शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

आइए चलें राँची के दुर्गा पूजा पंडालों की सैर पर.. भाग 1

राँची में इस वक़्त दुर्गा पूजा का जश्न जोरों पर है। वैसे पूजा की इस बेला में मौसम ने भी क्या खूब करवट ली है। अष्टमी के साथ ही बादलों की फौज राँची के आसमाँ में पूरी तरह काबिज़ हो गई है। बारिश भी ऐसी की अभी है और अभी नहीं है। पर ऊपर से गिरती इन ठंडी फुहारों का पूजा का आनंद उठाने वालों पर जरा सा भी असर नहीं पड़ा है। बारिश और धूप से आँखमिचौली के बीच मैंने भी दुर्गा पूजा पंडालों के बीच एक दिन और एक रात बिताई। दुर्गा पूजा के पंडालों (Puja Pandals of Ranchi ) में आपको पहले भी घुमाता रहा हूँ तो चलिए निकलते हैं आपको लेकर माता के दर्शन पर..

सुबह के साढ़े नौ बजे हैं। घर से साढ़े दस बजे निकलने का वक़्त तय है। पर दस बजे से ग्यारह बजे की बारिश हमारे कार्यक्रम को पैंतालिस मिनट आगे खिसका देती है। अपनी कॉलोनी से डिबडी चौक के फ्लाईओवर को क्रास करते ही अरगोड़ा और फिर हरमू का इलाका आ जाता है। अरगोड़ा दुर्गा पुजा पंडाल से ज्यादा रावण दहन के लिए जाना जाता है। इसलिए सबसे पहले हम जा पहुँचते हैं हरमू की पंचमंदिर पूजा समिति के पंडाल पर। वैसे जो राँची के नहीं हैं उन्हे बता दूँ कि इस इलाके का नाम हरमू नदी के नाम पर है जो अब अवैध निर्माणों की वज़ह से लगभग विलुप्तप्राय ही हो गई है। हमारे क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी हमारी कॉलोनी छोड़ अब इसी इलाके में बने अपने नए घर में रहते हैं।

पंडाल के करीब पहुँचे तो चटक रंगों से सुसज्जित पंडाल को देख कर मन रंगीन हो उठा। बोध गया के बौद्ध मंदिर से प्रेरित ये पंडाल सिर्फ बाहर से ही बौद्ध मठ की याद नहीं दिलाता।

अंदर माँ दुर्गा की प्रतिमा भी बौद्ध मूर्ति कला की झलक दिखलाती है।

हरमू रोड से रातू रोड के बीच के इलाके में राँची शहर के खासमखास पंडाल रहते हैं। पर इन सबमें मुझे हर साल सत्य अमर लोक पूजा समिति द्वारा रचित पंडाल सबसे ज्यादा आकर्षित करता है। कम जगह और कम बजट में ये लोग हर साल कलाकारी के कुछ ऐसे नायाब नमूने लाते हैं कि दाँतों तले उंगलियाँ दबाने को जी चाहता है। चार लाख की लागत पर बनाया गया इस साल का पंडाल फिरोज़ाबाद से लाई हुई चूड़ियों से बनाया गया है। पंडाल में दुर्गा माता को एक विजय रथ पर सवार हैं।


और रथ के वाहक हैं ये सफेद घोड़े...





रथ के पहिए बहुत कुछ कोणार्क के सूर्य मंदिर के चक्रों की याद दिलाते हैं।


पंडाल के अंदर और बाहर हर हिस्से में चूड़ियों को तोड़ तोड़ कर भांति भांति की मनोरम आकृतियाँ बनाई गई हैं। आयोजकों का कहना है कि करीब तीन लाख चूड़ियों से बनाए गए इस पंडाल की चूड़ियों का काली पूजा में फिर प्रयोग करेंगे।


बगल में ही गाड़ीखाना का पंडाल है जहाँ इस बार थर्मोकोल पर इस तरह डिजायन बनाए गए हैं मानो संगमरमर पत्थर के हों।

गाड़ीखाना से हमारी गाड़ी बढ़ती है राजस्थान चित्र मंडल के पंडाल की ओर। ये पंडाल राँची झील के किनारे काफी व्यस्त इलाके में बनाया जाता है। कम जगह होने की वज़ह से सत्य अमर लोक की तरह इस पंडाल के आयोजक कारीगरी के नए प्रयोगों को हमेशा से प्रोत्साहित करते रहे हैं। राजस्थान चित्र मंडल का इस साल का पंडाल नेट के कपड़े से और मूर्तियाँ जूट से बनाई गई हैं.

