मंगलवार, 5 जून 2018

द्रास युद्ध स्मारक : कैसे फतह की हमने टाइगर हिल की चोटी? Drass War Memorial

श्रीनगर लेह राजमार्ग से हम सोनमर्ग, जोजिला, द्रास घाटी होते हुए हमारा समूह अब द्रास कस्बे से कुछ ही किमी दूर था। द्रास घाटी से साथ चलने वाली द्रास नदी रास्ते में मिलने वाले ग्लेशियर की बदौलत फूल कर और चौड़ी हो गयी थी। जोजिला के बाद बर्फ की तहों के बीच आँख मिचौनी करती ये नदी अब पिघल कर पूरे प्रवाह के साथ बह रही थी।

द्रास युद्ध स्मारक का मुख्य द्वार

द्रास नदी का अस्तित्व कारगिल से करीब सात किमी पहले तब खत्म हो जाता है जब ये कारगिल की ओर से आने वाली सुरु नदी में मिल जाती है। हरे भरे चारागाहों से पटे इन  इलाकों में सर्दियों में जम कर बर्फबारी होती है जिसकी वजह से यहाँ जीवन यापन करना बेहद कठिन है। 




बारह सौ की आबादी वाले इस इलाके में सेना के जवानों के आलावा दार्द जनजाति के लोग निवास करते हैं जो किसी ज़माने में उत्तर पश्चिम दिशा से तिब्बत के रास्ते यहाँ आए थे। इनकी भाषा को दार्दी का नाम दिया जाता है जो लद्दाख की बोलियों से मिलती जुलती है। उन्नीसवीं शताब्दी में यहाँ आने वाले अंग्रेज इतिहासकारों ने द्रास के लोगों द्वारा कश्मीरी और लद्दाखी राजाओं को कर देने की बात का उल्लेख किया है। कश्मीरी राजाओं के प्रभाव का एक प्रमाण यहाँ मिट्टी के एक किले के रूप में भी झलकता है जिसके छोटे मोटे अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।

द्रास नदी की कलकल धारा

द्रास का ये दुर्भाग्य ही था कि इतनी खूबसूरत घाटी में बसे इस कस्बे को असली शोहरत कारगिल युद्ध की वजह से आज से लगभग बीस साल पहले 1999 में मिली। कारगिल युद्ध में दो प्रमुख चोटियों टाइगर हिल और तोलोलिंग, द्रास के इलाके में स्थित थीं इसलिए ये कस्बा युद्ध का प्रमुख केंद्र रहा। फरवरी 1999 का  महीना था जब पाकिस्तान ने द्रास, कारगिल और बतालिक इलाके में अपनी टुकड़ियाँ भेजनी शुरु कर दी थीं। अप्रैल में ये घुसपैठ अपने चरम पर थी पर भारतीय सेना इस सौ वर्ग किमी से भी ज्यादा के क्षेत्रफल में हो रही इतनी बड़ी घुसपैठ से अनभिज्ञ थी। मई के दूसरे हफ्ते में बतालिक सेक्टर के स्थानीय गड़ेरियों द्वारा दी गई ख़बर सेना के हाथ लगी। कैप्टन सौरभ कालिया के नेतृत्व में एक खोजी दस्ता बतालिक सेक्टर में स्थित चोटियों के साथ रवाना हुआ और ऊँचाई पर जमे दुश्मन की गोलियों का शिकार बना।


