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गुरुवार, 6 जून 2019

डॉग पार्किंग से रहस्यमयी टॉयलेट तक : क्या है रोम का अनैतिहासिक चेहरा? The other side of Rome, Italy

पीसा के बाद मेरा अगला पड़ाव था रोम का ऍतिहासिक शहर पर आज मैं रोम के इतिहास की बात नहीं करने वाला बल्कि आज पहले वहाँ से जुड़ी दस मजेदार बातें बताना चाहता हूँ जो मैंने अपने अल्प प्रवास में  गौर कीं। भले ही ये सब मैंने रोम में देखा पर मेरे ख्याल से इनमें से ज्यादातर वाकये पूरी इटली पर लागू होते हैं। तो चलिए आपको दिखाएँ रोम की कुछ रोचक झलकियाँ..

इटली की भाषा con eni gas e luce hai tutto sotto controllo :) 

तो शुरुआत इटली की भाषा से। फ्रेंच के ठीक उलट इटालवी भाषा मुँह पर सहज ही चढ़ जाती है। यहाँ के लोग जिस तरह शब्दों को खींच के बोलते हैं, ट को त बना देते हैं और बोलते वक्त आँखों के साथ पूरे चेहरे की भाव भंगिमाएँ ही बदल डालते हैं उसने मुझे इस भाषा की ओर शीघ्र ही आकर्षित कर लिया। अगर आप अंग्रेजी समझते हों तो मान लीजिए कि सिर्फ 'O' प्रत्यय लगाकार आपने इटालवी भाषा के भी कई शब्द सीख लिए। चलिए अब ऊपर की तस्वीर को ध्यान से देखिए। 

बिलबोर्ड से झाँकती कन्या कह रही है con eni gas e luce hai tutto sotto controllo। अब  Eni अगर ब्रांड  का नाम है तो इतना तो आप तुक्का लगा ही सकते हैं कि वाक्य में gas और control का जिक्र है। वैसे मोहतरमा कहना चाहती हैं कि  With Eni gas and light you have everything under control  :)

रोम नगरी का बहुतेरा हिस्सा इन हल्की भूरी और क्रीम रंग की इमारतों से भरा है।

पूरा शहर बादामी और हल्के भूरे रंग से रँगा नज़र आता है जो मुझे बाहर से तो नीरस रंग लगा। 

नाज़ियों के खिलाफ दीवार पर ग्रैफिटी
वैसे तो इटली ने दूसरा विश्व युद्ध मुसोलनी के नेतृत्व में जर्मनी और जापान के साथ लड़ा था पर इस युद्ध में इस तिकड़ी की सबसे कमजोर कड़ी यही था और इसीलिए घुटने टेकने में पहला भी। आज वैसे तो इटली के सम्बन्ध  बाकी यूरोपीय देशों से अच्छे हैं पर प्रचार के बीच नाजियों को गाली देती ये ग्राफिटी जर्मन समुदाय के प्रति लोगों  के अंदर के रोष को ही प्रकट करती हुई दिखती है।

पेड़ कैसे कैसे..कहीं शंकुनुमा
रोम के चारों ओर और शहर के अंदर कुछ पेड़ बड़े अलग सा रूप लेकर सामने आए। शंकुधारी और लॉलीपॉप   सरीखे इन पेड़ों के नाम तो मुझे नहीं मालूम पर ये पूरे शहर को एक अलग सी सुंदरता जरूर प्रदान करते हैं।

....तो कहीं लॉलीपॉप से
अस्सी का दशक याद है आपको जब देश के विभिन्न प्रदेशों में दूरदर्शन के ट्रांसमीटर लगने शुरु हुए थे और उसी के साथ धीरे धीरे बढ़ा था बहुमंजिली इमारतों पर आड़े तिरछे लंबे लंबे एंटेना का मकड़जाल। इन्ही एंटेना को घुमा घुमा कर प्रसारण गुणवत्ता सुधारने में बहुतों ने तब महारत हासिल की थी। 

एंटेना का मकड़जाल

रोम में घुसते ही जब ऐसा ही बेतरतीब जाल दिखा तो लगा चलो किसी मामले में तो इस यूरोपीय देश से आगे निकले। इटली में आज भी प्राइवेट डिश आपरेटरों की तुलना में फ्री टू एयर चैनल का प्रसारण करने वाले टेरेरेस्टियल चैनलों का बोलबाला है।  सरकारी नीतियाँ ही कुछ ऐसी हैं कि इटली के हर इलाके के लिए अलग अलग डिश टीवी आपरेटर हैं। नतीजा ये कि एक ओर तो ये मँहगे हैं तो दूसरी ओर एक साथ उनका कांटेंट पूरे देश में उपलब्ध भी नहीं।

हमने तो कब का बंबई को मुंबई बन दिया पर इटली बांबे को नहीं भूला है।
भारतीयों की आवाजाही जिस तरह विश्व में बढ़ रही है वैसे ही भारतीय व्यंजन परोसने वाले रेस्त्राँ की भी।  विश्व का शायद ही कोई कोना हो जहाँ भारतीय भोजन की धमक ना पहुँची हो। बहरहाल अगर कोई इटली में है तो भारतीय स्वाद से हटकर अठारहवीं शताब्दी में यहाँ के शहर नेपल्स से प्रचलित हुआ पिज्जा उसकी पहली पसंद क्यूँ ना हो? वैसे भी ये जानने का मन तो भारतीय पिज्जा प्रेमियों का करता ही है कि आखिर डोमिनो और पिज्जा हट की दुनिया से परे इटली के वास्तविक पिज्जा का स्वाद कैसा है?

पिज्जा जो इटली का सर्वाधिक लोकप्रिय व्यंजन है विश्व में।
भारत में रहने वाले लोगों के लिए वेस्पा एक जाना पहचाना नाम है। यहाँ  बजाज को अगर किसी स्कूटर ब्रांड ने चुनौती दी तो वो एल एम एल वेस्पा ही थी। वैसे वेस्पा ब्रांड की शुरुआत इटली में  पिआजियो ने तब की थी जब भारत आजाद हुआ था। आजकल भारयीय सड़कों पर वेस्पा के नए मॉडल फिर से दिखाई दे रहे हैं। यही वजह थी कि रोम की सड़कों पर इस स्कूटर को देखना मन को एक ख़ुशी दे गया ।

ये लीजिए आपका जाना पहचाना ब्रांड वेस्पा रोम की सड़कों पर
कॉफी या कोल्ड ड्रिंक वेंडिंग मशीन तो आपने हर जगह देखी होंगी पर कंडोम वेडिंग मशीन, वो भी रोमन कैथलिक चर्च के मुख्यालय रोम में आप जगह जगह देख पाएँगे। आश्चर्य की बात ये है कि इस बात को लेकर अमेरिकी भी उतने ही आश्चर्यचकित हो रहे थे जितना कि संकोची एशियाई समाज से आने वाले हमारे जैसे लोग। उनके चकित होने की वजह ये है कि कैथलिक चर्च अमेरिका में लोगों को बर्थ कंट्रोल से विमुख करता है और यहाँ उसके मुख्य केंद्र में ऐसी मशीनें रखी जा रही हैं । बाद मैं मैंने एक जगह इस विषय पर एक अमेरिकी टिप्पणी पढ़ी

In the land of the catholic church, they supply condoms for those "in need." In the U.S., they want to do away with birth control. Kind of makes your head spin, doesn't it?

कंडोम वेंडिंग मशीन और साथ में डॉग पार्किंग !
इटली के मदिरालय में कॉफी भी मिलती है और वहाँ की सर्विस, वेडिंग मशीन जैसी ही त्वरित है। इसलिए मशीनों की ये परंपरा वहाँ नयी है। कंडोम के आलावा सिगरेट भी इन मशीनों से खरीदी जा सकती हैं।

पता नहीं आपने गौर किया या नहीं कि इस मशीन के साथ नीचे ही एक हुक बना है। हुक के ठीक नीचे लिखा है डॉग पार्किंग यानि कुत्तों की पार्किंग। चौंक गए ना आप? यहाँ तो आप ढंग की कार पार्किंग के लिए परेशान हो जाते हैं और वहाँ इटली में किसी स्टोर में घुसने से पहले अपने कुत्तों को आप इन हुक में बाँध कर यानी  park  कर  खरीदारी कर सकते हैं। कुत्तों को अपने साथ सफर करने के लिए जर्मनी की तरह इटली भी अपने नियमों में काफी लचीला है। मतलब  Dog loving nation के तौर पर इटली का भी नाम लिया जा सकता है।

पेंट छिड़ककर दीवारों पर उल्टी सीधी ग्राफिटी करने का रोग रोम में तो मुझे गंभीर नज़र आया।
अगर आप इटली में है और आपको शौचालय के लिए टॉयलेट लिखा नहीं दिख रहा तो फिर बॉन्यो (Bagno) शब्द ढूँढिए। याद रखिए इसमें g साइलेंट और बोलते वक़्त अंत में 'o ' के पहले खामखा एक अदृश्य 'y' आ जाता है। अगर वो भी ना दिखे तो किसी से पूछ लीजिए डोवेल बॉन्यो यानी  शौचालय कहाँ है ?

