स्पीति की यात्रा करने के बहुत पहले से वहाँ की दो तस्वीरें मेरे मन में घर कर चुकी थीं। एक तो हरे भरे खेतों के बीचों उठती लांग्ज़ा में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा तो दूसरी पहाड़ की संकरी चोटी पर लटकता हुआ सा प्रतीत होता धनकर का बौद्ध मठ जिसे यहाँ धनखर के नाम से भी जाना जाता है। बाद में स्पीति की यात्रा की योजना बनाते समय ये भी पता चला कि मठ से थोड़ी चढ़ाई पर एक छोटा सा ताल भी है जिस तक पहुँचने के लिए करीब एक घंटे लगते हैं। फिर धनकर के इस ऐतिहासिक मठ के साथ साथ वो अनजानी सी झील भी मेरे सफ़र का हिस्सा बन गयी।
धनकर का बौद्ध मठ व किला जिसके अवशेष मात्र ही रह गए हैं
काज़ा की वो सुबह मन में स्फूर्ति भर कर लाई थी। स्पीति के सबसे पुराने मठ को देखने की ललक तो थी ही साथ ही इतनी ऊँचाई पर एक छोटा सा ही सही ट्रेक कर धनखर की पवित्र झील तक जाने का रोमांच भी था। हालांकि मेरे साथी थोड़ा सशंकित जरूर थे क्यूँकि इस तरह की यात्रा का उनका ये पहला अनुभव था पर उत्साह की कमी उनमें भी नहीं थी।
स्थानीय विद्यालय की शिक्षिका के साथ हम सब
काज़ा से धनकर की दूरी मात्र 33 किमी की है। सीधा सा रास्ता है जो स्पीति नदी के किनारे किनारे होता हुआ करीब एक घंटे में धनकर पहुँचा देता है। काज़ा से पाँच छः किमी आगे बढ़े थे कि रास्ते में हमारी गाड़ी को रोकने का इशारा करती एक युवती मिल गयी। उसे भी धनकर जाना था। हमने उसे बिठा लिया। पता चला कि वहीं के स्कूल की शिक्षिका है। वो रोज़ काज़ा के आगे के एक गाँव से धनकर में बच्चों को पढ़ाने जाती थी। अपने गाँव कस्बों के विद्यालयों से तुलना करूँ तो उसके स्कूल की इमारत शानदार थी पर जिस गाँव की आबादी ही कुल जमा तीन सौ हो वहाँ बच्चे कितने होने थे?
धनकर का साफ सुथरा प्यारा सा गाँव
शिक्षिका ने बताया कि एक क्लास में ज्यादा से ज्यादा पाँच से दस बच्चे होते हैं। उसमें भी कम छात्र होने से दो अलग अलग कक्षाओं के बच्चों को एक साथ पढ़ाना पड़ता है। मैंने मन ही मन सोचा कम से कम यहाँ हर बच्चे को शिक्षक अलग से ध्यान दे पाता होगा वर्ना शहरों में तो आजकल एक सेक्शन में पचास से ज्यादा बच्चे भी विद्यालय ठूँस लेते हैं।
धनकर गाँव में स्कूल की शानदार इमारत
युवती से विदा लेने के बाद हम धनखर मठ की ओर बढ़े। धनकर मठ स्पीति का सबसे पुराना मठ माना जाता है। बारहवीं शताब्दी में ये हिस्सा तिब्बत के राजाओं के नुमाइन्दों के नियंत्रण में था और पूरे स्पीति की राजधानी था। राजा के ये प्रतिनिधि नोनो के नाम से जाने जाते थे। स्पीति और पिन नदियों के बीच घाटी से लगभग हजार फीट की ऊँचाई पर धनकर का लकड़ी और मिट्टी से बना हुआ किला होता था। खेती बाड़ी और गर्मियों में पश्चिमी तिब्बत से होने वाले व्यापार में साहूकारों से सुरक्षा के नाम पर वसूले गए कर से यहाँ का राज काज चलता था।
