पिछले हफ्ते
चाँदीपुर के छिछले तट के बारे में अपने एक पुराने संस्मरण को याद करते हुए आपसे वादा किया कि अगली बार आप सब को ले चलेंगे एक ऍसे समुद्री तट की ओर जिस पर आपको लोग फुटबाल खेलते भी नज़र आ जाएँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पर इस तट के बारे में तो विस्तार से तब बात करेंगे जब वहाँ पहुँचेंगे। आज पढ़िए
राँची से खड़गपुर होते हुए
दीघा (Digha) तक पहुँचने की दास्तान...
बात सात साल पहले सन 2002 की है। जाड़े का समय था। दिसंबर का आखिरी हफ्ता चल रहा था। सप्ताहांत के साथ दो तीन दिन की छुट्टियाँ पड़ रही थी तो अचानक कार्यालय के चार सहकर्मियों के साथ बिना किसी पूर्व योजना के दीघा जाने का कार्यक्रम बन गया। वैसे राँची से दीघा जाना, वो भी परिवार के साथ थोड़ा पेचीदा है। या तो राँची से कोलकाता जाइए और वहाँ से बस से दीघा पहुँचिए (
वैसे अब तो हावड़ा से दीघा के लिए ट्रेन भी हो गई है जो साढ़े तीन चार घंटे में दीघा पहुँचा देती है) या फिर राँची से हावड़ा जाने वाली ट्रेन से खड़गपुर उतरिए और वहाँ से सड़क मार्ग से दीघा की ओर निकल लीजिए।
हमने दूसरा रास्ता चुना। रात में ट्रेन में बैठे और सुबह सवा चार बजे आँखे मलते हुए
खड़गपुर (Khadagpur) स्टेशन पर उतरे। वैसे तो खड़गपुर, IIT की वज़ह से मशहूर है ही। देश के पहले IIT के लिए इसी शहर को चुना गया था। पर IIT के आलावा इस जगह के बारे में एक और बात खास है और वो है इसका
रेलवे प्लेटफार्म। यहाँ का रेलवे प्लेटफार्म आज की तारीख़ में विश्व का सबसे लंबा प्लेटफार्म माना जाता है। इसकी कुल लंबाई 1 किमी से भी ज्यादा यानि 1072 मीटर है। वैसे शुरुआत में ये जब पहली बार बना तो इसकी लंबाई 716 मीटर थी जो बाद में बढ़ाकर पहले 833 और फिर 1072 मीटर कर दी गई।
चलिए अगर अभी भी आप इस स्टेशन के फैलाव को महसूस करने में दिक्कत हो रही हो तो नीचे के इन चित्रों को देखें। जो दो चित्र आप देख रहे हैं वो लगभग एक ही जगह से स्टेशन के दोनों सिरों को देखने का प्रयास है।

अब इतना लंबा प्लेटफार्म होने की वज़ह से एक ही प्लेटफार्म पर दो ट्रेने खड़ी हो जाती हैं यानि
एक के पीछे एक और अगर मुझे सही याद है तो शायद इसी वज़ह से यहाँ एक प्लेटफार्म के अगले और पिछले हिस्से का अलग अलग नामाकरण किया गया है।