पेंट से लिखी जाने वाली ग्राफिटी की समस्या तो आजकल भारत में भी देखी जा रही है पर ये कहाँ से आई है ये आप इस शौचालय की बाहरी दीवार को देख कर समझ सकते हैं।

बाहरी महादेशों से यूरोप में विचरण करने वालों के लिए सबसे रहस्यपूर्ण है इटालियन टॉयलेट। आप कहेंगे अब शौचालय में ऐसा क्या चौंकाने वाला हो सकता है जिसकी अलग से चर्चा करनी पड़े? दरअसल इटली के बाथरूम में घुसते ही आपको एक की बजाए दो टॉयलट सीट दिखेंगी। एक तो वैसी ही जो अपने यहाँ पश्चिमी रंग में रँगे शौच में दिखती है और दूसरे उसके समानांतर, जो दिखती तो वाशबेसिन जैसी है पर जिसकी ऊँचाई सिर्फ टॉयलेट सीट जितनी ही होती है। खा गए ना चक्कर?

मैं जब इटली गया था यो इसके बारे में थोड़ा बहुत पढ़कर अंदाजा हो गया था पर मैंने इसका प्रयोग किया ही नहीं यानी भारतीय अंदाज में ही अपना काम निबटा दिया। दरअसल दूसरी सीट बिडेट के नाम से जानी जाती है। पहली में आपको शौच करना है और दूसरी में बिना अपने हाथ का इस्तेमाल किए, बैठते हुए करनी है अपनी सफाई। सीट पर बैठकर जिस ओर की सफाई करनी है ऊधर मुँह घुमाकर बैठ जाइए और नल को खोल दीजिए। बिडेट में गीले होने के बाद शरीर को सुखाने के लिए बाथरूम में छोटे पर बेहद पतले तौलिए होते हैं जो की सामान्य तौलिये के साथ ही आपको लटके मिलेंगे ।

क्या आपको पता है इटालियन शौचालय का रहस्य ?
दरअसल इटली में ये परंपरा फ्रांस के धनाढय वर्ग से होती हुई पहुँची जिन्हें साफ सफाई के लिए थोड़ा नफासत वाला अंदाज पसंद था। इटली वालों को ये तरीका इतना जँच गया कि ज्यादा जगह घेरने के बाद भी वो अधिकांश जगह इसका इस्तेमाल करते हैं वहीं जापान ने बिडेट की प्रक्रिया एक ही टॉयलेट सीट में एकीकृत कर दी है।

रोम शहर की इन झलकियों के बाद ले चलूँगा मैं आपको इसकी विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिक इमारतों की तरफ इस कड़ी के अगले भाग में..। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो Facebook Page Twitter handle Instagram  पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें।


रविवार, 8 जनवरी 2017

चार दिशाएँ, चार शहर : किसका ना ये मन लें हर ! Aerial View : Srinagar, Shillong, Coimbatore and Pune

हवाई जहाज से जब भी हम नई जगह की यात्रा करते हैं तो सबसे पहले हमारी कोशिश होती है कि हमें खिड़की के बगल वाली सीट मिल जाए ताकि बाहर के नजारे हमें दिख सकें। हवाई यात्रा में टेक आफ और लैडिंग को छोड़ दें तो बाकी समय तो हमारा साथ बादलों के साथ ही रहता है। खिड़की से झांकने का सबसे अधिक आनंद तब आता है जब आपका विमान उतर रहा होता है। अक्सर हवाई अड्डों पर उतरने का संकेत ना मिलने पर विमान को शहर की चौहद्दी का चक्कर लगाना होता है और आप तभी उस शहर की खूबसूरती का अंदाज लगा पाते हैं। पर अक्सर विमान से हमारे ये चक्कर महानगरों के ही लगते हैं और आज के महानगर तो ऊपर से ईंट पत्थरों का जंगल नज़र आते हैं। फिर भी मुझे ऊँचाई से दिल्ली में हुमाँयू का मकबरा और बहाई मंदिर, मुंबई का मेरीन ड्राइव और कोलकाता का हावड़ा ब्रिज देखना अच्छा लगा था।  

पर भारत के कई शहर ऐसे हैं जो कंक्रीट के जंगलों में तब्दील नहीं हुए हैं और जिनके आस पास का इलाका इतना सुंदर है कि जब विमान वहाँ उतरता है तो आप खिड़की के बाहर से नज़रें ही नहीं हटा पाते। आज की इस पोस्ट में मैं आपको दिखाना चाहूँगा भारत के चार कोनों में स्थित ऐसे ही कुछ शहरों के आकाशीय चित्र। तो शुरुआत उत्तर दिशा से क्यूँ ना की जाए जहाँ हिमालय पर्वतश्रंखला की पीर पंजाल की पर्वत श्रंखला के बीच बसा है श्रीनगर का शहर। 

श्रीनगर के आस पास का इलाका  Outskirts of  Srinagar
श्रीनगर के आस पास की पहाड़ियाँ लगभग दो हजार मीटर तक ऊँचाई वाली हैं। इन पहाड़ियों की ढलानों पर देवदार के जंगल दूर दूर तक दिखाई देते हैं. जैसे जैसे शहर पास आता है देवदार के साथ चिनार, पॉपलर के साथ धान के खेत और उनके साथ लगे घर एक बड़ा प्यारा दृश्य आँखों के सामने ले आते हैं।

शहर से सटे धान के खेत खलिहान

उत्तर दिशा से चलिए उत्तर पूर्व की ओर जहाँ हिमालय पर्वत श्रंखला का दूसरा छोर सामने आ जाता है और यहीं बसा हुआ है एक बेहद हरा भरा शहर जिसका नाम है शिलांग। शिलांग मेघालय की राजधानी है और इसे स्कॉटलैंड आफ ईस्ट के  नाम से भी जाना जाता है। शिलांग के हवाई अड्डे तक पहुँचने के पहले सारे विमान यहाँ की प्रसिद्ध यूमियम झील को पार करते हैं। खासी पहाड़ियों, नदियों और जंगलों को पार कर जब शिलांग के पास के कस्बों के डिब्बानुमा घर नज़र आ जाते हैं तो मन ठगा रह जाता है प्रकृति की अप्रतिम सुंदरता को देख कर।

हरा भरा शिलांग

शिलांग शहर के आस पास के कस्बों का नज़ारा
पहाड़ी शहर तो आपने देख ही लिए, अब आपको लिए चलते है दक्षिण के पठारों की ओर। इलाका वो जहाँ पश्चिमी घाट की नीलगिरि , अन्नामलाई और मुन्नार श्रंखला की पहाड़ियाँ एक घेरा सा बना देती हैं। इन्ही के बीच बसा है कोयम्बटूर का औद्योगिक शहर। उत्तर भारत से पलट यहाँ की मिट्टी का रंग भूरा लाल सा दिखाई पड़ता था। खेती के नाम पर जिधर नज़र जाती थे नारियल पेड़ों के के झुंड दूर दूर तक नज़र आते थे।

कोयम्बटूर शहर के आस पास नारियल की खेती

भूरी मिट्टी और भूरी छतों से अपनी पहचान बनाता कोयम्बटूर से सटा एक कस्बा
पश्चिमी घाट से लगा कोयम्बटूर की तरह ही विकसित होता एक और शहर है पुणे का। मराठा संस्कृति का केंद्र रहा है पुणे और अपने शानदार मौसम की वज़ह से आज दूर दूर से लोग यहाँ आकर बस गए हैं।


पुणे का आकाशीय नज़ारा
समुद्र तल से 560 मीटर ऊंचाई पर बसे इस शहर के बीचों बीच मुला व मुठा नदियों  का प्रवाह होता है। पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ से घिरा ये शहर अभी तक हरियाली को अपने में समेटे हुए है। मानसून और उसके बाद अभी के मौसम में यहाँ की रंगत देखने वाली होती है। वैसे इस हरियाली का स्वाद लेना हो तो आकाश से आपको ज़मीन पर उतरना पड़ेगा ।


अगर इन देशी शहरों के ऊपर अगर आप चक्कर लगा चुके हों तो विदेश का चक्कर लगा लीजिए। याद है ना इस ब्लॉग पर करायी गई, वियना, तोक्यो और ब्रसल्स की आकाशीय सैर कितनी खूबसूरत थी। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं

