अक़्सर ऐसा होता है कि जिस इलाके में हम पलते बढ़ते है उसकी ऐतिहासिक विरासत से सहज ही लगाव हो जाता है। स्कूल में जब भी इतिहास की किताबें पढ़ता तो पूर्वी भारत के किसी भी राजवंश का जिक्र आते ही पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती। प्राचीन मौर्य/मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र यानि आधुनिक पटना तब मेरा घर हुआ करता था। पर पाटलीपुत्र में कुम्हरार के अवशेषों के आलावा ऐसा कुछ भी नहीं था जो इस विशाल साम्राज्य की कहानी कहता। राजगृह, नालंदा, पावापुरी और बोधगया में भी बौद्ध विहारों व स्तूपों, जैन मंदिरों और विश्वविद्यालय के आलावा अशोक या उनके पूर्ववर्ती सम्राटों की कोई इमारत बच नहीं पायी। वैसे भी जिनके शासन काल की अवधि ही ईसा पूर्व में शुरु होती हो उस काल के भवनों के बचे होने की उम्मीद रखी भी कैसे जा सकती है?
मौर्य शासको के बाद इस इलाके पर राज तो कई वंशों ने किया पर इतिहास के पन्नों पर नाम आया पाल वंश के राजाओं गोपाल, धर्मपाल और महिपाल का जिन्होंने बंगाल बिहार के आलावा उत्तर भारत के केंद्र कन्नौज पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए राष्ट्रकूट व प्रतिहार शासकों के साथ लोहा लिया। बारहवीं शताब्दी आते आते पाल वंश का पराभव हो गया। भागलपुर के पास विक्रमशिला औेर बांग्लादेश में सोमपुरा के बौद्ध विहारों के अवशेष पाल शासन के दौरान बने विहारों की गवाही देते हैं।
पर इन सब के आलावा भी बंगाल के बांकुरा जिले से सटे छोटे से भू भाग पर एक अलग राजवंश ने शासन किया जिसके बारे में ज्यादा पुष्ट जानकारी नहीं है। ये राजवंश थाा मल्ल राजाओं का जो सातवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक इस छोटे से इलाके में काबिज़ रहे। मल्ल शासकों द्वारा 17 वीं और 18 वीं शताब्दी में बनाए गए टेराकोटा के मंदिरों ने इस कस्बे को हमेशा हमेशा के लिए इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में जगह दिला दी। बिष्णुपुर के बारे मैं मैंने जबसे जाना तबसे वहाँ जाने की इच्छा मन में घर कर गयी थी।
राँची से कोलकाता के रेल मार्ग पर बांकुरा स्टेशन तो पड़ता है पर शताब्दी जैसी ट्रेन वहाँ रुकती नहीं। धनबाद से बिष्णुपुर की दूरी करीब 160 किमी है जिसे सड़क मार्ग से चार पाँच घंटे में तय किया जा सकता है। पर बाहर से आने वालों के लिए विष्णुपुर पहुँचने का सबसे आसान तरीका है कोलकाता आकर वहाँ से सीधे बिष्णुपुर के लिए ट्रेन पकड़ने का। कोलकाता से विष्णुपुर की 142 किमी की दूरी एक्सप्रेस ट्रेन चार घंटे में पूरी कर लेती है। दिसंबर के महीने में जब मैं कोलकाता गया तो वहीं से बिष्णुपुर जाने का कार्यक्रम बन गया। सुबह सुबह कोलकाता से निकला और साढ़े दस बजे तक मैं बिष्णुपुर स्टेशन पर था।
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राधा माधव मंदिर में सहयात्री के साथ |
मल्ल नरेश ज्यादातर
वैष्णव थे इसीलिए यहाँ के सारे मंदिर कृष्ण को ही समर्पित हैं। अब कृष्ण
हैं तो साथ में राधा भी रहेंगी। राधा और कृष्ण के अमर प्रेम की भावना को लोगों तक
पहुँचाने के लिए यहाँ रास उत्सव मानाने की परम्परा शुरू हुई ।
रास मंच |
