सोनमर्ग,
जोजिला,
द्रास घाटी होते हुए
कारगिल में रात बिताने के बाद हमारा समूह अगली सुबह लामायुरु के बौद्ध मठ की ओर निकल पड़ा। कारगिल से लामायुरु की दूरी करीब सौ किमी की है पर घुमावदार रास्तों पर रुकते चलते इस सफ़र में करीब तीन घंटे लग ही जाते हैं। कारगिल शहर से निकलते कुछ दूर तो रास्ता सही था पर पशकुम के आस पास सड़क पर पानी जमा हो जाने से रास्ता जर्जर हालत में मिला।
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फ़ोतु ला से लामायुरु की ओर उतरता श्रीनगर लेह राजमार्ग |
ये परेशानी पर दस पन्द्रह मिनटों की ही थी। कारगिल से निकलने के आधे घंटे बाद हम सफ़र के आपने पहले पड़ाव मुलबेक की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। इस इलाके से वाखा नदी बहती है जो ज़ांस्कर श्रंखला से निकलकर कारगिल के पास सुरु नदी में मिल जाती है। यही वजह है कि कारगिल से मुलबेक के बीच का इलाका बेहद हरा भरा है। पोपलर, विलो के पेड़ों के बीच यहाँ सब्जियों के खेत भी दिखाई दिये।
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हरे भरे खेत जो नीले आकाश के साथ और खिल उठते हैं |
बालटिस्तान से कारगिल के संस्कृतिक जुड़ाव का जिक्र तो मैंने पिछली पोस्ट में आपसे किया ही था। कारगिल जिले की तीन चौथाई से ज्यादा आबादी शिया मुस्लिमों की है। ज़ाहिर सी बात है कि इस रास्ते में बहुतेरी मस्जिदें भी देखने को मिलीं। खारंगल के पास की एक छोटी सी मस्जिद तो अनोखी बनावट लिये हुई थी। यहाँ मस्जिद का गुम्बद सीमेंट और पत्थर से ना बना हो कर स्टील की चादरों को जोड़ कर बनाया गया था।
कारगिल जिले की बाकी आबादी बौद्ध और हिंदू धर्मावलंबियों की है। यहाँ बोली जाने वाली भाषाएँ यूँ तो उर्दू लिपि में लिखी जाती हैं पर उनके बोलने का लहजा कश्मीरी उर्दू से बिल्कुल भिन्न है। जब भी बातचीत का सिलसिला स्थानीय लोगों से चला तो यही आभास हुआ कि यहाँ के लोग भारतीय सेना को गर्व से देखते हैं और उनके कार्यों में सहयोग देने में कभी पीछे नहीं हटते।
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चंबा, मुलबेक की प्राचीन प्रतिमा |
मुलबेक और बुद्धखरबू इस जिले के दो ऐसे कस्बे हैं जहाँ बौद्ध धर्म का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। वैसे लेह की ओर जाते जाते तिब्बती बौद्ध संस्कृति का असर उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है। पर्यटकों को मुलबेक इसलिए भी लुभाता है क्यूँकि यहाँ सड़क के किनारे सीधी खड़ी चट्टान पर भगवान बुद्ध की 26 फीट ऊँची आकृति को तराशा गया है। सत्तर के दशक में इस प्रतिमा के ठीक सामने एक बौद्ध मंदिर का भी निर्माण किया गया है।
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चम्बा की ये मैत्रेयी बुद्ध की प्रतिमा कुषाण काल में ईसा पूर्व पहली शताब्दी में बनी है, इसकी घोषणा यहाँ का सरकारी सूचना पट्ट करता है पर इतिहासकार इसे आठवीं शताब्दी का बताते हैं। ये प्रतिमा आने वाले समय के संभावित बुद्ध की है जो मैत्री का प्रतीक हैं और इसीलिए इन्हें मैत्रेयी बुद्ध के रूप में कल्पित किया गया है। चट्टान पर उकेरे बुद्ध के इस मोहक रूप के पास खारोष्ठी लिपि में एक संदेश लिखा गया है। ये संदेश यहाँ के तत्कालीन राजा का है और स्थानीयों को जीवित जानवरों की बलि चढ़ाने की मनाही करता है। हालांकि कहा जाता है कि यहाँ के लोगों को राजा का ये आदेश नागवार गुजरा क्यूँकि उन्हें लगता था कि अगर हम बलि चढ़ाना बंद कर दें तो हमारे इष्ट देव हमसे प्रसन्न कैसे होंगे?