रविवार, 6 नवंबर 2016

छठ के रंग मेरे संग : क्या अनूठा है इस पर्व में? Chhath Puja 2016

भारत के आंचलिक पर्व त्योहारों में देश के पूर्वी राज्यों बिहार, झारखंड ओर  पूर्वी उत्तरप्रदेश में मनाया जाने वाले त्योहार छठ का विशिष्ट स्थान है। भारत के आलावा नेपाल के तराई इलाकों में भी  ये पर्व बड़ी श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाता है। जिस तरह लोग पुष्कर मेले में शिरकत करने के लिए पुष्कर जाते हैं वहाँ की पवित्र झील में स्नान करते हैं, देव दीपावली में बनारस की जगमगाहट की ओर रुख करते हैं, बिहू के लिए गुवहाटी और ओनम के लिए एलेप्पी की राह पकड़ते हैं वैसे ही बिहारी संस्कृति के एक अद्भुत रूप को देखने के लिए छठ के समय पटना जरूर जाना चाहिए। 

छठ महापर्व पर आज ढलते सूर्य को पहला अर्घ्य देते भक्तगण

छठ एक सांस्कृतिक पर्व है जिसमें  घर परिवार की सुख समृद्धि के लिए व्रती सूर्य की उपासना करते हैं। एक सर्वव्यापी प्राकृतिक शक्ति होने के कारण सूर्य को आदि काल से पूजा जाता रहा है।   ॠगवेद में सूर्य की स्तुति में कई मंत्र हैं। दानवीर कर्ण सूर्य का कितना बड़ा उपासक था ये तो आप जानते ही हैं। किवंदतियाँ तो ये भी कहती हैं कि अज्ञातवास में द्रौपदी ने पांडवों की कुल परिवार की कुशलता के लिए वैसी ही पूजा अर्चना की थी जैसी अभी छठ में की जाती है।

छठ पर आम जन हर नदी पोखर पर उमड़ पड़ते हैं उल्लास के साथ

पर छठ में ऐसी निराली बात क्या है? पहली तो ये कि चार दिन के इस महापर्व में पंडित की कोई आवश्यकता नहीं। पूजा आपको ख़ुद करनी है और इस कठिन पूजा में सहायता के लिए नाते रिश्तेदारों से लेकर  पास पडोसी तक  शामिल हो जाते हैं।  यानि जो छठ नहीं करते वो भी व्रती की गतिविधियों में सहभागी बन कर उसका हिस्सा बन जाते हैं। छठ व्रत कोई भी कर सकता है। यही वज़ह है कि इस पर्व में महिलाओं के साथ पुरुष भी व्रती बने आपको नज़र आएँगे। भक्ति का आलम ये रहता है कि बिहार जैसे राज्य में इस पर्व के दौरान अपराध का स्तर सबसे कम हो जाता है। जिस रास्ते से व्रती घाट पर सूर्य को अर्घ्य देने जाते हैं वो रास्ता लोग मिल जुल कर साफ कर देते हैं और इस साफ सफाई में हर धर्म के लोग बराबर से हिस्सा लेते हैं।

महिलाओं के साथ कई पुरुष भी छठ का व्रत रखते हैं।
सूर्य की अराधना में चार दिन चलने वाले इस पर्व की शुरुआत दीपावली के ठीक चार दिन बाद से होती है। पर्व का पहला दिन नहाए खाए कहलाता है यानि इस दिन व्रती नहा धो और पूजा कर शुद्ध शाकाहारी भोजन करता है। पर्व के दौरान शुद्धता का विशेष ख्याल रखा जाता है। लहसुन प्याज का प्रयोग वर्जित है। चावल और लौकी मिश्रित चना दाल के इस भोजन में सेंधा नमक का प्रयोग होता है।  व्रती बाकी लोगों से अलग सोता है। अगली शाम तक उपवास फिर रोटी व गुड़ की खीर के भोजन से टूटता है और इसे खरना कहा जाता है। छठ की परंपराओं के अनुसार इस प्रसाद को लोगों को घर बुलाकर वितरित किया जाता है। इसे मिट्टी की चूल्हे और आम की लकड़ी में पकाया जाता है।

इसके बाद का निर्जला व्रत 36 घंटे का होता है। दीपावली के छठे दिन यानि इस त्योहार के तीसरे दिन डूबते हुए सूरज को अर्घ्य दिया जाता है और फिर अगली सुबह उगते हुए सूर्य को। अर्घ्य देने के पहले स्त्रियाँ और पुरुष पानी में सूर्य की आराधना करते हैं।  इस अर्घ्य के बाद ही व्रती अपना व्रत तोड़ पाता है और एक बार फिर प्रसाद वितरण से पर्व संपन्न हो जाता है । पर्व की प्रकृति ऐसी है कि घर के सारे सदस्य पर्व मनाने घर पर एक साथ इकठ्ठे हो जाते हैं।

सोमवार, 4 मई 2015

यादें नेपाल की : बेतिया से काठमांडू तक की वो जीप यात्रा !

काठमांडू गए करीब पच्चीस वर्ष बीत चुके हैं। पिछले हफ्ते आए भूकंप ने मीडिया के माध्यम से इस भयावह त्रासदी की जो तसवीरें दिखायीं वो दिल को दहला गयीं। कई साथी जो हाल ही में वहाँ गए थे उन्हें वहाँ की हालत देखकर गहरा आघात लगा। दरअसल जब हम किसी जगह जाते हैं तो वहाँ बितायी सुखद स्मृतियाँ हमें वहाँ की प्रकृति, धरोहरों और लोगों से जोड़ देती हैं। उस जगह बिताए उन प्यारे लमहों को जब हम  टूटते और बिखरते देखते हैं तब हमारा हृदय व्यथित हो जाता है। ठीक ऐसा ही अनुभव मुझे उत्तर सिक्किम में चार साल पहले आए भूकंप के पहले भी हुआ था क्यूँकि उसके ठीक कुछ साल पहले मैं मंगन बाजार, लाचेन और लाचुंग की गलियों से गुजरा था, वहाँ के प्यारे, कर्मठ लोगों से मिला था।



आज पता नहीं लोग नेपाल जाने को विदेश यात्रा मानते भी हैं या नहीं पर बिहार में रहने वालों के लिए तब नेपाल जाना भाग्य की उस रेखा की आधारशिला रख देना हुआ करता था जो परदेश जाने के मार्ग खोलती है। पटना का हवाई अड्डा तब भी इसी वज़ह से अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा कहलाने का दम भरता था। वैसे आज भी एयर इंडिया और जेट की विमानसेवाएँ पटना से काठमांडू की उड़ान भरती हैं पर मुझे अच्छी तरह याद है कि हवाई अड्डे की छत पर जाकर रॉयल नेपाल एयरलाइंस के रंग बिरंगे वायुयान को उड़ता देखने के लिए मैंने कई बार पिताजी की जेब ढीली की थी।

अस्सी के दशक में जो भी नाते रिश्तेदार नेपाल जाते उनसे दो तीन सामान लाने का अनुरोध करना बिहार में रहने वालों के रिवाज़ में ही शामिल हो गया था। जानते हैं ना वो कौन सी वस्तुएँ थी? चलिए मैं ही बता देता हूँ टेपरिकार्डर, कैमरा और इमरजेंसी लाइट। उत्तर पूर्वी बिहार से नेपाल का शहर फॉरबिसगंज और उत्तर पश्चिमी बिहार से नेपाल के वीरगंज में तब हमेशा ऐसी खरीददारी आम हुआ करती थी। मुझे सबसे पहले नेपाल जाने का मौका तब मिला जब पिताजी की पोस्टिंग बेतिया में हुई और हम ऐसी ही एक खरीददारी के लिए वीरगंज तक गए। सीमा पर ज्यादा रोक टोक ना होना और सरहद के दूसरी ओर हिंदी भाषियों के प्रचुर मात्रा में होने की वज़ह से तब ये भान ही नहीं हो पाता था कि हम किसी दूसरे देश में हैं।

