गुरुवार, 22 मार्च 2012

चित्र पहेली 20 : क्या आप इस झील में डुबकी लगाना चाहेंगे ?

चलिए आज राजस्थान की सैर से थोड़ा विराम लेते हैं और दिखाते हैं आपको ऐसा नज़ारा जिसे देखकर आप एकबारगी ठिठक जरूर जाएँगे ? दरअसल संसार में ईश्वर की दी हुई ये प्रकृति इतने विविध रूप रंगों में मौजूद है कि जितना भी इसे खँगाला जाए ये हमें उतना ही विस्मित करती चलती है।

झीलें तो आपने कई देखी होंगी और बहुतों में नौका विहार का भी आनंद उठाया होगा। पर इस झील में नौकाएँ नहीं चलती। और इसके आस पास की हरियाली देखकर कहीं मन इसमें डुबकी लगाने का कर गया तब तो भगवान ही मालिक है आपका। इस झील का ठीक ठीक तो पता नहीं पर ये और इसके पास की ऍसी झीलों की गहराई दो सौ मीटर से एक किमी तक है जनाब।
 
(चित्र के छायाकार का नाम उत्तर के साथ बताया जाएगा )

चित्र तो देख लिया आपने क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि ये नज़ारा किस देश का है और इस तरह की झील बनी कैसे होगी ? प्रश्न को थोड़ा आसान बनाने के लिए एक संकेत हाज़िर है। वो ये कि ये देश अपने एक तानाशाह की वज़ह से वर्षों तक सुर्खियों में रहा था।

तो देखें किसका तीर सबसे पहले निशाने पर लगता है। हमेशा की तरह आपके जवाब माडरेशन में रखें जाएँगे।

गुरुवार, 15 मार्च 2012

रंगीलो राजस्थान : आख़िर क्या ख़ास है रणकपुर (राणकपुर) के जैन मंदिरों में ?

आज आपको ले चल रहा हूँ रणकपुर के जैन मंदिरों के दर्शन के लिए। वैसे अंग्रेजी का Ranakpur, हिंदी में कैसे लिखा जाए इस पर मेरा संशय इस यात्रा के इतने दिनों बाद भी ज्यों का त्यों हैं। मील के पत्थरों पर, मंदिर में घुसने के पूर्व लगने वाले टिकट पर और बाद में अंतरजाल के विभिन्न जाल पृष्ठों पर मैंने रनकपुर, रणकपुर और राणकपुर तीनों नाम देखे हैं। इनमें सबसे प्रचलित नाम कौन सा है ये तो मेरे राजस्थानी मित्र बता पाएँगे। बहरहाल मैंने कहीं पढ़ा था कि है कि चूंकि ये मंदिर राणा कुंभ के शासनकाल में उनकी दी गई ज़मीन पर बनाया गया इसलिए इसका नाम राणकपुर पड़ा ।

बाल दिवस यानि चौदह नवंबर  को कुंभलगढ़ पर की गई चढ़ाई ने हमें वैसे ही थका दिया था। फिर खाली पेट पहाड़ी रास्तों के गढ़्ढ़ों को बचते बचाते हुए 50 किमी का सफ़र हमने कैसे काटा होगा वो आप भली भांति समझ सकते हैं। पर दो बातें हमारी इस दुर्गम यात्रा के लिए अनुकूल साबित हुईं। एक तो बरसात के बाद मंद मंद बहती ठंडी हवा और दूसरे हर दो तीन किमी पर हाथ से गाड़ी रुकवाता बच्चों का झुंड। जैसे ही हमारी गाड़ी धीमी होती ढेर सारे बच्चे छोटी छोटी टोकरियों में शरीफा लिए दौड़े चले आते। दाम भी कितना..पाँच रुपये में बारह शरीफे ! ना ना करते हुए भी बच्चों के अनुरोध को हम टाल ना सके। शरीफों की बिक्री के इस तरीके से हमें अगले दिन माउंट आबू जाते हुए भी दो चार होना पड़ा।

सोमवार, 5 मार्च 2012

रंगीलो राजस्थान : अरावली की पहाड़ियों में बसा कुंभलगढ़ !

