मुखौटों की दुनिया बड़ी विचित्र है। आदि काल से मनुष्य मुखौटों का प्रयोग कर रहा है अपने को बाकी मनुष्यों से अलग दिखाने के लिए। वैसे तो खुदाई में नौ हजार वर्ष पूर्व के भी मुखौटे मिले हैं पर विशेषज्ञों का मानना है कि इनसे कहीं पहले इनका प्रयोग शुरु हो चुका था। पर आज मैं आपसे मुखौटों की बातें क्यूँ कर रहा हूँ। उसकी वज़ह ये है जनाब कि मैं आपको आज एक ऐसे उद्यान में ले चल रहा हूँ जिसका नाम ही Mask Garden है और ये स्थित है कोलकाता के राजरहाट इलाके में नए बने इको पार्क में। यूँ तो लगभग पाँच सौ एकड़ में फैले इस उद्यान में देखने को बहुत कुछ है पर मुखौटों का ये संसार इस पार्क को अन्य उद्यानों की तुलना में खास बना देता है।
तो सबसे पहले आपको लिए चलते हैं अफ्रीका। अफ्रीकी जनजातियों के धार्मिक अनुष्ठानों और पारिवारिक समारोहों में मुखौटों का प्रचलन पुरातन काल से आम रहा है।ऐसे माना जाता रहा कि एक बार मुखौटों को पहन लेने के बाद मनुष्य अपनी पहचान खो कर उस आत्मा का रूप धारण कर लेता है जिसके प्रतीक के तौर पर मुखौटे का निर्माण किया गया है। समाज में मुखौटे बनाने वालों और विशेष अवसर पर उन्हें पहनने वालों को सम्मान की नज़रों से देखा जाता था । मुखौटे बनाने का काम भी पीढ़ी दर पीढ़ी एक परिवार के लोगों को ही दिया जाता था। यानि मुखौटे इन परलौकिक शक्तियों से संपर्क के सूत्र का काम निभाते थे।
इको पार्क में अफ्रीका के दक्षिण पूर्वी सिरे में स्थित द्वीपीय देश मेडागास्कर के कई मुखौटे रखे गए हैं। हल्का हरापन लिए इन मुखौटों का स्वरूप अंडाकार है। मुखौटों पर उकेरी आकृतियों की आँखें गोल और नाकें लंबी हैं। शायद ये नाक नक्श उस वक़्त वहाँ की संस्कृति में सौंदर्य के प्रतिमान रहे हों। वैसे एक रोचक तथ्य ये है कि आज भी इस देश की महिलाएँ मिट्टी के लेप से चेहरे को इस तरह सजा लेती हैं कि वो मुखौटों की तरह दिखाई देते हैं।
चीन में भी मुखौटों को पहनने की शुरुआत धार्मिक उत्सवों से ही हुई। बाद में इनका प्रयोग शादियों में भी किया जाने लगा। इन्हें लगाने का प्रयोजन वही था यानि बुरी आत्माओं से मुक्ति और अच्छे भाग्य की कामना।
थाइलैंड व बर्मा जैसे देशों में मुखौटों का चलन भारतीय नृत्यों से प्रभावित होकर आया पर बाद में उन्हें वहाँ की स्थानीय कहानियों से जोड़ा गया। वैसे चीन और थाईलैंड के इन मुखौटों का स्वरूप भी अंडाकार है, नाकें लंबी व तीखी हैं पर मेडागास्कर के मुखौटों से एक फर्क स्पष्ट दिखता है वो है आँखों का। इन मुखौटों में आँखें गोल ना हो कर कटीली हैं।
इंडोनेशिया में मुखौटों का प्रचलन भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव के भी पहले हुआ। अफ्रीका की तरह ही यहाँ भी स्थानीय जनजातियों मुखौटे को दैवीय शक्तियों से परिपूर्ण मानती थीं। जावा में हिंदू धर्म के प्रभाव से बाद मुखौटेधारी अपने नृत्य में रामायण और महाभारत की कथाओं का समावेश करने लगे। वैसे जावा का ये मुखौटा तो नृत्य की भंगिमा कम और डर ज्यादा पैदा कर रहा है।
ओमान का ये मुखौटा भी किंचित गुस्से में है। अपने देश के विभिन्न राज्यों के जो मुखौटे यहाँ रखे गए हैं उन्हें नृत्य या किसी नाटिका में आपने पहल भी जरूर देखा होगा़। हमारे यहाँ धार्मिक उत्सवों में आज भी मुखौटों के साथ नृत्य करने का प्रचलन बना हुआ है।