पर 1991 में बेतिया से सड़क मार्ग से काठमांडू जाने का कार्यक्रम बना था। अभी का तो पता नहीं पर तब बीरगंज से काठमांडू जाने के दो रास्ते हुआ करते थे । एक जो नदी के किनारे किनारे घाटी से होकर जाता था और दूसरा घुमावदार पहाड़ी मार्ग से। जब हम उस दोराहे पर पहुँचे तो हमने देखा कि जहाँ पहाड़ी मार्ग से काठमांडू की दूरी सौ से कुछ ही ज्यादा किमी दिख रही हैं वहीं दूसरी ओर घाटी वाला रास्ता उससे करीब दुगना लंबा है। हमारे समूह ने सोचा कि छोटे रास्ते से जाने से समय कम लगेगा और ऊँचाई से नयनाभिराम दृश्य दिखेंगे सो अलग। माउंट एवरेस्ट को देख पाने की ललक भी अंदर ही अंदर स्कूली मन में कुलाँचे मार रही थी।। ख़ैर एवरेस्ट तो उस रास्ते से नहीं दिखा पर तीखी चढ़ाई चढ़ने की वज़ह से हमारी महिंद्रा की जीप का बाजा बज गया । थोड़ी थोड़ी दूर में इतनी गर्म हो जाती कि उसे अगल बगल से खोज कर पानी पिलाने की आवश्यकता पड़ जाती।

नतीजा ये हुआ कि सौ किमी से थोड़ी ज्यादा दूरी तय करने में हमें छः घंटे से ज्यादा वक़्त लग गया। पहाड़ की ऊँचाइयों से हम अक्टूबर के महीने में जब काठमांडू घाटी में उतरने लगे तो अँधेरा हो चला था। रात जिस होटल में बितानी थी वहाँ रूम की कमी हो गई। पिताजी के साथ मुझे भी तब ज़मीन पर बेड बिछाकर सोना पड़ा। रात में माँ ने कहा कि पलंग हिला रहे हो क्या? पर हम लोग माँ की बात को अनसुना कर चुपचाप सोते रहे। सुबह उठे तो पता चला कि भारत में उत्तरकाशी में उसी रात जबरदस्त भूकंप आया था जिसके हल्के झटके नेपाल में भी महसूस किए गए थे। सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त वो केंद्र नेपाल होता तो शायद हम भी वहीं कहीं समा गए होते।

दरबार स्कवायर तो मैं तब नहीं गया था पर पशुपतिनाथ मंदिर और बौद्ध स्तूप की  रील वाले कैमरे से खींची तसवीरें आज भी घर में पड़े पुराने एलबम की शोभा बढ़ा रही हैं। एक मज़ेदार वाक़या ये जरूर हुआ था कि जब हम काठमाडू की चौड़ी सड़कों पर रास्ता ढूँढ रहे थे तब गोरखा ने रास्ता तो राइट बताया पर हाथ बाँया वाला दिखाया था। हम लोग अंदाज से आगे बढ़ते हुए इस बात पर काफी हँसे थे। तब की उस नेपाल यात्रा में मेरा सबसे यादगार क्षण काठमांडू में नहीं बल्कि पोखरा में बीता था जहाँ हमें सारंगकोट से माउंट फिशटेल के अद्भुत दर्शन हुए थे

नेपाल के लोगों के लिए ये कठिन समय है। वहाँ के लोगों की ज़िंदगी में जो भूचाल आया है उससे उबरने में उन्हें वक़्त लगेगा। भारत और विश्व के अन्य देश आज तन मन धन से नेपाल के साथ खड़े हैं और उनकी ये एकजुटता हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश को जल्द ही अपने पैरों पर फिर से खड़ा कर देगी ऐसी उम्मीद है।

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

प्रकृति व लोकरंग कलाकारों के संग ... International Friendship Art Workshop-cum-Exhibition at Shyamali, Ranchi

किसी नई जगह पर हम जाते हैं तो वहाँ की खूबसूरती को अपने क़ैमरे में क़ैद करने की कोशिश करते हैं। उस जगह के कुछ लोग , कुछ मंज़र, कुछ दिलचस्प बातें जरूर दिमाग में घर कर जाती हैं जैसे जैसे वक़्त बीतता है ये यादें धुंधली हो जाती हैं। पर जब एक कलाकार गाँवों, कस्बों, शहरों से गुजरता है, लोगों से मिलता है और उनके परिवेश को समझता है तो उसका प्रतिबिंब वो मन मस्तिष्क में बसा लेता है। फिर वही बिंब किसी कैनवस, किसी शिल्प पर यूँ उभरता है कि वो उन यादों को पुनर्जीवित कर देता है। 

Painting themes varied from people, nature and local culture

फरवरी के आख़िरी सप्ताह में देश और विदेशों से कलाकारों का जमघट जब राँची के श्यामली स्थित रोज़ गार्डन में उतरा तो इन कलाकारों के मन की भावनाओं को कैनवस और तराशे जा रहे पत्थरों पर प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिला। अक़्सर ऐसी कार्यशाला और प्रदर्शनी बड़े शहरों में लगा करती हैं पर   International Friendship Art Workshop-cum-Exhibition के तहत पहली बार आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, थाइलैंड, नेपाल, बाँग्लादेश और भारत के लगभग तीस कलाकारों को काम करते और अपनी कलाकृतियों को अंतिम रूप देते देखने का मौका राँची के लोगों को मिला।

Rose Garden, Shyamali, Ranchi
उद्यान के मुख्य भाग में बनी हुई पे्टिंग की प्रदर्शनी चल रही थी जब की शिल्पकार और चित्रकार बागीचे के अलग अलग भागों में बने सफेद गुलाबी कक्ष के अंदर अपने शिल्प और चित्रों को सँवार रहे थे। अपने काम में तल्लीन इन कलाकारों को चित्रों और शिल्पों को मूर्त रूप देते देखना अपने आप में एक अलग अनुभव था।

Artist at work  : Clockwise from left Manoj Sinha, Australia's Birgit Grapentin, Raghu Nath Sahu, Susant Panda & Bina Ramani

शनिवार, 2 नवंबर 2013

कैसी रही मेरी जापानी बुलेट ट्रेन यानि 'शिनकानसेन' में की गई यात्रा ? (Experience of traveling in a Shinkansen !)

जापान जाने वाले हर व्यक्ति के मन में ये इच्छा जरूर होती है कि वो वहाँ की बुलेट ट्रेन में चढ़े। हमारे समूह ने भी सोचा था कि मौका देखकर हम तोक्यो में रहते हुए अपनी इस अभिलाषा को पूरा करेंगे। ये हमारी खुशनसीबी ही थी कि हमारे मेजबान JICA ने खुद ही ऐसा कार्यक्रम तैयार किया कि तोक्यो से क्योटो और फिर क्योटो से कोकुरा की हजार किमी की यात्रा हमने जापानी बुलेट ट्रेन या वहाँ की प्रचलित भाषा में शिनकानसेन से तय की। जापान प्रवास के अंतिम चरण में कोकुरा से हिरोशिमा और फिर वापसी की यात्रा भी हमने इस तीव्र गति से भागने वाली ट्रेन से ही की। वैसे अगर ठीक ठीक अनुवाद किया जाए तो शिनकानसेन का अर्थ होता है नई रेल लाइन जो कि विशेष तौर पर तेज गति से चलने वाली गाड़ियों के लिए बनाई गई। शिनकानसेन का ये नेटवर्क वैसे तो पाँच हिस्सों में बँटा है पर हमने इसके JR Central और JR West के एक छोर से दूसरे छोर तक अपनी यात्राएँ की। चलिए आज आपको बताएँ कि जापानी बुलेट ट्रेन में हमारा ये सफ़र कैसा रहा?
 

पहली नज़र में 16 डिब्बों की शिनकानसेन, ट्रेन कम और जमीन पर दौड़ने वाले हवाई जहाज जैसी ज्यादा प्रतीत होती है। इसकी खिड़कियों की बनावट हो या इसके इंजिन की, सब एक विमान में चढ़ने का सा अहसास देते हैं। वैसे तो टेस्ट रन (Test Run) में ये बुलेट ट्रेनें पाँच सौ किमी का आँकड़ा पार कर चुकी हैं पर हमने जब तय की गई दूरी और उसमें लगने वाले समय से इसकी गति का अनुमान लगाया तो आँकड़ा 250 से 300 किमी प्रति घंटे के बीच पाया। वैसे आधिकारिक रूप से इनकी अधिकतम गति 320 किमी प्रति घंटे की है।


पूरी यात्रा के दौरान एक बार हमें हिरोशिमा में ट्रेन बदलनी पड़ी। जब हमने अपने टिकट देखे तो हम ये देख कर आवाक रह गए कि  हमारी ट्रेन के हिरोशिमा पहुँचने और हिरोशिमा से दूसरी ट्रेन के खुलने के समय में मात्र दो मिनट का अंतर था। हमारे मेजबान से बस इतना एहतियात बरता था कि दोनों गाड़ियों  के कोच इस तरह चुने थे कि वे आस पास ही रहें। पर ज़रा बताइए तेरह हजार येन के टिकट पर दो मिनटों का खतरा भला कौन भारतीय उठाने को तैयार होगा? 