कुंभलगढ़ के इतिहास के बारे में तो आप पिछली पोस्ट में जान चुके। आइए आज आपको दिखाते हैं किले के विभिन्न हिस्सों से ली गयीं इस इलाके की कुछ और तसवीरें..

 कुंभलगढ़ की ये विशाल दीवारें सबसे पहले पर्यटक का ध्यान खींचती हैं।


पूरे राजस्थान में हमने किले तो कई देखे पर किले के अंदर फूलों की खूबसूरती को कैमरे में क़ैद करने का मौका सिर्फ कुंभलगढ़ में मिला।



रविवार, 26 फ़रवरी 2012

रंगीलो राजस्थान : मेवाड़ राजाओं की शरणस्थली कुंभलगढ़ !

राजस्थान जाने के पहले ही कुंभलगढ़ के बारे में पढ़ा था कि यही वो किला है जिसकी एक ओर मारवाड़ और दूसरी ओर मेवाड़ की सीमाएँ लगती थीं। राजस्थान के अन्य किलों की अपेक्षा कुंभलगढ़ का आबादी से अलग थलग दुर्गम घाटियों के बीच बसा होना मुझमें इसके प्रति ज्यादा उत्सुकता पैदा कर गया था। यही वज़ह थी कि अपने कार्यक्रम में नाथद्वारा और हल्दीघाटी को ना रख मैंने उदयपुर प्रवास के तीसरे दिन कुंभलगढ़ किले और पास बने रनकपुर के मंदिरों को देखने का कार्यक्रम बनाया था।

हम लोग सुबह के साढ़े नौ बजे सड़क के किनारे ठेलों पर बनते गरमा गरम आलू के पराठों का भोग लगाकर कुंभलगढ़ की ओर चल पड़े । यूँ तो कुंभलगढ़, उदयपुर से करीब अस्सी किमी की दूरी पर है पर अंतिम के एक तिहाई घुमाबदार पहाड़ी रास्तों की वज़ह से यहाँ पहुँचने में दो ढाई घंटे लग ही जाते हैं। उदयपुर से निकलते ही अरावली की पहाड़ियाँ शुरु हो जाती हैं। रास्ते में दिखती हरियाली, कलकल बहती पहाड़ी नदी पश्चिमी राजस्थान की शुष्क जलवायु के ठीक विपरीत छटा बिखेर रही थी। 

बुधवार, 18 जनवरी 2012

रंगीलो राजस्थान चित्तौड़गढ़ : जयमल का शौर्य और पद्मिनी की त्रासदी !

राजस्थान से जुड़े पिछले आलेख में मैं आपको चित्तौड़गढ़ के किले की यात्रा पर ले गया था। मीरा की भक्ति और राणा कुंभ की शौर्य गाथाएँ तो आपने पढ़ लीं। पर कुंभ और मीरा के एक शताब्दी पहले इस गढ़ में एक और महागाथा का सृजन हो रहा था ..

बात चौदहवीं शताब्दी की है। दिल्ली का सुल्तान तब अलाउद्दीन खिलजी हुआ करता था। सन 1303 में अलाउद्दिन ने किले के चारों ओर फैले  मैदान में अपनी सेनाओं के साथ धावा बोल दिया। पहाड़ी पर बसे चित्तौड़गढ़ को उस समय तक अभेद्य दुर्ग माना जाता था। कहते हैं कि अलाउद्दीन के आक्रमण का मुख्य उद्देश्य राणा रतन सिंह की खूबसूरत पत्नी महारानी पद्मिनी को हासिल करना था। राणा ने युद्ध को टालने के लिए अलाउद्दीन खिलजी को रानी की झलक दिखलाने का प्रस्ताव मान भी लिया। रानी उस वक़्त अपने तिमंजले जल महल में रहा करती थीं।

रानी के महल के ठीक सामने की इमारत में अलग अलग कोणों पर शीशे लगवाए गए। शीशों का कोण ऐसा रखा गया कि शीशे में महल की सीढ़ियों पर बैठी रानी का चेहरा दिख सके पर अगर सुलतान पीछे पलटे तो भी रानी ना दिखाई पड़े।