मानसून के समय में भारत के खेत खलिहानों की हरियाली देखते ही बनती है। यही वो वक़्त होता है जब ग्रामीण अपने पूरे कुनबे के साथ धान की रोपाई में जुटे दिखते हैं। चाहे वो झारखंड हो या बंगाल, उड़ीसा हो या छत्तीसगढ़, भारत के इन पूर्वी राज्य में कहीं भी निकल जाइए बादल, पानी, धान और हरियाली इन का समागम कुछ इस तरह होता है कि तन मन हरिया उठता है। पिछले हफ्ते ट्रेन से राउरकेला से राँची आते हुए ऐसे ही कुछ बेहद मोहक दृश्य आँखों के सामने से गुजरे। इनमें से कुछ को अपने कैमरे में क़ैद कर पाया। तो आइए आज देखते हैं इस मानसूनी यात्रा की हरी भरी काव्यात्मक झांकी..
आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में
अब आप पूछेंगे कि यहाँ आग कहाँ है जनाब..तो मेरा जवाब तो यही होगा कि ऐसे सुहाने मौसम में अकेले सफ़र करते हुए आग तो दिल में जल रही होगी ना बाकी सब तो फोटू में है ही :) :)
ऊपर का शेर तो ख़ैर कृष्ण बिहारी नूर जी का था, ट्रेन के कंपार्टमेंट के गेट पर खड़े होकर जैसे जैसे सामने का दृश्य सुहाना होता गया अंदर का कवि मन जागृत हो उठा। कुछ पंक्तियाँ जो हृदय मे उगीं वो आपके सामने हैं..
धान के खेत में धीरता से खड़ा ये अकेला पेड़ मुझसे कुछ यूँ कह गया..
खड़े है हम बस इस इंतज़ार में
सीचेंगा दिल कोई तो इस बहार में
पार्श्व की पहाड़ियाँ मुझसे दूर होती जा रही थीं। बादल बरस तो नहीं रहे थे पर उमड़ने घुमड़ने को तैयार बैठे थे। नीचे धरा पर धान के खेतों का साम्राज्य बढ़ता जा रहा था।
ऐसी खूबसूरती को देख क्या आपकी इच्छा नहीं होगी कि यही चादर तान ली जाए सो होठों पर बरबस इन पंक्तियों ने आसन जमा लिया..
हरी है धरती, स्याह गगन है
आज यहीं बिछने का मन है :)
बरसात के इन अद्भुत दृश्यों का आनंद लेते हुए कब बानो का ये स्टेशन आ गया पता ही नहीं चला। जो लोग राँची से राउरकेला जाते हैं वे और कहीं नहीं तो बानों में जरूर उतरते हैं मौसमी फलों का स्वाद लेने के लिए.। जामुन , पपीता, अमरूद और शरीफा तो खास तौर से ।
बानो से गाड़ी आगे बढ़ी और एक बार फिर दिलकश मंज़रों ने मुजफ्फर वारसी साहब का लिखा ये शेर याद दिला दिया..
अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है
जिस्म से आग निकलती है, क़बा गीली है
मुझको बे-रंग ही न करदे कहीं रंग इतने
सब्ज़ मौसम है, हवा सुर्ख़, फ़िज़ा नीली है
पानी से भरे इन खेतों के जिस हिस्से में धान की रोपाई हो जाती है वो अपने चारों ओर की ज़मीं से बिल्कुल अलग थलग पर बेहद प्यारे दिखने लगते हैं ..
पानी से भरे इन खेतों में कीचड़ या ठेठ शब्दों में कहूँ तो कादो की परवाह किए बिना महिलाएँ व बच्चे धान की रोपनी और कोड़नी में लगे थे। हमें तो चावल बाजार से आसानी से मिल जाता है पर कितना श्रमसाध्य काम है इसकी खेती, वो इन कामगारोंं की मेहनत देख कर ही पता लग जाता है।
HEC की चिमनियाँ दिखने लगी थीं यानि राँची करीब आ गया था और इसी के साथ इस मानसूनी यात्रा का समापन भी। ये यात्रा आपको कैसी लगी बताना ना भूलिएगा..
very nic sir....
ReplyDeleteamazingly beautiful.....
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteयह एक मजे हुए साहित्यकार की कृति है न की किसी यात्री का यात्रा वृत्तांत ।
ReplyDeleteऐसा मुझे मालूम होता है ।
आपकी लेखनी की कमाल है ।
दरअसल स्कूल में यात्रा वृत्तांतों से मेरा परिचय साहित्यकारों के माध्यम से ही हुआ था। सो हम लोग लेखन की उसी शैली से प्रेरित हैं। प्रकृति जब ऐसे दृश्य सामने ले आती है तो कवि मन आकुल हो उठता है उसकी शान में कुछ शब्द गढ़ने को...
Deleteशुक्रिया असलम जी, मनु और उत्तम इन चित्रों को पसंद करने के लिए।
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ReplyDeleteरीतू सिंह..इस ब्लॉग को आगे से अपनी प्रचार सामग्री बनाने का प्रयास ना करें तो बेहतर होगा।
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