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

जापान और शाकाहार : आइए इक नज़र डालें जापानी शाकाहारी थाली पर (Japan and Vegetarianism)

पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया था कि अगर आप शाकाहारी हैं तो जापानी शहरों में निरामिष भोजन ढूँढने की अपेक्षा अपना भोजन ख़ुद बनाना सबसे बेहतर उपाय है। जापान में एक हफ्ते बिताने के बाद हम भारतीयों का समूह बड़ा चिंतित था। शाकाहारी तो छोड़िए हमारे समूह के सामिष यानि नॉन वेज खाने वाले अंडों से आगे बढ़ नहीं पा रहे थे। एक तो बीफ और पोर्क का डर और दूसरे जापानी सामिष व्यंजनो् के अलग स्वाद ने उनकी परेशानी बढ़ा दी थी। शुरु के दो हफ्तों तक तो हमें अपने तकनीकी प्रशिक्षण केंद्र यानि JICA Kitakyushu में रहना था पर उसके बाद तोक्यो , क्योटो और हिरोशिमा की यात्रा पर निकलना था। हमारी जापानी भाषा की शिक्षिका हमारे इस दुख दर्द से भली भाँति वाकिफ़ थीं। जब तक हम अपने ट्रेनिंग हॉस्टल में थे तब तक चावल,मोटी रोटी, फिंगर चिप्स एक भारतीय वेज करी (जो स्वाद में भारतीय छोड़ सब कुछ लगती थी), दूध,  जूस वैगेरह से हमारा गुजारा मजे में चल रहा था । 


पर अपने शहर से बाहर निकलने पर हमें ये खाद्य सुरक्षा नहीं मिलने वाली थी। सो मैडम ने हम सभी के लिए एक 'नेम प्लेट' बनाया था जिस पर लिखा था मैं सी फूड, माँस, बीफ,पोर्क और अंडा नहीं खाता। हम लोगों ने टोक्यो की ओर कूच करते वक़्त बड़े एहतियात से वो काग़ज़ अपने पास रख लिया था।

वैसे आपको बता दूँ कि अगर आप जापान जा रहे हैं तो जापानी भाषा के इन जुमलों को याद रखना बेहद जरूरी है। हमें तो वहाँ रहते रहते याद हो गए थे। जापान में माँस को 'नीकू' कहते है। Chicken, Pork और Beef  जापानी में इसी नीकू से निकल कर 'तोरीनीकू', 'बूतानीकू' और 'ग्यूनीकू' कहलाते हैं। वैसे अंग्रेजी प्रभाव के कारण चिकेन, पार्क और बीफ और शाकाहार के लिए लोग चिकिन, पोकू , बीफू, बेजीटेरियन जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं। अगर आपको कहना है कि "मैं माँस नहीं खाता" तो आपको जापानी में कहना पड़ेगा.... 


नीकू वा दामे देस:)

भाषा के इस लोचे के बावज़ूद पश्चिमी देशों की तरह ही जापान के भोजनालयों के सामने भोजन की रिप्लिका को थाली में परोस कर दिखाया जाता है। दूर से देखने पर आपको ये सचमुच का भोजन ही दिखाई पड़ेगा। यानि कुछ बोल ना भी सकें तो देखें परखें और खाएँ। जापानी शहरों में कई गैर भारतीय रेस्ट्राँ में हमने नॉन की उपलब्धता को इस तरह के 'डिस्पले' से ही पकड़ा।



फिर भी शुद्ध शाकाहारी भोजन की कल्पना करना जापान में ख़्वाब देखने जैसा है। दिक्कत ये है कि जापानी किसी भी भोजन में मीट के टुकड़े यूँ डालते हैं जैसे हमारे यहाँ लोग सब्जी बनाने के बाद धनिया डालते हैं।मीट से बच भी जाएँ तो समुद्री भोजन से बचना बेहद मुश्किल है। जापान में सबसे ज्यादा प्रचलित सूप 'मीशो सूप' (Misho Soup)  में भी सूखी मछलियों का प्रयोग होता है।

शनिवार, 13 जुलाई 2013

जापान और शाकाहार : आइए चलें जापान के सब्जी बाजार में ! (Japan and Vegetarianism)

जब भी परिचितों और मित्रों से जापान यात्रा के बारे में बात होती है तो एक प्रश्न ये जरूर होता है कि  एक शाकाहारी अपनी भोजन की प्रवृतियाँ ना बदलते हुए भी क्या वहाँ अपने उदर का ख़्याल रख सकता है ? अगर आप जापान की भौगोलिक संरचना को देखेंगे तो ये अनुमान लगाने में आपको कठिनाई नहीं होगी कि लगभग बारह करोड़ की आबादी वाले इस देश में जहाँ औद्योगिक विकास की वज़ह से तीव्र शहरीकरण हुआ है, खेती योग्य भूमि  पर्याप्त नहीं है। 

पर जापान के अधिकांश कस्बों और शहरों से भगवन की बनाई एक नियामत पास है और वो है समुद्र। यही कारण है कि जापान के पकवानों में समुद्री भोजन यानि Sea Food का बहुत बड़ा हिस्सा है और सब्जियाँ उसमें उसी तरह इस्तेमाल की जाती हैं जैसे हमारे यहाँ सब्जियों में 'टमाटर'।  भारतीय अर्थों में जो शाकाहारी भोजन होता है वो जापान में दुर्लभ है पर अगर आप ख़ुद शाकाहारी भोजन बनाना चाहें तो जापान के हर सुपरमार्केट में आपको वो सारी सब्जियाँ मिल जाएँगी जिनसे आप पूर्वपरिचित हैं। आपके बनाये भोजन को आपका पेट जरूर सराहेगा भले ही उसके पहले आपकी जेब कराह उठे। ऐसा क्यूँ है जानने के लिए चलिए आपको ले चलते हैं एक जापानी सुपरमार्केट में.. 

जापानी सुपर मार्केट में बिकती सब्जियाँ
वैसे इस बारिश में भुट्टे का स्वाद आप खूब उठा रहे होंगे। जापान में  एक भुट्टे की कीमत सत्तर रुपये की है। वैसे उत्तरी जापान में तोमोरोकोशी (Tomorokoshi) यानि मकई की खेती भी होती है पर माँग ज्यादा होने की वज़ह से ये  अमेरिका से आयात किया जाता है। बारिश के मौसम में इसे ग्रिल कर जापानी  लोग, मक्खन और सोया सॉस के साथ खाते हैं।

आजकल भारत में टमाटर चर्चा में हैं। ख़बरें आ रही हैं कि कहीं कहीं तो आठ रुपये में एक टमाटर बिक रहा है पर नीचे चित्र में देखिए जापान की इस दुकान में पाँच टमाटर दो सौ येन यानि एक सौ तीस रुपये में बिक रहा है, वो भी तब जबकि जापानी पकवानों में टमाटर का इस्तेमाल ना के बराबर होता है। जापान में टमाटर आपको सलाद या भोजन को सजाने का काम करता दिखेगा। 


ये नज़ारा है एक ख़ुदरा सब्जी विक्रेता के यहाँ का.. 

जापान की दुकानों में भिंडी देख कर मुझे कितनी प्रसन्नता हुई थी ये मैं बयाँ नहीं कर सकता। भिंडी मेरी प्रिय सब्जी है और जापान में पहुँचने के पहले ही दिन सुपरमार्केट में इसका दीदार होने पर ये विश्वास हो चला था कि अपने वतन से हजारों किमी दूर हमारी मेस में आने वाले दिनों में इसकी सब्जी खाने का सौभाग्य जरूर प्राप्त होगा। मेरे सपनों पर तुषारापात तब हुआ जब दो दिन बाद सुबह के नाश्ते में भिंडी, सब्जी के बजाए उबाल कर सलाद के रूप में रखी दिखी। जापान में भिंडी 'ओकुरा' (Okura) के नाम से जानी जाती है जो इसके अमेरिकी नाम Okra से मिलता जुलता है। आप तो भिंडी किलो के हिसाब से खरीदते होंगे पर जापान में आठ दस भिंडियाँ गुच्छों में अस्सी रुपये के भाव से बिकती हैं। वैसे भी सलाद में इससे ज्यादा भिंडियों का क्या काम :) ?

एक गुच्छा भिंडी  @138 Yen (1 Yen = 0.6Rs.)