मल्ल राजा बीर हम्मीर ने इसी उत्सव को मनाने के लिए रास मंच का निर्माण 1600 ई. में करवाया। एक चौकौर चबूतरे पर बने तीन गलियारों के ऊपर छत से उठती रासमंच की पिरामिड सरीखी आकृति अपने आप में अनूठी है। गलियारों के अंदर एक केद्रीय कक्ष है जिसका प्रयोग संभवतः पूजा या अनुष्ठान के लिए किया जाता रहा । रास उत्सव के दौरान श्रद्धालुओं द्वारा लाई गयी इन मूर्तियों को इन गलियारों में सजा दिया जाता था।
रास मंच का बाहरी गलियारा |
रास मंच से ही आप यहाँ के अन्य दो आकर्षण जोर बाँग्ला और श्याम राय के टिकट ले सकते हैं। वैसे इनके आलावा संग्रहालय को छोड़ ज्यादातर जगहों मे टिकट लगता भी नहीं है।
श्याम राय पंचरत्न मंदिर |
यूँ तो बिष्णुपुर में दर्जनों मंदिर हैं पर इनमें श्याम राय, जोर बांग्ला और मदन मोहन मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। ईंट की इन दीवारों पर पक्की मिट्टी यानि टेराकोटा पर उभारी गयी कलाकृतियों की बात करें तो इसमें श्याम राय मंदिर का कोई सानी नहीं है।
श्याम राय मंदिर पंचरत्न मंदिरों की श्रेणी में आता है। यानि पाँच शिखरों
वाला मंदिर। इसी वज़ह से स्थानीय इसे पंचचूरा मंदिर के नाम से भी बुलाते
हैं। इसके चारों कोनों पर दिखते चौकोर शिखरों के बीच जो पाँचवा शिखर
है वो अष्टभुज की आकृति वाला है। मध्य शिखर से कोनों की ओर जाती घुमावदार
छत का डिजाइन बंगाल के शिल्पकारों ने गाँवों में बाँस की बनी झोपड़ियों से
लिया था। मंदिर की हर दीवार में तीन खुले द्वार हैं जिनको अंदर से एक
गलियारा आपस में जोड़ता है।
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दीवारों को सजाने के लिए टेराकोटा पर महीन नक्काशी |
कृष्ण लीला का चित्रण |
श्याम राय मंदिर का निर्माण मल्ल राजा रघुनाथ सिंह ने 1643 ई में करवाया।
उस वक़्त इस इलाके में पत्थरों का कोई स्रोत नहीं था। इसलिए कारीगरों को
लाल भूरे रंग में पकाई गयी मिट्टी को ही मंदिरों के निर्माण में इस्तेमाल
करना पड़ा। पर इस कठिनाई ने यहाँ के कारीगरों को एक अलग शैली विकसित करने को
बाध्य किया जो कि टेराकोटा के इन मंदिरों पर उभर कर सामने आई।
शिल्पकारों नें मंदिरों की दीवारों पर मूलतः कृष्ण लीला को उभारने की कोशिश की है। दीवारों पर उकेरे कुछ दृश्य कृष्ण से जुड़ी कथाओं की याद ताज़ा के देते हैं। एक जगह कृष्ण के मित्र उन्हें जूठा किया हुआ फल खिला रहे हैं तो एक में यशोदा ने बाल कृष्ण को रस्सियों से बाँध रखा है।इसके आलावा इनमें महाभारत और रामायण की कहानियों और यहाँ के सामाजिक जीवन को उतारने का भी प्रयास किया गया है। मंदिर का चक्कर लगाते हुए आस पास के गाँवों के उन कारीगरों की कला को नमन करने का दिल हो आया जिन्होंने इस मंदिर को मूर्त रूप दिया होगा।
यहाँ के सारे मंदिर कृष्ण के नामों का ही कोई ना कोई पर्याय हैं। श्याम राय मंदिर को देखने के बाद मैं राधा माधव मंदिर में गया। ये एकरत्न यानि एक शिखर वाला मंदिर अठारहवीं शताब्दी में गोपाल सिंह की पुत्रवधू द्वारा बनाया गया था। इस मंदिर की विशेषता है इसके ठीक बगल में बना मंडप।
राधा माधव मंदिर और पास का मंडप |
गर आप राधा माधव मंदिर में जाएँ तो इससे सटे उद्यान में चहलकदमी करना ना
भूलें। यहाँ एक प्राचीन वृक्ष है जिसके आधार की चौड़ाई दो मीटर से भी ज्यादा है।
इतने मजबूत आधार वाले पेड़ं का कौन बाल बाँका कर सकता है? |
हमारा अगला पड़ाव लालजी मंदिर था। मंदिर के चारों ओर ऊँची दीवारों से घेरा गया है। मंदिर के सामने एक बड़ा सा मैदान है । विष्णुपुर
में मैंने जितने मंदिर देखे उनमें ये इकलौता मंदिर था जिसे हल्के पीले रंग
