ट्रेन से की गई यात्राएं हमेशा आंखों को सुकून पहुंचाती रही है। यह सुकून तब और बढ़ जाता है जब मौसम मानसून का होता है। सच कहूं तो ऐसे मौसम में ट्रेन के दरवाजे से हटने का दिल नहीं करता। ऐसी ही एक यात्रा पर मैं पिछले हफ्ते झारखंड से ओड़िशा की ओर निकला।
पटरियों पर ट्रेन दौड़ रही थी। आंखों के सामने तेजी से मंजर बदल रहे थे। बादल और धूप के बीच आइस पाइस का खेल जारी था। नीचे उतरती धूप पर कभी बादलों की फौज पीछे से आकर धप्पा मार जाती तो कभी बादलों को चकमा देकर उनके बीच से निकल कर आती धूप पेड़ पौधों और खेत खलिहान के चेहरे पर चमक ले आती।
कहीं दूर बीच-बीच में बादल धूप का रास्ता रोक विजयी भाव से अविरल बहती पतली धाराओं में जमीन को छू आते। आसमान पर चल रहे इस खेल से अनजान मेड़ों पर बैठे किसान खेतों की कुड़ाई में जुटे थे।श्रमिक पटरियों को ठीक करने में लगे थे तो स्टेशन मास्टर सरपट भागती ट्रेन को हरी झंडी दिखाने में। यह उनकी ही कर्मठता का फल था कि मैं इन सुहाने दृश्यों को चैन से अपनी आंखों में समोता जा रहा था।
ट्रेन लोधमा, कर्रा, गोविंदपुर रोड, बकसपुर जैसे स्टेशनों को पार कर अपने पहले पड़ाव बानो पर पहुंच चुकी थी। रांची से राउरकेला जाते हुए यही एक स्टेशन होता है जहां खीरे, पपीते, जामुन और अनेक देसी फलों का स्वाद आप स्टेशन पर ले सकते हैं। बानो से आगे खेतों की जगह घने जंगल ले लेते हैं और उनका साम्राज्य तब तक चलता है जब तक आप झारखंड की सीमा पारकर ओड़िशा नहीं पहुंच जाते।
बानो, टाटी, महाबुआंग, परबटोनिया झारखंड के इन छोटे-छोटे कस्बों और गांवों के नाम आपने शायद ही सुने हों। पर जो लोग इस रास्ते से झारखंड से ओड़िशा की ओर सफ़र करते हैं वे जानते हैं कि हर थोड़ी देर पर जंगलों के बीच मुड़ती ट्रेन की खिड़कियों से सबसे सुहावने दृश्य इन्हीं गांव के बीच से दिखाई देते हैं।
यहां के जंगल झारखंड में सामान्यतः दिखने वाले साल के जंगलों से काफी अलग हैं। इतने भांति भांति के पेड़ दिखते हैं यहां कि जी करता है कि कभी इनके बीच विचरते हुए इनकी पहचान को समझ पाऊं।
शाम ढलने लगी थी हरे भरे जंगल आसमान के बीच से निकलते नारंगी, पीले, गुलाबी, बैंगनी प्रकाश से नहा उठे थे। आसमान अपनी रंगीनियों मानसून में ही तबीयत से दिखाता है। धूप बादल के साथ जितनी भी लुकाछिपी खेले, सच तो यह है कि इनकी ये तकरार उनके आपसी प्रेम का परिचायक है वर्ना इन्हीं बादलों का स्पर्श पाकर प्रकाश तरह-तरह के रंगों से इस तरह ना खिल उठता 😊
ओड़िशा के आते ही परिदृश्य बदलने लगा था। जंगलों ने एक बार फिर साथ छोड़ दिया था। मैदानी इलाके अंधेरे की हल्की चादर ओढ़ चुके थे। आसमान पर तो वही रंग काबिज थे पर अब उन रंगों के बीच खजूर के पेड़ों की छाया ऐसी लग रही थी जैसे किसी चित्रकार ने अभी-अभी कोई पेंटिंग बनाई हो।
अंधेरा इससे पहले मुझे इन दृश्यों को कैद करने से रोकता उसके पहले बारिश से मटमैली हो चुकी कोयल नदी मेरे सामने थी।
यही कोयल नदी राउरकेला के वेदव्यास मंदिर के पहले शंख नदी से मिलकर ब्राह्मणी का रूप ले लेती है। जो इस ब्लॉग के नियमित पाठक हैं उन्हें याद होगा कि उस संगम पर कुछ वर्षों पहले मैं आपको ले जा चुका हूं। भविष्य में इस ब्लॉग पर नई पोस्ट की सूचना पाने के लिए सब्सक्राइब करें।
बहुत रोचक यात्रा प्रसंग
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंअहा, क्या अद्भुत दृश्य है। प्रकृति के अनुपम रंग है इस राह में और आपकी नज़र भी 👌
जवाब देंहटाएंहां वो शाम बेहद हसीन थी 🙂
हटाएंतस्वीरों से ज्यादा तारीफ़ तो तस्वीर लेने वालों की है!🙂ट्रैन यात्रा में इतनी खूबसूरत तस्वीरें हम नही ले पाते!!🙏
जवाब देंहटाएंतारीफ़ के लिए शुक्रिया 😊
हटाएंनयनाभिराम दृश्य और मनोहारी वर्णन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद🙏
हटाएंएक से बढ़कर एक सभी तस्वीरें
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙂
हटाएंअत्यंत मनोरम दृश्य एवं वर्णन।।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया🙂
हटाएंबेहद खूबसूरत यात्रा वृतांत एवं शानदार छायांकन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙂
हटाएंबहुत सुंदर छायाचित्र युक्त यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंसराहने का शुक्रिया।
हटाएंBeautiful pictures sir
जवाब देंहटाएंThanks. Kindly mention your name while commenting :)
हटाएंतस्वीरें बेहद खूबसूरत हैं! मान्सून प्रकृति मैं यौवन और स्फूर्ति भर देता है ॥
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, सच है मानसून की फ़िज़ा की बात ही कुछ और है।
हटाएंशानदार फोटोग्राफी।
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