रविवार, 30 जून 2013

ये है जापान का रेलवे प्रतीक्षालय ! ( Railway Waiting Room, Japan)

शायद ही कोई भारतीय हो जिसने  रेल पर सफ़र करते वक़्त स्टेशन के प्रतीक्षालय यानि वेटिंग रूम (Waiting Room) का प्रयोग ना किया हो। ट्रेन बदलने में तो प्रतीक्षालय की आवश्यकता होती ही है पर हम भारतीयों को  विलंबित ट्रेन की प्रतीक्षा करने का हुनर तो बचपन से ही सिखा दिया जाता है। वैसे अगर जगह मिल जाए तो हमारे देशवासी प्लेटफार्म पर ही समय बिताना श्रेयस्कर समझते हैं। कारण स्पष्ट है। वातानुकूल श्रेणी में यात्रा करने वालों के लिए बने प्रतीक्षालयों को छोड़ दिया जाए तो सामान्य श्रेणी के प्रतीक्षालयों के जो आंतरिक हालात होते हैं उससे बेहतर विकल्प तो खुली हवा से जुड़े प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा करना ही है।

जापान में बिताए डेढ़ महिनों में हमने ट्रेन से तो कई छोटी बड़ी यात्राएँ कीं पर कभी वेटिंग रूम की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। अव्वल तो ट्रेन के देर से आने का प्रश्न ही नहीं उठता और अगर कोई ट्रेन छूट गई तो उसके बाद वाली ट्रेन मिनटों में हाज़िर हो जाती थी। यही वज़ह है कि जापान में स्टेशनों पर अमूमन बड़े बड़े प्रतीक्षालय नहीं बनाए जाते क्यूँकि उनकी जरूरत ही नहीं पड़ती। जापान के जिन रेलवे स्टेशनो से हम गुजरे वहाँ  भारतीय और जापानी प्रतीक्षालयों में एक फर्क और दिखा। वहाँ आप धीमी ट्रेन में सफ़र करें या फिर एक्सप्रेस में प्रतीक्षालय में घुसने के लिए श्रेणियों वाला कोई भेदभाव नहीं है।



शीशे की दीवारों से घिरे ये छोटे वेटिंग रूप वातानुकूलित होते हैं ।  हिरोशिमा की गर्मी से बचने के लिए पूरे जापान प्रवास में एक बार मुझे इसी वज़ह से प्रतीक्षालय का उपयोग करना पड़ा। प्रतीक्षालय की बात चली है तो साथ साथ आपको जापानी स्टेशनों पर धूम्रपान निषेध के तौर तरीकों के बारे में भी बताता चलूँ। 


भारत में सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान कानूनी रूप से निषेध हो चुका है फिर भी उसे हमारे यहाँ किस तरह लागू किया जाता है और हम खुद कितने सजग हैं इस गलती को ना करने के प्रति, वो जगज़ाहिर है। पहली बार हम जापानी बुलेट ट्रेन में चढ़े तो कंडक्टर ने घुसते ही प्रश्न किया कि आप में से कितने लोग सिगरेट के शौकीन हैं?  कुल लोगों ने हामी भरी तो वो उन्हें अपने पीछे आने का इशारा कर दूसरी बोगी की ओर ले गया। कुछ देर बाद हमारे मित्र लौटे तो उन्होंने बताया कि वो उन्हें ट्रेन में बने स्मोकिंग रूम को दिखाने ले गया था। किसी किसी ट्रेन में तो स्मोकिंग बोगी ही अलग से बना दी गई है। ऐसी ही व्यवस्था जापान के प्लेटफार्मों पर भी है। यानि सिगरेट फूँकिए, अपना फेफड़ा भले जलाइए पर दूसरों की कीमत पर नहीं।

अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो फेसबुक पर मुसाफ़िर हूँ यारों के ब्लॉग पेज पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें। मेरे यात्रा वृत्तांतों से जुड़े स्थानों से संबंधित जानकारी या सवाल आप वहाँ रख सकते हैं।

शुक्रवार, 7 जून 2013

क्यूँ है जापान स्ट्रीट फैशन इतना भड़कीला? (Why is Japanese Street Fashion so gaudy ?)

पिछली पोस्ट की आख़िर में मैंने आपको बताया था कि स्पेस वर्ल्ड की इस यात्रा में जापानी समाज के एक नए चलन का पता चला जिसके बारे में जानकर हमें बड़ी हैरानी हुई। पता नहीं आपने ध्यान दिया या नहीं पर उस प्रविष्टि के दूसरे चित्र में एक युवा लड़की बड़े से सूटकेस को लेकर स्पेस वर्ल्ड के अंदर जा रही है। अब भला इतने बड़े सूटकेस का इस थीम पार्क में क्या काम?

दरअसल हर सप्ताहांत जापानी किशोर व किशोरियाँ आपको ट्रेन में एक बड़े सूटकेस के साथ सफ़र करते दिख जाएँगे। उनका गन्तव्य स्थल कोई ऐसी जगह होती है जहाँ पर्यटकों और आम लोग सप्ताहांत में अक्सर जाते हैं। आख़िर इस सूटकेस में होता क्या है? इसमें होते हैं रंगबिरंगे अजीबोगरीब परिधान और मेक अप का साजो सामान।


बुधवार, 26 दिसंबर 2012

Make My Trip की नई SMS सेवा (New SMS service from Make My Trip)......

0यात्रा के दौरान कई बार ऐसा होता है कि आपके मोबाइल में सिगनल तो रहता है पर इंटरनेट कनेक्शन की रफ्तार कछुए से भी बदतर होती है। ऐसी अवस्था में कई बार समय पर जरूरी जानकारियों से हम वंचित रह जाते हैं। आपने पहले भी ट्रैवेल वेब साइट Make My Trip का प्रयोग Indian Airlines, Indigo Airlines, Jet, Go  आदि एयरलाइन कंपनियों से जुड़ी जानकारी के लिए किया होगा।हाल ही में मेक माई ट्रिप डॉट कॉम (Make My Trip) ने एक नई सेवा शुरु की है जिसमें SMS पर ही यात्रा संबंधी उपयोगी जानकारियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। यात्रा से जुड़ी इस सेवा का नाम @mmt है जिसे txtweb platform पर तैयार किया गया है।



गुरुवार, 22 सितंबर 2011

सिक्किम त्रासदी : कुछ फुटकर यादें...

एक पर्यटक के तौर पर हम सब किसी ना किसी जगह जाते हैं और  कुछ दिनों के लिए हम उसी फिज़ा और उसी आबोहवा का हिस्सा बन जाते हैं। हफ्ते दस दिन के बाद भले ही हम अपनी दूसरी दुनिया में लौट जाते हैं पर उस जगह की सुंदरता, वहाँ के लोग, वहां बिताए वो यादगार लमहे... सब हमारी स्मृतियों में क़ैद हो जाते है। भले उस जगह हम दोबारा ना जा सकें पर उस जगह से हमारा अप्रकट सा एक रिश्ता जरूर बन जाता है।

यही वज़ह है कि जब कोई प्राकृतिक आपदा उस प्यारी सी जगह को एक झटके में झकझोर देती है, मन बेहद उद्विग्न हो उठता है।हमारे अडमान जाने के ठीक दो महिने बाद आई सुनामी एक ऐसा ही पीड़ादायक अनुभव था। सिक्किम में आए इस भूकंप ने एक बार फिर हृदय की वही दशा कर दी है। हमारा समूह जिस रास्ते से गंगटोक फेनसाँग, मंगन, चूँगथाँग, लाचुंग और लाचेन तक गया था आज वही रास्ता भूकंप के बाद हुए भू स्खलन से बुरी तरह लहुलुहान है।
सेना के जवान लाख कोशिशों के बाद भी कल मंगन तक पहुँच पाए हैं जबकि ये उत्तरी सिक्किम के दुर्गम इलाकों में पहुँचने के पहले का आधा रास्ता ही है। आज से कुछ साल पहले मैं जब गंगटोक से लाचेन जा रहा था तो  इसी मंगन में हम अपने एक पुराने सहकर्मी को ढूँढने निकले थे। सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई और अमेरिका से एम एस कर के लौटने वाले तेनजिंग को सेल (SAIL) की नौकरी ज्यादा रास नहीं आई थी। यहाँ तक कि नौकरी छोड़ने के पहले उसने अपने प्राविडेंड फंड से पैसे भी लेने की ज़हमत नहीं उठाई थी। उसी तेनजिंग को हम पी.एफ. के कागज़ात देने मंगन बाजार से नीचे पहाड़ी ढलान पर बने उसके घर को ढूँढने गए थे।
तेनजिंग घर पर नहीं था पर घर खुला था। पड़ोसियों के आवाज़ लगाने पर वो अपने खेतों से वापस आया। हाँ, तेनज़िंग को इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ कर अपने पैतृक निवास मंगन में इलायची की खेती करना ज्यादा पसंद आया था। तेनज़िंग से वो मेरा पहला परिचय था क्यूंकि वो मेरी कंपनी में मेरे आने से पहले नौकरी छोड़ चुका था। आज जब टीवी की स्क्रीन पर मंगन के तहस नहस घरों को देख रहा हूँ तो यही ख्याल आ रहा है कि क्या तेनजिंग अब भी वहीं रह रहा होगा?