जब भारत को इस व्यापक घुसपैठ का अंदाजा हुआ तो आपरेशन विजय के नाम से एक अभियान शुरू हुआ जिसके  तहत  सेना की कई टुकड़ियों को  कारगिल और उसके आसपास के इलाकों के लिए रवाना किया गया। इस इलाके तक सेना को रसद और साजो सामान पहुँचाने के लिए सिर्फ श्रीनगर लेह राजमार्ग ही था। दिक्कत ये थी कि द्रास से सटी चोटियों पर दुश्मन पहले से ही घात लगाकर हमला करने के लिए तैयार बैठा था। उसकी मारक क्षमता के अंदर समूचा राजमार्ग था और इस रास्ते पर दुश्मन ने ताबड़तोड़ हमले कर जान माल को काफी क्षति भौ पहुँचाई। हालात ये थे कि सेना ने इस सड़क के किनारे अपने बचाव के लिए दीवाल का निर्माण किया जिसके कुछ हिस्से आज भी द्रास जाते वक़्त देखे जा सकते हैं।

दुश्मन के गोले बारूद की मार से बचने के लिए बनाई गयी दीवार

भारतीय सेना की प्रथम प्राथमिकता श्रीनगर लेह मार्ग से सटी चोटियों पर कब्जा जमाने की थी ताकि लेह तक सेना को रसद पहुँचाने वाले रास्ते पर गाड़ियों का आवगमन सही तरीके से हो। द्रास के पास सबसे ऊँची चोटी टाइगर हिल की थी जिसके ऊपर दुश्मन ने करीब दर्जन भर बंकर बना रखे थे। दिन में जवानों को इस खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों पर भेजना सीधे सीधे मौत को आमंत्रण देना था। रात के वक़्त अँधेरे में बिना आवाज़ किए बढ़ना ही एकमात्र विकल्प था। चोटियों के पास तापमान शून्य से दस से बारह डिग्री कम था पर भारतीय सेना के जवानों ने ये कठिन चुनौती भी स्वीकारी। यही वजह रही कि आरंभिक लड़ाई में सेना के सैकड़ों जवान ऊपर से हो रही अंधाधुंध  गोली बारी  का शिकार हुए। 

भारत चाहता तो LOC पार कर दुश्मन को पीछे से घेरकर उसकी रसद के रास्ते बंद कर उसे नीचे उतरने पर मजबूर कर सकता था। पर पाकिस्तान को हमलावर साबित करने के अंतरराष्ट्रीय दबाव को बढ़ाने के लिए ऐसा नहीं किया गया और इस वजह से एक एक चोटी फतेह करने के लिए यहाँ ऐसा खूनी संघर्ष हुआ जिसमें दोनों ओर के सैनिकों को भारी संख्या में अपने प्राणों  की आहुति देनी पड़ी।

16600 फीट ऊँची टाइगर हिल की चोटी
गाड़ीवाला हमें गाड़ी रोक कर टाइगिर हिल की ओर इशारा कर रहा था। हम द्रास के कस्बे में प्रवेश कर चुके थे। हरे भरे पेड़ों और खेतों से अटे कस्बे में ऐसे भीषण युद्ध के होने की बात सपने में भी सोची नहीं जा सकती थी। अगर यहाँ गोलों से दगी दीवारें और वार मेमोरियल नहीं बना होता तो शायद हम सब इसे एक रमणीक पर बेहद ठंडे कस्बे से ज्यादा अपनी यादों में कहाँ समा पाते? पर अब तो ये देश के विभिन्न भागों से युद्ध में भाग लेने आए सैनिकों की वीर गाथा की जीती जागती तस्वीर बन गया है। क्या बिहार, क्या जाट, क्या सिख, क्या गोरखा, क्या नागा, क्या अठारह ग्रेनेडियर कितनी सारी रेजिमेंट्स ने इस युद्ध में एक दूसरे का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया।

