मंगलवार, 16 अगस्त 2011

चाँदीपुर समुद्र तट भाग 2 : क्या आप समुद्र में मेरे साथ मार्निंग वॉक पर चलेंगे?

चाँदीपुर के समुद्र तट पर शाम बिताने के बाद कुछ देर विश्राम कर हम फिर पेट पूजा के लिए नीचे आए। शाम को समुद्र की तरफ बने लॉन में ही गोल टेबुल व कुर्सियाँ लगा दी जाती हैं। बादल भरी रात होने की वज़ह से समुद्र एक बारगी फिर दूर चला गया था। दूर अँधेरे में कुछ दिख भी नहीं रहा था। फिर भी समुद्र के हर रूप में देखने की इच्छा हमें भोजन के पश्चात एक बार फिर हम समुद्र की ओर बने वॉच टावर की ओर ले गई। 

शांत समुद्र को हम यूँ ही बहुत देर निहारते रहे कि अचानक हमें समुद्र के स्याह जल के बीच थोरी थोड़ी दूर पर सफेद आकृतियाँ दिखाई पड़ीं। आकृति दूर से इतनी छोटी दिखाई दे रही थी कि वो क्या है ये किसी की समझ में नहीं आ रहा था। सफेद रंग की वो आकृति पल भर में अपनी जगहें यूँ बदल रही थी मानों उसकी सतह पर बड़ी तेजी से तैर रही हो। इतने कम पानी में इतनी तेजी से तैरती मछली का अनुमान हमारे गले नहीं उतर रहा था। इसलिए रात के अँधेरे में समूह के सबसे युवा सदस्य को तहकीकात करने के लिए नीचे भेजा गया। थोड़ी देर बाद उसने ऊपर आकर कर उसने रहस्य खोला कि वो सफेद आकृति कोई मछली नहीं पर पानी की सतह के समानांतर उड़ती छोटी सफेद चिड़िया है जो कीड़े मकोड़ों और नन्ही मछलियों को अपना शिकार बना रही है।

थोड़ी दूर और समय बिताने के बाद हम वापस चले गए इस कार्यक्रम के साथ की भोर होते ही फिर समुद्र में वॉक पर निकल पड़ना है। सुबग पाँच बजे जब नींद खुली तो तेज हवा चलने की आवाज़ आई। बालकोनी का दरवाजा खोला तो पाया कि तेज हवा के साथ मूसलाधार बारिश भी हो रही है। घंटे भर की बरिश के बाद  बादल  तितर बितर हो गए।
सात बजते बजते हल्की सी धूप भी निकल आई।  बारिश से धुली ये वाटिका कुछ और हरी भरी महसूस हो रही थी।

पाँच दस मिनट के भीतर ही हम सुबह की सैर पर निकल आए। सबुह हमने समुद्र में पिछली शाम की तरह अंदर ना जा कर उसके समानांतर टहलने का निश्चय किया। अगर गूगल मैप से देखें तो हमारी सुबह की सैर का इलाका कुछ यूँ दिखाई पड़ेगा।

पहले हम अपने अतिथि गृह सागर दर्शन के दाँयी ओर मुड़े। इस इलाके में DRDO के ही कुछ और पुराने बने गेस्ट हाउस हैं। समुद्र के कटाव को रोकने के लिए पूरे तट पर पत्थरों से बाँध बनाया गया है जिसके पीछे नारियल के वृक्षों की कतार दूर तक दिखाई देती है। 

करीब तीन चार सौ मीटर बढ़ने के बाद एक बार फिर से बादल घिर आए तो हमने दूसरी दिशा में चलना शुरु किया। दरअसल चाँदीपुर का मुख्य समुद्र तट इसी दिशा में है। बादलों के आ जाने से समुद्र में टहलना और अच्छा लग रहा था। तट के किनारे पानी लगभग स्थिर था इसलिए हम हल्की लहरों वाले हिस्से में बहते जल में चलने लगे। देखिए दोनों जल राशियाँ कितनी पृथक लग रही हैं...



