गुरुवार, 20 मई 2010

सारनाथ यात्राः क्या कहता है इतिहास यहाँ के धमेख व धर्मराजिका स्तूपों के बारे में ?

अब तक की वाराणसी यात्रा में जिक्र हो चुका है बनारस के कुछ मंदिरों कासारनाथ के नए मूलगंध कुटि विहार और उससे सटे बोधिवृक्ष का। जैसा कि मैंने बताया था कि ये जगहें बहुत बाद में अस्तित्व में आयीं। फिर सारनाथ की ऐतिहासिक धरोहरें कौन सी है? आज की तारीख में सारनाथ पहुँचते ही जो सबसे बड़ी ऐतिहासिक इमारत दिखाई देती है वो है धमेख स्तूप (Dhamek Stupa)। यूँ तो मूलगंध कुटि विहार की बगल में उत्तर दिशा की ओर ये स्तूप अवस्थित है पर दोनों परिसरों की अलग अलग घेराबंदी की वज़ह से आपको स्तूप तक पहुँचने के लिए मूलगंध कुटि विहार से बाहर निकलना पड़ता है।

कुटिविहार के आगे बढ़ते ही सड़क पर स्तूप की दिशा में उठती सीढ़ियां दिखाई देती हैं। हम गलती से उस ओर चल पड़े। ऊपर चढ़ने पर पता चला कि स्तूप के ठीक बगल में बना ये परिसर एक जैन मंदिर है जो ग्याहरवें जैन तीर्थंकर श्रेयसनाथ को समर्पित हैं। इस परिसर के ठीक आगे से धमेख स्तूप का रास्ता है। उस रास्ते पर थोड़ा आगे बढ़ने पर इसी मंदिर का पिछला हिस्सा दिखता है। दो विशाल हरे पेड़ों के बीच पीले रंग से रँगा मंदिर अनूठा दृश्य उपस्थित करता है।



रास्ते की बाँयी तरफ एक विशाल क्षेत्र में ऐतिहासिक बौद्ध इमारतों के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। नीचे चित्र को अगर ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि इस पूरे इलाके में धमेख स्तूप के आलावा अशोक स्तंभ, धर्मराजिका स्तूप के अवशेष, बौद्ध विहार और भिक्षुओं के ध्यान करने की जगहें बनी हैं। मेंने उड़ीसा में हाल में कई बौद्ध धार्मिक स्थलों को देखा है। ध्यान करने के लिए बनाए गए जमीन से थोड़े उठे ईंट के इन गोलाकार या आयताकार चबूतरों की रूप रेखा करीब एक सी है। जिने बौद्ध इतिहास में रुचि हो उन्हें इस क्षेत्र का भ्रमण करते वक़्त एक गाइड अवश्य रखना चाहिए।



सारनाथ में फिलहाल धर्मराजिका स्तूप (Dharmarajika Stupa) की अब सिर्फ नींव ही दिखती है। इस स्तूप के इन हालातों की भी एक दुखद कथा है। कहते हैं सम्राट अशोक ने अपने ज़माने से पहले बने बौद्ध स्तूपों को खुलवाकर बौद्ध धर्मग्रंथों को एकत्रित किया था और फिर अपने द्वारा विश्व के कई भागों में बनाए हजारों स्तूपों में बाँट दिया था। धर्मराजिका स्तूप भी उनमें से एक था। शुरुआत में इस स्तूप का व्यास 13.49 मीटर था । कालांतर में छः बार इसके स्वरूप में परिवर्तन किए गए जिसमें इसके चारों ओर का परिक्रमा पथ और चारों दिशाओं से इसकी छत पर ले जाने वाली सीढ़ियाँ प्रमुख थीं। पर 1794 में जब बनारस पर राजा चेत सिंह का शासन चल रहा था, उनके एक दीवान जगतसिंह ने इस इमारत में लगी ईंटों के निर्माण सामाग्री के रूप में इस्तेमाल करने के लिए, इस स्तूप को तुड़वा दिया। टूटे स्तूप के अंदर से पत्थर के बक्से में हरे रंग के संगमरमर पर खुदे बौद्ध अभिलेख मिले। दुर्भाग्यवश संगमरमर के उस टुकड़े को गंगा में प्रवाहित कर दिया गया। आज भी पत्थर का वो बक्सा कलकत्ता के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है।



धर्मराजिका स्तूप के भग्नावशेषों से जैसे ही हम धमेख स्तूप की ओर बढ़े, पूरा वातावरण शांत और भक्तिमय हो गया। देश विदेश से आए श्रद्धालु अलग अलग तरीकों से भगवान बुद्ध के ध्यान में जुटे थे।

कुछ तो एकांत में शांति से भगवान को याद कर रहे थे तो कुछ हाथों में फूल लिए बौद्ध भिक्षुओं के धर्मपाठ की पुनरावृति कर रहे थे।