वैसे व्यापार के लिए यहाँ के लोगों के पास था भी क्या? सिर्फ याक का ऊन या उसका सुखाया हुआ दूध जिसके बदले यहाँ के लोग नमक और माणिक लिया करते थे। आज भी मठ के ऊपर जाने वाले रास्ते में मिट्टी की दीवारें और उनके बीच कलात्मक लकड़ी के पैनल दिख जाते हैं। आज किले के नाम पर उसके अवशेष ही बचे हैं जो कब काल के गाल में विलीन हो जाएँ कह नहीं सकते।
धनकर गोम्पा का स्वागत द्वार
जैसा कि ज्यादातर मठों में होता है, इस मठ के अंदर भी फोटोग्राफी की मनाही है। मठ के अंदर जाने में ऐसा लगता है मानो किसी गुफा में जा रहे हों। मठ की दीवारों पर बनी पेंटिंग सबसे पहले ध्यान खींचती हैं जो इसके अतीत की झलक दिखला जाती है। यहाँ का मुख्य ध्यान कक्ष एक बड़ी गुफा जैसा ही है जो संभवतः पहाड़ को काट कर बनाया गया हो। ये छोटी बड़ी गुफाएँ एकांत तो देती ही थीं साथ ही कड़ाके की ठंड में अपेक्षाकृत गर्म भी रहती थीं।
धनकर गोम्पा कब तक खड़ा रह पायेगा इन निरंतर अपरदित होती संरचना पर
पुराने मठ की जीर्ण शीर्ण हालत को देखते हुए नीचे एक नया बौद्ध मठ भी बना दिया गया है जिसमें बाहर से आने वालों के लिए ठहरने की भी व्यवस्था है। मठ के बाहर से आपको धनकर गाँव के साथ साथ दूर तक फैला हुआ स्पीति नदी का पाट और उसके किनारे के रूखे सूखे खेत खलिहान भी दिखते हैं।
धनकर के इलाके में तेज हवाओं की वज़ह से मिट्टी की शिलाओं में निरंतर होते अपरदन से कई तीखी शंकुधारी संरचनाएँ बन गयी हैं। वैसे तो नश्तर की तरह निकले ऐसे नुकीले स्वरूपों से स्पीति भरा पड़ा है पर घाटी से तीन सौ मीटर ऊँची चोटी पर स्थित मठ के नीचे और अगल बगल इस अपरदन का जबरदस्त प्रभाव दिखता है। ऐसा लगता है कि ये पहाड़ कभी भी टूट कर बिखर जाएगा। जलवायु परिवर्तन की वज़ह से अब तो स्पीति में यदा कदा बारिश भी होने लगी है जो कमजोर होते इस पहाड़ के लिए और भी नुकसानदायक है। यही वज़ह है कि धनकर को विश्व की सौ वैसी धरोहरों में रखा गया है जो प्रकृति की चोटों को शायद ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त ना कर पाएँ।
मठ का दर्शन करने के बाद हम सब धनकर झील तक चढ़ाई के लिए तैयार हो गए। धनकर का मठ समुद्र तल से लगभग 12774 लगभग फीट की ऊँचाई पर है। हमें अभी 250 मीटर यानी साढ़े सात सौ फीट और ऊपर जाना था। ये दूरी तय करने में अमूमन पौन से एक घंटे लगते हैं। जिन लोगों को इतनी ऊँचाई पर चलने का अभ्यास नहीं है उनके लिए ये यात्रा फिटनेस की परीक्षा ले सकती है। सच बताऊँ तो इतनी ऊँचाई पर ट्रेक करने का ये हमारे समूह का पहला अनुभव था। लद्दाख और उत्तरी सिक्किम में अपनी यात्राओं से मिली सीख से मैं मन ही मन आश्वस्त था कि ये मैं आसानी से कर पाऊँगा पर बाकी लोगों के लिए ये कठिन चुनौती के समान था।
दुबले पतले पेड़ जो स्पीति के बियावान में हरियाली की मुस्कान ले के आते हैं
मठ के नीचे के खेत खलिहान