तो देखिए जूट से बनी दुर्गा जी का ये रूप...


राँची झील के दूसरी तरफ ओसीसी पूजा समिति का पहाड़नुमा ये पंडाल बच्चों को खूब भा रहा है।



दुर्गा माँ की प्रतिमा भी यहाँ निराली है।

आज के लिए तो बस इतना ही। कल आपको दर्शन कराएँगे राँची के सबसे बड़े पंडाल का और साथ में होगी बारिश से भीगी राँची की मध्यरात्रि में चमक दमक।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

चित्र पहेली 16 परिणाम : आइए देखें यूरोपीय शैली में बनाए गए अमर महल को...

पिछली पोस्ट में आपसे सवाल पूछा था एक महल के बारे में जो दिखता तो यूरोपीय शैली का था पर जिसे बनाया था एक भारतीय राजा ने। तो आइए जानते हैं इस महल का रहस्य। इस महल का नाम है अमर महलइसकी परिकल्पना कश्मीर के डोगरा राजा अमर सिंह ने एक फ्रांसिसी वास्तुविद् की सहायता से सन 1862 में की थी। पर ये महल बन पाया 1890 में जाकर।

चित्र छायाकार : अजित कार्तिक

महल को यूरोपीय हवेली की शक्ल देने के लिए जम्मू का एक पहाड़ी इलाका चुना गया। लाल बलुआपत्थर और लाल ईटों से बने इस महल के सामने तावी नदी घाटी का मनोरम दृश्य दिखता है। अपने समय में ये जम्मू की सबसे ऊँची इमारत मानी जाती थी।


चित्र सौजन्य

भले ही आपने अमर सिंह का नाम नहीं सुना हो पर उनके आज की कश्मीर समस्या की जड़ में उनके पुत्र राजा हरि सिंह थे। वही हरि सिंह जिन्होंने आज़ादी मिलने के बाद भी भारत या पाकिस्तान में अपनी रियासत का विलय ना कर स्वाधीन रहने की कोशिश की थी। हरि सिंह की पत्नी महारानी तारा देवी ने अपनी जिंदगी के अंतिम वर्ष इसी महल में बिताए। आज भी महारानी तारा देवी का कक्ष उसी हालत में रहने दिया गया है जिसमें वो रहती थीं। महाराज अमर सिंह के पोते कर्ण सिंह जी ने इस महल को 1975 में एक संग्रहालय में तब्दील कर दिया।
डोगरा राजाओं का स्वर्ण सिंहासन भी आज इस संग्रहालय के दरबार कक्ष की शोभा बढ़ा रहा है।


पर आज सिर्फ इसकी इस प्राचीन विरासत को देखने के लिए ही पर्यटक यहाँ नहीं आते हैं। इस संग्रहालय में डोगरा राजाओं के समय की काँगड़ा और पहाड़ी चित्रकला का अद्भुत संग्रह है। संग्रहालय में भारत के मशहूर चित्रकारों की चित्रकला प्रदर्शित करती कई कला दीर्घाएँ भी हैं। यही नहीं यहाँ महाराज कर्ण सिंह द्वारा पिछले पचास साल में संग्रहित भारतीय और विश्व के जाने माने लेखकों द्वारा लिखी गई बीस हजार से ज्यादा पुस्तकों का संकलन है।

पहेली का सही जवाब देने में सबसे पहले सफल हुए अन्तर सोहिल। वैस उनके बाद प्रकाश गोविंद भी सही उत्तर देने में सफल रहे। आप दोनों को हार्दिक बधाई और बाकी लोगों को अनुमान लगाने के लिए शुक्रिया। आशा है जम्मू के आस पास रहने वाले लोग जम्मू जाने पर इस महल का भी चक्कर लगा कर जरूर आएँगे।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

चित्र पहेली 16 : जब भारतीय राजा ने बनाया एक यूरोपीय शैली का महल !

