शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

मेरी राजस्थान यात्रा : कैसा है जैसलमेर का थार मरुस्थल ? Thar Desert of Jaisalmer

जीवन में प्रकृति के जिस रूप को आप नहीं देख पाते उसे देखने की हसरत हमेशा रहती है। यही वज़ह है कि जो लोग दक्षिण भारत में रहते हैं उनके लिए हिमालय का प्रथम दर्शन दिव्य दर्शन से कम नहीं होता। वहीं उत्तर भारतीयों की यही दशा पहली बार समुद्र देखने पर होती है। पूर्वी भारत के जिस हिस्से में मैं रहता हूँ वहाँ से समुद्र ज्यादा दूर नहीं और गिरिराज हिमालय की चोटियाँ तो कश्मीर से अरुणाचल तक फैली ही हैं यानि जहाँ से चाहो वहाँ से देख लो। सो पहली बार बचपन में मैंने समुद्र पुरी में देखा और हिमालय के सबसे करीब से दर्शन नेपाल जाकर किए।

पर रेगिस्तान पिताजी हमें दिखा ना सके और मरूभूमि को पास से महसूस करने की ललक दिल में रह रह कर सर उठाती रही। इसीलिए जब राजस्थान यात्रा का कार्यक्रम बना तो राजस्थान के उत्तर पश्चिमी भाग में थार मरुस्थल ( Thar Desert ) के बीचो बीच बसा शहर जैसलमेर मेरी प्राथमिकता में पहले स्थान पर था। उदयपुर से अपनी राजस्थान यात्रा आरंभ करने के बाद हम चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, माउंट आबूजोधपुर होते हुए जैसलमेर पहुँचे। 

जैसलमेर जोधपुर से तकरीबन तीन सौ किमी दूर है पर अच्छी सड़क और कम यातायात होने की वज़ह से ये दूरी  साढ़े चार घंटे में तय हो जाती है। सुबह साढ़े आठ बजे तक हम जोधपुर शहर से बाहर निकल चुके थे। सफ़र के दौरान ज्यादातर एक सीधी लकीर में चलती सड़क के दोनों ओर बबूल के पेड़ की दूर तक फैली पंक्तियाँ ही नज़र आती थीं। यदा कदा रास्ते में किसी गाँव की ओर जाती पगडंडी दिख जाती थी। थोड़ी ही दूरी तय करने के बाद हमें इस सूबे में जनसंख्या की विरलता समझ आ गयी। वैसे भी पानी को तरसती इस बलुई ज़मीन (जिस पर छोटी छोटी झाड़ियों और बबूल के पेड़ के आलावा कुछ और उगता नहीं दिखाई देता) पर आबादी हो भी तो कैसे ? 

प्रश्न ये उठता है कि इतनी कठोर जलवायु होने के बावज़ूद प्राचीन काल में ये शहर धन धान्य से परिपूर्ण कैसे हुआ? इस सवाल के जवाब तक पहुँचने के लिए हमें जैसलमेर के इतिहास में झाँकना होगा। रावल जैसल ने 1156 ई. में जैसलमेर किले की नींव रखी। उस ज़माने में जैसलमेर भारत से मध्य एशिया को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग का अहम हिस्सा था। ऊँटों पर सामान से लदे लंबे लंबे कारवाँ जब इस शहर में ठहरते तो यहाँ के शासक उनसे कर की वसूली किया करते थे। जैसलमेर भाटी राजपूतों की सत्ता का मुख्य केंद्र हुआ करता था। भाटी शासकों ने व्यापार से धन तो कमाया ही साथ ही साथ वो जब तब राठौड़, खिलजी और तुगलक वंश के शासकों से उलझते भी रहे। मुंबई में बंदरगाह बनने के बाद से जैसलमेर से होने वाले व्यापार में भारी कमी आयी और उसके बाद ये शहर कभी अपने पुराने वैभव को पा ना सका।

जोधपुर से पोखरन की दूरी हमने ढाई घंटे में पूरी कर ली थी। पोखरन को थोड़ा पीछे छोड़ा ही था कि अचानक हमारी नज़र ज़मीन के एक बड़े टुकड़े में फैले इन पीले रंग के फलों पे पड़ी। दिखने में स्वस्थ इन फलों को यूँ फेंका देख मैंने गाड़ी रुकवाई और वहाँ मौजूद ग्रामीणों से इसका कारण पूछा। हमें बताया गया कि ये फल जंगली हैं और खाने पर नुकसान करते हैं। मन ही मन अफ़सोस हुआ कि इस बंजर ज़मीन में इतने शोख़ रंग का फल पैदा होता है पर उसे भी खा नहीं सकते।


