रविवार, 11 मई 2008

यात्रा चर्चा : किस्सा कुर्गी जोंक, सोनार किले और पाकीजा पान का !

मई का महिना आ चुका है। सारा उत्तर भारत गर्मी की चपेट में है। हालत ये है कि छुट्टी के दिन भी सुबह काम निपटा कर लोग बाग घर में दुबक कर बैठ जा रहे हैं। अब इस गर्मी से बचने का तो तरीका सिर्फ ये है कि आप पहाड़ों की शरण में चले जाएँ। तो आज की यात्रा चर्चा की शुरुआत करते हैं एक छोटे से परंतु रमणीक पहाड़ी पर्यटन स्थल कुर्ग (Coorg) से !


अगर आपको ये नाम नया सा लगे तो ये बताना लाज़िमी होगा कि कर्नाटक के दक्षिण पश्चिम में पश्चिमी घाट के किनारे बसा कुर्ग अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिए जाना जाता है और वहाँ की यात्रा की हमारे साथी चिट्ठाकार अमित कुलश्रेष्ठ ने।


ये बता दूँ कि एक कुशल गणितज्ञ होने के साथ साथ अमित एक साहासी योद्धा भी हैं। अपनी यात्रा के पहले ही दिन इन्हें जंगल में विचरण करने की सूझी। जलप्रपात तक पहुँचना था पर रास्ता ले लिया जोकों के अड्डों की तरफ वाला। नतीजन जोंक की सेनाओं के साथ हुए युद्ध में इन्होंने भीषण रक्तपात मचाया और अपनी शौर्यता का परिचय देते हुए विजय भी प्राप्त की। पर विडंबना देखें इस रक्तपात के बाद शायद उन्हें कलिंग युद्ध की याद आ गई और अगले ही दिन वो चल पड़े ब्यालाकुप्पे बुद्ध विहार की ओर। अमित लिखते हैं

".....ब्यालाकुप्पे मैसूर के पश्चिम में स्थित कुशानगर नामक शहर के पास का इलाका है जिसमें १९६० के दशक में भारत आये करीब दस हज़ार तिब्बती लोग शरण ले रहे हैं। यहाँ के दर्शनीय स्थल हैं नामड्रोलिंग विहार और उससे लगा हुआ मंदिर।
इतना भव्य मंदिर तिब्बती लोगों की अपनी मातृभूमि से हज़ारों कोस दूर! भारत की यही रंग-बिरंगी विविधता मुझे अक्सर अचंभित कर देती है। मंदिर के अंदर गया तो बच्चन जी की `बुद्ध और नाचघर’ का स्मरण हो आया। भला बुद्ध और मूर्ति! कहीं मैं एक विरोधाभास के बीच तो नहीं खड़ा? इसी बौद्धिक मंथन के बीच मेरी नज़र राजस्थान से आये एक परिवार पर पड़ी।
चौखट को प्रणाम करके बुद्ध की मूर्ति के सामने इस परिवार के सदस्य उसी श्रद्धा से नत-मस्तक होकर खड़े थे जैसे वे अपने किसी इष्ट देव का ध्यान कर रहे हों। “जैसे भगवान हमारे, वैसे उनके“, यह भाव उनके चेहरे पर स्पष्ट था। मूर्तियाँ एक अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करती हैं। जिस रूप में सौंदर्य के दर्शन हों, उसी में मूर्ति ढाल लो और दे दो अपने देव का सांकेतिक स्वरूप। पहले बौद्धिक मंथन का समाधान हुआ तो मैं दूसरे में उलझ गया। विश्व के सभी लोग उसी समरसता के साथ क्यों नहीं रह सकते जिसके दर्शन मुझे अभी इस राजस्थानी परिवार में हुये। ..."

भई वाह ! कितना उत्तम विचार दिया अमित ने। खैर, अब जब जिक्र राजस्थान का आ ही गया है तो क्यूँ ना आपको ले चलें जैसलमेर !
राजस्थान में मैं जयपुर दो बार गया हूँ और हर बार वहाँ राजपूती शासकों द्वारा बनाए गए किलों की संरचना और स्थापत्य देख कर मैं दंग रह गया हूँ पर अपने यूनुस भाई जैसलमेर के जिस किले में आपको घुमा रहे हैं वो अपने आप में निराला है।