 हरा भरा द्रास

टाइगर हिल के फतह की कहानी तो आज की तारीख में कई फिल्मों का हिस्सा बन गयी है। यहाँ आने वाले हर आंगुतक को सेना के जवान समूह में इकठ्ठा कर टाइगर हिल, तोलोलिंग हिल और उसके आस पास की दुर्गम चोटियों पर भारतीय सेना द्वारा अत्यंत विकट परिस्थितियों में अद्भुत पराक्रम की इस अमर दास्तान को सबसे बाँटते हैं। ये घटनाएँ ऐसी हैं जो आँखों में युद्ध की विभीषका से एक ओर तो नमी भर देती हैं तो दूसरी ओर हमारे वीर सपूतों की शौर्य गाथा को सुन मन नतमस्तक हो जाता है। टाइगर हिल की ही बात करूँ तो इसे कब्जे में लेने के लिए नागा, सिख और अठारह ग्रेनेडियर की टुकड़ियों ने हिस्सा लिया। बाँयी और दाहिनी ओर से नागा और सिख रेजीमेंट की टुकड़ियाँ आगे बढ़ीं जबकि पीछे से अठारह ग्रेनेडियर ने खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए हमले की योजना बनाई। 

हरे भरे खेतों के पीछे से झांकती टाइगर हिल की चोटी

रात के अँधेरे में योगेद्र सिंह यादव की अगुआई में घातक कंपनी के जवानों ने चढ़ाई आरंभ की। यादव ने ऊपर तक पहुँचने के लिए रस्सियों को बाँधने का काम अपने जिम्मे लिया। जब वे शिखर से साठ फीट नीचे थे तो दुश्मनों ने उन्हें देख लिया और मशीनगन से उनकी टुकड़ी पर हमला बोल दिया। प्लाटून कमांडर सहित दो जवान वहीं वीरगति को प्राप्त हुए पर कई गोलियाँ खाकर भी योगेंद्र ने ऊपर बढ़ना जारी रखा। उसी हालत में वो ऊपर पहुँचे और अपने सामने के बंकर पर ग्रेनेड से हमला कर उसे तबाह कर दिया। योगेंद्र का ये दुस्साहस पीछे से आने वाली टुकड़ियों के लिए टाइगर हिल तक रास्ता बनाने का ज़रिया बना।

इसी तरह 8 सिख रेजीमेंट के जवान जब शिखर के पास पहुँचने लगे तो सामने से हो रही गोलाबारी में आड़ लेने का कोई विकल्प उनके पास मौजूद नहीं था। मौत का संदेश लिए कोई गोली कभी भी उनके सीने के पार हो सकती थी। ऐसे में शत्रुओं के हताहत जवानों को ढाल की तरह  इस्तेमाल करते हुए शिखर पर पहुंचने में सफलता प्राप्त की और दुश्मनों से हाथों हाथ की लड़ाई में हरा कर टाइगर हिल के दूसरे हिस्से पर कब्जा जमाया।

युद्ध स्मारक में प्रदर्शित मिग 21 विमान
द्रास का युद्ध स्मारक तीन हिस्सों में बँटा है। मुख्य द्वार से विजय पथ के रास्ते अमर जवान ज्योति तक जाया जा सकता है। अमर जवान ज्योति पर कवि माखन लाल चतुर्वेदी की लिखी लोकप्रिय कविता "पुष्प की अभिलाषा अंकित हैं।

चाह नहीं, मैं सुरबाला के 
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

गुलाबी पत्थरों से बने इस स्मारक के ठीक पीछे एक दीवार बनी है जिसमें पीतल की चादर पर शहीदों के नाम लिखे हुए  हैं। इसके ठीक पीछे सौ फीट की ऊँचाई पर भारत का विशाल ध्वज  है जिसे आप स्मारक में प्रवेश करते हुए दूर से ही  देख पाते हैं। 

अमर जवान ज्योति 

कारगिल युद्ध की शौर्य गाथा बयाँ करता सैनिक

स्मारक के एक हिस्से में एक छोटा सा संग्रहालय  बनाया गया है जिसे गोरखा रेजीमेंट के जवान मनोज पांडे के नाम पर रखा गया है। इस संग्रहालय के अंदर युद्ध में प्रयोग और दुश्मनों से बरामद हथियारों के आलावा, अलग अलग चोटियों पर सेना के विभिन्न दस्तों के आगे बढ़ने के मार्गों को विभिन्न मॉडल से दर्शाया गया है। साथ ही उस वक्त की तस्वीरों और बधाई संदेशों को भी यहाँ प्रदर्शित किया गया है। इसी से सटा यहाँ एक वीडियो कक्ष भी है। 
 वीर भूमि