दिन के एक बजे तक हम जैसलमेर पहुँच चुके थे। हजार रुपये में जैसलमेर के सोनार किले के बाहर साफ सुथरा कमरा मिल गया। भोजन के मामले में जैसलमेर जोधपुर के मामले बेहद मँहगा है और ये अपेक्षित भी है क्यूँकि इस रेगिस्तानी इलाके में ज्वार, बाजरे के आलावा कुछ उपजता भी तो नहीं। जैसलमेर की पहली शाम  रेगिस्तान के मध्य में बीतने वाली थी। इसलिए भोजन के बाद थोड़ा आराम करने के बाद हम खूरी के बलुई टीलों को देखने के लिए निकल पड़े। ये बता दूँ कि जैसलमेर में ज्यादातर पर्यटक साम के टीलों को देखने जाते हैं। वैसे साम हो या खूरी दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है और कमोबेश दोनों जगहों से एक से प्राकृतिक दृश्य नज़र आते हैं।

खूरी के बलुई टीलों की दूरी जैसलमेर से चालीस किमी की है। जब मैं खूरी के पास पहुँच रहा था तो पास की झाड़ियों में कुलाँचे मारते यहाँ के मशहूर ब्लैक बक (Black Buck of Jaisalmer) के दर्शन हुए और अचानक ही सलमान खाँ याद आ गए। हुजूर इतने प्यारे जानवर का शिकार करने की वज़ह से अपने मित्रों के साथ अभी तक जोधपुर कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं। वैसे ब्लैक बक की सबसे बड़ी पहचान उसके ऊपरी और निचले हिस्से का अलग रंग का होना है। बड़े नर व्लैक बक का ऊपरी हिस्सा भूरा और काला होता है जबकि युवा और मादा ब्लैक बक हल्के भूरे रंग के होते हैं। पर जहाँ तक इनके शरीर का निचले  हिस्से की बात हो तो वो चाहे नर हो या मादा उसका रंग एकदम सफेद होता है।


दिन के साढ़े तीन बजे ही हम वहाँ पहुँच चुके थे। जैसलमेर में रेगिस्तान में रात गुजारने के लिए एक टेंट बना कर रखते हैं जिसमें वो सारी सुविधाएँ होती हैं जिसकी उम्मीद आप किसी होटल से रखते हों। पूरे पैकेज में रेगिस्तान में ऊँट की सवारी के आलावा रात भर रहना, खाना और सांस्कृतिक कार्यक्रम सम्मिलित रहता है। सीजन के हिसाब से इसके लिए एक मोटी रकम चुकानी पड़ती है और उसमें भी मोल भाव की पूरी गुंजाइश रहती है। वैसे क्या आप नहीं देखना चाहेंगे कि तंबू के अंदर का दृश्य कैसा दिखता है?


लगभग साढ़े चार बजे हमारा समूह दो ऊँटो पर सवार हुआ। मेरे लिए ये पहली बार था जब मैं ऊँट की सवारी कर रहा था। अब जिस तरह चलते समय ऊँट की कूबड़ ऊपर नीचे जाती है वो बहुत आरामदायक तो नहीं रहती। कुछ दूर चलने के बाद मुझे कुछ असुविधा महसूस हुई और फिर मैंने रेगिस्तान में पैदल चलने का ही निश्चय किया। थार के इस रेगिस्तानी इलाके के बारे में मेरी कल्पना ये थी कि जिस तरह समंदर में दूर दूर तक पानी के आलावा कुछ नहींं दिखता वैसे ही रेगिस्तान में चारों ओर रेत ही दिखती होगी। पर वास्तव में इस इलाके में ऐसा नहीं है


बलुई टीलों के पार्श्व में आप बबूल के पेड़ और छोटी छोटी झाड़ियाँ भी देख सकते हैं। वैसे जब यहाँ फिल्मों की शूटिंग होती है तो कैमरे का कोण कुछ यूँ घुमा देते हैं कि आपको रेत के आलावा कुछ और नहीं दिखता।