का प्लास्टर चढ़ा था।
लालजी मंदिर |
ये मंदिर लेटेराइट चट्टान से बनाया गया है । इसके सामने वाले हिस्से में दीवार पर की गई नक्काशी देखने लायक है। बिष्णुपुर में किले या परकोटे के अवशेष तो दिखाई नहीं देते । हाँ, लालजी
मंदिर क उत्तर में एक छोटा सा द्वारा जरूर है जिसे यहाँ पत्थर दरवाजा के
नाम से पुकारा जाता है। इस द्वार के ऊपर सैनिकों के खड़े होने और छिप कर
बाहर से आने वाले आंगुतकों पर बंदूक या तीर कमान सेवार करने के लिए सुराख
बने हैं।
बिष्णुपुर की इस मंदिर यात्रा की अगली कड़ी में आपको ले चलेंगे जोर बांग्ला और मदनमोहन मंदिर के साथ यहाँ के कुछ अन्य मंदिरों में..
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लालजी मंदिर का प्रवेश द्वार |
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बिष्णुपुर पुराण
मनीष जी बहुत बढ़िया, सचित्र यात्रा विवरण
ReplyDeleterahichaltaja.blogspot.in
शुक्रिया !
Deleteजाने की इच्छा पैदा कर दी आपने
ReplyDeleteकोलकाता जाना हो और एक दो दिन अतिरिक्त आपके पास हो तो जरूर आएँ। ये छोटा सा कस्बा अपनी विरासत में बहुत कुछ समेटे हुए है।
DeleteEkdum different kind of temples both in structure as well as design one must visit them
ReplyDeleteहाँ प्रसाद जिस तरह उड़ीसा में सूर्य मंदिर का पहिया राज्य के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल होता है वैसे ही बंगाल की एक पहचान बिष्णुपुर के टेराकोटा मंदिर की विशिष्ट शैली भी है। आप इम मंदिरों को दुर्गा पूजा पंडाल के रूप में भी वहाँ पाएँगे।
Deleteकौतुहल भरी यात्रा!!!
ReplyDeleteआशा है इस शैली के मंदिर आपने पहली बार देखे होंगे।
Deleteबहुत बहुत शानदार लेखन। ऐतिहासिक इमारतों की यात्रा बरसों पूर्व के काल को जी लेने जैसा है
ReplyDeleteआप जैसी अच्छी लेखिका को ये आलेख पसंद आया जान कर खुशी हुई। :)
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद इतनी अच्छी यात्रा के लिए!!
ReplyDeleteI was fortunate to work in Bankura Dist. during my first employment with IB(Home Affairs) for almost a year. I just visited Bishnupur once and was not knowing about the historic importance at that time wayback in 1977-78.
ReplyDeleteSo did u see these temples during your maiden visit to Bishnupur?
DeleteI just saw one or two temples without knowing its historical importance.
Deleteआपके द्वारा लिखे जाने पर एक एक स्थान जागृत सा हो जाता है. लगता है कि वहीँ खड़े हैं. गर्व होता है इन एतिहासिक कलाकृतियो पर. सुन्दर प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteशुक्रिया इन प्यारे शब्दों के लिए .. नई नई जगहों को आप सब तक पहुँचाने की मेरी कोशिश बदस्तूर ज़ारी रहेगी।
DeletePuri tarah se Alage Thalage Kalakrit or TeraKota Deasigne Of All These Tamples Are So Wonderful....Thanks for Such meaningful description Of Bishnupur Tempels
ReplyDeleteपसंद करने के लिए आभार !
DeleteAtyant sundar vivran karte hai aap...apke yatra vritant ek alag hi duniya me le jate hai..aap atyant sarahniya karya kar rhe hai sir
ReplyDeleteआपकी तारीफ़ का तहे दिल से शुक्रिया अजय !
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