धनकर झील ट्रेक की असली परीक्षा शुरुआती आधे घंटे की है जब आपको तीखी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। सितंबर के महीने में वहाँ ठीक ठाक ठंड होती है पर दिन में धूप भी तेज़ होती है इसलिए चलने में थकान का होना स्वाभाविक है। नए मठ के विपरीत दिशा में जाती पगडंडी से ट्रेक शुरु होता है। शुरुआत में थोड़े बहुत पेड़ और झाड़ियाँ मिलती हैं पर कुछ मिनटों में नंगे पहाड़ आपका दामन थाम लेते हैं और दूर दूर तक उनके सिवा कुछ नहीं दिखता ।
शुरुआत की तीखी चढ़ाई
अगर आपकी फोटोग्राफी में दिलचस्पी है तो धनकर झील के इस ट्रेक का आनंद आपके लिए तब और बढ़ जाएगा जब पिन और स्पीति नदियों के संगम का विहंगम दृश्य आपके सामने होगा। स्पीति में ये नदियाँ पतली पतली धाराओं में बहती है ठीक वैसे ही जैसे डेल्टाई क्षेत्र में मैदान में बहने वाली नदियाँ टूट कर सागर में मिल जाती हैं। इस पर्वतीय रेगिस्तान में बारिश तो होती नहीं। नदियों में जो पानी होता है वो जाड़ों में जमी बर्फ के पिघलने से आता है। हमारा ट्रेक अब तक नदी के समानांतर चल रहा था पर आगे एक घुमाव था जो हमें नदी से दूर झील की ओर ले जाता। मेरे एक वरीय सहकर्मी अच्छा तो महसूस नहीं कर रहे थे पर रुकते रुकते आगे बढ़ रहे थे। समूह का सबसे छोटा सदस्य निरंतर उनका उत्साहवर्धन कर रहा था़। उनके आने की प्रतीक्षा में मैंने अपनी नज़रें नदियों के मिलन बिन्दु पर गड़ा दीं।
पिन और स्पीति नदी का संगम
जिस तस्वीर को अंतरजाल पर अक्सर देखा करता था वो साक्षात मेरे सामने थी। मैं चुपचाप एक शिला पर जा बैठा उन लम्हों को अन्तरमन में क़ैद करने के लिए जो कुछ घंटों के बाद मात्र स्मृतियों का हिस्सा भर रह जाने वाले थे। मैं सोचने लगा कि अगर ये कलकल करती नदी वहाँ ना बहे और हवा अपनी सरसराहट ना सुनाए तो इन पहाड़ों में गहन निस्तब्धता के सिवाए और रह क्या जाएगा? ऐसे वातावरण में बौद्ध अनुयाईयों ने भगवान बुद्ध की अराधना का केंद्र बनाया ये क्या कम विस्मय की बात नहीं है? शायद ये निर्जनता ही उनकी साधना को और गहरा करने में सहायक होती हो।
चढ़ाई और संकरे रास्ते से पार पाने के बाद मुख पर छायी प्रसन्नता 😊
घुमाव के साथ पगडंडी बेहद संकीर्ण हो चली थी। एक साथ दो लोगों के चलने की गुंजाइश खत्म हो गयी थी। हम पहाड़ के बिल्कुल किनारे किनारे चल रहे थे। ये स्थिति पाँच दस मिनट बनी रही। हम करीबन हजार फीट ऊपर चढ़ चुके थे। अक्सर झील की ओर लोग दोपहर के बाद ही जाते हैं पर हम थोड़ा पहले ही निकल लिए थे। इसलिए रास्ते में ये बताने के लिए कोई नहीं था कि आगे और कितना चलना है? पर वापसी में ढेर सारे लोगों मुझसे यही सवाल करते रहे। वैसे भी ऊपर चढ़ने वाला हाँफते हुए प्रश्न पूछता है कि और कितना तो जवाब में वो बस पास ही है सुनना चाहता है। एक युवा मोहतरमा ने तो उसका मौका भी नहीं दिया। दूरी पूछने के बाद छूटते ही बोल उठीं प्लीज़ पाँच मिनट से ज्यादा मत बोलिएगा और माहौल में हँसी की एक तरंग तैर गयी।