खैर, ये तो रही स्टेशन की बात पर हमें तो अब आगे का सफ़र सड़क मार्ग से तय करना था। पर साढ़े चार बजे भोर में अनजान स्टेशन के बाहर निकलना हमने मुनासिब नहीं समझा। चालीस मिनट प्रतीक्षालय में बिताने के बाद हम बाहर बगल के बस स्टैंड की ओर निकले। देखा बस तो बहुत खड़ी हैं पर ना कोई यात्रियों की ही चहल पहल है और ना ही यात्रियों को अपनी ओर हाँकने वाले कंडक्टरों की। वैसे बस के आलावा वहाँ उस वक़्त ट्रैकर भी खड़े मिले पर बिना उनके चालकों के। इधर-उधर से पता चला कि आठ बजे से पहले ये ट्रेकर यहाँ से नहीं खिसकते अलबत्ता उसके पहले बस जरूर मिल सकती है।
सो दीघा जल्दी पहुँचने की गर्ज में घंटे भर इंतजार करने के बाद उधर जाने वाली पहली बस पर चढ़ लिए। कंडक्टर ने बताया तो उसे द्रुत गति की यानि फॉस्ट बस और सफ़र के पहले घंटे में तो उसकी चाल सही रही पर एक बार आबादी बहुल इलाके में पहुँचने की देर थी फिर तो वो पैसेन्जर से भी बदतर हो गई और हर दस पन्द्रह मिनट पर रुकती रही।
धान के हरे भरे खेत खलिहान छोटे छोटे गाँव, गाँव के घरों की दीवालों पर सीपीएम तो कहीं पंजे के बड़े निशान, (तब ममता दी की अलग पार्टी नहीं रही होगी) पोखरे में जगह जगह तैरती बतखें, कमल के फूलों की बहार और सड़क के किनारे नारियल के पेड़ों की कतार पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों का आम दृश्य है। जब तक बस की रफ्तार सही रहती है ये दृश्य मन को खूब भाते हैं। पर दिन चढ़ते ही खस्ता हाल सड़कों पर रुकती रेंगती बस में बाद में इन दृश्यों को देखने की इच्छा कमतर होती गई।

आजकल तो इस सफ़र का बड़ा हिस्सा
राष्ट्रीय राजपथ NH 60 राजपथ से होकर गुजरता है जो अब शायद फोर लेन हो गया है पर उस वक़्त सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी। खड़गपुर से दीघा करीब 115-120 किमी है । अगर राष्ट्रीय राजपथ NH 60 से होकर जाया जाए तो सबसे पहले आता है
नारायनगढ़ (Narayangarh) फिर हर पच्चीस तीस किमी के बाद
बेलदा (Belda), एगरा (Egra) और रामनगर (Ramnagar) कस्बे आते हैं। रामनगर से दीघा करीब 15 किमी दूरी पर है। क़ायदे से ये दूरी ढाई से तीन घंटे लगने चाहिए पर हमारी बस ने रुकते चलते साढे चार घंटे का समय ले लिया और हम करीब पौने ग्यारह बजे दीघा पहुँचे।
दिसंबर के महिने में दीघा बंगाल के स्थानीय पर्यटकों से भरा रहता है और हमने तो क्रिसमस के समय बिना किसी रिजर्वेशन के सपरिवार आने की हिमाकत की थी। ऊपर से यहाँ एक परिवार की जगह चार परिवार थे। तो एक साथ चार रूम मिलना बड़ा मुश्किल था। आठ दस होटलों की खाक़ छानने के बाद भी निराशा हाथ लगी। वैसे तो मैं कभी यात्रा में होटल बिचौलिए या दलाल की मदद से तय नहीं करता पर इस बार परिस्थिति ऍसी थी कि हमें वो भी करना पड़ा। दो सौ रुपये के रूम को चार सौ में बुक किया। रूम में घुसे तो पाया किसी में चादर नहीं तो किसी में तकिया नदारद और चार की जगह केवल तीन कमरे। ऊपर से जिसने बुक किया वो उस होटल का मालिक ना होकर वेटर निकला। मालिक ने आते ही रेट ५०० रुपये कर दिए। जम कर वाक युद्ध हुआ। इस बार चार परिवारों की फौज रहने का थोड़ा फ़ायदा हुआ। एक घंटे के अंदर मालिक ने चार रूम को सही हालत में देने की पेशकश की पर रेट में कोई कमी नहीं की। खैर हमारे पास भी ज्यादा विकल्प मौज़ूद नहीं थे और इस झगड़े में समय भी व्यर्थ हो रहा था तो नहाने के कपड़े ले कर हम सीधे समुद्र तट की ओर चल दिए..
दीघा में बिताए अगले दो दिन कैसे बीते इस का किस्सा बताएँगे इस सिलसिले की अगली कड़ी में..