मंदिर के पुजारी बताते हैं कि कुछ साल पहले यहाँ दलाई लामा भी आए थे। बुद्ध की प्रतिमा से सुसज्जित ये मंदिर तो छोटा सा है पर यहाँ आकर सबसे मजेदार बात लगी भगवान बुद्ध के चरणों में चढ़ावे की प्रकृति को देखकर। देशी शीतल पेय Thumbs Up से लेकर यहाँ Four Season, Treat और Fresca जैसे विदेशी ब्रांड बुद्ध के चरणों में समर्पित थे। अब सारा सुख वैभव छोड़कर दुख का कारण जानने के लिए निकले सिद्धार्थ को क्या पता था कि इतनी तपस्या के बाद व मोक्ष तो पा जाएँगे पर एक दिन भिक्षा के नाम पर उनके अनुयायी शीतल पेय का प्रसाद चढ़ाएँगे।
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मुलबेक का बौद्ध मंदिर |
मुलबेक से फ़ोतु ला की ओर बढ़ने से पहले मुझे नहीं पता था कि बीच में एक दर्रा और पड़ता है जिसे नामिक ला के नाम से जाना जाता है। नामिक ला की विशेषता है कि यहाँ से गुजरते वक़्त एक ऐसी चोटी दिखती है जो एक पहाड़ के बीचो बीच खंभे की तरह आसमान छूती प्रतीत होती है। मैंने वो अद्भुत चोटी तो देखी पर उसकी तस्वीर लेते लेते नामिक ला का साइनबोर्ड कब गुजर गया पता ही नहीं चला।
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खंगराल जहाँ से बटालिक से आता एक रास्ता मिलता है |
खंगराल के पास एक रास्ता कारगिल से बटालिक और दाह होते हुए श्रीनगर लेह राजमार्ग से मिल जाता है। यहाँ फिर हरे भरे खेतों के दर्शन हुए। इसके बाद ऍसी हरियाली लेह तक नहीं दिखी।
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नामिक ला और फ़ोतु ला के बीच |
खंगराल से जैसे जैसे हम फ़ोतु ला की ओर बढ़ रहे थे वैसे वैसे आसमान की रंगत और नीली होती जा रही थी।खिली धूप, गहरा नीला आकाश और उन पर थिरकते सफेद बादलों का छोटा सा पुलिंदा मन को पुलकित किए जा रहा था। ये सम्मोहन इतना बढ़ गया कि फ़ोतु ला के पहले ही मैंने गाड़ी रुकवाई और दूर दूर तक फैली चोटियों और उनमें पसरी शांति को महसूस करना चाहा। दरअसल लद्दाख आने का सुख असल मायने में यही है कि आप चित्त स्थिर कर देने वाली यहाँ की प्रकृतिक छटा को अपलक निहारते हुए यूँ डूब जाएँ कि आपको ख़ुद का भी ध्यान ना रहे।
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इस बादल को देख कर जी चाहा कि आसमान की तरह मैं भी इसे अपने आगोश में भर लूँ |
खंगराल के बाद अगला गाँव बुद्धखरबू का मिला। यहाँ सड़क के किनारे ही एक बौद्ध मठ है। पर यहाँ रुके बिना हम फोटु ला की ओर बढ़ गए।
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गगनभेदी पर्वतों के बीच नीले आसमान की छतरी |
लगभग ग्यारह बजे हमारा समूह फ़ोतु ला पहुँच चुका था। वैसे इस दर्रे को फोटुला के नाम से भी जाना जाता है जो इसका सही उच्चारण नहीं है। साढ़े तेरह हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित ये दर्रा इस राजमार्ग का सबसे ऊँचा दर्रा है। जहाँ जोजिला अपने खतरनाक रास्तों के चलते एक यात्री के मन में भय पैदा करता है वहीं फ़ोतु ला से दिखती अलग अलग रंग की पहाड़ियाँ और उनमें छाई गहरी निस्तब्धता एक आंगुतक को अपने मोहपाश में जकड़ लेती है। फ़ोतु ला से जब आप नीचे के सर्पीलाकार रास्तों की लड़ियाँ देखते हैं तो मन एक रोमांच से भर उठता है।