सागर दर्शन गेस्ट हाउस से चलते चलते हम अब PWD के गेस्ट हाउस तक आ चुके थे। चाँदीपुर तट का बालू वाला किनारा भी पार्श्व में नज़र आने लगा था। इसी तट के आस पास ही यहाँ के होटल अवस्थित हैं। ऊपर चित्र में मेरे पीछे जो बिन्दुनुमा काली आकृतियाँ दिख रही हैं वो मुख्य तट पर आए सैलानियों की हैं।

हल्के नीले सफेद बादलों ने अपना रंग बदलना शुरु कर दिया था। दूर से आते बादलों की कालिमा बारिश के आने का संकेत दे रही थी। हाथों में कैमरे होने की वजह से हम बारिश में भींफने का खतरा नहीं उठा सकते थे सो हम वापस लौटने लगे।

आधे रास्ते पहुँचते पहुँचते बारिश की रिमझिम शुरु हो गई थी। कारे कारे बदरा किस तरह बारिश की फुहारों को छोड़ रहे थे वो नज़ारा भी देखने लायक था।

तट के बिल्कुल किनारे जहाँ से समुद्र गायब हो चुका था वहाँ ठोस रेत में पानी के कटाव से बड़ी मोहक आकृतियों का निर्माण हो गया था

सुबह की इस सैर तो हो गई पर अब तक हम समुद्र में छपाका नहीं लगा पाए थे। अब समुद्र में आएँ और उसके पानी से अठखेलियाँ ना की जाएँ तो फिर बात अधूरी रह जाएगी। बारह बजे तेज धूप में अंतिम बार हम फिर तट की ओर निकले। क्या किया इस बार हमने ये देखिए इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में..

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

सोमवार, 8 अगस्त 2011

चाँदीपुर समुद्र तट भाग 1 : डूबता सूरज..समुद्र में बदते कदम और वो यादगार शाम...

चाँदीपुर ओडीसा का एक बेहद खूबसूरत समुद्र तट है। दशकों पहले एक बार यहाँ जाना हुआ था और उस यात्रा में समुद्र के रातों रात गायब होने और फिर सुबह में वापस अवतरित होने की कहानी भी आप सब से साझा की थी। पर उस बार चाँदीपुर से समुद्रतट से हुई मुलाकात सुबह के उन चंद घंटों की ही थी और साथ में कैमरा भी नहीं था कि आपको समुद्र के बदलते रूप को प्रत्यक्ष दिखा पाता। पिछले साल जब उड़ीसा गया तो पारादीप के बंदरगाह से लौटते वक़्त बालासोर भी जाना हुआ। 

ओडीसा के उत्तर पूर्वी हिस्से में स्थित इस जिले से चाँदीपुर मात्र पन्द्रह किमी दूर है। इसके तटीय जिले के पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में मयूरभंज का इलाका आता है जबकि इसे उत्तरी सिरे पर बंगाल का मेदनीपुर जिला आ जाता है। बंगाल के सबसे लोकप्रिय समुद्र तट दीघा से बालासोर की दूरी लगभग सौ किमी की है। दीघा से बालासोर का समुद्रतट बेहद छिछला है। यानि आप समुद्र के अंदर मीलों चलते रहें पानी घुटनों से ऊपर नहीं जाएगा। चाँदीपुर के समुद्रतट की यही विशिष्टता इसे बाकी सभी समुद्र तटों से अलग कर देती है। वैसे चाँदीपुर मिसाइल प्रक्षेपण केंद्र के लिए भी मशहूर है। यह केंद्र यहाँ १९८९ में स्थापित किया गया था। भारत में बनी अधिकतर मिसाइल जैसे त्रिशूल, आकाश, नाग व हाल फिलहाल में जमीन से जमीन तक मार करने वाली मिसाइल पृथ्वी और अग्नि का प्रक्षेपण भी यहीं से किया गया था।



बालेश्वर से चाँदीपुर पहुँचते पहुँचते पौने पाँच बज चुके थे। इस बार चाँदीपुर में किसी होटल में ना ठहरकर हम डीआरडीओ के विश्रामगृह में ठहरे। ये गेस्ट हाउस समुद्र के ठीक किनारे बसा हुआ था। उद्यान को पार करिए और सामने समुद्र हाज़िर। वैसे प्रथम तल्ले की बालकोनी से भी समुद्र की गतिविधियाँ साफ दिखाई देती थीं। रूम में सामान रखकर हम लगभग पाँच बजे समुद्र की ओर चल पड़े। सूर्यास्त अभी नहीं हुआ था। पर सूरज बादलों की ओट में छुपा हुआ था। हमारे आने के पहले ही वहाँ बारिश भी हुई थी। चाँदीपूर में सूर्यास्त के पहले का समुद्र बेहद शांत होता है। जब तक सागर को चाँद ना दिखे उसका दिल हिलोरें लेने को मानता ही नहीं है। गेस्ट हाउस के वाच टॉवर से नीचे उतरकर हम नंगे पाँव समुद्र में चहलकदमी करने चल पड़े। पीछे दिख रहा है डी आर डी ओ का गेस्ट हाउस।