मुखौटों की इस दुनिया में विचरण करने के बाद मुझे ये जरूर लगा कि विश्व के अलग थलग कोने में एक दूसरे से पूर्णतः पृथक ये संस्कृतियाँ कितनी एक जैसी सोच रखती थीं। और आज देखिए कि तकनीक के इस दौर में जब हम हर तरह से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक भी विषय पर मतैक्य नहीं रख पाते।
पर ये ना समझिएगा कि इको पार्क में सिर्फ मुखौटों का संसार बसा हुआ है। पार्क के अंदर एक विशाल झील है जिसमें नौका विहार की सुविधा है। तितलियों का एक संग्रहालय भी हैं यहाँ। बंगाल के रहन सहन के तरीकों के साथ बिष्णुपुर की ऐतिहासिक विरासत को भी यहाँ अलग अलग प्रारूपों से दर्शाया गया है।
पार्क के अंदर पेड़ों की कई तरह की प्रजातियाँ हैं जिनकी हरियाली देखते ही बनती है। इसलिए कोलकाता आएँ और फुर्सत में हों तो अपनी एक शाम आप इको पार्क के नाम जरूर कर सकते हैं।
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ReplyDeleteVishal Kindly refrain from any advertisement in the comment section.
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-08-2016) को "घर में बन्दर छोड़ चले" (चर्चा अंक-2422) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार !
Deleteमुखोटों का संसार जबरदस्त है।
ReplyDeleteहाँ कुछ अलग सी है इनकी दुनिया !
Deleteबहुत ही रोचक प्रस्तुति।
ReplyDeleteजानकर खुशी हुई कि आपको ये पोस्ट पसंद आई।
Deleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति जन्मदिन : मीना कुमारी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteहार्दिक आभार !
Deleteवाह..
ReplyDeleteनई जानकारी
आभार
सादर
जानकर खुशी हुई कि आपको ये जानकारी अच्छी लगी।
Deleteमुखौटे हमारे यहां के पुरखौती मुक्तागंन में भी लगे हैं।
ReplyDeleteकभी वहाँ की सैर कराइए चित्रों के माध्यम से !
Deleteपाश्चात्य सभ्यता में भी मुखौटों का बड़ा महत्व है। शादी पार्टियों से लेकर थीम पार्टी तक मुखौटे ही आकर्षण का केन्द्र रहते हैं। द मास्क नाम से एक मशहूर अंग्रेजी फिल्म भी इस पर बन चुकी है।
ReplyDeleteसही कह रहे हैं ज्ञानेन्द्र जी कि आज हँसी खुशी के हर मौके पर लोग पश्चिम में मुखौटों का प्रयोग कर रहे हैं। पर मुखौटों का पहला प्रयोग आदिम जन जातियों द्वारा ही किया गया था। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अफ्रीका से ही कालांतर में मूखौटों का प्रयोग यूरोप तक पहुँचा। बाकी संस्कृतियों जिनमें भारत भी एक है में इनका प्रयोग सामाजिक उत्सवों और पर्व त्योहारों मे अब तक हो रहा है।
DeleteMeri yaad me to chhau nritya .ke mukhoute sabse pahle aate hain.
ReplyDeleteहाँ और कत्थककली में तो चेहरे का यूँ रंग लेते हैं कि व खुद बा खुद मुखौटा बन जाता है।
Deleteएकदम नयी जानकारी, मुखौटों के विषय में।
ReplyDeleteधन्यवाद अपनी राय रखने के लिए !
Deletebahut achhi janakri
ReplyDeleteशुक्रिया पोस्ट पसंद करने का !
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