मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

शांतिनिकेतन : जहाँ प्रकृति की गोद में बहती है शिक्षा की सरिता ! Shantiniketan, Bengal

रवींद्रनाथ टैगोर के रचे संगीत और साहित्य से थोड़ा बहुत परिचय तो पहले से था पर उनकी कर्मभूमि  शांतिनिकेतन को देखने की इच्छा कई दिनों से थी। कार्यालय के काम से दुर्गापुर तो कई बार जाता रहा पर कभी शांतिनिकेतन जाने का सुखद संयोग नहीं बन पाया। इसलिए दशहरे की छुट्टियों में जब दुर्गापुर जाने का कार्यक्रम बनाया तो साथ ही एक दिन शांतिनिकेतन के लिए भी रख दिया। शांतिनिकेतन दुर्गापुर  से करीब पचपन किमी की दूरी पर स्थित है। दुर्गापुर से कोलकाता की ओर जाते हुए एक रास्ता बोलपुर की ओर कटता है। ये सड़क बेहतरीन है। इलमबाजार को छोड़ दें तो राह में कोई और घनी बस्ती भी नहीं है। अक्टूबर के महीने में धान की हरियाली भी आपके साथ होती है। शंतिनिकेतन का ये सफ़र आसानी से डेढ दो घंटे में पूरा हो जाता है।

बोलपुर के रास्ते में मिलती है अजय नदी। सच बताऊँ तो इस सफ़र के पहले मैंने इस नदी का नाम नहीं सुना था। झारखंड के देवघर की पहाड़ियों से निकली इस नदी का ज्यादा हिस्सा बंगाल में पड़ता है। अजय नदी  के तट पर दो नामी हस्तियों ने जन्म लिया। एक तो गीत गोविंद के रचयिता जयदेव जिनके जन्म स्थल जयदेव कोंदुली से होते हुए भी आप शांतिनिकेतन जा सकते हैं और दूसरे विचारक और क्रांतिकारी काजी नजरूल इस्लाम जो बांग्लादेश के राष्ट्रीय कवि के रूप में जाने जाते हैं।

अजय नदी का 'कासमय' पाट
पुल के पास पहुँचे ही थे कि कास के फूलों से सजा नदी का पाट नज़र आया। पुल पर गाड़ी रोक के छवि लेने के लिए जैसी ही कदम बढ़ाया, किसी भारी वाहन के गुजरते ही पुल डोलता महसूस हुआ। अब भारत के कई पुराने पड़ते पुलों पर ऐसे अनुभव हो चुके हैं सो इस कंपन को नज़रअंदाज करते हुए ध्यान नीचे बहती अजय नदी की ओर चला गया। किसी नदी के पाट पर कास के फूलों की ऐसी छटा इससे पहले मैंने नहीं देखी थी। पर ये फूल अभी यहाँ खिले हों ऐसा नहीं है। ये यहाँ सदियों से ऐसे ही फूल रहे हैं। इसका पता मुझे टैगोर की इस कविता को पढ़कर हुआ जो उन्होंने अपनी इसी अजय नदी के लिए लिखी थी।

आमादेर छोटो नोदी चोले बाँके बाँके
बोइसाख मासे तार हाथू जोल थाके
पार होए जाय गोरू, पार होए गाड़ी
दुइ धार ऊँचू तार ढालू तार पाड़ी

चिक चिक कोरे बाली कोथा नई कादा
एकधारे कास बोन फूले फूले सादा


यानि हमारी ये छोटी सी नदी अनेक घुमाव लेते हुए बहती है। वैशाख के महीने में तो इसमें हाथ भर की गहराई जितना ही पानी रहता है जिसमें जानवर और गाड़ी दोनों पार हो जाते हैं। नदी के किनारे तो ऊँचाई पर हैं पर बीचो बीच नदी बेहद कम गहरी है। पानी कम रहने पर इसका तल कीचड़ से सना नहीं रहता बल्कि बालू के कणों से चमकता रहता है और इसके किनारे सादे सादे कास के फूलों से भरे रहते हैं।
साल के खूबसूरत जंगल
इलमबाजार का कस्बा पार होते ही साल के जंगल यात्री को अपने बाहुपाश में बाँध लेते हैं। कहते हैं कि नब्बे के दशक में ये हरे भरे जंगल नष्ट होने की कगार पर थे। पर वन विभाग की कोशिशों से यहाँ रहने वाले बाशिंदों ने जंगल के महत्त्व को समझा और उसे संरक्षित करने का प्रयास किया। आज साल के पत्तों से बनने वाली पत्तलों और जंगल में उगने वाले मशरूम को बेचना यहाँ के लोगों की जीविका चलाने में मददगार साबित हो रहा है। साल के इन जंगलों के बीच से गुजरना इस यात्रा के सबसे खुशनुमा पलों में से एक था।