ये सब देखते देखते हम धमेख स्तूप के बिल्कुल करीब पहुँच गए। धमेख इसका आधुनिक नाम है। प्राचीन काल में इसी स्थान विशेष पर गौतम बुद्ध द्वारा उपदेश दिए जाने की वज़ह से इस स्तूप का नाम धर्म चक्र स्तूप पड़ गया। ये स्तूप देखने में काफी विशाल है। इसका व्यास 28.5 मीटर और ऊँचाई 33.35 मीटर है और अगर इसमें जमीन के नीचे तक गए इसके आधार का हिस्सा जोड़ दें तो इसकी ऊँचाई 42.6 मीटर हो जाती है। लगभग ग्यारह मीटर ऊँचाई तक तो इसकी बाहरी दीवार पत्थर की बनी प्रतीत होती है पर उसके ऊपर का हिस्सा ईंटों की बेलनाकार संरचना के रूप में ऊपर उठता दिखाई देता है। नीचे थोड़ी थोड़ी दूर पर जो चौखटनुमा खाने दिख रहे हैं, वहाँ कभी बुद्ध की प्रतिमाएँ रही होंगी ऐसा इतिहासकारों का अनुमान है। वैसे भी ये पूरा इलाका तुर्की मुस्लिम शासकों के आक्रमण का दंश झेल चुका है। अशोक स्तंभ भी ऐसे ही एक आक्रमण में तोड़ डाला गया और अब उसका शीर्ष पास में ही बने संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा है।


इतना तो तय है कि हमारे शासक अपने इतिहास को संरक्षित रखने में जितने उदासीन रहे, उससे ठीक उलट हम पर शासन करने वाले अँग्रेजों ने हमारा इतिहास जानने में खासी दिलचस्पी ली। सारनाथ का धमेख स्तूप इसका जीता जागता उदहारण है। अंग्रेज इतिहासकार अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस स्तूप के अंदर रखे गए अभिलेखों के बारे में जानने के लिए शिखर के मध्य से लम्बवत खुदाई करवाई। मात्र 91.4 सेमी नीचे ही उन्हें ब्राह्मी लिपि में लिखा सातवीं सदी का अभिलेख मिला जिस पर लिखा था 'ये धम्मा हेतु प्रभावा हेतु'। इसके भी काफी नीचे मौर्य कालीन अभिलेख मिले। अभी ये स्तूप जिस स्वरूप में है उसके शिल्प से लगता है कि इसे गुप्तकाल में बनाया गया होगा।

स्तूप का गोलाकार चक्कर लेते समय कुछ लोगों को मैंने जलती मोमबत्तियों को कपड़े में बाँध कर स्तूप के ग्यारह मीटर से ऊपर के ईंट से बने हिस्से में फेंकता पाया। शायद बौद्ध या स्थानीय मान्यताओं में ऍसा करना शुभ माना जाता हो।

धमेख स्तूप का दर्शन करने के बाद हम यहाँ के संग्रहालय की ओर बढ़े। अब सारनाथ आकर अपने राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ के शीर्ष को कौन पास से देखना नहीं चाहेगा? बलुआ पत्थर से बना ये शीर्षक संग्रहालय में प्रवेश करते ही दिख जाता है। पूरा संग्रहालय कई दीर्घाओं में बँटा है। हर दीर्घा में क्या है, इसकी जानकारी आप टचस्क्रीन कंप्यूटर से जान सकते हैं। बुद्ध की एक सुंदर मूर्ति के समक्ष जब पीछे से बुद्धम् शरणम गच्छामि का आडिओ सुनाई देता है तो मन अपने आप एक अज़ीब सी शांति से भर उठता है।

इसी शांति को बटोरे हुए हम वापस शाम को बनारस की ओर चल पड़े। अगर ऍतिहासिक स्थलों में आप रुचि रखते हों और शांत भक्तिमय वातावरण आपको आनंदित करता हो, तो बनारस आते वक़्त सारनाथ अवश्य जाएँ। आशा है बनारस और सारनाथ का ये यात्रा वृतांत आपको पसंद आया होगा। अपनी राय से जरूर अवगत कराएँ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. ये चीजें कभी छठी सातवी की किताबों में पढी थीं। लेकिन आज के समय में मैं इन्हे भूल गया था। आपने एक बार फिर से याद दिलाया तो मन करने लगा है जाने का।

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  2. यात्रा दर्शन के लिए आभार

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  3. सारनाथ देखे एक अरसा हो गया है । करीब २६-२७ साल पहले देखा था उसके बाद से वहां जाना हुआ ही नहीं।

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  4. आपने तो खूब गौर से देखा !

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  5. बहुत पहले गये थे सारनाथ. आपका संस्मरण पढ़कर फिर जाने का मन है. बहुत बढ़िया.

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  6. बहुत अच्छी जानकारी... इतना डिटेल तो मुझे नहीं पता था. पर कई बातें याद आई.

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