स्मारक के तीसरे हिस्से का नाम वीर भूमि रखा गया है। यहाँ शहीद जवानों के नाम पर एक एक पट्टिका बनाई गयी है। इनके बीच से गुजरना मन को अनमना कर देता है। सेना की ओर से यहाँ एक भोजनालय भी चलाया जाता है।

टाइगर हिल की फतह का निरूपण

कारगिल युद्ध में पुरस्कृत होने वाले जवान। पहली पंक्ति में सबसे बाँए योगेद्र सिंह यादव  की तस्वीर है।


भले ही दो महीने के भीतर भारत ने  कारगिल युद्ध जीत लिया पर इस दौरान देश ने पाँच सौ से अधिक सैनिक खोए। द्रास से गुजरना हमेशा इन शहीदों की शहादत को याद दिलाता रहेगा। मैंने ये देखा कि यहाँ जब दूर दराज के लोग आते हैं तो उन्हें देख कर यहाँ पदस्थापित जवानों का मनोबल बढ़ता है। इसलिए जब भी आप श्रीनगर से कारगिल जाएँ यहाँ घंटे दो घंटे का वक़्त अवश्य बिताएँ।

लद्दाख की इस यात्रा का अगला पड़ाव होगा कारगिल जहाँ अचानक ही मुलाकात हुई एक संगीतकार से जो सारेगामापा में कई बार जज की भूमिका निभा चुके हैं। अगर आपको मेरे साथ सफ़र करना पसंद है तो Facebook Page Twitter handle Instagram  पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराना ना भूलें।

24 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-05-2018) को "वृक्ष लगाओ मित्र" (चर्चा अंक-2993) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    पर्यावरण दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. Agar iska video hota to jyada acha lagta hota jankari bahut hi badhiya hai
    Tiger Hill ka naam aate hi javano ke prati proud feel hota hai
    Jai Hind Desh ke sipahi aaj unhi ke vajah se se hum safe Hai

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    1. विपरीत परिस्थितियों में लड़ा गया यह युद्ध जवानों के बलिदान को और कीमती बना देता है।

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  3. धरती के इस बेहद सुन्दर हिस्से की पहचान युद्ध से है, सोचकर अच्छा नही लगता। कारगिल युद्ध के वीरों की चर्चा अच्छी लगी।

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    1. इतने दूर दराज के इस इलाके में जहाँ सर्दियों में आवागमन बंद रहता हो उस जगह की चर्चा हो भी तो कैसे। मगर आज जब लोग लेह सड़क मार्ग से जाते हैं तो इस इलाके की खूबसूरती के साथ साथ युद्ध के उस खोफ़नाक मंज़र से भी रूबरू होते हैं।

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  4. घुमक्कड़ी के साथ साथ आपने देश के लिए सर्वश्व न्योछावर करने वाले जवानों की शहादत का भी स्मरण दिलाया ...!

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    1. यहाँ आने के बाद आप उनकी वीर गाथा को नम आँखों से साथ लिए जाते हैं सो उसके बारे में लिखते वक़्त वो सारी बातें याद आ जाती हैं जो यहाँ पदस्थापित सैनिक हर आने वाले को बताते हैं। मैंने बस उन्हें अपनी तरफ से थोड़ा विस्तार देने की कोशिश की है।

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    2. बहुत सुंदर तरीके से आपने इन रणबाँकुरों की शौर्यगाथा का अपने ब्लॉग में वर्णन किया है..!
      2006 में लेह से श्रीनगर लौटते समय हम भी द्रास में रुके थे JK tourism में..परंतु जबर्दस्त ठण्ड व् वर्षा के कारण वॉर मेमोरियल तक नहीँ जा सके थे ।