जिस दिशा में हम पुराने मठ से नए मठ की तरफ आए थे, चढ़ाई चढ़ने के बाद घुमावदार रास्ते से ठीक विपरीत दिशा में जा रहे थे। अगर पुराने किले से कोई पैराग्लाइडिंग करते हुए उड़ान भरता तो ये झील बस पीछे के दो पहाड़ों को पार करते ही सामने दिख जाती। आगे का रास्ता हल्की ढलान लिए था पर पहले से काफी चौड़ा हो चुका था। कठिन हिस्से को पार कर चुकने की खुशी हम सब के चेहरों पर थी।
चारों ओर मटमैले पहाड़ों का जाल सा था। इन पहाड़ों ने हर दिशा से धनकर झील को घेर रखा है। अगर पास के किसी पर्वत की चोटी से देखें तो ये छोटी सी झील एक बेहद गहरे मिट्टी के कटोरे सी नज़र आती है।
जैसे जैसे हम झील के पास आ रहे थे जंगली घास गोल चौकौर बूटों की शक़्ल में हमें रास्ते की दोनों तरफ दिखाई दे रही थी। कुछ ही देर में हम इस झील के सामने थे। अपने गंतव्य तक पहुँच कर सबसे पहले हमने प्रार्थना स्थल पर जाकर प्रभु को धन्यवाद दिया कि हम इस जगह तक सकुशल पहुँच सके। हमारे समूह के कुछ लोग झील की छोटी सी परिक्रमा पर निकले तो कुछ आकाश की खुली चादर के नीचे लेट कर अपनी थकान मिटाने लगे। मैं भी झील और आस पास का पूरा दृश्य देखने पास की पहाड़ी की ओर बढ़ गया।
धनकर झील, झील की बाँयी तरफ छोटा सा पुराना स्तूप है
धनकर झील की बगल में बना नया स्तूप
रास्ते और झील के पास बिताये कुछ खुशनुमा पलों की झलकियां
झील के पास के इलाके में घास के बूटों का अनोखा नमूना, पीछे दिख रहा मणिरंग पर्वत
झील का एक हिस्सा सितंबर तक सूख चुका था। पानी से भरे झील के दूसरे किनारे पर एक छोटा सा स्तूप है। झील तक पहुँचने के ठीक पहले किन्नौर स्पीति की सीमा पर स्थित मणिरंग की चोटी दिखाई देती है। मणिरंग का शुमार हिमाचल प्रदेश की ऊँची चोटियों में होता है। लगभग 6600 मीटर ऊँचे इसके शिखर पर हाल ही में एयरफोर्स की महिला पर्वतारोहियों की टीम ने अपने झंडे गाड़े थे। एक ज़माने में मणिरंग के पास का दर्रा किन्नौर को स्पीति से जोड़ने का एकमात्र माध्यम हुआ करता था। अब तो अच्छी खासी रोड बन गयी है।
मणिरंग का चमकता शिखर
पहाड़ों पर कब मौसम बदल जाए पता ही नहीं चलता। झील के आस पास बोलते बतियाते घंटा भर बीता ही था कि बादलों की फौज झील की ओर आती दिखाई दी। मौसम और ना बिगड़ जाए ये सोचकर हमने जल्दी जल्दी वापस कदम बढ़ाए।
वापसी का रास्ता बिना किसी ज्यादा दिक्कत पूरा किया गया। कहीं कहीं ढीली मिट्टी में उतरते समय पैर फिसलने की नौबत आई पर किसी तरह लड़खड़ाते हुए मैं सँभल गया। ट्रेक पूरा होने का उत्साह में सफ़र की थकान उड़ चुकी थी।
ट्रेक सफलतापूर्वक समाप्त करने का उत्साह
धनकर के नए मठ का प्रांगण
मठ के पास चाय पी गयी और हम सभी वापस काज़ा के लिए चल पड़े। धनकर में बिताया वो यादगार दिन हमेशा हमेशा के लिए स्मृतियों का अटूट हिस्सा बन गया।