समुद्र के अंदर मैंने करीब दो सौ मीटर का फासला तय कर लिया था पर पानी का स्तर मेरे तलवों से भी ऊपर नहीं आया था।



सूर्यास्त के पहले एक हल्की सी रोशनी बादलों के बीच से आई तो मैंने कैमरे का रुख ऊपर की ओर मोड़ा।



अब तक समुद्र में चलते चलते हमें बीस मिनट हो चले थे। इस इलाके के समुद्र तट कि एक खास बात ये भी है कि यहाँ की सतह ठोस होती है और बालू बेहद  महीन जिससे आपको समुद्र में चलने में जरा भी तकलीफ़ नहीं होती। गेस्ट हाउस से तकरीबन हम लोग एक डेढ़ किमी दूर थे पर हमने चलना जारी रखा।



डूबता सूरज आकाश को लाल नारंगी आभा से दीप्त किए दे रहा था। हमें समुद्र में चलते चलते पैंतीस मिनट हो चुके थे। दाएँ, बाएँ और सामने जहाँ तक नज़र जाती थी दूर दूर तक समुद्र का मटमैला पानी दिख रहा था। पीछे देखने पर गेस्ट हाउस पहले से और बौना प्रतीत हो रहा था। पानी का स्तर तलवों से बढ़ गया था पर दो किमी चलने के बाद भी घुटनों से नीचे था।



पर कुछ ही मिनटों में एकदम से अँधेरा हो गया। जो लहरें शांत दिख रही थीं उनमें एक हलचल सी दिखाई देने लगी। शायद उन्हें चाँद की झलक मिल चुकी थी। हम सब भी वापस गेस्ट हाउस की ओर लौटने लगे। इस इच्छा को मन में दबाए हुए कि अगली सुबह फिर तेरा रूप देखने लौंटेंगे।


कैसा था चाँदीपुर समुद्र तट में शाम का नज़ारा। अगले भाग में आपके साथ की जाएगी समुद्र में मार्निंग वॉक। तैयार रहिएगा !

इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

विश्व की सबसे चर्चित हेयरपिन बेंड्स (Hairpin Bends) वाली घुमावदार सड़कें !

पिछले हफ्ते आपसे एक सवाल पूछा था पहाड़ पर बने एक सौ अस्सी डिग्री के घुमाव वाले रास्ते के बारे में। अंग्रेजी में ऍसे घुमावों को हेयरपिन बेंड (Hairpin Bend)  कहते हैं क्यूँकि इनका आकार महिलाओं के केश विन्यास में काम आने वाले हेयरपिन सरीखा  होता है। आज की इस प्रविष्टि में आपसे किए गए सवाल के बारे में तो बात होगी ही साथ ही आपको  ले चलेंगे संसार के सबसे मशहूर Hairpin Bends की सैर पर।
ऊँचे पर्वतीय रास्तों पर एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ को लाँघने के लिए कई दर्रों से होकर गुजरना पड़ता है। अब अगर इन रास्तों की ढाल बढ़ा दी जाए तो भारी और मालवाहक वाहनों के घुमावों पर लुढ़कने की संभावना बढ़ जाती है। इस ढाल को सीमा के अंदर लाने में Hairpin Bends बड़े मददगार होते हैं। Hairpin Bends जहाँ एक ओर दुर्घटना की संभावनाओं को घटाते हैं वहीं दूसरी ओर इनके चलते रास्ते की लंबाई कई गुना बढ़ जाती है।
मनाली लेह रोड जिसे दुनिया के सबसे दुर्गम रास्तों में एक माना जाता है, में भी एक ऐसा ही हेयरपिन बेंड है। मनाली से केलोंग होते हुए जब पर्यटक हिमाचल की सीमा के पास पहुँचते हैं तो सरचू के पठारी मैदान आपका स्वागत करते हैं। सरचू से थोड़ा आगे जाने पर Tsarap नदी मिलती है। इस नदी को पार करते ही अचानक ही एकदम से चढ़ाई आ जाती है और मुसाफ़िरों का सामना होता है 21 चक्करों वाले इस हेयरपिन बेंड से ,जिसे गाटा लूप्स (Gata Loops) के नाम से जाना जाता है। सात किमी लंबे इस लूप के चक्कर काटने में साइकिल व बाइक सवारों के पसीने छूट जाते हैं। गाटा लूप्स को शुरुआत से अंत तक पूरा करते ही आप दो हजार फीट ऊपर आ जाते हैं और पांग की ओर निकल जाते हैं। गाटा लूप्स के ऊपर से तसरप नदी घाटी और  इन घुमावदार सर्पीली लकीरों को देखना कितना अविस्मरणीय अनुभव हो सकता है वो आप  कृष्णनेन्दु सरकार के खींचे हुए इस चित्र को देखकर ही समझ सकते हैं।