 देवेंद्रनाथ टैगोर का बनाया प्रार्थना केंद्र : काँचघर

शांतिनिकेतन के पास पहुँचकर नहीं लगा कि हम किसी बड़े विश्वविद्यालय के पास पहुँच गए हों। ऐसा भान हुआ मानो इतनी हरियाली के बीच इधर उधर छितराई कुछ इमारतें अपनी आसपास की प्रकृति के साथ एकाकार हो गयी हों। शांतिनिकेतन के ऐतिहासिक स्थलों में रवीन्दनाथ टैगोर के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर का बनाया आश्रम और गुरुदेव को समर्पित संग्रहालय प्रमुख है। संग्रहालय तो पूजा की छुट्टियों की वजह से बंद था इसलिए मैंने अपना ज्यादा समय यहाँ के आश्रम में बिताया।

कुछ दूर यूँ ही घूमने के बाद लगा कि यहाँ गाइड लेना फायदेमंद है। गाइड भी ऐसा मिला जो एक बात बताने के पहले चार प्रश्न हम से ही पूछता था। उसके प्रश्नों का सिलसिला तब तक खत्म नहीं होता था जब तक हम जवाब देते देते धाराशायी ना हो जाते। सवाल भी मजेदार होते थे उसके। मसलन इंदिरा यहाँ अपनी किस शानदार गाड़ी से आयी थीं? सत्यजीत रे ने यहाँ किस विषय में पढ़ाई की? कई बार जब हमारा तुक्का चल जाता तो वो और भी कठिन प्रश्न पूछता जैसे अमर्त्य सेन के बचपन का नाम क्या था? जब हमने इस सवाल के लिए संकेत की माँग की तो उसने मुस्कुराते हुए कहा कि अमिताभ बच्चन के बेटे का घर का भी वही नाम था। ऐसा 'क्लू' सुन कर हम तो नतमस्तक ही हो गए कि प्रभु अब और संकेत नहीं चाहिए आप ही उत्तर बता दो इसका..



देवेन्द्रनाथ ने ये ज़मीन अपने मित्र  रायपुर के  जमींदार सितिकांत सिन्हा से मात्रा एक रुपये में लिखवा ली थी। देवेन्द्रनाथ वैसे तो खुद भी जमींदार थे पर राजा राम मोहन राय से उनके पिता की मित्रता ने उन्हें ब्रह्म सभा की विचारधारा की ओर बचपन से ही आकर्षित कर लिया था। उनकी इसी अध्यात्मिक प्रवृति ने उन्हें यहाँ  तत्त्वबोधिनी सभा के प्रारूप को तैयार करने को प्रेरित किया। राजा राम मोहन राय की मृत्यु के बाद उन्होंने ब्राह्मसभा का तत्त्वबोधिनी सभा में विलय कर ब्रह्म समाज को एक नया रूप दिया। शांतिनिकेतन के आश्रम में देवेन्द्रनाथ टैगोर का बनाया ध्यान केंद्र आज भी मौजूद है। बेल्जियम से लाए गए शीशों से बना ये कमरा काँचघर के नाम से जाना जाता है।

शांतिनिकेतन गृह
काँचघर के कुछ कदम आगे ही देवेन्द्रनाथ जी का मकान सामने आ जाता है जो उन्होंने यहाँ 1863 में बनाया था । अंग्रेजों के ज़माने में जितने घर आज भी हैं उसमें लकड़ी की ऐसी ही खिड़कियाँ आपको देखने को मिलेंगी। बालक रवींद्रनाथ का बचपन इसी घर में बीता। घर के चारों ओर आज बरगद, छातिम और आम के छायादार पेड़ लगे हैं। पेड़ों के बाद एक मैदान है जो  जिसके आगे यहाँ का घंटाघर और अन्य इमारतें बनी हैं। इस मैदान का प्रयोग आजकल  सार्वजनिक गतिविधियों व बसंतोत्सव के समय होता है। ब्रह्म समाज एक ईश्वर की उपासना में यकीन रखता था। इसलिए यहाँ मूर्तिपूजा नहीं होती है और ना ही प्रांगण में कोई मंदिर है।

