मंगलवार, 31 जुलाई 2018

मूनलैंड लामायुरु का जादू और अलची का ऐतिहासिक बौद्ध मठ Moonland Lamayuru & Historic Alchi !

फोतुला से लामायुरु की दूरी महज पन्द्रह किमी है पर जिन घुमावों को पार कर आप फोतुला पर चढ़ते हैं उससे भी ज्यादा ढलान का सामना उतरते वक़्त करना पड़ता है। नीचे की ओर उतरते हुए एक बार में ही लामायुरु कस्बा, ऊँचाई पर स्थित मठ और उसके पीछे फैला हुआ मूनलैंड का इलाका जब एक साथ दिखा तो मन रोमाचित हुए बिना नहीं रह सका। थोड़ी ही देर में हम लामायुरु मठ के अंदर थे। रास्ते के घुमावों का असर मुझ पर तो नहीं पर मेरे सहयात्रियों यानि मेरे परिवार पर जरूर पड़ा गया था। उनके लिए थोड़ा आराम जरूरी था। उन्हें पवित्र चक्र के पास बैठा कर मैं ऊँचाई पर बने मठ की ओर चल पड़ा। 

ऊपर हवा तेज थी और वहाँ से चारों तरफ़ का नज़ारा भी बड़ा खूबसूरत था। ऐसी स्थानीय लोगों की मान्यता है कि यहाँ कभी एक झील हुआ करती थी जिसे महासिद्ध नरोपा ने सुखा दिया था। पानी हटने से बाहर निकली पहाड़ी पर नरोपा ने बौद्ध मठ की स्थापना की थी। 

लामायुरू बौद्ध मठ और पीछे देखता मूनलैंड 
लद्दाख में जितने मठों को मैंने देखा उसमें लामायुरु की अवस्थिति सबसे अनूठी है। इसके नीचे की तरफ लगभग सात सौ की आबादी वाला लामायुरु कस्बा है। उत्तर की दिशा में दो विशाल चोटियाँ इसे छत्र बनाकर खड़ी हैं और उन्ही की निचली ढलानों पर चाँद की सतह जैसी ऊँची नीची अजीबोगरीब बनावट वाली भूमि है जिससे आंगुतकों का परिचय मूनलैंड कह के कराया जाता है। मठ से सटी दूसरी पहाड़ी पर यहाँ रहने वाले डेढ़ सौ लामाओं के घर हैं। साथ ही तहलटी पर नंगी पहाड़ियों के बीच फैला है दुबला पतला हरा भरा नखलिस्तान। इतनी भौगौलिक विविधताओं से घिरे इस मठ में इस रास्ते से गुजरने वाला कोई पथिक जाने की इच्छा ना रखे ऐसा संभव नहीं है।




लामायुरू का छोटा सा क़स्बा 

लामायुरु और अलची की गणना लद्दाख के प्राचीनतम बौद्ध मठों में की जाती है। यहाँ लगा सूचना पट्ट इसे दर्शनशास्त्र के विद्वान नरोपा द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी में बनाए जाने की बात कहता है। नरोपा का जन्म बंगाल में हुआ था और बारह साल के गहन ध्यान के बाद उन्होंने हिमालय की इन वादियों की और कूच किया था। 


लामायुरु की महत्ता इस बात में है कि आज भी यहाँ बौद्ध इतिहास के कई प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध हैं। अलची को छोड़ दें तो लद्दाख के इन मठों की आंतरिक सज्जा चटक रंगों से भरी पड़ी है और यहाँ तिब्बत से फैला हुआ तांत्रिक बौद्ध धर्म पूरी तरह पाँव पसारे दिखता है जो कि बिहार और ओड़ीसा के सादे मठों से सर्वथा भिन्न है।
लामायुरू के भगवन बुद्ध 
बौद्ध मठों  में प्रार्थना के दौरान इस्तेमाल होने वाला चिर परिचित दीपक 

