर्माण भी अकाल पीड़ितों की मदद के लिए बड़े इमामबाड़े के साथ साथ ही हुआ। नवाब ने अकाल के नाम पर आम और ख़ास सभी को जो राहत पहुँचाई उसकी वज़ह से ये शेर उनकी शान में कहा जाने लगा.. जिसको ना दे मौला, उसको दे आसफ़ उद दौला। तो कैसी लगी आपको छोटे व बड़े इमामबाड़े की ये यात्रा?
रूमी दरवाज़ा, Rumi Gate |
Incidentally I visited Bara n Chota Imaambara last Saturday....
ReplyDeleteNice to know that !
Deleteyaha ki jankari or photo ki achi jugalbandi...mja aa gya padhkar ..
ReplyDeleteधन्यवाद गौरव !
DeleteMy city my joy
ReplyDeleteawadheshvermashine.blogspot.com
The best part of Lucknow to me was ancient tradition of making huge gardens.
Deleteतब इतनी बड़ी इमारते बनाने के लिये, अकाल के समय इतनी दाल, और अण्डे कहां से उपलब्ध हुये होंगे!एक कौतुहल है।
ReplyDeleteअवध के नवाब खासे रईस थे। जनता जब अकाल से पीड़ित थी राजकोष धन और धान्य दोनों से परिपूर्ण था।
Deleteबड़ा इमामबाड़ा की छत्त से जो नजारा दिखता है वो मई कभी नहीं भूल पाऊंगा
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