कोरोना की वज़ह से मैंने आपने यात्रा लेखों पर विराम दे दिया था। बदले हुए माहौल और मूड में ये आलेख आप सबको कैसा लगा जरूर बताइएगा। भविष्य में इस ब्लॉग पर नई पोस्ट की सूचना पाने के लिए सब्सक्राइब करें
भई आप सचमुच ज़िंदगी का आनन्द उठाते हो। लम्बे समय बाद आपका लेख मुझे भी तरोताजा कर गया।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया..अच्छा लगा जानकर।😊
हटाएंधनकर और टाबो के पुराने मठ बहुत अच्छे लगे थे मुझे भी....में लेक तक नहीं जा पाया था लेकिन आपके फोटो जो की लेक से पिन स्पिति नदी के संगम और ट्रेक का वर्णन लेक के पास स्तूपा बहुत अच्छा लगा ये सब जानकर
हटाएंताबो का पुराना मठ तो अपने आप में अद्भुत है। मिट्टी की वैसी इमारत अब दिखती ही कहाँ हैं।
हटाएंसंगम और झील तक का विवरण आपको पसंद आया जानकर खुशी हुई।
मैं भी जाने का प्लान कर रही हूँ ,कृपया सही समय ,तैयारी और दूसरी जानकारी दीजिए
जवाब देंहटाएंसामान्यतः जून से अक्टूबर के बीच जाना बेहतर रहता है पर आजकल कपकपाती सर्दी के बीच बर्फ की विशाल चादर को देखने के लिए लोग जाने लगे हैं। मैं वहाँ सितंबर में गया था। स्पीति में बारिश बेहद कम होती है पर जुलाई अगस्त के महीने में वहाँ पहुँचने के रास्ते में भारी बारिश का खतरा रहता है। इसलिए मेरी सलाह यही होगी कि सितंबर के आख़िर में प्लान करें।
हटाएंअगर आप लद्दाख गयी हों तो उसकी अपेक्षा स्पीति के लिए कोई विशेष तैयारी की जरूरत नहीं है। शिमला से किन्नौर होते हुए स्पीति जाना श्रेयस्कर है क्यूँकि इस तरह धीरे धीरे ऊँचाई की ओर बढ़ने से Altitude Sickness नही होती।
बहुत बढ़िया..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया.
हटाएंwonderfull blog, kahin dhup kahin chanv..., kahin mitti kahin pahadh..., kahin haryali kahin sukhaa.., yahin to hai kudrat ka karismaa..,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया। सही कहा..प्रकृति की यही विविधता हमें चमत्कृत करती रहती है।
हटाएंये स्पीति की मेरी सबसे प्रिय जगहों में से एक है , अच्छा लिखा आपने..
जवाब देंहटाएंबिल्कुल मेरी भी👍👍
हटाएंप्रकृति का अद्भुत रोमांचक सफर, हिमालय की गोद में बसे गांव और मठों का अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य, झीलों और पहाड़ों का मनोहारी भौगोलिक दृश्य, शानदार एवं प्रेरणादायक यात्रा, उम्दा लेख, प्रकृति के सान्निध्य में व्यतीत अविस्मरणीय पल! 🙏🏻🙏🏻
जवाब देंहटाएंहाँ बिल्कुल, धनकर का बौद्ध मठ अपनी अनूठी भौगोलिक स्तिथि के कारण मेरे लिए हमेशा से कौतूहल का विषय था। स्पीति के अपने इस प्रिय स्थल को इस ट्रेक की वजह से अलग अलग कोणों से देख सका।😊
हटाएंरोचक सुन्दर वृत्तान्त ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙂
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