जब मैं वहाँ पहुँचा दिन चढ़ चुका था पर बादलों की वजह से धूप का नामो निशान नहीं था। मंदिर के मुख्य कक्ष में वीरानी छाई थी। सुबह की पूजा हो चुकी थी और शाम की होने में अभी वक़्त था। कक्ष में एक लामा बैठा था पर वहाँ उसके रहने का प्रयोजन पूजा पाठ से ज्यादा बाहर से आए पर्यटकों पर नज़र रखना था ताकि वो मठ की गरिमा को बनाए रखें। ऐसे उदासीन माहौल में ज्यादा देर मठ के अंदर रहने का मन नहीं किया और हम बाहर निकल आए। मठ से बाहर निकलते ही मूनलैंड का सारा इलाका और समीप से दिखा और आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं।  

मूनलैण्ड  के दूसरी ओर  की अजीबो गरीब पर्वतीय संरचना
मूनलैण्ड से सटी पर्वतीय संरचनाएँ ऐसी थीं मानो दीमकों ने पहाड़नुमा बांबी खड़ी कर दी हो। मिट्टी के रंग की ये चट्टानें हल्की बारिश की वजह से  बीच-बीच में स्याह हो गई थीं।
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दूसरी ओर मूनलैंड का तो स्वरुप ही अनोखा था। ऐसा प्रतीत होता था कि दो  विशाल पर्वतों की तलहटी में किसी ने तपता हुआ लावा बहने के लिए छोड़ दिया हो और लावे की गर्मी से ऊपरी सतह का रंग बिल्कुल  बदल गया हो।

मूनलैंड को अपलक निहारते हुए मन में भाँँति भाँँति के विचार उठ रहे थे। कैसे बना होगा यह? क्या शुरू से ये ऐसा ही था या फिर लावा की बहती नदी को नरोपा ने अचानक ही मूर्तिवत बन जाने का आदेश दे दिया था ? जो भी हो यह अद्भुत संरचना लामायुरु की ओर पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करने में सहायक रही है।
मूनलैंड की ज़मी की सबसे नजदीकी तस्वीर

लामायुरु और मूनलैण्ड  के बाद हमारा अगला पड़ाव था इस इलाके का सबसे प्राचीन बौद्ध मठ अलची। लामायुरु से अलची तक का रास्ता यहाँँ की प्रसिद्ध सिंधु नदी के किनारे किनारे जाता है।  नदी के नीले जल और अचानक से ठीक सामने खड़े हो जाने वाले पहाड़ इस रास्ते की पहचान हैं। पूरे रास्ते में वनस्पति का एक कतरा भी नज़र नहीं आता। पर रंगों की ये कमी पर्वत अपनी बदलती शक्लों से पूरा कर देते हैं। इनकी रंगत भी चट्टानों की प्रकृति के हिसाब से पीली, भूरी, मटमैली से बदलती हुई कभी हल्की बैंगनी सी हो जाती है।

सिंधु नदी 

लामायुरु से अलची करीब साठ किमी की दूरी पर है। अंतिम चार किमी का सफ़र लेह जाते राजमार्ग के दाहिनी ओर सिंधु नदी को पार करते पुल से होकर जाता है और इसके लिए हमें गाड़ी बदलनी पड़ी। लद्दाख का नियम है कि राजमार्ग पर तो श्रीनगर से आने वाली गाड़ियों को अनुमति है पर अगर मुख्य मार्ग से कटने वाले किसी रास्ते पर जाना हो तो उस इलाके की गाड़ी का इस्तेमाल करना पड़ता है। खैर हमारे ट्रेवल एजेंट ने यह तालमेल बिठाया हुआ था कि वहाँ पहुँचने पर हमें अलची  के स्थानीय होटल मालिक द्वारा लिफ्ट मिल जाएगी। वहाँ पहुँचने  में उन सज्जन को थोड़ा वक़्त लगा पर इस वजह से मुझे  सिंधु नदी की कलकल बहती धरा के साथ कुछ वक़्त बिताने का मौक़ा मिल गया।