ये तो हुई गाटा लूप्स की बात। दक्षिण पूर्वी नार्वे में Lysebotn Road में भी 27 हेयरपिन बेंड हैं। गाटा लूप्स के विपरीत ये बेंड आपको नीचे और नीचे ले जाते हैं। पतली सी सड़क पर 34 किमी का ये सफर तब रोंगटे खड़ा कर देने वाला हो जाता है जब सामने से अचानक बस या लॉरी आपके सामने आ जाए। रोड के अंतिम सिरे पर की सुरंग तीन सौ साठ डिग्री का चक्कर लगा कर घाटी के निचले हिस्से में ला कर छोड़ देती है।

उत्तर पश्चिमी यूरोप से ले चलते हैं आपको मध्य यूरोप में जहाँ आल्पस पर्वत अपने अंदर ऐसे कई हेयरपिन बेंड समाहित किए हुए है। स्विस आल्पस (Swiss Alps) में ऐसी एक सड़क है जो ओबेरआल्प पास तक जाती है। जाड़े के दिनों में 2044 मीटर की ऊंचाई तक जाती ये सड़क बंद रहती है। पर गर्मियों की हरियाली में इसका नज़ारा देखते ही बनता है।


फ्रांस मे फैले आल्पस पर्वत में भी ऐसे घुमावों वाली कई सड़के हैं। 1244 मीटर की ऊँचाई चढ़ने के लिए  Col de Turini पर 34 किमी की यात्रा कर लोग 363 मीटर की ऊँचाई से 1607 मीटर तक पहुँच पाते हैं। मान्टेकार्लो कार रैली के लिए इसी सड़क का इस्तेमाल होता है। वहीं Col de Braus को दुनिया की सबसे आकर्षक सड़कों में एक माना जाता है। यहाँ के हेयरपिन घुमाव साइकिल दौड़ाकों के लिए  बड़ी चुनौती माने जाते हैं। एक नज़ारा आप भी देखिए



पर घुमावों की संख्या में इन सब को मात देता है इटालियन आल्पस का 'स्टेलविओ पास' (Stelvio Pass)। कुल मिलाकार साठ हेयरपिन घुमावों वाला ये दर्रा यूरोप में आल्पस पर्वत का सबसे ऊँचा पास है।  2758 मीटर ऊँचे इस दर्रे पर जाती सड़क को 1820-1825 ई में आस्ट्रियाई शासकों ने बनाया था। प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक जब इटालवी सीमाओं का विस्तार नहीं हुआ था तब ये इलाका स्विस,आस्ट्रिया और इतालवी सीमाओं को एक दूसरे से अलग करता था । ये पहाड़ी दर्रे कई इतालवी और अस्ट्रियाई सेनाओं के आपसी संघर्ष के साक्षी रहे हैं। आज 'स्टेलविओ पास' अपनी दुरुहता की वज़ह से साहसी साइकिल, बाइक व मोटर चालकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती की तरह है।


