श्रीनगर में डल झील का विस्तार कुछ इस तरह से है कि इसका एक सिरा पतली जलधारा के साथ बहते हुए नगीन झील से जा कर मिलता है। यही वज़ह है कि नगीन झील को कई लोग एक अलग ही झील मानते हैं। डल झील तो पर्यटन में हो रहे इस्तेमाल की वजह से गाद से भरती जा रही है पर नगीन झील ना केवल अपेक्षाकृत गहरी है पर इसमें आप डुबकी भी लगा सकते हैं। अगर चहल पहल से दूर आप झील के किनारे शांति के पल बिताना चाहते हैं तो नगीन के किनारे रहना डल की अपेक्षा कहीं बेहतर विकल्प है।
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नगीन (स्थानीय भाषा में निगीन) झील : सूर्यास्त के बाद की लाली |
श्रीनगर प्रवास के पहले दिन हजरतबल से लौटते हुए हम नगीन झील तक पहुँचे। कुछ देर यूँ ही सूरज को झील के किनारे लगे पेड़ों के पीछे डूबता जाते देखते रहे। जिस नौका में हमें जाना था वो समय रहते आई नहीं पर ये समय आती जाती कश्तियों को निहारने और बीच बीच में नाव से ही दुकानदारी चलाने वाले नाविकों से बात करने में बीता।
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ये थी नगीन झील के किनारे लगी हमारी हाउस बोट शहंशाह जिसने एक रात का बादशाह होने का मूझे भी अवसर दिया। |
अपनी नाव में सवार होकर जब अपने शहंशाह से हमने विदा ली तो सूरज दूर क्षितिज में खो चुका था। इक्का दुक्का खाली शिकारे भी पर्यटकों को घुमा कर अपने घर लौट रहे थे़। दिख रही थीं तो बस दोनों किनारे लगी हाउसबोट की कतार और उनके पीछे घेरा डाले पोपलर और विलो के पेड़। दरअसल इन पेड़ों के घेरे के बीच में ये झील अँगूठी में जुड़े नगीने की तरह फैली हुई है। इसीलिए इसका नाम
नगीन झील पड़ा।
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झील में नौका विहार का आनंद |
स्थानीय भाषा में नगीने को निगीन कहा जाता है। नगीन इसी निगीन का अपभ्रंश है। भला हो हिंदी पट्टी से आने वाले पर्यटकों का जिन्होंने इस नगीन को नागिन में 😆तब्दील कर दिया है। अब फिल्मों के पीछे पागल जनता से आप और क्या उम्मीद रख सकते हैं?
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जबरवान की पहाड़ियों पर उतरती शाम |
जब हम हाउसबोट से चले थे तो आकाश साफ था। पर अँधेरा घिरने के साथ बादलों ने आपने साम्राज्य का विस्तार करना आरंभ कर दिया था। जबरवान की पहाड़ियों के सामने के पेड़ों की लड़ी अब हरे के बजाय स्याह रंग में बदलती जा रही थी। बस दूर झील के किनारे बने छोटे बड़े घर ही झील में फैलती इस कालिमा के बीच रौनक बन कर उभर रहे थे।
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कारे कारे बदरा |
कुछ ही देर में गहरे काले बादलों का एक और हुजूम उनकी बढ़ती सेना में शामिल हो गया था। जबरवान की पहाड़ियों के पास जब बादलों की इस खेप ने हमला किया तो पर्वतों के पीछे का आसमान कड़कती बिजलियों के प्रकाश से नहा गया।
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पसरता अँधेरा और कड़कती बिजलियाँ |
बड़ा हसीन मंज़र था वो। नौका पर मेरे अगले कुछ मिनट गहन शांति में बीते। शाम और रात्रि के इस अनूठे अनुभव के बाद मुझे सुबह की बेसब्री से प्रतीक्षा थी। प्रकृति के नए रंगों से मिलने की ललक मन में उमंग भर रही थी।
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सुबह के रंग... |
सुबह सुबह सूर्य किरणों के इंतजार में मैं अपनी हाउसबोट के झरोखे में कैमरे के साथ तैयार था। सामने नौका घर एक लड़ी की शक्ल में झील के साथ जुड़े दिख रहे थे। हाउसबोट के लिए भारत के दो शहर जाने जाते हैं । पहला तो श्रीनगर और दूसरा भारत का वेनिस कहा जाने वाला केरल का एलेप्पी। श्रीनगर और एलेप्पी की हाउसबोट्स में फर्क बस इतना है कि ऐलेप्पी में हाउसबोट रहने के आलावा समुद्र के पार्श्वजल में घूमती हैं वहीं श्रीनगर में ये झील के एक किनारे लगी रहती हैं। इक ज़माना था जब श्रीनगर जाने का मतलब ही हाउसबोट में रहना हो गया था। मन में प्रश्न कौंध रहा था कि झीलें तो कई और जगह भी हैं पर आख़िर श्रीनगर में इतनी संख्या में हाउसबोट्स आयीं कैसे?