अल्ची बौद्ध मठ  का मुख्य मंदिर 
ऐसा कहा जाता है कि अलची का निर्माण तिब्बती मूल के प्रसिद्ध विद्वान रिनचेन जांगपो ने किया था। अलची का बौद्ध विहार तीन मुख्य मंदिरों और छोटे बड़े स्तूपों में बँटा हुआ है। हर मंदिर के बाहर जो काष्ठ शिल्प दिखता है वह बहुत सुंदर है। मंदिर के अंदर यहाँ फोटोग्राफी की मनाही थी। अंदर की दीवारों पर  बेहद रमणीक भित्तिचित्र बनाए गए है। खासकर यहाँ के सुमस्तेक मंदिर(Sumstek Temple) के अंदर दीवार पर उकेरी चित्रकला बेहद मोहक है ।


मंदिर के अंदर घुसने वाला दरवाजा इतना नीचा है कि आप झुके बिना अंदर प्रवेश ही नहीं कर सकते। शायद इसे ऐसा इसलिए बनाया गया होगा कि भगवान के समक्ष शीश झुका रहे। अंदर घुसते ही कमरे का अँधेरा आपको विचलित करता है। जब आंख इस अँधेरे की अभ्यस्थ हो जाती है तब दीवारों पर बने रंग बिरंगे चित्र अचानक से आपको विस्मित कर देते हैं। दरवाजे के ऊपर महाकाल की नीले रंग की आकृति बनी है। मंदिर के अंदर बोधिसत्व के तीन अलग अलग शिल्प हैं। महासिद्धों, बुद्ध के विभिन्न रूपों के आलावा यहाँ तारा और आम जनों के विभिन्न क्रियाकलाप भी चित्रों का विषय बने हैं। चित्रों में दिखते तमाम वस्त्रों के आधार पर ये आप सहजता से कह सकते हैं कि उस ज़माने में मध्य एशिया से जाने वाला व्यापार मार्ग जिसे सिल्क रूट भी कहा जाता था, खूब फल फूल रहा था। 
अल्ची बौद्ध मठ 
मठ के अंदर एक और गौर करने वाली बात यहाँ की सपाट छत है जिसके लकड़ी के बने साँचों में ऐसे डिजाइन बनाए गए हैं जिन्हें देख कर आपको लगेगा कि उनके बीच अलग अलग तरह के कपड़े लगे हैं। इतिहासकार इससे ये अनुमान लगाते हैं कि भिन्न भिन्न कोटि के वस्त्र उस ज़माने में लोगों द्वारा पहने जाते होंगे और चित्रकारों ने उन्ही से प्रेरणा लेकर छतों का रंग रोगन किया होगा। आज बौद्ध धर्म की ये ऐतिहासिक धरोहर लिकिर मठ की देखरेख में है। अगर आप बौद्ध धर्म के वज्रयान संप्रदाय के इतिहास में रुचि रखते हों तो अलची अवश्य आएँ।
छत के ऊपर चढ़ने  की सीढ़ी 
अलची के बौद्ध मठ में आप लद्दाख के गांव में प्रयुक्त होने वाले लकड़ी की इस विशिष्ट सीढी को भी देख सकते हैं जो छतों पर जाने के लिए प्रयोग की जाती है
उत्सवों में पहनी जाने वाली लद्दाखी टोपी 
अलची मठ से बाहर निकलने का रास्ता एक पतली गली से होकर गुजरता है जिसमें सुबह और शाम बाजार लगता है। हजार जनों वाले यहाँ के गाँव में देशी विदेशी पर्यटकों के लिए होटल और रिसार्ट तक बने हुए हैं।
बुद्ध बाज़ारों में 

कश्मीर लद्दाख यात्रा में अब तक 

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9 टिप्‍पणियां:

  1. हम आपको आपकी सिक्किम यात्रा के समय‌ से पढ़ रहे हैं ‌यहां आपकी भाषा शुष्क है

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    1. शुक्रिया अपने विचारों से अवगत कराने के लिए।

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  2. Thanks for sharing the information of this interesting place. I will love to go there.

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  3. Thank you so much for sharing a great information. I appreciate your time and effort in your work. Keep posting.

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  4. यहां पहाड़ मिट्टी के ही दिखाई दे रहे हैं। वनस्पति तो है ही नही। पानी की प्रचुरता है या नही?

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