घंटाघर
मैदान के दूसरी ओर पाठ भवन है जिसकी शुरुआत रवींद्रनाथ टैगोर ने बीसवीं शताब्दी के आरंभ में की। इस पाठ भवन की बाहरी दीवार पर आज मशहूर चित्रकार नंदलाल बोस की चित्रकला लगी हुई है। रवींद्रनाथ टैगोर का मानना था कि बंद दीवारों के बीच शिक्षा मानव सोच को संकुचित करती है। इसलिए प्रकृति के बीच खुले में उन्होंने अपने विद्यालय की कक्षाएँ चलायीं। 

इन्हीं कुंजों में आज भी होती हैं कक्षाएँ
अब तो छात्रों की संख्या इतनी ज्यादा हो गयी है कि उनके लिए अलग अलग संकाय बन गए हैं पर स्कूल के बच्चे आज भी यहाँ अपने शिक्षक के साथ घने पेड़ों के बीच गोल घेरे बना कर पढ़ाई करते नज़र आ जाएँगे। रवींद्रनाथ टैगोर की इस वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली में ध्यान रटने से ज्यादा सीखने पर था। इसलिए मूलभूत शिक्षा के अलावा  उन्होने उन सभी विषयों का समावेश किया जिसमें छात्रों की रुचि थी। 1913 में नोबल पुरस्कार के साथ मिले पैसों से इस शैक्षिक प्रांगण का विश्तार हुआ और इसने विश्वविद्यालय की शक़्ल ली।


छातिमतला में छातिम का एक पेड़
छातिम वृक्षों के बीच देवेन्द्रनाथ और बाद में रवींद्रनाथ टैगोर नियमित रूप से ध्यान किया करते थे। बाद में इस प्रार्थना स्थल को छातिमतला का नाम दे दिया गया। शांतिनिकेतन ने देश को अनेक बहुआयामी व्यक्तित्व प्रदान किए। यहाँ के गाइड उन विभूतियों में इंदिरा गाँधी, सत्यजीत रे और अमर्त्य सेन का नाम बताना नहीं भूलते। मुझे दूर से छात्री निवास का वो कमरा दिखाया गया जहाँ इंदिरा रहा करती थीं। कहते हैं इंदिरा जी यहाँ पहली बार बैलगाड़ी पर चढ़कर आयी थीं और उनके नाम में प्रियदर्शनी का तमगा गुरुवर ने ही दिया था।

कुछ शिल्पों को कोई नाम देना टेढ़ी खीर है।
पूरे प्रांगण में छात्रों के बनाए शिल्प यत्र तत्र बिखरे हुए हैं और उनमें से कुछ तो बड़े विचित्र हैं। मसलन ये भैंसो का जोड़ा जो नीचे जाकर मछलियों में तब्दील हो गया हो या फिर ये माँ और नवजात शिशु का शिल्प जो एक लंबी सी नाड़ी से एक दुसरे से जुड़ा है ।

माँ और शिशु
कभी इसी रास्ते इंदिरा जी अपने छात्रावास तक जाती थीं

 छात्री निवास के प्रांगण में बना शिल्प
कला भवन परिसर
शांतिनिकेतन अगर जाएँ तो यहाँ के कला और संगीत भवन से गुजरना ना भूलें। नंदलाल बोस यहाँ के कला विभाग के पहले प्रधानाचार्य थे। नंदलाल बोस, बिपिन बिहारी मुखर्जी, राम किंकर बैज की कूचियों और शिल्प की छाप पूरे परिसर पर है। बोस के शिष्य राम किंकर बैज के शिल्प से कला भवन के आस पास का हिस्सा अटा पड़ा है। एक ओर गौतम बुद्ध की छवि है तो दूसरी ओर उन्हें खीर खिलाने को तैयार खड़ी सुजाता की कृशकाया।  

राम किंकर बैज का सबसे प्रसिद्ध शिल्प एक संथाल परिवार का है जिसमें महिलाएँ मिल के बजते सायरन की आती आवाज़ की ओर विस्मित होकर अलग अलग दिशा में देख रही हैं। बैज के इस शिल्प को आज Call of the Mill के नाम से जाना जाता है। अगर आप ये सोच रहे हों कि बैज ने संथालों को अपने शिल्प का केंद्र क्यूँ बनाया तो बता दूँ कि बीरभूमि के जिस इलाके में शांतिनिकेतन बना वहाँ के मूल निवासी संथाल ही थे और आज भी इस जिले में उनकी संस्कृति की छाप स्पष्ट नज़र आती है।