 पर हेयरपिन बेंड से सजी ये सड़कें सिर्फ यूरोप में हों ऐसा भी नहीं है। एशिया में भारत के आलावा चीन व जापान में भी ऐसी सड़कें हैं। पर उससे कहीं जबरदस्त दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वत पर बनी एक सड़क है जो चिली और अर्जेंटीना को जोड़ती है। वैसे तो चिली व अर्जेंटीना के बीच के पाँच हजार मील की लंबी सीमा है और उसमें कई दर्रे हैं पर इन सबमें सबसे ज्यादा मशहूर  Los Caracoles यानि स्नेल पॉस है। अर्जेंटीना की तरफ ये सड़क एक आम पर्वतीय सड़क की तरह है जो 3,175 मीटर की ऊँचाई पर एक सुरंग में जा मिलती है। इस सुरंग का आधा भाग चिली व आधा अर्जेंटीना में पड़ता है। पर सुरंग से बाहर आते ही चिली के इलाके में ये सड़क तेजी से नीचे की ओर एक सीध में बने कई हेयरपिन बेंड्स के  रूप में उतरती है। ऊपर से देखने पर इस पर चलते ट्रक घोंघों की तरह खिसकते नज़र आते हैं इसीलिए इसे  Snail Pass भी कहा जाता है।


तो अब बताइए जनाब इन सड़कों में किस पर विचरण करने का इरादा है आपका...

सोमवार, 4 जुलाई 2011

चित्र पहेली 18 : क्या आपने कभी लगाए हैं सड़क पर 180 डिग्री के इतने चक्कर?

गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ों पर जाने की चाहत किसे नहीं होती?  शहर की चिल्ल पों से दूर पहाड़ों का शांत स्निग्ध हरा भरा वातावरण किसी भी प्रकृतिप्रेमी को अपनी ओर हमेशा से खींचता रहा है। पर पहाड़ों पर जाने से कुछ लोग हिचकिचाते भी हैं, खासकर वो जिन्हें घुमावदार रास्तों में सिर दर्द और वमन की शिकायत हो। पर अगर पहाड़ों का आनंद लेना है तो इसे बर्दाश्त करने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। वैसे कई पर्वतीय स्थलों पर घुमावदार रास्तों से ज्यादा तकलीफ़ नहीं होती क्यूँकि वहाँ घुमावों का का टर्निंग रेडियस ज्यादा होता है। पर कभी कभी जब सड़क एक सौ अस्सी डिग्री का घुमाव लेती हो तो चलाने वालों और सफ़र करने वालों के लिए मुश्किलें बढ़ जाती है।

मुझे याद आता है देहरादून से मसूरी जाते वक़्त दो तीन जगह ऐसे ही घुमाव मिलते थे ।पर ज़रा सोचिए अगर एकदम से ऊँचाई प्राप्त करने के लिए आपको एक सौ अस्सी डिग्री के इतने सारे चक्कर लगाने पड़े तो क्या आपकी एवोमीन काम करेगी?। आज की चित्र पहेली आपको ऐसी ही एक सड़क का चित्र दिखा रही है जो पाँच सौ मीटर की ऊँचाई पाप्त करने के लिए कई बार घूमती है। आज की इस चित्र पहेली नें आपको बताना है कि ये जगह किस नाम से मशहूर है और नीचे बहती नदी का क्या नाम है ?

(इस चित्र के छायाकार का नाम उत्तर के साथ बताया जाएगा।)
जिन्होंने इस रास्ते से सफ़र किया होगा वो तो सहजता से ये बता पाएँगे। आपके जवाब माडरेशन में रखे जाएँगे। अगली पोस्ट में आपके उत्तर के साथ ऍसी ही कुछ दिलचस्प सड़कों की बात करेंगे। तब तक आपको छोड़ते हैं इस चित्र पहेली के चक्करों में...

पुनःश्च  : सही जवाब दिया गजेन्द्र सिंह जी ने। सबसे पहले और प्रश्न के दोनों भागों का एकदम सही उत्तर बताने के लिए आपको हार्दिक बधाई़ !

सोमवार, 27 जून 2011

रामोजी मूवी मैजिक : जहाँ आप भी बन सकती हैं शोले की बसंती !

हैदराबाद यात्रा से जुड़ी इस आख़िरी पोस्ट में आपको ले चलूँगा कृपालु गुफ़ा, भूकंप क्षेत्र और रामोजी मूवी मैजिक की सैर पर। पर फिल्म सिटी पर लिखी गई ये पोस्ट अन्य पोस्टों से कुछ अलग है। रामोजी फिल्म सिटी के बाकी हिस्सों में मनोरंजन हुआ पर मूवी मेजिक देख कर मुझे इस बात का उत्तर मिला कि एक पर्यटक को यहाँ क्यूँ आना चाहिए ?