अच्छा आज जिस इमारत के बारे में आपसे पूछने जा रहा हूँ उसे देखकर सिर्फ इतना बताइएगा कि क्या वो भारत के किसी कोने में बनी लगती है? अब मैंने ऐसा सवाल कर दिया है तो आप जरूर मान लेंगे कि ये हमारे देश में ही कहीं होगी। वैसे भी जिस भवन के अहाते में एम्बेसडर और मारुति ओमनी जैसी कारें खड़ी दिख जाएँ तो वो जगह भारत के आलावा और कहाँ हो सकती है? पर अनायास देखने में ये कोई यूरोपीय इमारत नहीं लगती आपको ?


आपको आज ये बताना है कि इस इमारत को किसने बनाया और ये कहाँ स्थित है? उत्तर तक पहुँचने के लिए संकेत हाज़िर हैं...


संकेत 1 :जिस राजा ने इस महल का निर्माण कार्य कराया उसके पुत्र ने भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी है।

संकेत 2 : ये भवन जिस नदी के किनारे बसा है उसके उफनते पानी ने इस साल भारी तबाही मचाई है।


संकेत 3 : ये स्थान दिल्ली से लगभग छः सौ किमी की दूरी पर है।।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

दीघा यात्रा समापन किश्त : वो अविस्मरणीय सुबह की सैर जो हमें ले गई बंगाल से उड़ीसा !

दिसंबर की किसी सुबह का ख्याल आते ही आपका मन में कड़कड़ाती ठंड की याद आना स्वाभाविक है जिसमें रजाई से बाहर ना निकलने का आलस्य भी समाहित रहता है। पर समुद्र के पास वैसी ठंड नहीं होती। पर ये भी नहीं कि आप सूर्य उगने के पहले उठें और बिना किसी ऊनी कपड़े के चलते बने। पंद्रह दिसंबर को हम सभी को वापस लौटना था और अभी तक मैंने सुबह का सूर्योदय नहीं देखा। फिर नए दीघा के आस पास के समुद्र तट में तफ़रीह की इच्छा भी जोर मार रही थी। नए दीघा से बाँयी ओर का रास्ता पुराने दीघा तक ले जाता है। पर ये रास्ता ना तो साफ है और ना ही शहरीकरण से अछूता। दाँयी ओर का रास्ता दीघा से बाहर को जाता है।

सुबह छः बजे उठ कर स्वेटर डाल हम उसी रास्ते पर निकल लिए। हम लोगों को पता नहीं था कि ये रास्ता हमें कहाँ ले जाएगा ? बच्चन की पंक्तियाँ याद आने लगीं
पूर्व चलने के बटोही
बाट की पहचान कर ले
हम दो थे इसलिए इन पंक्तियाँ को अनसुना करते हुए हम अपने अनजाने गन्तव्य की ओर बढ़ चले..

नए दीघा के समुद्र तट पर पहुँचे तो ऐसा लगा कि दीघा के सारे पर्यटक ही हमसे पहले उठ कर आ पहुँचे हों। लोगों की लंबी कतार सूर्य देव की प्रतीक्षा में आसमान की ओर अपलक निहार रही थी पर सूर्य महोदय बादलों के घर चाय पीने में तल्लीन थे। आखिर जाड़े के दिनों में आलस्य क्या सिर्फ मानव जाति तक ही सीमित रहता होगा? नए दीघा में भीड़ के साथ समुद्र तट भी उतना साफ नहीं रहता इसलिए हमलोग तट के समानांतर दीघा के बाहर जाने वाले रास्ते में आगे बढ़ गए।



कुछ ही देर में हमें मछुआरों की एक टोली मिली जो सुबह में पकड़ी गई मछलियों को अपने विक्रेताओ तक पहुँचाने में तल्लीन थी। कोई झोलों में मछलियाँ भर रहा था तो कोई प्लास्टिक की ट्रेज में। प्लास्टिक ट्रेज मोटरसाइकिल पर लाद कर विक्रेता फर्राटे से अपने ठिकानों पर जा रहे थे। ऍसी सुविधा बंगाल की खाड़ी से लगे बंगाल और उड़ीसा के तटों में ही देखने को मिलती है।



मछुआरों को छोड़ कर आगे बढे ही थे कि सूर्य देव के दर्शन हो गए।




हम लोगों ने बारी बारी से सूर्य को अपनी मुट्ठियों में क़ैद करने की कोशिश की। जो नतीजा आया वो सामने है।