किले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में यूनुस लिखते हैं

"...जैसलमेर के किले को यहां के भाटी राजपूत शासक रावल जैसल ने सन 1156 में बनवाया था । यानी आज से तकरीबन साढ़े आठ सौ साल पहले । मध्‍य युग में जैसलमेर ईरान, अरब, मिश्र और अफ्रीक़ा से व्‍यापार का एक मुख्‍य केंद्र था । दिलचस्‍प बात ये है कि इसकी पीले पत्‍थरों से बनी दीवारें दिन में तो शेर जैसे चमकीले पीले-भूरे रंग की नज़र आती हैं और शाम ढलते ही इनका रंग सुनहरा हो जाता है । इसलिये इसे सुनहरा कि़ला
कहा जाता है । आपको बता दें कि महान फिल्‍मकार सत्‍यजीत रे का एक जासूसी उपन्‍यास 'शोनार किला' इसी किले की पृष्‍ठभूमि पर लिखा गया है । त्रिकुट पहाड़ी पर बने इस कि़ले ने कई लड़ाईयों को देखा और झेला है । तेरहवीं शताब्‍दी में अलाउद्दीन खि़लजी ने इस कि़ले पर आक्रमण कर दिया था और नौ बरस तक कि़ला उसकी मिल्कियत बना रहा ।
यूनुस के पास किले को देखने के लिए मात्र दो घंटे थे। दो घंटों के इस अल्प समय में यूनुस को कौन-कौन से दृश्य सबसे ज्यादा भाए इसका राज मैं अभी नहीं खोलूँगा। ये नज़ारा तो आप इनके चिट्ठे पर जाकर उनके द्वारा ली गई मजेदार तसवीरों से ले सकते हैं।

अपनी मुन्नार यात्रा में चाय बागानों की सुन्दरता से अभी हम मुक्त भी नहीं हो पाए थे कि हमें मिली एक निहायत खूबसूरत रात और ताज़ी सुबह जिसकी सुंदरता में खोकर मैंने लिखा

हमारे सामने पहाड़ियों का अर्धवृताकार जाल था जिसमें लगभग समान ऊँचाई वाले पाँच छः शिखर थोड़ी-थोड़ी दूर पर अपना साम्राज्य बटोरे खड़े थे। चंद्रमा ने अपना दूधिया प्रकाश, इन पहाड़ों और उनकी घाटियों पर बड़ी उदारता से फैला रखा था। मूनलिट नाईट के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था पर उसी दिन महसूस कर पाए कि चाँद ना केवल खुद बेहद खूबसूरत है वरन् वो अपने प्रकाश से धरती की छटा को भी निराली कर देता है। केरल की दस दिनों की यात्रा का मेरे लिए ये सबसे खूबसूरत लमहा था जिसे हम अपने कैमरे में कम प्रकाश और त्रिपाद (tripod) ना रहने की वज़ह से क़ैद नहीं कर सके। पर रात की चाँदनी के दृश्य भले ही हमारे कैमरे की गिरफ़्त में ना आ पाए हों सूर्योदय के पहले की नीली-नारंगी आभा को हम जरूर आप तक बटोर लाने में सफल रहे।


पर चलते-चलते थोड़ी सैर अलीगढ़ की भी कर ली जाए जहाँ से मुनीश भाई अपने धमाकेदार चित्रों के साथ वापस लौटे हैं। लगता है ए. एम. यू. कैंपस और फैज़ गेट देखने के बाद जब वे थक गए तो पास के ढ़ाबे में इन्होंने शुद्ध देशी घी के प्रेमी पराठे खाये । शाम को 'मय' ढूँढने निकले तो वो तो मयस्सर नहीं हुई, सो पाकीजा पान खा कर ही बेचारे स्टेशन वापस चले आए :)। इस पूरे प्रकरण की चित्रात्मक दास्तान आप यहाँ देख सकते हैं।


तो भाई यात्रा चर्चा के लिए आज इतना ही । अगले हफ्ते ये मुसाफ़िर आपको ले चलेगा हिंदी चिट्ठाकारों के साथ कुछ और नयी जगहों पर।

8 टिप्‍पणियां:

  1. सिर्फ पांच मिनट में त्ती सारी खूबसूरत जगहों की सैर करा दी । धन्यवाद ।

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  2. बेनामीमई 11, 2008

    'यात्रा चिट्ठा' का टेम्पो हाई है !

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  3. bahut badhiya .....lage rahiye ,kamal hai yunus bhai ne 2 ghante me kila ghoom liya...jaipur,jodhpur to ja chuka hun bas jaismaler aor pushkar ghumne ki tammana hai.

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  4. मनीष जितनी जल्‍दी पढ़कर मुदित हो गये हम ।
    उसके लिए तुमने लगाया होगा कितना दम खम ।।
    ये ऊर्जा बनी रहे मुसाफिरी बनी रहे
    घुमक्‍कड़ी बनी रहे यायावरी बनी रहे

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  5. मनीष जी इतनी अच्छी खूबसूरत जगहों की सैर कराने के लिए शुक्रिया।

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  6. बहुत अच्छा मनीष भाई, अभी मेरे एक मित्र भी कुर्ग घूम कर आए हैं, उनकी तसवीरें देख रहा था... आपने भी घुमा दिया.

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  7. बड़ी ही उम्दा यात्रा चर्चा रही. अच्छा है सभी यात्रा वृतांत एक जगह एकत्रित हो जा रहे हैं. बधाई एवं साधुवाद.

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