मंगन से तीस किमी दूर ही चूँगथाँग है जहाँ पर लाचेन चू और लाचुंग चू मिलकर तीस्ता नदी का निर्माण करते हैं। यहीं रुककर हमने चाय पी थी। चाय की चुस्कियों के बीच सड़क पर खेलते इन बच्चों को देख सफ़र की थकान काफ़ूर हो गई थी। आज इस रास्ते में हालत इतनी खराब है कि अभी तक चूँगथाँग तक का सड़क संपर्क बहाल नहीं हो सका है।  चूँगथांग में अस्सी फीसदी घर टूट गए हैं। चूमथाँग के आगे का तो पता ही नहीं कि लोग किस हाल में हैं।

चूमथाँग और लाचेन के बीच की जनसंख्या ना के बराबर है। लाचेन वैसे तो एक पर्यटन केंद्र है पर वास्तव में वो एक गाँव ही है। मुझे याद है की हिमालय पर्वत के संकरे रास्तों पर तब भी हमने पहले के भू स्खलन के नज़ारे देखे थे। जब पत्थर नीचे गिरना शुरु होते हैं तो उनकी सीध में पड़ने वाले मकानों और पेड़ों का सफाया हो जाता है। सिर्फ दिखती हैं मिट्टी और इधर उधर बिखरे पत्थर। बाद में उन रास्तों से गुजरने पर ये अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि यहाँ कभी कोई बस्ती रही होगी। सुना है बारिश से उफनते लाचुंग चू ने भू स्खलन की घटनाएँ अब भी हो रही हैं।

इन दूरदराज़ के गाँवों में एक तो घर पास पास नहीं होते, ऍसे में अगर भूकंप जैसी विपत्ति आती है तो किसी से सहायता की उम्मीद रखना भी मुश्किल है। इन तक सहायता पहुंचाने के लिए सड़क मार्ग ही एक सहारा है जिसे पूरी तरह ठीक होने में शायद हफ्तों लग जाएँ। पहाड़ों की यही असहायता विपत्ति की इस बेला में मन को टीसती है। सूचना तकनीक के इस युग में भी हम ऐसी जगहों में प्रकृति के आगे लाचार हैं।
अंडमान, लेह और अब सिक्किम जैसी असीम नैसर्गिक सुंदरता वाले प्रदेशों में प्रकृति समय-समय पर क़हर बर्पाती रही है। आशा है सिक्किम की जनता पूरे देश के सहयोग से इस भयानक त्रासदी का मुकाबला करने में समर्थ होगी।

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

विश्व की सबसे चर्चित हेयरपिन बेंड्स (Hairpin Bends) वाली घुमावदार सड़कें !

पिछले हफ्ते आपसे एक सवाल पूछा था पहाड़ पर बने एक सौ अस्सी डिग्री के घुमाव वाले रास्ते के बारे में। अंग्रेजी में ऍसे घुमावों को हेयरपिन बेंड (Hairpin Bend)  कहते हैं क्यूँकि इनका आकार महिलाओं के केश विन्यास में काम आने वाले हेयरपिन सरीखा  होता है। आज की इस प्रविष्टि में आपसे किए गए सवाल के बारे में तो बात होगी ही साथ ही आपको  ले चलेंगे संसार के सबसे मशहूर Hairpin Bends की सैर पर।
ऊँचे पर्वतीय रास्तों पर एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ को लाँघने के लिए कई दर्रों से होकर गुजरना पड़ता है। अब अगर इन रास्तों की ढाल बढ़ा दी जाए तो भारी और मालवाहक वाहनों के घुमावों पर लुढ़कने की संभावना बढ़ जाती है। इस ढाल को सीमा के अंदर लाने में Hairpin Bends बड़े मददगार होते हैं। Hairpin Bends जहाँ एक ओर दुर्घटना की संभावनाओं को घटाते हैं वहीं दूसरी ओर इनके चलते रास्ते की लंबाई कई गुना बढ़ जाती है।
मनाली लेह रोड जिसे दुनिया के सबसे दुर्गम रास्तों में एक माना जाता है, में भी एक ऐसा ही हेयरपिन बेंड है। मनाली से केलोंग होते हुए जब पर्यटक हिमाचल की सीमा के पास पहुँचते हैं तो सरचू के पठारी मैदान आपका स्वागत करते हैं। सरचू से थोड़ा आगे जाने पर Tsarap नदी मिलती है। इस नदी को पार करते ही अचानक ही एकदम से चढ़ाई आ जाती है और मुसाफ़िरों का सामना होता है 21 चक्करों वाले इस हेयरपिन बेंड से ,जिसे गाटा लूप्स (Gata Loops) के नाम से जाना जाता है। सात किमी लंबे इस लूप के चक्कर काटने में साइकिल व बाइक सवारों के पसीने छूट जाते हैं। गाटा लूप्स को शुरुआत से अंत तक पूरा करते ही आप दो हजार फीट ऊपर आ जाते हैं और पांग की ओर निकल जाते हैं। गाटा लूप्स के ऊपर से तसरप नदी घाटी और  इन घुमावदार सर्पीली लकीरों को देखना कितना अविस्मरणीय अनुभव हो सकता है वो आप  कृष्णनेन्दु सरकार के खींचे हुए इस चित्र को देखकर ही समझ सकते हैं।

ये तो हुई गाटा लूप्स की बात। दक्षिण पूर्वी नार्वे में Lysebotn Road में भी 27 हेयरपिन बेंड हैं। गाटा लूप्स के विपरीत ये बेंड आपको नीचे और नीचे ले जाते हैं। पतली सी सड़क पर 34 किमी का ये सफर तब रोंगटे खड़ा कर देने वाला हो जाता है जब सामने से अचानक बस या लॉरी आपके सामने आ जाए। रोड के अंतिम सिरे पर की सुरंग तीन सौ साठ डिग्री का चक्कर लगा कर घाटी के निचले हिस्से में ला कर छोड़ देती है।

उत्तर पश्चिमी यूरोप से ले चलते हैं आपको मध्य यूरोप में जहाँ आल्पस पर्वत अपने अंदर ऐसे कई हेयरपिन बेंड समाहित किए हुए है। स्विस आल्पस (Swiss Alps) में ऐसी एक सड़क है जो ओबेरआल्प पास तक जाती है। जाड़े के दिनों में 2044 मीटर की ऊंचाई तक जाती ये सड़क बंद रहती है। पर गर्मियों की हरियाली में इसका नज़ारा देखते ही बनता है।


फ्रांस मे फैले आल्पस पर्वत में भी ऐसे घुमावों वाली कई सड़के हैं। 1244 मीटर की ऊँचाई चढ़ने के लिए  Col de Turini पर 34 किमी की यात्रा कर लोग 363 मीटर की ऊँचाई से 1607 मीटर तक पहुँच पाते हैं। मान्टेकार्लो कार रैली के लिए इसी सड़क का इस्तेमाल होता है। वहीं Col de Braus को दुनिया की सबसे आकर्षक सड़कों में एक माना जाता है। यहाँ के हेयरपिन घुमाव साइकिल दौड़ाकों के लिए  बड़ी चुनौती माने जाते हैं। एक नज़ारा आप भी देखिए



पर घुमावों की संख्या में इन सब को मात देता है इटालियन आल्पस का 'स्टेलविओ पास' (Stelvio Pass)। कुल मिलाकार साठ हेयरपिन घुमावों वाला ये दर्रा यूरोप में आल्पस पर्वत का सबसे ऊँचा पास है।  2758 मीटर ऊँचे इस दर्रे पर जाती सड़क को 1820-1825 ई में आस्ट्रियाई शासकों ने बनाया था। प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक जब इटालवी सीमाओं का विस्तार नहीं हुआ था तब ये इलाका स्विस,आस्ट्रिया और इतालवी सीमाओं को एक दूसरे से अलग करता था । ये पहाड़ी दर्रे कई इतालवी और अस्ट्रियाई सेनाओं के आपसी संघर्ष के साक्षी रहे हैं। आज 'स्टेलविओ पास' अपनी दुरुहता की वज़ह से साहसी साइकिल, बाइक व मोटर चालकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती की तरह है।


 पर हेयरपिन बेंड से सजी ये सड़कें सिर्फ यूरोप में हों ऐसा भी नहीं है। एशिया में भारत के आलावा चीन व जापान में भी ऐसी सड़कें हैं। पर उससे कहीं जबरदस्त दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वत पर बनी एक सड़क है जो चिली और अर्जेंटीना को जोड़ती है। वैसे तो चिली व अर्जेंटीना के बीच के पाँच हजार मील की लंबी सीमा है और उसमें कई दर्रे हैं पर इन सबमें सबसे ज्यादा मशहूर  Los Caracoles यानि स्नेल पॉस है। अर्जेंटीना की तरफ ये सड़क एक आम पर्वतीय सड़क की तरह है जो 3,175 मीटर की ऊँचाई पर एक सुरंग में जा मिलती है। इस सुरंग का आधा भाग चिली व आधा अर्जेंटीना में पड़ता है। पर सुरंग से बाहर आते ही चिली के इलाके में ये सड़क तेजी से नीचे की ओर एक सीध में बने कई हेयरपिन बेंड्स के  रूप में उतरती है। ऊपर से देखने पर इस पर चलते ट्रक घोंघों की तरह खिसकते नज़र आते हैं इसीलिए इसे  Snail Pass भी कहा जाता है।


तो अब बताइए जनाब इन सड़कों में किस पर विचरण करने का इरादा है आपका...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

किस्से हैदराबाद के भाग 1 : मई की गर्मी और वो हैदराबादी शादी !