अब समुद्र तट बिल्कुल सुनसान हो चला था। दाँयी ओर अचानक ही पेड़ों की कतार शुरु हो गई थी। इस सन्नाटे में एक मन हुआ कि वापस लौट चलें पर समुद्र तट की ये शांति अंदर ही अंदर मन को प्रफुल्लित भी कर रही थी। हम इसी उहापोह में थे कि दूर तट पर नाव की कतारें दिखाई पड़ीं। हम एक बार फिर मछुआरों की किसी बस्ती के पास पहुँच रहे थे। नावों के थोड़े और पास आने पर हमें सब जाना पहचाना लगने लगा।


अरे कल दिन में यहीं तो हम आए थे यानि हम पैदल चलते हुए उदयपुर के उस तट पर पहुँच चुके थे जहाँ मैंने बच्चों के साथ समुद्र में डुबकी लगाई थी। नए दीघा से पैदल चल कर उदयपुर के तट पर पहुँचने में हमें करीब पचास मिनट लगे थे।

अब और आगे बढ़ने से हम कहाँ पहुंचेगे ये उत्सुकता मन में जग चुकी थी। आगे बढ़ने का फैसला लेने में हमें तब आसानी हुई जब एक अधेड़ युगल को और आगे हमने टहलते जाते देखा। हमने वापस आठ बजे होटल तक पहुँचने का लक्ष्य रखा था इसलिए अपनी गति बढ़ा दी। करीब आधे घंटे हम समुद्र और किनारे के पेड़ों की कतारों के बीच के चौरस तट पर चलते रहे।

घड़ी अब सवा सात बजा रही थी और पेड़ों की कतारें आगे जाकर दाँयी ओर मुड़ती दिख रही थीं। हम लोगों ने सोचा कि इन मुड़ती कतारों के साथ हम भी वापस हो लेंगे क्यूँकि अब हमारे आगे पीछे दूर दूर तक कोई नहीं था। पर जैसे जैसे हम उस मोड़ के पास पहुँचे समुद्र से एक धारा हमारे रास्ते को काटती दिखाई दी।



हम दोनों खुशी से चिल्लाए कि ये तो तालसरी है यानि हम अब उड़ीसा की सीमा के अंदर थे। जिस नदी को हमने पार किया था वो समुद्र की उस धारा के पीछे दिख रही थी। यानि दस बारह किमी के रोड के रास्ते से पिछले दिन हम जिस तालसरी तक पहुँचे थे उसे पैदल हमने डेढ़ घंटे में ही निबटा दिया था।



तालसरी के पास समुद्र धाराओं के दो भागों में बँटने से उत्पन्न हुआ दृश्य बड़ा ही मनमोहक था। नदी की लाई मिट्टी और रेत के होने से वहाँ एक दुबला पतला पेड़ भी खड़ा हो गया था। तालसरी के मुहाने के कुछ दूर पहले से ही हम वापस लौटने लगे। लौटते समय जहाँ मेरा मित्र शंखों और सीपों को चुनने में व्यस्त हो गया वहीं मैंने समुद्र तट के किनारे चलने वाले उस विरल जंगल के बीच से अपनी राह बना ली।








नए दीघा तक जब हम वापस पहुँचे साढ़े आठ बजने को थे। तट पर भीड़ और बढ़ गई थी। घोड़े वाले घोड़ों को सुसज्जित कर घुमाने को तैयार थे।


हमारी अन्तर्राज्यीय मार्निंग वॉक समाप्त हो चुकी थी पर ये वाक़या मुझे वर्षों याद रहने वाला था।



दो घंटे बाद हम अपने समूह के सदस्यों को फिर उसी रास्ते पर ले गए। इस बार नहाने के लिए हमने उदयपुर और नए दीघा के बीच का समुद्र तट चुना। घंटे दो घंटे हम सभी ने एक बार फिर जम कर समुद्र में स्नान किया। ये स्नान हमारी दीघा यात्रा का पटाक्षेप भी था।

आशा है दीघा के इस सफ़र में आपको भी आनंद आया होगा। मेरी आपको यही सलाह है कि जब भी आप दीघा जाएँ नए दीघा से पुराने दीघा का समुद्र तट छोड़कर मंदारमणि, शंकरपुर उदयपुर के सुंदर और साफ समुद्र तटों पर स्नान करें। इससे यात्रा का आनंद और बढ़ जाएगा। इसी वज़ह से दीघा की हमारी ये दूसरी यात्रा पहली यात्रा की अपेक्षा ज्यादा आनंददायक रही।