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    3. शुक्रिया पोस्ट पसंद करने के लिए। ओह आप लोग तब द्रास में रुके थे। हम लोग तो कारगिल में रुके थे।

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    4. हाँ हम सबेरे लेह से निकले थे ,बटालिक सेक्टर,कारगिल होते हुए शाम को 4 बजे द्रास पंहुंचे..ठण्ड काफी थी..पानी भी गिर रहा था..NH पर ही सोनू दा ढाबा में खाना खाया और रात्रिविश्राम JK tourism में किए..हम लोग मोटरसाइकिल से थे मनाली के रास्ते गए थे कारगिल से लौट रहे थे ।

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  5. आप का लेख पढ कर ही मेरी आँखें नम हो गयीं । बेहद सुन्दर शानदार लेख और तस्वीरें ।

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    1. शुक्रिया!ऐसे ही भाव मेरे मन में भी था जब में द्रास के इस स्मारक से बाहर निकला था। मेरी कोशिश थी कि उन भावनाओं को अपने आलेख में समाहित कर सकूं।

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    2. आप अपने भावों को संप्रेषित करने में कामयाब रहे । इन चीजों को समझने और व्यक्त करने के लिए थोड़ा संवेदनशील हृदय की जरूरत होती है । मेरी भी इस मार्ग पर यात्रा करने की बहुत इच्छा है । कभी गया तो जरूर कारगिल में कुछ समय व्यतीत करूगा ।

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    3. बिल्कुल, वैसे भी लेह जाते समय कारगिल या द्रास में रुकना सेहत के लिए जरूरी है।

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    4. जी बिलकुल ऍसा ही करेंगे । पर्याप्त समय रख कर चलेंगे। श्रीनगर से लेह के बीच कुछ सुन्दरतम स्थानो के नाम बताएं कृपया जहाँ एक दो दिन रुका जा सके।

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    5. श्रीनगर और लेह के बीच सोनमर्ग में एक दिन और फिर कारगिल में एक दिन रुकना काफी रहेगा। सोनमर्ग के आलावा रास्ते में जीरो प्वाइंट,जोजिला पास, द्रास, कारगिल, फोटूला, लामयुरु, सिंधु जास्कर संगम, गुरुद्वारा, लिकिर मठ होते हुए आप लेह पहुँचेगे।

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  6. मनोरम घाटियो को आक्रांतो से जूझना ही पड़ता है। दुर्गम स्थलो का मर्मस्पर्शी वृतान्त।

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  7. जांबाजी के किस्से जांबाज के मुंह से सुनना, बिल्कुल अलग अनुभूति हुई होगी, जब वहां सैनिक ये किस्से पर्यटकों को सुना रहे होंगे।

    पढ़कर बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद सर

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  8. वन्दे मातरम
    जय हिन्द
    जय जवान

    सचमुच दिल भर आता है वो मंजर याद करके

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  9. मनीष जी आपके ब्लॉग को पढ़ कर पता चला की हमारे देश के वीर जवान किन मुसीबतों का सामना कर के हमारे देश की सीमाओं की रक्षा करते है। आप की पोस्ट बहुत ही सुन्दर लगी। मैंने भी आप लोगो से कुछ सीखते हुए एक ब्लॉग बनाया है। जो अपने शुरुआती चरण में है कभी समय मिले तो देखिएगा। आप का सहयोग आपेक्षित है।

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  10. पहली बार इस जगह के बारे में जानकारी मिली है मुझे. . काफी समय से उत्सुक था इसके बारे में जानने के लिए

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  11. बेनामीनवंबर 27, 2018

    Bahut hi badiya aur bahut hi shandar tareeqe se Lisal gaya post.
    I love it.
    Keep it up.
    Regards,
    Sheetal
    http://jqoh.blogspot.com

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