रामोजी फिल्म सिटी में यूँ तो बस से एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं। पर फिल्म सिटी वाले इस बात पर नज़र रखते हैं कि आप सही जगह उनके बताए रास्ते से जा रहे हैं या नहीं। बस आपको जहाँ छोड़ती है वहीं से वापस नहीं ले जाती। यानि अगर आप किसी जगह जाने की इच्छा ना रहकर ये सोंचे कि यहीं बैठकर थोड़ा सुस्ता लें तो ऐसा रामोजी फिल्म सिटी वाले होने नहीं देंगे। जहाँ बस के बजाए सिर्फ पैदल जाना है वहाँ भी किसी शो को देखने और देखकर निकलने के निर्दिष्ट रास्ते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि आप घूमने की जगहों के आस पास बने व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के अंदर से होकर गुजरें और अगर गुजरेंगे तो दस बीस फीसदी ही सही कुछ लोग तो अपनी जेबें और हल्की करेंगे ही।
हवा महल से नीचे उतरते ही कुछ खूबसूरत शिल्प आपका इंतज़ार करते हैं।

थोड़ी दूर ढलान पर जापानी उद्यान है। वहाँ नृत्य का कार्यक्रम चल रहा था। पर गर्मी अब अपना असर दिखाने लगी थी। ढलती दोपहरी में पहले प्यास से व्याकुल गले को तर करने की इच्छा हो रही थी इसलिए हमने नृत्य देखने में कोई ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। उद्यान से आगे बढ़ने पर बस स्टाप दिखाई पड़ा और साथ ही शीतल पेय की दुकान भी। दो तीन बोतलें आनन फानन में खत्म कर हम बस में चढ़े। बस की यात्रा बस पाँच मिनट की रही। कृपालु की गुफाओं का रास्ता दिखाकर बस वाला चलता बना। आधा किमी पैदल चलने के बाद इस गुफा के दर्शन हुए। गुफ़ा तक जाने वाले रास्ते में ये दृश्य दिखाई देता है।

अंदर गुफा में चट्टानों को काटकर मुखाकृतियाँ बनाई गयी हैं। अंदर बच्चों को तब मजा आता है जब नाग बाबा अपने कमाल दिखलाते हैं।
गुफ़ा से निकल कर हम एक दूसरे बस पड़ाव तक पहुँचे। पास ही बने इस फव्वारे के साथ घोटकों की ये अदा मन को मोहित कर रही थी।

बस हमें वापस फंडूस्तान के पास ले गई जहाँ से हमने अपनी यात्रा शुरु की थी। भूकंप क्षेत्र (Earthquake Zone)में आखिरी शो चल रहा है। हम डरते डरते घुसते हैं। पर्दे पर एक थ्री डी फिल्म शुरु होती है। ऐसा लगता है कि हम जहाज में बैठे हैं और रामोजी फिल्म सिटी से उठाकर हमें इसकी सबसे ऊँची इमारत में ले जाया जा रहा है। ऊपर से फिल्म सिटी का नयनाभिराम दृश्य दिख ही रहा है कि अचानक हॉल में अँधेरा छा जाता है। तड़तड़ाहट की आवाज़ आती है और ऐसा लगता हे कि जिस इमारत में हमें ले जाया गया था वो भरभराकर गिर रही है। टूटती दीवार के दृश्य, तरह तरह की आवाजैं, अगल बगल से निकलते पानी के छींटे इस अहसास को और पुख्ता करते हैं। कुछ मिनटों  में जब ये तिलिस्म खत्म होता हे तो हम थोड़ी देर पहले की अपनी मनोदशा को सोचकर ठठाकर हँस पाते हैं।

अगला पड़ाव रामोजी मूवी मैजिक भी है जो रामोजी फिल्म सिटी का सबसे यादगार हिस्सा है। यहाँ आपको सबसे पहले फिल्म सिटी के इतिहास के बारे में बताया जाता है। दूसरे हिस्से में फिल्मों के दौरान घोड़ों की टाप, बिजली की गर्जना , डरावना संगीत जैसी सुनाई देने वाली तमाम आवाज़ों को जुगाड़ के माध्यम से चुटकियों में कैसे पैदा किया जाता है, ये दिखाया जाता है। अब इन जुगाड़ों का रहस्य को वहीं जाकर देखिएगा। 

मूवी मैजिक के अगले भाग में दर्शकों में से ही एक लड़के और एक लड़की को चुन  लिया जाता है। लड़की को बताया जाता है कि तुमको शोले की वसंती का रोल करना है। हमें लगा कि लड़के से अब ये धर्मेंद्र वाला रोल कराएँगे। पर पता चला कि उस दृश्य में हीरो का कोई काम ही नहीं है। फिर लड़के को क्यूँ लिया है?