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


  • हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
  • मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
  • दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब
  • आज करिए दीघा के बाजारों की सैर और वो भी इस अनोखी सवारी में...
  • तालसरी जहाँ पैदल पार की हमने नदी और चंदनेश्वर मंदिर
  • वो अविस्मरणीय सुबह की सैर जो हमें ले गई बंगाल से उड़ीसा
  • शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

    दीघा यात्रा : तालसरी जहाँ पैदल पार की हमने नदी और चंदनेश्वर मंदिर

    अब तक के यात्रा विवरण में मैंने आपको बताया कि किस तरह पहले दिन हमने की मंदारमणि और शंकरपुर की सैर और देखी शाम में दीघा के बाजारों की रौनक। दीघा का दूसरा दिन चंदनेश्वर मंदिर और तालसरी के लिए मुकर्रर था। दरअसल बंगाल की खाड़ी के उत्तरी सिरे में बसा दीघा, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा की सीमा से बहुत सटा है। इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि चंदनेश्वर मंदिर जो दीघा से मात्र आठ किमी की दूरी पर स्थित है उड़ीसा राज्य के अंदर आता है।

    चंदनेश्वर, भगवान शिव का मंदिर है। चैत माह के अंत में इस मंदिर में विशाल मेला लगता है। मेले के समय आस पास के राज्यों से ढेरों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। सुबह साढ़े दस के करीब जब हम मंदिर के प्रांगण में दाखिल हुए तो वहाँ अच्छी खासी चहल पहल थी। पंडे साथ लगने के लिए तैयार थे पर हमने उन्हें ज्यादा तवज़्जह नहीं दी। मुख्य मंदिर तो शिव का है पर साथ में कृष्ण लला और अन्य भगवनों के मंदिर भी हैं।

    सारी प्रतिमाओं के सामने शीश झुका कर हम बाहर निकल ही रहे थे कि एक मज़ेदार घटना घटी। हुआ यूँ कि भक्तों को सिर्फ भगवान शिव पर प्रसाद चढ़ाते देख उनकी सवारी कुपित हो गई और गुस्से के मारे आहाते में ही झूमती हुई इधर उधर जाने लगी। अब शिव के उस मंदिर में साँड़ को रोकने की हिम्मत किसे। सो लोग इधर उधर छिटककर उसे रास्ता देने लगे। अब साँड़ महोदय मुख्य मंदिर से सटे मंदिर की ओर उन्मुख हुए। वहाँ एक पंडित जी मंदिर से निकल कर सामने के सरोवर की ओर मुख कर प्रार्थना कर रहे थे। साँड़ उनके पास आ गया तो भी वे बेखबर पूजा में लीन रहे। साँड़ को ये बात अखर गई और उसने सामने की ओर झुके पंडित की धोती पर अपनें सींगों से एक करारा झटका दे दिया। बेचारे भगवन के दूत की इस अभद्रता के बावजूद किसी तरह सँभल गए तब तक साँड़ की ओर कुछ भोजन फेंक कर उसे प्रसन्न किया गया।

    चंदनेश्वर से हम तालसरी की ओर बढ़े। तालसरी, चंदनेश्वर से करीब तीन किमी पर स्थित समुद्र तट है। बालेश्वर और चाँदीपुर वाले रास्ते से ये करीब नब्बे किमी दूर है। यहाँ पर एक नदी समुद्र से आकर मिलती है इसीलिए शायद इस जगह का नाम तालसरी पड़ा। तालसरी के समुद्र तट पर मछुआरों की बस्ती है। जैसे ही आप तालसरी के समुद्र तट के पास पहुँचते हैं नदी के किनारे खड़ी नावों की कतारें और मछुआरों के जाल आपका स्वागत करते हैं।

    नदी में पानी बहुत ज्यादा नहीं था, फिर भी नाव से लोग नदी पार कर रहे थे। नदी में ज्वार के साथ पानी बढ़ता है पर दिन के पौने ग्यारह बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो लो टाइड (Low Tide) का वक़्त था। हम निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि नदी नाव से पार की जाए या पैदल। नदी का तट दूर से ही पंकिल नज़र आ रहा था जिसमें हमें फिसलने की पूरी संभावना दिख रही थी।

    फिर नदी का पानी कितना गहरा होगा ये भी नहीं पता लग पा रहा था। हमने सोच विचार में ही वक़्त गँवा दिया और उधर पानी का स्तर इतना कम हो गया कि नाव चलनी बंद हो गई। लिहाज़ा समुद्र तट तक पहुँचने के लिए हम अपनी अपनी चप्पलें हाथों में लेकर नंगे पाँव पैदल ही चल पड़े।