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फ़ोतु ला की ऊँचाइयों तक पहुँचने पर दिखता है इन सर्पीली सड़कों का जाल |
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फ़ोतु ला के पास पहुँचने पर धूप तो ठीक ठाक थी पर साथ थे बर्फीली हवाओं के थपेड़े |
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फ़ोतु ला के पास ही दूरदर्शन का ये टीवी टॉवर है |
फोतु ला पर ही प्रसार भारती का एक दूरदर्शन रिले स्टेशन हैं। यहाँ से लामायुरु तक का रास्ता अपने तीखे घुमावों और ढलान से अच्छे अच्छों का सिर घुमा देता है। सिर्फ पन्द्रह किमी की यात्रा में आप 500 मीटर नीचे पहुँच जाते हैं।
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फ़ोतु ला से लामायुरु की राह पर |
मटमैले पहाड़ कई परतों में हमारे सामने खड़े थे। उनकी विशालता के सामने श्रीनगर लेह राजमार्ग चींटी की तरह उनके चरणों में रेंगता सा दिख रहा था। बादलों की आवाजाही में ये पहाड़ गिरगिट की तरह अपना रंग बदल लेते।
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इन विशाल पहाड़ों के चेहरे का रंग अगर कोई बदल सकता है तो वो हैं ये मनचले बादल |
बहुत दूर तक ये परिदृश्य मन को लुभाता रहा कि तभी अचानक नीचे उतरते उतरते लामायुरु के बौद्ध मठ अपनी पहली झलक दिखला गया। क्या दृश्य था वो ! लद्दाख के पहाड़ों की गोद में खेत खलिहानों की हरी चादर लपेटे एक इमारत मुस्कुराती हुई सी खड़ी हो।
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और ये पहुँच गए हम लोग लामायुरु के बौद्ध मठ के पास |
लामायुरु के बौद्ध मठ के साथ अगली कड़ी आपको दिखाऍगे यहाँ का मूनलैंड और फिर आपकी मुलाकात कराएँगे सिंधु यानि Indus से।
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आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २१०० वीं बुलेटिन अपने ही अलग अंदाज़ में ... तो पढ़ना न भूलें ...
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कुछ इधर की - कुछ उधर की : 2100 वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
हार्दिक आभार!
हटाएंबहुत बढ़िया जानकारी यह वाखा नदी के बारे में पता नही था...कारगिल हरा और लद्दाख रेगिस्तान इसका कारण समाझ में आ गया...
जवाब देंहटाएंसिंचाई के लिए नदी के पानी की उपलब्धता , समुद्र तल से ऊँचाई और साल भर में बारिश की मात्रा ...ये तीन मुख्य कारक किसी भी जगह की हरियाली को प्रभावित करते हैं। लद्दाख के सुदूर इलाकों की निचली घाटियाँ भी टुकड़ों में आपको हरी भरी दिख जाएँगी। आलेख को पसंद करने के लिए धन्यवाद! :)
हटाएंबहुत खूबसूरत शब्दों में पिरोया है आपने यात्रा को
जवाब देंहटाएंजानकर खुशी हुई कि आपको यह वृतांत पसंद आया 😊
हटाएंपर्वतीय धरती का परिवेश और भूगोल बड़ी आसानी से समझ में आ गया.
जवाब देंहटाएंजानकर खुशी हुई।
हटाएंलद्दाख का इलाका पठारी सा लगा।
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