पिछले साल की बात है। गर्मियाँ अपने पूरे शबाब पर थीं। मई का महिना और उसमें पड़ी एक हैदराबादी शादी। हफ्ते भर पहले से खबर आने लगीं कि हैदराबाद का तापमान उफान पर है। शादी में तौ ख़ैर शिरकत करनी ही थी पर हमने अपना कार्यक्रम दो दिन बढ़ा लिया था कि इतनी दूर जा रहे हैं तो थोड़ा घूम वूम लेंगे। पर बढ़ते पारे ने जाने के पहले ही उत्साह ठंडा सा कर दिया था। वापसी का टिकट अब इतने कम समय में परिवर्तित भी नहीं किया जा सकता था। सूर्य देव की कृपा की आशा में हम अपने सफ़र पर निकल पड़े।

वैसे भी राँची से हैदराबाद का सीधा संपर्क नहीं है। सो आधा रास्ता ट्रेन से (भुवनेश्वर तक का) और फिर आधा हवाई जहाज से तय किया गया। 21 मई की शाम को हम राँची से चले और अगली शाम हम हैदराबाद में थे। हैदराबाद का नया हवाई अड्डा मार्च 2008 में बना है। ये हवाई अड्डा शहर से 22 किमी दूर शमशाबाद इलाके में स्थित है और भव्यता में बैंगलूरू और दिल्ली हवाई अड्डों से कम नहीं है।


हैदराबाद हवाई अड्डे से निकलते निकलते रात के नौ बजे गए। शादी के घर में अतिथियों की भीड़ पहले से ही जमा थी। हम लोग ही सबसे अंत में आए थे। बारात की अगवानी के लिए अगले दिन किस तरह सब लोग खासकर महिलाएँ समय पर तैयार हो पाएँगे इसके लिए योजना बनाई जा रही थी। वैसे ये चिंता मुझे भी सता रही थी कि या यूँ कहूँ कि किसी भी उत्तर भारतीय को जरूर सताएगी जिसे इस  परिस्थिति का अनुभव ना हो। चलिए चिंता की वज़ह का खुलासा कर दूँ।

हमारे यहाँ की शादियों में बारात रात आठ बजे के पहले तो दूर कभी कभी आधी रात तक पहुँचती है, वहीं आंध्र में शादी की मुख्य रस्म सुबह में ही हो जाया करती हैं। वर पक्ष की तरफ से शुभ मुहूर्त जब सात बजे के आस पास का बताया गया तो हमारी तरफ़ के लोगों के पसीने छूट गए । बड़ी मुश्लिल से पंडित जी को 'सेट (set)' करके साढ़े आठ का नया मुहूर्त निर्धारित हुआ। अब आप तो जानते ही हैं कि उत्तर भारत में शादी के लिए सज सँवर के लोग रात आठ बजे ही तैयार हो पाते हैं पर यहाँ तो घड़ी की सुई बारह घंटे पहले ही खिसका दी गई थी। ऊपर से हैदराबाद में उस गर्मी में पानी की किल्लत अलग से। इसीलिए इस समस्या पर इतनी गंभीरता से विचार किया जा रहा था।

ख़ैर अगली सुबह की आपाधापी में दुल्हन समेत खास लोगों का जत्था आठ बजे ही समारोह स्थल पर पहुँच गया। फूलों से सजा गेट ....


....और विवाह के लिए सुसज्जित मंडप सबका स्वागत कर रहा था।


लोग माने या ना माने पर जबसे प्रेम के बाद व्यवस्थित विवाह का प्रचलन बढ़ा है तबसे देश के लोगों को एक दूसरे की संस्कृति और रीति रिवाज़ों को जानने समझने का मौका मिला है। पहली भिन्नता तब पता चली जब बारात अचानक से ही आ गई और वो भी बिना बैंड बाजे के साथ। अब बताइए हमारे यहाँ बैंड बाजे और बारात में चोली दामन का संबंध है। एक के बिना दूसरे का होना संभव नहीं। यहाँ तक कि अब तो मुंबई वालों ने इक फिल्म ही बना डाली है इस नाम से। पर यहाँ ना ढोल ना नगाड़ा। ना ही वर के दोस्तों को वधू पक्ष की कन्याओं के सामने ढोल की थाप पर अपने ठुमके दिखाने का कोई अवसर। पूरी शालीनता से दूल्हे राजा गाड़ी से आए और बढ़ चले मंडप की ओर।

पर ये ना सोच लीजिएगा की इस शादी के समारोह में संगीत नदारद था। संगीत था पर ढोल नगाड़े के साथ हुल्लड़ मचाने वाला फिल्म संगीत नहीं बल्कि विशुद्ध पारंपरिक संगीत जो इन शुभ अवसरों पर दक्षिण भारत में बजाया जाता है। जो काम हमारी तरफ की शादी में 'शहनाई' किया करती है वह यहाँ 'नादस्वरम' कर रहा था। दो वादक नादस्वरम बजा रहे थे और दो उनकी संगत में ढोलक जैसे दिखने वाले वाद्य यंत्र 'थाविल (Thavil)' को ले कर बैठे थे। दिखने में थाविल भले ही ढोलक जैसा हो पर बजाने के तरीके में बिल्कुल अलग है। थाविल वादक सामान्यतः अपनी दाहिने हाथ में अगूठियाँ पहने रहते हैं जबकि उनके बाएँ हाथ में एक छोटी पर मोटी छड़ी रहती है।


मजे की बात ये है कि शादी के विधि विधानों के पीछे लगातार ये संगीत नहीं बजता बल्कि कुछ निर्धारित रस्मों की अदाएगी के बाद बजाया जाता है। हम लोग तो इन नए रीति रिवाज़ों से अपने आपको परिचित करने में इतने मशगूल थे कि हमें पता ही नहीं चला कि हमारे पीछे की कुर्सियाँ अतिथियों से भर चली हैं। थोड़ी देर बाद चित्र खींचने के लिए मुड़ा तो देखा पीछे श्वेत वस्त्र धारियों की कपड़ों की सफेदी सुपररिन की चमकार को मात कर रही थी। जहाँ अधिकांश पुरुष अतिथि सफेद या हल्के रंग के वस्त्रों में आए थे वहीं महिलाएँ रंग बिरंगे परिधानों और आभूषणों से लैस थीं।

तेलगु शादी में एक रोचक रिवाज़ ये भी है कि जैसे ही शादी की रस्में खत्म होती हैं सारे अतिथिगण एक पंक्ति में कतार बाँध कर आशीर्वाद स्वरूप अन्न के दाने वर व वधू पर छिड़कते चलते हैं। ये भी एक दर्शनीय नज़ारा होता है।
दस बजे तक शादी की रस्में खत्म हो गयीं और लोग भोजन करने की ओर चल पड़े। सारे व्यंजनों में चावल चिकन  लोगों में बड़ा लोकप्रिय लगा। इस वक़्त भोजन करने की आदत तो नहीं पर हमने भी माहौल के अनुरूप अपने आप को ढाला। स्टेज पर पारंपरिक वादकों का स्थान तेलगु फिल्म संगीत ने ले लिया था। जो धुन बज रही थी वो तो अब सारे भारत में मशहूर है तो आप भी सुनिए ना..



चूंकि समय ज्यादा नहीं हुआ था इसलिए निर्णय लिया गया कि आज ही चारमीनार का रुख किया जाए और साथ ही वहाँ के मशहूर मोतियों के बाजार की सैर भी की जाए। चारमीनार यात्रा के विवरण के लिए इंतज़ार कीजिए इस श्रृंखला के अगले भाग का..
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