    आशा के विपरीत नदी का पाट पंकिल ना हो कर ठोस था। फिसलन से बचते बचाते जैसे ही नदी के शीतल जल से चरणों का स्पर्श हुआ, गर्मी से निढ़ाल पूरे शरीर की थकान एकदम से जाती रही। बच्चों को नदी के जल में छपा छईं करने में बेहद आनंद आया।

    नदी पार करते हुए ही हमें लाल केकड़ों के विशाल साम्राज्य के दर्शन हुए। दूर दूर तक जिधर भी नज़र जाती थी लाल केकड़े भारी संख्या में फैले नज़र आते थे। ऐसा लगता था मानों बालू की चादर लाल लाल फूलों से सजी हो। इनमें से कुछ केकड़ों के साथ हमने कैसे दौड़ लगाई ये विवरण तो आप पहले ही यहाँ पढ़ चुके हैं।

    शंकरपुर की तुलना में यहाँ केकड़ों का आकार और उनका घर भी अपेक्षाकृत बड़ा था। इनके बिल के चारों ओर गोलीनुमा भोज्य अवशेषों को देखकर मेरे मित्र की छोटी सी बिटिया बोल उठी "देखो क्रैब भी पूजा करने के लिए अपने घर के बाहर भगवान जी के लिए लड्डू बना कर रखा है।" भोलेपन में कही उसकी ये बात जब सबने सुनी तो ठहाकों का दौर काफी देर तक चला।

    लाल क्रैबों की दुनिया से निकलकर हम तालसरी के दूर तक फैले समतल समुद्र तट की ओर निकल लिए। दूर मछुआरों की दो नौकाएँ जाल में फँसी मछलियों के साथ तट पर लौटी थी। जाल को खींचने के लिए लोग कतार बाँध कर खड़े थे और आवाज़ें लगा रहे थे।
    नदी और समुद्र के मुहाने की एक खास बात थी, नदी के सूखे पाट पर पानी द्वारा बनाया गया सर्पीला घुमावदार पैटर्न, जो दूर तक फैला होने की वज़ह से और भी खूबसूरत लग रहा था। तालसरी से निकलने के पहले हमारे समूह ने एकत्रित होकर एक छवि खिंचवाई ताकि सनद रहे।

    तालसरी से हम लोग दीघा के उदयपुर के समुद्र तट पर गए। उदयपुर दरअसल मछुआरों का एक गाँव है और उसी गाँव के नाम पर इस समुद्र तट का नाम पड़ा है। समुद्रतट पर नाममात्र को सैलानी थे। मंदारमणि, शंकरपुर की तरह उदयपुर का समुद्र तट भी काफी चौरस और रमणीक है। तट पर दूर नावों की कतार दिख रही थी । दूर तक फैला हुआ तट एक साफ सुथरे मैदान की तरह दिख रहा था जिसके बीचो बीच प्लास्टिक की चादर ताने चाय बिस्कुट की दुकान ही दोपहर की निस्तब्धता को तोड़ रही थी।

    तालसरी में बच्चे पानी में नहीं उतरे थे। पर यहाँ उनसे सब्र कर पाना मुश्किल था। बच्चों को समुद्र में जाते देख मुझे भी जोश आ गया और मैंने भी उनके साथ समुद्र में डुबकी मार ली।


    दीघा की अगली सुबह भी एक यादगार सुबह थी क्यूँकि जहाँ तक हम लोग दूसरे दिन गाड़ी से दस बारह किमी चल कर पहुँचे थे वहाँ तक समुद्र तट के किनारे- किनारे चलकर करीब एक घंटे में पैदल पहुँच गए। कैसी रही हमारी भोर की वो यात्रा ये बताएँगे आप को अपनी दीघा यात्रा की समापन किश्त में...

    इस श्रृंखला में अब तक


  • हटिया से खड़गपुर और फिर दीघा तक का सफ़र
  • मंदारमणि और शंकरपुर का समुद्र तट जहाँ तट पर दीड़ती हैं गाड़ियाँ
  • दीघा के राजकुमार लाल केकड़े यानि रेड क्रैब
  • आज करिए दीघा के बाजारों की सैर और वो भी इस अनोखी सवारी में...