वैसे रेत की सुनहरी चादर के बीच अपने आप को पाकर हम सभी प्रफुल्लित महसूस कर रहे थे। मेरे पिताजी तो इतने रोमांचित थे कि उन्होंने रेत पर ही बैठकर चिंतन ध्यान शुरु कर दिया । ऊँचाई तक फैली रेत जिसे दूर से देखने पर ऐसा लगे मानो हम किसी पर्वत की ढलान पर हों। बलुई पर्वतों के शिखर पर चलता ऊँटों का काफिला और चारों ओर गहन शांति ! क्या ऐसे पल हमें प्रकृति से एकाकार होने पर विवश नहीं करते?  राजस्थान की स्मृतियों में ये छवि मेरी स्मृति में हमेशा रहती है।


जमी हुई रेत पर दौड़ने और सूखी रेत पर  धँसते जूतों को बाहर निकाल हम रेत के इन टीलों पर हम तब तक चढ़ते उतरते रहे जब चंद्रमा ने आकाश में अपनी दस्तक नहीं दे दी।


सूर्यास्त के बाद छः बजते बजते हम वापस लौट गए।

शाम में सांस्कृतिक कार्यक्रम जब शुरु हुआ तो ठंड भी लगने लगी। राजस्थानी लोकगीतों की मिठास और पारंपरिक नृत्यों से समय यूँ ही बीत गया। रात्रि भोजन के बाद हम वापस जैसलमेर लौट आए।


अगली सुबह हमें जल्द ही उठना था क्यूँकि सोनार किले पर पड़ने वाली सूर्य की पहली किरण को मैं अपने क़ैमरे में क़ैद करना चाहता था। क्या मेरी ये अभिलाषा पूरी हो सकी जानिएगा इस श्रंखला की अगली कड़ी में...
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18 टिप्‍पणियां:

  1. हम इस साल का आखिरी दिन जैसलमेर में बिताने वाले हैं इसलिए फेसबुक पर आपका लिंक मुझे यहां खींच लाया। जोधपुर के बारे में भी कुछ बताइएगा जिससे हमें मदद मिले। हम एक दिन जोधपुर और दो दिन जैसलमेर में हैं।

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    1. दीपिका अपनी जोधपुर यात्रा के बारे में विस्तार से पहले ही लिख चुका हूँ। कृपया नीचे के लिंक पर जाएँ
      मेरी जोधपुर यात्रा़

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    2. Thank you for spending this day with us and letting us show all the beauty of the dessert. We will gladly wait for you again. We hope you guys enjoyed and we are looking forward to see you again soon.
      Thanks visit in khuri and
      Khuri resort
      Resort owner puspender singh 7023944482

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    1. जानकर खुशी हुई कि यात्रा विवरण आपने पसंद किया !

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  3. Wow...!!! Wish I could have touched this land....!!!!

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  4. अनन्त के विस्तार का अनुभव होता है यहाँ।

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    1. शु्क्रिया भावना चित्रों को पसंद करने के लिए।

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  6. aapke blog ka intzaar rahta hai, kabhi chalege hum va aap sath.

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    1. जानकर खुशी हुई। आगे भी अपनी राय यहाँ रखते रहें।

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  7. यहाँ के ठंड मौसम में रहकर आप की रेगिस्तान की खूबसूरत यात्रा – वर्णन पढकर तो लगा मरुभूमि में ओसिस(oasis) मिल गयी।आभार॥

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    1. इतने प्यारे शब्दों में तारीफ़ करने के लिए शुक्रिया !

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  8. Thanks for very informative blog. we am planning to go on 28 dec 13 with our 2 kids and will return in eve next day. Please suggest where should i stay - Jaisalmer City or Cottages at Sand Dunes.
    Thanks

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    1. आपने ये नहीं बताया कि आप जैसलमेर किस समय पहुँच रहे हैं। अगर आप सुबह पहुँच रहे हैं तो दिन में पटवा की हवेली और जैसलमेर किले को देखते हुए शाम चार बजे तक सैम या खूरी के पास के रेगिस्तान को देखने जा सकते हैं। दो दिन के सीमित कार्यक्रम में अगर आप जैसलमेर शहर में रहें तो ना केवल वो सस्ता पड़ेगा बल्कि दूसरे दिन शाम के पहले तक आप शहर के अन्य आकर्षणों गडेसर झील , बड़ा बाग, जैन मंदिर आदि को भी देख सकेंगे।

      वैसे इन सारी जगहों के बारे में मैं मुसाफ़िर हूँ यारों की अगली कुछ पोस्टों में विस्तार से लिखूँगा ताकि आप अपनी पसंद के हिसाब से अपने समय का सदुपयोग कर सकें।

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