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यहाँ हाउसबोट्स कैसे प्रचलन में आयीं इसकी भी एक कहानी है। जम्मू और कश्मीर के राजा गुलाब सिंह के शासन काल में अंग्रेजों ने यहाँ रहने की इच्छा ज़ाहिर की। पर गुलाब सिंह ने उन्हें घाटी में ज़मीन खरीदने और किसी तरह के निर्माण के लिए मना कर दिया। अंग्रेज चालाक थे और उन्होंने इस नियम की इस तरह व्याख्या की कि उन्हें ज़मीन पर निर्माण करने का हक़ नहीं है पर पानी के ऊपर कुछ करने पर कोई पाबंदी नहीं है। उन्होंने पहले छोटी हाउसबोट बनवाई जिसमें वे स्थानीय लोगों के साथ रहते थे। फिर एक परिवार के लिए पूरी हाउसबोट बनने लगीं जिसमें उनके ऐशो आराम के सारे साधन उपलब्ध किये जाने लगे। अंग्रेजों के जाने के बाद इनका स्वामित्व कश्मीरियों को मिल गया।
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हाउसबोट्स का कारवाँ |
जैसे ही सूरज ने झील पर अपनी दस्तक दी नज़ारा एकदम से तब्दील हो गया। सामने दिख रहे हरिपर्वत के ऊपर का किला जो धुंध के बीच लुका छिपा दिखता था एकदम से स्पष्ट हो गया। नीचे खड़ी काष्ठ नौकाएँ भी सूर्य के तेज से सुनहरी हो गयीं। किले, पर्वत और नौकाओं के पानी में बनते प्रतिबिंब को देख आँखें सुकून से भर उठीं।
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उभरती रोशनी निखरती छटा (चित्र को बड़ा कर के देखें) |
हरि पर्वत पर किले को बनाने की पहली कोशिश सोलहवीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर ने की थी। पर बाहरी दीवार के आगे किला ना बन सका। करीब सवा दो सौ साल बाद शुजा शाह दुर्रानी ने इस किले को पूरा करवाया। आज इस किले पर शारिका देवी का मंदिर है तो साथ ही मखदूम साहब की दरगाह भी।
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ढलती शाम और चटकती धूप ने इन हाउसबोट्स के कई मंज़र आँखों के सामने खींच दिए। |
वक़्त के साथ हाउसबोट से जुड़ा पर्यटन सिकुड़ता जा रहा है। डल झील पर ज्यादातर नौका घर अंग्रेजों के ज़माने के हैं। इन नौका घरों में तीन से चार कमरे, एक ड्राइंग रूम और झील को पास से देखने के लिए एक डेक अवश्य रहता है। कमरे की लकड़ी से बनी दीवारों और छतों में खूबसूरत नक्काशी की जाती है।
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हाउसबोट की भीतरी दीवारों पर की गयी नक्काशी |
लकड़ियों की बढ़ती कीमतों के बीच एक नए नौका घर को बनाने की लागत अस्सी लाख से एक करोड़ तक आती है जो कि व्यापार के लिहाज से अब फाएदे का सौदा नहीं रह गयी है। ऊपर से प्रदूषण नियंत्रण के लिए हाउसबोट में बायो टॉयलेट लगाने की अनिवार्यता की बातें चलने लगी हैं।
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कश्मीरी कालीन से सुसज्जित ड्राइंग रूम |
श्रीनगर से सोनमर्ग की ओर आगे बढ़ेंगे इस यात्रा की अगली कड़ी में...
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, विश्व स्वास्थ्य दिवस - ७ अप्रैल २०१८ “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार!
हटाएंसुंदर चित्र और विवरण
जवाब देंहटाएंपसंदगी ज़ाहिर करने का शुक्रिया 😊
हटाएंनागिन लेक की सभी फोटो बेहद लाजवाब और उम्दा...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया तस्वीरों को पसंद करने के लिए। पर झील का नाम नागिन नहीं नगीन या स्थानीय भाषा में निगीन है।
हटाएंबहुत सुन्दर वर्णन। अद्वितीय।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙂
हटाएंबहुत रोचक लिखते हैं आप
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, सराहने के लिए।
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