कारखाने की पुकार  Call of the Mill
इगलू का शिल्प और अपना रास्ता ढूँढते दो घुमक्कड़

रवींद्र नाथ टैगोर को समर्पित संग्रहालय
शांतिनेकेतन के परिसर के कुछ ही दूर एक साप्ताहिक मेला लगता है जिसे खोआई मेला भी कहते हैं। भारी वर्षा से यहाँ की लैटराइट मिट्टी के अपरदन से ये इलाका गहरे गढ्ढों और कंदराओं में तब्दील हो गया था। निरंतर वृक्षारोपण से यहाँ अब एक विरल जंगल उग आया है। इन्हीं जंगलों के बीच हर शनिवार यहाँ एक मेला लगता है जिसमें स्थानीय कलाकार अपनी बनाई वस्तुएँ बेचते हैं। वैसे अगर आप सप्ताहांत में यहाँ ना भी आ पाएँ तो अमर कुटीर जा सकते हैं जहाँ इन कलाकृतियों का नियमित बाजार लगता है।

खोआई मेले में नाचती संथाली नृत्यांगनाएँ

मेले में बिकते नयनाभिराम हार
शांतिनिकेतन एक विशिष्ट जगह है जहाँ आज भी आप अपनी संस्कृति में समाहित गुरुकुल परंपरा और वैकल्पिक शिक्षा के सफल निष्पादन की झलक देख सकते हैं। प्रकृति की गोद में बसे इस विश्वविद्यालय में जब भी जाएँ गाइड साथ में जरूर लें ताकि यहाँ की अनमोल विरासत को आप महसूस कर सकें।

अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी छाया चित्रावली तो मन को मोह लेती है।

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    1. आपको चित्र पसंद आए जानकर खुशी हुई। उम्मीद है आलेख भी रुचिकर लगा होगा ।

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  2. hamesha ki tarah umda. chhatim ke ped, indira, nand lal bose, ek rupaye me jameen...jaise koi potli me moti bhar le.
    hindi font 'on' karne par bhi blogspot hindi me comment nahin likhta, jabki fb, wp aadi par hota hai. ye duvidha mere liye comment dena mushkil karti rahi hai hamesha se.

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    1. मैं ये जवाब माइक्रोसॉफ़्ट इंडिक लैड्ग्वेज इनपुट टूल में हिन्दी फॉन्ट ऑन कर के दे रहा हूँ। इसलिए ये समस्या ब्लॉग्स्पॉट से जुड़ी नहीं लगती।
      आपको ये आलेख पसंद आया जान कर बेहद खुशी हुयी। मेरे लिए भी इस जगह के जरिये इन विभूतियों के बारे में जानना सुखद रहा।

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    2. Ok. I was using google indic tool.

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    3. घर में गूगल हिंदी इनपुट है पर उसका इस्तेमाल कर मैं अभी हिंदी में लिख पा रहा हूँ.

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  3. बहुत ही जबरदस्त वर्णन..इतना जैसे रिसर्च स्कॉलर करते है...इंदिरा के बैल गाड़ी पे आने की बात और कई जानकारी...सच मे बहुत अच्छा लगता है आपका ब्लॉग पढ़ कर...

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    1. किसी भी जगह से जुडने के लिए उसके बारे में पढ़ना और उसे अपने यात्रा अनुभव से जोड़ना बतौर यात्रा लेखक मुझे अपना कर्तव्य लगता है और ऐसा करते हुये मुझे खुशी भी मिलती है। आपको मेरा ये प्रयास पसंद आया जान कर प्रसन्नता हुई।

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  4. Bahut sunder, so much information and so well penned.

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  5. Shantiniketan ke bare me Suna zaroor that,àaj ek Baar phir ohs Jane ki iccha taaza ho gayi, spellbound

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    1. I read your article regarding Tagore's family home in Kolkata. With your love for Tagore, you will definitely like this place which has shaped and cultivated the new thought process in Bengal's society.

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  6. Great, that is a amazing place and have so many good things to enjoy. Statues are amazing and stunning photos you shared of that beautiful place.

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