सेट पर एक घोड़ा गाड़ी है पर उसमें घोड़ा नहीं है। लड़की यानि वसंती को घोड़ागाड़ी में बिठाकर एक चाबुक हाथ में पकड़ा दिया जाता है। लड़के का काम है पीछे खड़े होकर घोड़ागाड़ी को जोर जोर से हिलाना। लड़के पर कैमरे का फोकस नहीं है। फोकस है वसंती यानि लडकी पर जिसे सिर्फ थोड़ी थोड़ी देर पर चाबुक लहराते हुए कहना है भाग धन्नो भाग और चिंतित मुद्रा में पीछे की ओर देखना है। यहाँ पीछे ना डाकू हैं ना उनके घोड़े। इसी वज़ह से लड़की घबराने के बजाए हँसती चली जा रही है। उधर लड़के के गाड़ी हिलाते हिलाते पसीने छूट रहे हैं। दृश्य रिकार्ड कर लिया गया है और हम दर्शकों को तीसरे कक्ष की ओर जाने का संकेत दे दिया गया है।

असली मैजिक अब शुरु हो रहा है। यहाँ पहले कक्ष में पहले से रिकार्ड की गई ध्वनियों और दृश्यों को दूसरे कक्ष में रिकार्ड की गई फिल्म पर सुपरइम्पोज कर दिया गया है। आकाश में बिजली चमक रही है। पीछे से बादलों के गरज़ने की जुगाड़ वाली ध्वनि मन को दहला रही है। टक टकाक टक.. टक टकाक टक.. तीन डाकू घोड़ों के साथ धन्नों का पीछा करते दिख रहे हैं पर इस शॉट में वसंती कहीं नहीं  नज़र आ रही है। कुछ क्षणों में दृश्य बदलता है। ये क्या! अब वसंती के रूप में दर्शक दीर्घा में बगल में बैठी लड़की नज़र आ रही है। हाँ यहाँ धन्नो नदारद है पर माहौल शोले जैसा ही बनता दिख रहा है। दृश्य खत्म होता है । तालियों की गड़गड़ाहट स्वतःस्फूर्त है।

दर्शकों में से एक हल्के लहज़े में कहता है कि लड़के के साथ बेहद नाइंसाफ़ी हुई है। सारी मेहनत उस की पर पूरे शॉट में वो कहीं नहीं दिखता। उसकी बात सुनकर दर्शकगण ठहाके लगा रहे हैं। प्रस्तुतकर्ता हँसता है फिर गंभीर मुद्रा में कहता है ये शॉट आप लोगों को कुछ सोच समझकर ही दिखाया गया है। दरअसल हम ये बताना चाहते हैं कि फिल्म जगत की यही त्रासदी है मेहनत सब करते हैं पर उन तमाम कलाकारों कैमरामैन, साउंड इंजीनियर, मेकअप मैन, स्टंटमैन, वादकों ,फिल्म एडीटर की मेहनत छुपी रह जाती है। बात सीधे दिल पर लगती है। लगता है कि हाँ इतने पैसे खर्च कर के भी यहाँ आना सफल हुआ।

फंडूस्तान के पास कई भोजनालय हैं। वहीं जलपान कर हम अब वापसी का मन बना चुके हैं। हमारे साथ आए कुछ लोग अभी भी ओपन थिएटर की ओर जा रहे हैं जहाँ साढ़े सात तक संगीत और नृत्य का कार्यक्रम चलना है। निकलने के पहले अंतिम तस्वीर खींचते वक़्त मेरी तस्वीर या कहें मेरे कैमरे की तस्वीर खींच ली जाती है।
हैदराबाद की मेरी इस यात्रा की ये आखिरी कड़ी थी। आपको मेरे व मेरे कैमरे का साथ बिताया ये सफ़र कैसा लगा बताइएगा?
इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